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कानून को इतना अंधा नही होना चाहिए

Nilesh Vaidh
nileshvaidh149@gmail.com
Friday, June 21, 2019, 08:31 AM
Dalit-atrocity

कानून को इतना अंधा नही होना चाहिए
31 दिसम्बर 1930 को गोलमेज सम्मेलन, लंदन में दलित वर्गो के प्रतिनिधि पर बोलते हुए डाॅ. अम्बेडकर ने कहा था कि दलित वर्गो को यह भय है कि भारत का भावी संविधान इस देश की सत्ता को जिन बहुसंख्यकों के हाथो में सौंपेगा, वे और कोई नही, रूढीवादी हिन्दू ही होगें। अतः दलित वर्ग को आशंका है कि रूढीवादी हिन्दू अपनी रूढियो और पूर्वाग्रहो को नही छोड़ेगे और जब तक वे अपनी रूढियों, कट्टरपन और पूर्वाग्रहो को नही छोड़ते, दलितो के लिये न्याय, समानत और विवेक पर आधारित समाज एक सपना ही रहेगा। इसी सम्मेलन में अम्बेडकर ने यहां तक कहा था कि भारतीयों की मानसिकता साम्प्रदायिक है, हालाकि हम आशा कर सकते है कि एक समय आयेगा, जब वे साम्प्रदायिक दृष्टि का परित्याग कर देगें, पर यह आशा ही है, सत्य नही है। इसलिये उन्होंने जोर देकर कहा है कि कुछ समय के लिये भारतीय सेवाओं में अंग्रेजो को ही रखा जायें और भारतीयों को न लिया जायें, क्योंकि भारतीयों को लेने से दलितों पर अत्याचार बढ़ जायेगा। 
    डाॅ. अम्बेडकर के ये शब्द आजादी के बाद दलितो पर हुए दमन और अत्याचार के हर काण्ड के संदर्भ में प्रासंगिक हो जाते है। अम्बेडकर अपनी शंका में गलत नही थे। जिन रूढिवादी हिन्दूओं के हाथों में स्वतंत्र भारत की सत्ता आई, उसका प्रथम राष्ट्रपति 108 ब्राम्हणों के पैर धोकर अपनी कुर्सी पर बैठा था। केन्द्र में पंडित नेहरू प्रधानमंत्री थे, तो सभी राज्यो के मुख्यमंत्री भी ब्राम्हण बनाये गये थे। सिर्फ यही नही, कार्यपालिका और न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासन-तंत्र पर ब्राम्हणों के वर्चस्व ने भारत मेें एक ऐसे साम्प्रदायिक और रूढिवादी शासन की आधारशीला रख दी थी, जिससे यह आशा करना ही व्यर्थ था कि वह दलित वर्गो के प्रति संवेदनशील और न्यायप्रिय होगा। परिणामतः स्वतंत्र भारत में दलितो पर जुल्मों की जो बाढ़ शुरू हुई, वह अब तक थम नही रही है। इस देश का संविधान सबके लिये समान न्याय पर आधारित है, उस देश में यदि दलितो पर जुल्म और हिंसा के बेलछी, लक्ष्मणपुर-बाथे, देहुली, परसबीघा, कफल्टा, साढूपुर, कुम्हेर, पूरनपुर, गुलबर्गा, पनवारी, खैरलान्जी और मिर्चपुर जैसे नृशंस काण्ड पर काण्ड होते है, तो यह समझना मुश्किल नही है कि उसके मूल में वही रूढिवादी हिन्दुत्व (और सामन्तवाद) है, जिसकी आशंका डाॅ. अम्बेडकर ने की थी।
    1989 में सरकार ने इन अत्याचारों को रोकने के लिये अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया। किन्तु जब उसका कोई असर नही पड़ा, तो 1995 में उसमें संशोधन कर उसे और भी सशक्त बनाया गया। पर दलितो पर अत्याचार इसके बाद भी बंद नही हुये। और इसलिये बंद नही हुए, क्योंकि रूढिवादी हिन्दूदेश के कानून को अपने ठेंगे पर रखते है और मनु के कानून को अपने दिल में। अब सवाल यह है कि इतने सशक्त कानून के बाद भी दलितो को न्याय क्यों नही मिल रहा है? रूढिवादी हिन्दूओं के हौसले क्यों बुलन्द है? कारण इसका भी यही है कि न्यायपालिका न्याय करने वाले काबिज तत्व उसी रूढिवादी समाज से आते है, जिनके हाथो में देश की शासन-सत्ता आई। अतः कहना न होगा कि सत्ता, पुलिस और न्यायपालिका के गठजोड़ ने दलितो के लिये न्याय को भी दुर्लब और दमनकारी बना दिया है। रूढिवादी हिन्दू समुदाय आज भी देश को अपनी बपौती समझते है और दलित वर्गो को अपना गुलाम। वे उन्हें न सामाजिक सम्मान देना चाहते है और न उनका आर्थिक विकास चाहते है। यही कारण है कि जब सामाजिक न्याय की राजनीति ने जाति को आधार बनाया तो, रूढिवादी हिन्दूओं ने उसे अपने वर्चस्व के लिये चुनौती के रूप में लिया और परिवर्तन की हर धारा को अवरूद्ध करने के लिये वे अमानवियता की किसी भी हद तक जाने के लिये तैयार हो गये। इसलिये यह सवाल उठाना जरूरी है कि क्या 1977 में लक्ष्मणपुर-बाथे में 58 दलितो के हत्यारे, जो सामन्ती रणवीर सेना के लोग थे, बाईज्जत बरी हो सकते थे ? कदापि नही। हम इसे न्याय कहे-निचली अदालत द्वारा 26 हत्यारो को फासी की सजा सूनाने के फैसले को या पटना हाईकोर्ट द्वारा उन हत्यारो को बाईज्जत बरी करने के आदेश को ? एक अदालत हत्यारों को फाॅसी की सजा सुना रही है, यह साबित करके की दलित मजदूरों की हत्याए उनके ही द्वारा की गई थी। किन्तु, दूसरी अदालत, जो उच्च मानी जाती है, पिछले फैसले को उलट देती है, यह साबित करके की दलितो की हत्याए करने में उनका हाथ नही है और वह उन्हे निर्दोश मान कर रिहा कर देती है। यह किस तरह का न्याय है ? जो सच निचली अदालत को दिखाई दे रहा था, वह सच उच्च न्यायालय को दिखाई क्यों नही दे रहा था? कौन मानेगा कि यह (अ) न्याय सत्ता और न्याय तंत्र का वीभत्स चेहरा नही है? अगर उच्च न्यायालय के मुताबिक रणवीर सेना के लोगो ने हत्याए नही की थी, तो क्या उन 58 लोगो ने स्वयं ही अपनी नृशंस हत्याए कर ली थी ? अगर उन्होंने अपनी ही आत्म हत्याए की थी तो क्या बच्चो ने भी अपना कत्ल स्वयं कर लिया था? न्याय के नाम पर दलितो के साथ यह कैसी विवेकहीनता है? क्या न्याय के नाम पर यही दमन-चक्र चलेगा? अगर जवाब हाँ में है, तो भले ही गरीब दलित मजदूर इस हालत में नही है कि वे प्रतिकार कर सके, पर याद रहे कि वे नक्सलवाद का आसान शिकार है। 
    1997 में मैनें फूलनदेवी पर लिखे अपने एक लेख (देखिए मेरी पुस्तक ‘समाज, राजनीति और जनतंत्र’ पृष्ठ 72) में लिखा था-‘माना कि कानून की देवी देख नही सकती, उसकी आँखो पर पट्टी बँधी होती है। लेकिन यह प्रश्न भी अब उठाया जाना चाहिए की कानून की देवी (खास तौर से दलित वर्ग के संदर्भ में) अंधी क्यो होती है? अब उसकी आँखो पर से पट्टी हटाने की जरूरत है, ताकि वह सिर्फ तर्को, बहसो और साक्ष्यों की आँखो से ही नही, बल्कि अपनी नंगी आँखो से भी सबको देख सके, यर्थात् का साक्षात कर सके। तर्क और साक्ष्य झूठे और फर्जी हो सकते है और ऐेसे मामले भी कम नही है, जब झूठे और फर्जी साक्ष्यों के आधार पर निर्दोश लोगों को अदालतो ने जेल भेजा है। यह अन्याय उनके साथ इसलिये हुआ कि कानून की देवी अंधी होती है।
- संग्रहक - निलेश वैद्य





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