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मनुस्मृति और भारतीय संविधान

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Wednesday, August 14, 2019, 08:15 AM
Manusmrati

    मनुस्मृति और भारतीय संविधान
    मनुस्मृति में चारों वर्णों के लिए जन्म से लेकर कानून ही अलग-अलग नहीं है, बल्कि उनके नियमित संस्कार भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। मनुस्मृति के अनुसार जन्म का संस्कार केवल द्विज जाति के लिए है, शूद्र के लिए नहीं।
    गार्मे हों मैं जाती कर्म चैडमोन्जी निबन्धनैः,
    बैजिंक गार्भिक चैनी द्विजानामय मूज्यते। 2-27
    अर्थात-गार्भिक (गर्भ की अशुद्धि को शुद्ध करने के लिए हवन आदि क्रिया को गार्भिक कहते हैं) जात कर्म चुड़ा (मुण्डन) और उपनयन (जनेऊ धारण करना) संस्कारों के करने से द्विज जाति के बैजिक और गर्भ सम्बन्धी दोष दूर होते हैं। इसका अर्थ है कि यह दोष दूर करने का अधिकार द्विजों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को ही है शूद्रों को नहीं। मनुस्मृति और भी उच्च वर्ण और शूद्रों के संस्कारों की भिन्नता का स्पष्ट उल्लेख करती है। देखिए -
    वैदिकेंः कर्मभिः पुण्यै निषेकादि द्विजन्मनाम,
    कार्यः शरीर संस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च। 2-26
    अर्थात- द्विजातियों को गर्भाधान आदि शरीर सम्बन्धी संस्कार वैदिक रीति से करना चाहिए जिससे इस लोक और परलोग दोनों जगह पापों का विनाश होता है। अर्थात - द्विजाति को पाप विनाश कर जीवन जीना चाहिए और शूद्रों को पाप लदी जिन्दगी जीना चाहिए क्योंकि उसे संस्कारों का अधिकार नहीं है।
ओर भी -
        ब्राह्मण कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धु मनामयम्,
        वैश्य क्षेम समागम्य शूद्र मारोग्य मेव च। 2-127
    अर्थात - जब साक्षात्कार हो तो ब्राह्मण से कुशल, क्षत्रीय से निरामय, वैश्य से क्षेम तथा शूद्र से निरोग्यता पूछें। यानी शूद्र से निरोग्यता इसलिए पूछें क्योंकि वह निरोग्य रहकर ही सेवा कर्म कुशलता पूर्वक कर सकता है।
    शूद्र को मनुस्मृति पढ़ने पर रोग लगाई गई है। देखिए -
        निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैस्योस्योदिलै विधिः,
        तस्य शास्त्रेेऽधिकारोऽस्मिज्ञे यो नान्यस्यकस्यचित । 2-16
    अर्थात -  जिन (द्विजों) को जन्म से मरण तक सब संस्कार करने की विधि बताई गई है वे ही इस मनुस्मृति को पढ़ सकते हैं। शूद्र और दूसरे धर्म के लोग इसे न पढ़े। वाह रे मनु जी ठीक कहा है, शूद्र कहीं तुम्हारी करतूत पढ़कर तुम्हारी इस करतूत के विरूद्ध बगावत न कर दें।
    मनुस्मृति का उपरोक्त कानून भारतीय संविधान की धारा-14, 15, 16 और 17 का स्पष्ट उल्लंघन है। इन धाराओं में भारत के हर व्यक्ति को बिना किसी जाति-पांति और भेदभाव के विरूद्ध ही इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 51 में किया गया है। इस प्रकार मनुस्मृति की व्यवस्थाएं भारतीय संविधान के विरूद्ध है। संविधान की दृष्टि में हर व्यक्ति का सम्मान बराबर है चाहे वह किसी जाति व धर्म का व्यक्ति हो किन्तु मनुस्मृति कुछ और ही कहती है - 
    विधाणां ज्ञान तो ज्येढ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः,
    वैश्याना धान्यधनंतः शूद्राणां मेव जन्मतः।
अर्थात: ब्राह्मण का ज्ञान से, क्षत्रियों का वीरता से, वैश्यों का धन-धान्य से तथा शूद्र का बड़प्पन जन्म से होता है। अर्थात शूद्र के लिए ज्ञानबल, बाहुबल और धन बल की कोई आवश्यकता ही नहीं है, उसका बल तो मात्र गुलामी ही है। मनुस्मृति के अनुसार बड़प्पन वर्णानुसार है उम्र का आदर भाव से कोई सम्बन्ध नहीं है। देखिए -
    ब्राह्मणंदश वर्धतु शत वर्षतु भूमिषम्,
    पिता पुत्रों बिजानीयाद ब्राह्णास्तु लयो पिता।
अर्थात: ब्राह्मण 10 वर्ष का और क्षत्रीय 100 वर्ष का पिता-पुत्र के समान है जिनमें ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय पुत्र के समान है। सच बात तो यह है कि 10 वर्ष का बालक तो अबोध होता है, वह 100 वर्ष की आयु वाले की तुलना में कुछ भी नहीं जानता है फिर भी चूंकि बा्रह्मण 10 वर्ष का भी पूज्य है इसलिए वह 100 वर्ष के क्षत्रीय का बाप बना दिया गया। मनु की यह व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 51 (स) के विरूद्ध है।
    जातिगत असमानता मनु के अनुसार हर जगह है जबकि संविधान कहता है कि न्याय की दृष्टि से हर व्यक्ति समान है। यहां भी मनुस्मृति संविधान विरोधी है। देखिए -
    बूहीति ब्राह्मण पूच्छेसत्य बूहीति पार्थिवम्,
    गोबीज कान्चनैवैश्य शूद्र सवैस्तु पातकें। 8-88
अर्थात: ब्राह्मण गवाह से केवल इतना पूछे कि ‘कहो’, क्षत्री से पूछें ‘सत्य कहो’, वैश्य को गौ बीज और सोन चुनाने के पाप की शपथ दिलाकर पूछें तथा शूद्र से सब पापों की शपथ दिलाकर गवाही के लिए कहंे। इस तरह मनुस्मृति के अनुसार में न्यायायलय में भी जाति और वर्णगत असमानता है। जो संविधान की धारा 51(ए) के विपरीत है।
    मनुस्मृति में ऋण वसूल करने का तरीका वर्णो के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से बताया गया है।
    यथा-कर्मणापि सम कुर्याद धनिकायाधमणिकः,
    समोऽवकृष्ट जातिस्तु दशाच्छयास्तु तच्छनैः। (8-177)
अर्थ - यदि उत्तम जातिका व्यक्ति किसी महाजन का ऋणी है तो महाजन की सेवा न कर थोड़ा-थोड़ा करके ऋण चुका दे और यदि कोई नीच जाति का व्यक्ति या उसका सजातीय किसी महाजन का ऋणी है तो उसका काम (सेवा) करके ऋण चुका दे। (मनु की यह व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद-14 का स्पष्ट उल्लंघन करती है)
    मनुस्मृति ब्राह्मणों द्वारा शूद्र का धन जबरन छीन लेने का प्रावधान               उप-बन्धित करती है। देखिए - 
    यो वैश्यः स्याद बहु पशुहीनऋतुरसोमय,
    कुटुम्बा तस्य तद द्रव्यमाह रेधज्ञ सिद्धये। 11-12
अर्थ - यदि धर्म परायण राजा के रहते हुए यज्ञ करते वाले ब्राह्मणों का एक अंग से अपूर्ण हो जाए तो जिस वैश्य के पास अधिक पशु हों और जो यज्ञ से हीन हो तथा होम न किया गया हो तो उस वैश्य के कुटुम्ब से उसका धन यज्ञ पूर्ति के लिए ले लें।
    और भी -
    आहारे स्त्रीणिवाद्वेवा कामं शूद्रस्थ वेश्मनः
    न हि शूद्रस्य यज्ञेषु कश्चिदस्ति परिगृहः।
अर्थात - यदि यज्ञ का दो या तीन भाग शेष रह जाय तो उसकी पूर्ति के लिये शूद्र का धन बलपूर्वक छीन ले क्योंकि शूद्र का यज्ञ से किसी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं है।
    और भी - आदान नित्याच्चादातु राहरेद प्रयच्छतः,
    तथा यथोऽस्य प्रथते धर्मश्चैव प्रवर्तते।
अर्थात - यज्ञ के लिए यदि शूद्र धन मांगने पर भी न देवें तो उसका धन ब्राह्मणों द्वारा छीन लेना चाहिए। इससे धन छीनने वाले के यश और धर्म दोनों में वृद्धि होती है। और भी -
    यद्धन यज्ञ शीलानां देवस्यं तद्वि दुर्वुधाः,
    अयज्वनां तु यद्वित्तमा सुरस्वं तदुच्यते। 11-20
अर्थात् - ब्राह्मण पंडित लोग यज्ञ करने वालों के धन को देवधन और यज्ञ न करने वालों के धन को असुरधन कहते हैं।
    और भी - न तस्मिन्धाययेद्धण्डं धार्मिकः पृथिवी पतिः,
    क्षत्रियस्य हि वालिस्याद ब्राह्मणः सीदति क्षुधा। 11-21
अर्थात- ऐसे धन की (जो यज्ञ न करने वालों का है) चोरी हो जाने पर धार्मिक राजा दण्ड न दे क्योंकि राजा की मूर्खता के कारण ही ब्राह्मण भूख से कष्ट पाते हैं। मनुस्मृति में भिन्न-भिन्न जातियों के लिए भिन्न-भिन्न कानून है। 
देखिए - वाणिज्य कारयेद्वैश्य कुसीदं कृषि मेव च।
        पशूना रक्षणं चैव दास्यं शूद्र द्विर्जन्मनाम्।। 8-410
        वैश्य शूद्रों प्रयत्नेन स्वानिकर्माणि कारयेत्।
        तौहि च्युतो स्कमैभ्यः क्षोभयेतामिदं जगत।। 8-418
अर्थ - राजा को चाहिये कि वह वैश्य से वाणिज्य, खेती और पशु पालन कराए तथा शूद्र से तीनों वर्णों की सेवा कराए।
    राजा वैश्य और शूद्र से उनकी वृत्ति प्रयत्न पूर्वक कराए क्योंकि वे अपने कर्मों से च्युत होकर सारे संसार को क्षुब्ध कर देंगे। मनु की उपरोक्त व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 व 25 के प्रावधानों के विरूद्ध है।
    और भी -
    करूकान्छिल्पिनश्चैव शूद्रांश्चात्मोपजीविन,
    एकैक कारयेत्कर्म मासि मासि महीपतिः। 7-138
अर्थात - कारीगरी करके जीविका उपार्जन करने वाले लोहार, बेलदार और बोझा ढोने वाले मजदूरों से कर स्वरूप महीने में एक दिन वेगार कराएं।
    वेगार लेना संविधान की धारा-23 के विरूद्ध है। मनु ने जो व्यवस्था भिन्न-भिन्न वर्णों, जातियों से पुरूषों के लिए भिन्न-भिन्न की है, जो उसी भांति भिन्न-भिन्न वर्णों की स्त्रियों के लिए भी भिन्न-भिन्न व्यवस्था दी है। देखिए -
    गुरूवत्प्रतिपूज्या स्यु. सवर्णा गुरूयोषितः,
    असवर्णास्तु संपूज्याः प्रत्युत्थानामिवा दिनैः। 2-210
अर्थात - यदि गुरू (ब्राह्मण) की स्त्री स्वर्णां हो तो गुरू के समान ही पूजनीय है। यदि असवर्णा हो तो अभिवादन से उठकर सम्मान करना चाहिए। यह भारतीय संविधान की धारा-15 का स्पष्ट उल्लंघन है।
    इस प्रकार मनुस्मृति में जो व्यवस्था दी गई, वह भारतीय संविधान के बिल्कुल विपरीत है। भारतीय संविधान किसी जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग और क्षेत्र का भेदभाव किए बगैर सबको अवसर की समानता देता है। देश का प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह महिला हो या पुरूष या किसी भी वर्ण या जाति का हो अपनी रूचि व योग्यता के मुताबिक कोई भी व्यापार या जीविकोपार्जन के साधन अपना सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र सभी के लिए समान रूप से खुले हैं। इतना ही नहीं भारतीय संविधान में यह भी निहित है कि जिस समाज, जाति, वर्ग या समुदाय को ऐतिहासिक तौर सामाजिक व्यवस्था के तहत पिछाड़ा गया है, उसे मुख्यधारा में शामिल करने के उद्देश्य से आरक्षण जैसे विशेष उपबंध किए गए हैं, लेकिन किसी वर्ग को पीछे रखने की बात कहीं नहीं है। इसके बाद भी उच्चवर्णियों द्वारा भारतीय संविधान का विरोध किया जाना समझ के परे है। जिन ग्रंथों का विरोध होना चाहिए, उनका तो विरोध नहीं किया जाता बल्कि जिसे पूजनीय ग्रंथ का दर्जा देना चाहिए उसके खिलाफ देश में असंतोष फैलाने की कोशिश की जाती है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब आज के समय में उच्च वर्णियों का यह नजरिया है, तब पहले क्या रहा होगा। जरूरत है जनता के बीच सही जागृति की, भारतीय संविधान और अन्य धर्मग्रंथों के बीच अंतर समझाने की। गणतंत्र दिवस के अवसर पर हमारा यही संकल्प होना चाहिए कि ‘भारतीय संविधान’ में निहित लक्ष्यों और उद्देश्यों को जन-जन तक पहुंचाएं और समाज में व्याप्त अंधविश्वास को दूर करें, तभी सच्चे अर्थों में हमारा देश बाबा साहब की इच्छानुसार गणतांत्रिक भारत बन सकता है।





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