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क्या है दलबदल विरोधी कानून

TPSG

Friday, October 16, 2020, 08:31 AM
Dal Badal

क्या है #दलबदल_विरोधी_कानून?

साल 1985 में विधायकों और सांसदों को उनकी सुविधा और जरूरत के अनुसार जल्दी-जल्दी अपनी पार्टी बदलने से रोकने के लिए दलबदल विरोधी कानून लाया गया था। 1985 से पहले ऐसा कोई कानून नहीं था। इस कानून के न होने पर विधायक और सांसद अपने राजनीतिक भविष्य को देखते हुए पुराने दल को छोड़कर नए दल में शामिल हो जाते थे।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण हरियाणा में देखने को मिलता है। यहां एक विधायक गया लाल ने साल 1967 में एक ही दिन में लगभग नौ घंटे के भीतर कांग्रेस में शामिल होने के लिए संयुक्त मोर्चा छोड़ दिया था और फिर से संयुक्त मोर्चा में वापस जाने के लिए कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था।

1985 में नेताओं की ऐसी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए संविधान की दसवीं अनुसूची में उपबंध को जोड़ा गया था। यह एक विधायक या सांसद को दलबदल के लिए अयोग्य ठहराए जाने के आधार को निर्धारित करता है। इसमें किसी विधायक या सांसद का उसकी पार्टी की सदस्यता छोड़ने या पार्टी के निर्देशों/व्हिप का पालन नहीं करने पर दलबदल माना जाता है।

इस कानून में एक #अपवाद भी है

दलबदल कानून में एक अपवाद (91वां संविधान संशोधन, वर्ष 2003) भी है। इसके तहत यदि किसी पार्टी के दो-तिहाई या अधिक विधायक किसी अन्य पार्टी के साथ विलय करने का निर्णय लेते हैं, तो उन्हें दलबदल के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है। शेष बचे हुए लोग जो अपने दल के साथ ही रहना पसंद करते हैं, वे ऐसे समय में कानूनी कार्रवाई से सुरक्षित रहते हैं।

दलबदल कानून के अपवाद का #प्रभाव

कोई व्यक्ति जब स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है। इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाता है।किसी पार्टी के एक-तिहाई विधायकों ने विलय के पक्ष में मतदान किया है तो उस पार्टी का किसी दूसरी पार्टी में विलय किया जा सकता है।दलबदल विरोधी कानून आने के बाद कुछ अपवाद भी आए। मसलन नेताओं का अकेले एक दल से दूसरे दल में जाने के सिलसिले पर रोक जरूर लगी, परंतु अब सामूहिक तौर पर दलबदल होने लगा।ऐसे में साल 2003 में संसद को 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा, इसमें व्यक्तिगत के साथ सामूहिक दलबदल को भी असंवैधानिक करार दिया गया। इससे 10वीं अनुसूची की धारा 3 खत्म हुई, जिसमें प्रावधान था कि एक-तिहाई सदस्य एक साथ दल बदल कर सकते थे।साथ ही 91वें संशोधन के जरिए मंत्रिमंडल का आकार भी 15 फीसदी सीमित कर दिया गया, हालांकि किसी भी कैबिनेट में सदस्यों की संख्या 12 से कम नहीं होने का प्रावधान जरूर रखा गया।

क्या है #संविधान की 10वीं अनुसूची?

साल 1985 में 52वें संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान में 10वीं अनुसूची जिसे लोकप्रिय रूप से 'दल बदल विरोधी कानून' (Anti-Defection Law) कहा जाता है, जोड़ी गई थी। इस सूची में दलबदल क्या है और दलबदल करने वाले विधायकों या सांसदों को अयोग्य ठहराने से जुड़े सभी प्रावधानों को परिभाषित किया गया है।

10वीं #अनुसूची की जरूरत क्यों?

लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए राजनीतिक दल सबसे अहम होते हैं, जो चुनावों में मिले जनादेश के तहत सामूहिक आधार पर फैसले लेते हैं। लेकिन, आजादी के बाद के कुछ सालों में ही दलों को मिलने वाले सामूहिक जनादेश की अनदेखी होने लगी और विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं। 

इस संबंध में 1960-70 के दशक में ‘आया राम गया राम’ की अवधारणा काफी प्रचलित हुई थी। तब इस तरह के कानून की आवश्यकता महसूस हुई, जिससे दलों को मिले जनादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को चुनाव में भाग लेने से रोका जा सके और ऐसे विधायकों और सांसदों को अयोग्य घोषित किया जा सके।

#अयोग्य घोषित करने के आधार

अगर कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है।निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।किसी सदस्य सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट करता है या खुद को वोटिंग से अलग रखता है।छह महीने की समाप्ति के बाद यदि कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।





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