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स्तन ढकने का अधिकार

Nilesh Vaidh
nileshvaidh149@gmail.com
Sunday, June 30, 2019, 02:53 PM
stan dhakne ka adhikar

स्तन ढकने का अधिकार पाने के लिए केरल में महिलाओं का ऐतिहासिक विद्रोह
केरल के त्रावणकोर इलाके, खास तौर पर वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन 1859 में वहां के महाराजा के अवर्ण औरतों के शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी। अजीब लग सकता है, पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा संघर्ष करना पड़ा।
इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया। नादर की ही एक उपजाति नादन पर ये बंदिषें उतनी नहीं थीं। उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राह्मण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढ़कने से रोकने के कई नियम थे। नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थी। लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था।
नायर औरतों को ब्राह्मण पुरूषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी। एक घटना बताई जाती है जिसमें एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढ़क कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेष दे डाला।
इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुई। 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों के काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदलकर ईसाई बन जाने और यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढ़कने लगी थीं। धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम का अपनाया। इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कोशिश करती रहीं।
यह कुलीन मर्दो को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगें। जो भी इस नियम की अवहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता। अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए स्वर्ण पुरूष लंबे डंडे के सिर पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें।
लेकिन उस समय अंग्रेजों का राजकाज में भी असर बढ़ रहा था। 1814 में ऋावणकोर की दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादन महिलाएं ब्लाऊज पहन सकती हैं। लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च वर्ण के पुरूष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे।
आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति में उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इधर उच्च वर्ण के पुरूषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरों की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी।
सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था। क्यों न होता। आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलांए फूल बरसाती हुई खड़ी रहें। उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को खड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरूष इन दृश्यों का भरपूर आनंद लेते थे।
आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया
कुलीन पुरूषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढ़क नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिन्दू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं।
इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी हैं। विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों दूकानों और सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई। दूसरी तरफ नारायण गुरू और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरूओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया।
मद्रास के कमिश्नर के त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अंशाति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है। अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का उपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं। 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया। कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढ़कने जैसा बुनियादी हक छीन कर लिया।
- संग्रहक - निलेश वैद्य





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