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कश्मीरी पंडित

TPSG

Friday, August 16, 2019, 04:01 PM
Kashmiri Pandit

भारत में देशव्यापी दंगों की बात की जाए तो *सिख विरोधी दंगा 1984* एकमात्र सबसे बिभत्स देशव्यापी दंगा था जब इस देश के बहुसंख्यकों ने पूरे देश में सिखों को ना सिर्फ़ मारा बल्कि उनकी उनकी दुकानों उनके व्यवसाय को जला कर राख कर डाला।

दिल्ली इसका मुख्य केन्द्र था जहाँ लगभग 2500 सिखों को घेरकर मार दिया गया। ट्रक के टायरों में सिखों को डाल कर बाँध कर जला दिया गया। और ऐसे ही पूरे देश में हुआ, जहाँ जहाँ सिख थे वहाँ वहाँ ये हुआ।

कभी आपने सुना है कि सिखों ने अपने उन शहरों और अपने घरों को छोड़कर किसी सुरक्षित जगह चले गये और सरकारी मदद पर ऐश कर रहे हैं? 

नहीं सुना होगा! क्युँकि सिखों ने इस हिंसा को झेला और वहीं रहे , जद्धोजहद किया, कानूनी लड़ाई लड़ी और उसी जगह अपने कारोबार को फिर से खड़ा कर दिया।

ना आपको उनका आज शरणार्थी कैम्प मिलेगा, ना हराम के सरकारी मुआवजे और भत्ते के भरोसे विलासितापुर्ण जीवन जी रहे हैं। *उनका जो नुकसान हुआ उसके बदले सरकारों ने 1% भी मुआवजा उनको नहीं दिया।*

इसी देश में दलितों पर हज़ारों साल के आत्याचार का इतिहास रहा है, पर वह भी ना तो अपना घर और ना अपना गाँव और ज़मीन छोड़कर विस्थापित हुए ना लक्षमणपुर बाथे जैसे दलित नरसंहार के बावजूद एक भी शरणार्थी कैम्प कहीं लगाए।

वह अपनी ज़मीन पर डटे रहे , राजनैतिक और शैक्षणिक रूप से मज़बूत हुए और आज भी अपनी मेहनत के बलबूते जीवन गुज़ार रहे हैं।

आपको एक भी ऐसे कैम्प का उदाहरण नहीं मिलेगा जहाँ अत्याचार के डर से दलित सरकारी मलाई खाकर 38 साल से ऐश कर रहे हैं।*

मुसलमानों की बात की जाए तो सांप्रदायिक दंगों का दंश जितना इस संप्रदाय के लोगों ने झेला है उतना किसी ने नहीं झेला। 1947 से लेकर आजतक वाराणसी, मेरठ, मलियाना, हाशिमपुरा, मुरादाबाद, मुज़फ्फरनगर, सूरत, गुजरात, मुंबई, भागलपुर जैसे ना जाने कितने दंगों के बावजूद कोई एक ऐसा कैम्प आपको आजतक नहीं मिलेगा जहाँ सरकारी सुविधाओं, मुआवजा, भत्ता और नौकरी में कोटा पाकर यह दंगा पीड़ित विलासितापुर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हो।

दंगों के समय कुछ राहत शिविर बने, पर यह लोग फिर वापस उसी ज़मीन और घर की ओर लौट गये और वहीं अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, कमा रहे हैं और खा पी रहे हैं।

इन उपरोक्त घटनाओं के मुकाबले *कश्मीरी पंडितो* ने तो कुछ नहीं भोगा, कश्मीर में सन 1989 के बाद जब आतंकवाद का उभार हुआ तो उसकी चपेट में सब आए, गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद का तो अपहरण हो गया था जबकि वह काश्मीरी थी। चरारे शरीफ दरगाह को तो आतंकियों ने जला दिया जबकि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के "बाल" रखने वाली "हज़रत बल दरगाह" जैसी प्रतिष्ठित कश्मीरी धार्मिक दरगाहों के साथ क्या हुआ?  20 मार्च 2000 चित्तीसिंघपोरा में होला मोहल्ला मना रहे 36 सिखों की गुरुद्वारे के सामने आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। 

यह सब लोग वहाँ से नहीं भागे, ना विस्थापित के नाम पर सरकारी सुविधाओं को लेकर ऐश कर रहे हैं, बल्कि वहीं हैं और अपनी मिट्टी से जुड़े हुए हैं, पर *कश्मीरी पडितों* को देखिए!

कश्मीरी पंडित भी आतंकवाद और आतंकवादियों के शिकार हुए, जो निंदनीय है ही, हिंसा किसी के भी साथ हो, निंदनीय है। पर जब भी कश्मीर की बात होगी तो सिर्फ कश्मीरी पंडितों को ही पीड़ित बता कर कश्मीर में जो हो रहा है उसका बचाव किया जाएगा यह भी उचित नहीं।

कश्मीर के आतंकवाद में सब झुलसे पर मलाई खाई *"काश्मीरी पंडितों" ने।* _जिस दिल्ली में सर छिपाने के लिए 4 फिट जगह मिलनी मुश्किल है वहाँ इनको मुफ्त में कालोनियाँ दी गयीं, "काश्मीर भवन" जैसी जगहों पर घर दिए गये, मुआवजे दिए गये, नौकरी में कोटा दिया गया, पेंशन दी गयी, सरकारी भत्ते और मुफ्त में राशन दिए गये और यह 38 साल से यह सब पाकर ऐश कर रहे हैं।

जम्मू हो या दिल्ली या देश की दो चार और जगहें जहाँ इनको सरकारी मदद देकर बसाया गया और दामाद की तरह रखा गया उन जगहों पर जाकर देखिए, *यह आपको शरणार्थी नहीं लगेंगे।*

*हाथों और गले में सोने की चैन और मुट्ठी में ऐपल आईफोन लेकर शरणार्थी और पीड़ित बनने का इनका ढोंग बंद किया जाये और जब काश्मीर में धारा 370 समाप्त हो गयी तो इनको मिलने वाली सभी सरकारी सुविधाएँ बंद करके वापस इनके पुश्तैनी घरों को भेजा जाय।*





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