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हड़प्पा संस्कृति-देवासुर संग्राम की कहानी

Nilesh Vaidh
nileshvaidh149@gmail.com
Monday, July 1, 2019, 07:08 AM
Harappa culture

हड़प्पा संस्कृति-देवासुर संग्राम की कहानी
सिन्धु घाटी की सभ्यता का एक और व्यापारिक केन्द्र रावी नदी के तट पर बसा हुआ ‘हड़प्पा नगर’ था। सिन्धु की बाढ़ से मोहनजोदड़ो के तबाह हो जाने और ताप्ती नदी की धारा ‘लोथल’ नगर से दूर हो जाने के फलस्वरूप बंदरगाह का स्वरूप खो बैठने से यही हड़प्पा नगर बंदरगाह व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया जो आर्यो के आगमन तक बराबर विकास करता रहा। हड़प्पा के खुदाई से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर यह जानकारी मिली है कि ये लोग ‘अक्षर’ के साथ ‘संख्या’ को भी लिपिबद्ध करना जान गये थे। इस सभयता के लोगो को द्वा, तीन को त्रि, चार को चो, पांच को पंच, छः को सस, सात को सत्र आठ को अष्ट और नौ को नव कहते थे। वे षिल्पकार को पायसा, बढ़ई को तक्षा, छोटी नाव का त्रपा, बड़ी नाव (जहाज) को त्रिपगा, नाव को कप्तान को शसाका और तौलने के बाट को मसासा कहते थे। वहां की लिपि बाइस व्यंजन और स्वर तथा मात्राओं तक सीमित थी। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व उक्त भाषा कई स्थानों पर प्रयोग में आती रही। यह लिपि ईरानी और ब्राह्यी लिपि के बीच की कड़ी है। बाद में ईरान लिपि और सरल बनती चली गई तथा हड़प्पा लिपि ब्राह्यी लिपि के रूप में विकसित होती गई।
हड़प्पा संस्कृति के 70 प्रतिशत भाषा संकेत सिमेटी भाषा के संकेतों से पूरी तरह मेल खाते हैं। इन दोनों ही भाषा संकेतों के 22 अक्षरों की वर्णमाला के 17 अक्षरों की वर्णमाला के 17 अक्षर दोनों ही भाषाओं में पाये जाते हैं। इस प्रकार भारत का यूरोपीय लिपि से कुछ दूर का सम्बन्ध है। किसी भी भाषा में समय बीतने के साथ इतने बदलाव आ जाता है कि उसे ज्यों का त्यों पहचानना कठिन हो जाता है क्योंकि मानव विवेकशील प्राणी है। वह हर समय सोचता रहता है और सुविधानुसार भाषा और लिपि में कुछ न कुछ संशोधन करता रहता है। जिस प्रकार तमिल भाषा के अक्षर ‘ल’ और फारसी भाषा के अक्षर ‘जे’ के लिए नागरी लिपि में ‘ल’ और ‘ज’ बना लिया गया है। ईराक में 6 हजार वर्ष पूर्व सुमेरी भाषा बोली जाती थी जो बदलकर केकसी भाषा बनी। जो मितेनी भाषा से गुजरते हुए आज अरबी भाषा के रूप में चल रही है। इन सभी भाषाओं के अवशेष पत्थर और मिट्टी की पट्टियों पर कील से लिखकर पकाई गई बहुत सारी पट्टियां के रूप में खुदाई मिल गई है। 
देवासपुर संग्राम की कहानी
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के उत्थान काल में ही अरब में एक शक्तिशाली कबीला ‘असीरी’ या ‘असीरियन’ नाम रहता था। इन्हीं के नाम पर इस देश का नाम ‘असीरिया’ पड़ गया। इनका साम्राज्य मिश्र से ईरान तक फैला हुआ था। असीरिया की सम्पन्नता से आकृष्ट होकर आर्य नामक कबीला इस देश पर हमलावर हुआ। इस कबीले की विशेषता थी कि यह जहां भी कुछ दिन रहता था उस देश का नाम अपने नाम पर बना लेता था जैसे आर्य ब्रजान (अजरवैजान), आर्यमीना (आर्यमेनिया) आर्याना (ईरान) आदि। इस आर्य कबीले से असीरी लोगों का काफी दिनों तक युद्ध चलता रहा। आज से चार हजार वर्ष पूर्व असीरिया वाले आर्यो को भगाने में कामयाब हो गये। आर्यो का कबीला असीरी लोगों से हारकर दो भागों में बंटकर दो दिशाओं में भाग चला। इनमें से एक कबीला भारत की सिन्धु घाटी में जा बसा जिसका नाम इन्होंने आर्यावर्त रखा। इनका दूसा दल पास की पहाड़ियों पर जा बसा जिसका नाम इन्होंने ‘आर्याना’ (ईरान) रखा। ईरान को दो हजार वर्षो तक चलने वाला राजतंत्र अभी हाल में खुमैनी के नेतृत्व में हुए जनविद्रोह द्वारा समाप्त हुआ है। इसके अंतिम राजा मिहिर आर्य पक्का मुसलमान होते हुए भी अपने नाम के साथ अपनी वंश परम्परा के अनुसार ‘आर्य’ शब्द जोड़ते थे। 
ईरान से भागकर भारत आये पारसी आज भी ‘अवेस्ता’ को अपना धर्म ग्रन्थ और ‘अग्नि’ को अपना मुख्य देवता मानते हैं। यही ‘अग्नि’ आर्यो का भी मुख्य देवता है। 
भारत में आर्यो के आगमन के समय मोहनजोदड़ो नगर सिन्धु नदी की प्रलयंकारी बाढ़ में तबाह हो चुका था। व्यापारिक राजधानी हड़प्पा के सुखी सम्पन्न परिवारों के साथ-साथ साधारण परिवार के लोग भी रण-कौशल से अपरिचित थे। क्योंकि इन नगरों की स्थापना के काल से दीर्घ काल बीत जाने तक इन्हें किसी हमलावर से युद्ध करना ही नहीं पड़ा था। इसलिए न तो इनके पास अच्छे हथियार थे और न ही घुड़सवार सेना और न युद्ध का अनुभव ही। जबकि आर्य हमेशा एक दूसरे से लड़ते भागते युद्ध कला में प्रवीण अच्छे शस्त्र लिये हुए घोड़ों परसवार होकर आये थे। अतः बिना किसी विशेष प्रतिरोध, बिना ज्यादा लड़ाई लड़े आर्य हड़प्पा नगर तक पहुंच गये। हड़प्पा नगर में अवश्य घमासान युद्ध हुआ। आर्यो की सेना का नेतृत्व सेनापति इन्द्र बहुत ही चालाक और युद्ध संचालन में कुशल था जिससे बहुत कम समय में ही हड़प्पा नगर पर आर्यो का अधिकार हो गया। इस युद्ध में मारे गये सैकड़ों हड़प्पा वासियों के नर-कंकाल वहां की खुदाई से मिले हैं। इन नगर को जीतने के बाद आर्य समूचे उत्तर भारत के स्वामी बन गये। असीरिया के असीरी लोगों से सालों चला युद्ध और हड़प्पा नगर जीतकर यहां के अन्य नगरों में हुए युद्धों को ही देव (आर्य) असुर (असीरी) संग्राम नाम से ऋग्वेद में अंकित किया गया है। आर्य मुख्य रूप से पशुपालक थे इन्होंने शिल्प और कृषि भारत के मूल निवासियों के लिए छोड़ दी। घुमक्कड़ जीवन बिताने के अभ्यस्त इन आर्यो ने नगर बसाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि इनके प्राथमिक ग्रन्थों में पशुपालन का विवरण तो मिलता है, लेकिन नगरों की चर्चा नहीं है। हड़प्पा के निवासियों और आर्यो की अपनी कोई अलग लिपि नहीं थी। दोनों ही के मूल में सिमेटिक भाषा ही थी जिससे भाषा में कुछ अन्तर होते हुए भी धीरे-धीरे दोनों सभ्यताओं की भाषा एक ही हो गई। आर्यो की अपनी कोई लिपि थी ही नहीं जिससे उन्हें अपनी समस्त कविताएं-रचनाएं आदि रटकर याद रखने पड़ते थे, जबकि आर्यो के अपने से पहले भारत में ब्राह्यी लिपि का विकास हो चुका था, जो पहाड़ों की सीमा लांघकर तिब्बत तक पहुंच गयी थी। यह ब्राह्यी लिपि भारत में आर्यो के आगमन के बाद भी बहुत दिनों तक चली रही। कहीं-कहीं तो आज से दो हजार दो सौ वर्ष पूर्व तक ब्राह्यी लिपि का ही प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। मध्य प्रदेश में भोपाल में 22 कि.मी. दूर नंदौर गांव के टीले की खुदाई में दो हजार दो सौ वर्ष पूर्व ब्राह्यी लिपि में ढले हुए तांबे के सिक्के मिले हैं। यहीं पर कुछ ऐसे सिक्के भी प्राप्त हुए हैं जिनमें दबाव देकर भी लिपि उभारी गई है।
- संग्रहक - निलेश वैद्य





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