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 कांग्रेस स्थापना से लेकर विनाश तक

TPSG

Wednesday, August 14, 2019, 08:38 AM
Congress

    कांग्रेस स्थापना से लेकर विनाश तक
    कांग्रेस का जन्म
    सन् 1885 में एक आई.सी.एस. पुत्र ए.ओ.ह्यूम ने कांग्रेस का निर्माण किया था, इसलिए नहीं कि उसे अंग्रेज सरकार का विरोध करना था, बल्कि जो अंग्रेजों के विरोध में आवाज उठा रहे थे उसको दबाने के लिए तथा क्रांतिकारी कदमों को रोकने के लिए उसके समानांतर कांग्रेस का निर्माण किया गया था।
    अंग्रेजों के चमचे तथा विरोधी ब्राह्मण
    इस संगठन से जुड़े हिन्दुस्थानियों (स्वर्णों) की संगठनात्मक मजबूरी थी, अंग्रेजों का स्तुतिगान करना। इन लोगों में गोपाल कृष्ण गोखले (गांधी के गुरू) तथा फिरोज शाह मेहता जैसे नरमपंथी मनुवादी शामिल थे।
    एक दशक बाद कांग्रेस में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपिन चंडपाल जैसे उग्रपंथी नेताओं का पर्दापण हुआ जिन्होंने ब्रिटिश सरकार का       विरोध किया। ये तीनों नेता लाल-बाल-पाल के नाम से मशहूर हुए। हमें अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होकर अपना स्वयं का राज्य यानी ‘स्वराज्य’ लेना है। बाल गंगाधर तिलक ने तो ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ के मंत्र का जाप किया। उन्होंने अपनी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को तेज कर दिया, किंतु उस दौरान जो आंदोलन बहुजन समाज के लिए चलाए जा रहे थे, उसे कांग्रेस ने दबाने का भरपुर प्रयास किया।
गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का विकास
    तिलक के बाद कांग्रेस को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी गांधी के हाथ में आ गई। गांधी ने कांग्रेस को सर्वाधिक लोकप्रिय बनाया और उसके नेतृत्व में फिर देश अंग्रेजों से आजाद हुआ।
    गांधी के नेतृत्व में स्वयं गांधी और उसकी कांग्रेस लोकप्रिय होती चली गई, लेकिन इसके साथ ही दलित/शोषित बहुजन समाज के लोग जातिवाद और शोषण की चक्की में पीस रहे थे उनके प्रति गांधी और उसकी कांग्रेस पूरी तरह उदासीन थी। गांधी ने कहा था - ‘पहले देश आजाद हो जाए फिर बाद में हम दलितों की समस्याओं पर विचार करेंगे।’
गांधी इतिहास के पन्नों का काला हिस्सा
    एक ओर दरअसल गांधी दलित बहुजनों की समस्याओं से छुटकारा पाना चाहते थे, तो दूसरी ओर उच्चवर्णियों को नाराज भी नहीं करना चाहते थे। उच्चवर्णियों का हमेशा से ये चरित्र रहा है कि सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए दान-दक्षिणा का नाटक करो। भिखारियों को सदा भिखारी बनाए रखने के लिए भोजनदान दो लेकिन अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दलित/आदिवासियों को खूब मारो-पीटो उन्हें भूखा-नंगा रखो। यह सब नाटक करते हुए पाखंडी गांधी ने अपने आप को सभी से बचाते हुए अपनी राजनीतिक यात्रा पुरी की और बहुजनों की भलाई के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों को दबाने के लिए गांधी जब-जब अग्रसर रहे तब-तब वे इतिहास का काला हिस्सा बनते चले गए जो आज पूरी तरह उजागर हो रहा है।
गांधी का अस्पृश्यता निवारण आंदोलन ओर पेरियार का कांग्रेस से इस्तीफा
    तमिलनाडु में पेरियार  रामास्वामी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे, उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय राजगोपालाचारी को था। यद्यपि पेरियार कांगे्रस में थे, किंतु वे दलितों और पिछड़ों का भला करना चाहते थे, लेकिन गांधी की बहुजन विरोधी भूमिका से उनका दिल टूट गया।
    मद्रास (चेन्नई) में भारद्वाज नाम का आश्रम स्कूल है। इस गुरूकुल में ब्राह्मण और पिछड़े छात्र साथ-साथ तो पढ़ते थे, लेकिन उनके लिए भोजन कक्ष अलग-अलग थे, ये जानकारी जब पेरियार को मिली तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि कांग्रेस तो अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम चला रही है और यहाँ इस प्रकार का भेदभाव है, उन्होंने गांधी से मुलाकात कर इस समस्या को पेश किया। चालाक गांधी ने इसका हल इस तरह से निकाला।
    गांधी ने कहा - ‘दोनों वर्गों के छात्रों के लिए एक ही भोजन कक्ष रख देते हैं, केवल खाना बनाने वाला रसोईया ब्राह्मण होगा। ब्राह्मण छात्रों को गैर-ब्राह्मण के हाथ का खाना पड़ेगा। विवाद खत्म हो जाएगा। दोनों शांत हो जायेंगे। ये था गांधी के तरीके का समाधान, पेरियार की समझ में आ गया कि गांधी का अस्पृश्यता निवारण आंदोलन किस तरह का है, उनकी आस्था गांधी और उसकी कांग्रेस से हिल उठी।
    दूसरा प्रसंग कोचीन राज्य में वैकोम स्थान पर बनाये गये मंदिर में ब्राह्मणों का अधिकार था। मंदिर अदालत परिसर में था, इस कारण एक बार इइवा जाति के वकील माधवन के प्रवेश करने पर ब्राह्मण ने उसके साथ दुव्र्यवहार किया। इसके खिलाफ पेरियार के नेतृत्व में आंदोलन किया गया। मई 1925 को पेरियार से गांधी मिले उन्होंने उनसे आंदोलन खत्म करने को कहा जिसमें गांधी ने तर्क दिया कि हमें ब्राह्मणों से टकराव की स्थिति पैदा नहीं करना चाहिए। मंदिर में अछूतों के प्रवेश पर जोर नहीं देना चाहिए।
    इसी समय कांजीवरम में कांग्रेस का अधिवेशन संपन्न हुआ, इसके लिए पेरियार में एक मसविदा तैयार करके सम्मेलन में प्रस्तुत किया। जो ब्राह्मणों को उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण के संबंध में था, लेकिन कांग्रेसियों ने प्रस्ताव अधिवेशन में रखने नहीं दिया। वे अध्यक्ष से बार-बार प्रस्ताव रखने की अनुमति मांगते रहे, जिस पर कांग्रेसी गुंडों ने अधिवेशन में आए अछूतों पर पत्थर लाठियाँ बरसायी जिससे सैकड़ों अछूत घायल हो गए।
    लेकिन बाद में कांजीवरम और गुरूकुल आश्रम की घटना से पेरियार का गांधी और उसकी कांग्रेस से विश्वास उठ गया, और क्षुब्ध होकर पेरियार ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद कांग्रेस से अलग द्रविड़ आंदोलन चलाया।
    गांधी और उसकी कांग्रेस ने बाबा साहब की राह में अवरोध खड़ा किया
    बाद में व्यापक एवं समग्र रूप से डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर ने बहुजनों के आंदोलनों को उठाया, किंतु उनके आंदोलन में अवरोध खड़े करने का काम कांग्रेस ने किया। गांधी और कांग्रेसी पग-पग पर बाबासाहब को परेशान करने लगे।
    1930 में डाॅ. आंबेडकर ने कालाराम मंदिर का आंदोलन किया, उन्होंने कहा जब हम हिन्दू है, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं तब हमारे साथ भेदभाव क्यों? मंदिर प्रवेश पर पाबंदी क्यों? ऐसे ही मिलते-जुलते बोल भगतसिंह के थे कि - ‘‘क्या खूब चाल है! पूजा करने के लिए मंदिर बना है, लेकिन वहाँ अछूत जा घुंसे तो वह अपवित्र हो जाता है!‘‘ किंतु सवर्णों ने उनकी दलिलों को खारिज कर दिया और आंदोलनकारियों पर पत्थर बरसाये। उस पथराव में नासिक जिले का कांग्रेसी अध्यक्ष भी शामिल था।
    दम्भ गांधी की मुँहजोरी
    जब बाबासाहब की मुलाकात गांधी से हुई थी तब गांधी ने बाबासाहब से मुँहजोरी की कि ‘‘तुम अस्पृश्यता की बात करते हो, मैंने आपके पैदा होने से पहले ही अस्पृश्यता निवारण का कार्यक्रम शुरू कर दिया था, ‘‘जवाब में उन्होंने कहा कि ‘‘इस बात को कौन नकार सकता है कि आप मुझसे पहले पैदा हुए। यह तो प्राकृतिक प्रक्रिया है। कांग्रेस का कार्यक्रम अस्पृश्यता निवारण नहीं, बल्कि जनता को अपने पक्ष में करने का है। गांधी से उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए आपने खादी की शर्त रखी वैसी शर्त मैं अस्पृश्यता का पालन नहीं करूंगा’’ ऐसी क्यों नहीं रखी।
    लेकिन गांधी और उसकी कांग्रेस ने बाबासाहब की बात को नहीं माना और मुँहजोरी पर उतर आए। 30 जनवरी 1930 को हुए गोलमेज सम्मेलन में डाॅ. आंबेडकर एवं जिन्ना शामिल हुए किंतु गांधी शामिल नहीं हुआ।
    सितंबर 1931 को द्वितीय गोलमेज परिषद का सम्मेलन हुआ, जिसमें गांधी ने फिर बाबासाहब से मुँहजोरी की कि ‘‘मैं अछूतों का सर्वमान्य नेता हूँ, क्योंकि मैं काफी पहले से अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम चला रहा हूँ, इसलिए अछूतों का प्रतिनिधित्व मैं ही करूंगा। बाबासाहब पेशोपेश में पड़ गए। ये गांधी मुझे चैन से नहीं रहने देगा। आखिर डाॅ. आंबेडकर जी ने इंग्लैंड से एक प्रेसनोट जारी किया कि गांधी अछूतों के नेता नहीं है। मैं जन्म से अछूत हूँ। मैंने स्वयं अछूतों के दुःख दर्द भोगें है। अछूतों का जीवनयापन एवं असहनीय पीड़ा का मुझ अहसास है, क्योंकि वे कष्ट मैंने स्वयं जीवनभर उठाए है। गांधी को अछूतों के दुःख दर्द का अहसास नहीं है। इस पर गांधी ने बाबासाहब को मक्कारी और चालाकी भरा उत्तर दिया कि मैं जन्म से अछूत नहीं हूँ, लेकिन स्वभाव से अछूत हूॅ। बाबासाहब इस बात पर बड़े नाराज हुए। भारत में रह रहे सभी दलितों ने बाबासाहब की बात पर गौर किया और उन्हंे ही अपना (अछूतो) का नेता मान लिया। गांधी को इससे बड़ा आघात हुआ। बाबासाहब ने दलितों के संबंध में जो मांगे रखी खिसियाये गांधी ने सभी का विरोध किया।
    गांधी हताश होकर जहाज से रवाना हुए। यात्रा के दौरान जब रोज में रूके तो उनसे पत्रकारों ने पूछा कि अब आपका भारत जाकर कार्यक्रम क्या होगा, तब गांधी ने जवाब दिया कि ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ शुरू करूंगा।
    31 दिसंबर 1931 को ज्यों ही गांधी भारत पहुंचे तो अंगे्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करके पूना के यरवदा जेल में डाल दिया।
    कम्यूनल अवार्ड घोषित
    इस बीच 17 अगस्त 1932 को कम्यूनल अवार्ड घोषित किया गया। डाॅ. आंबेडकर की अंग्रेजों ने पृथक निर्वाचन की प्रणाली को अंग्रेजों ने स्वीकार किया, जिसके तहत उन्हें 78 सीटें मिली। संविधान की कुल 780 सीटें थी। देश के कुल 78 निर्वाचन क्षेत्र से दलितों के ही उम्मीदवार होंगे। उन्हें केवल दलितों के ही मतदाता वोट देंगे। दूसरे नहीं इसके अलावा उन्हें सामान्य सीटों पर भी वोट देने का अधिकार प्राप्त होगा।
    महात्मा गांधी ने खलनायक की भूमिका निभाई
    गांधी ने इस निर्वाचन प्रणाली के विरोध में यरवदा जेल में आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। यह अनशन दलितों के खिलाफ था। जिस अधिकार से दलितों की दशा, उनकी तकदीर बदलने वाली थी, उन्नति के द्वारा खुलने वाले थे उन्हीं अधिकारों के खिलाफ गांधी आमरण अनशन पर बैठ गए। बाबासाहब की इस बात से कि मुझे बिजली के खंबे पर भी लटका दिया जाएगा तो भी मैं इस अधिकार को छोड़ नहीं सकता, पूरे देश में भूचाल आ गया। अपने आप को अहिंसा का पूजारी बताने वाले तथाकथित महात्मा ने दलितों के अधिकारों के खिलाफ आत्महत्या की धमकी दे दी। स्थिति तनावपूर्ण बना दी गई। जगह-जगह दलितों पर स्वर्ण कांग्रेसी गुंडे जुल्म ढ़ाने लगे। बाबासाहब के खिलाफ कांग्रेसी स्वर्णों ने स्थिति इतनी विस्फोटक बना दी कि बाबासाहब को मजबूरी वश गांधी के सामने भारी मन से झुकना पड़ा। इस नाटक का अंतिम मंचन 25 सितंबर 1932 को हुआ। पूना के यरवदा जेल में डाॅ. आंबेडकर और गांधी के बीच समझौता हुआ जो पूना पैक्ट के नाम से कुख्यात है। इस पैक्ट में पृथक निर्वाचन को बदलकर संयुक्त निर्वाचन कर दिया गया। इस तरह गांधी के प्राण बचाकर बाबासाहब ने अपनी महानता सिद्ध की तो गांधी ने अपनी खलनायकी।
    गुलामों की जननी बना पूना पैक्ट से दलितों का भारी नुकसान
    इससे दलितों का बड़ा जबरदस्त नुकसान हुआ, क्योंकि इसके तहत वही लोग चुनकर आने लगे जो स्वर्णो के तलुए चाटने में माहिर थे। समाज की दलाली करके दलितों को मनुवादी कसाइयों के सामने बकरों की तरह हलाल करने के लिए भेजा जाने लगा। दलितों को बेचकर जो अपना घर भरेगा, ब्राह्मणवादी पार्टियाँ उनको ही टिकट देगी। ये दलितों के दुश्मन, समाज के गद्दार दलितों की बहुबेटियों के साथ बलात्कार होने पर दांत निपारेंगे। बल्कि लड़की पर ही आरोप लगा देंगे कि लड़की बदमाश रही होगी। दलितो/आदिवासियों पर होने वाले जुल्म ज्यादतियों पर वे थाने जाकर समझौता करायेंगे और माल कमायेंगे। ऐसी भडुए, दलालों, चमचों, बेईमानों और गुलामों की जननी हो गया पूना पैक्ट।





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