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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी

TPSG

Sunday, June 2, 2019, 07:33 AM
Samajik prani

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं। समाज में अलग-थलग रहना उसके लिए न उचित है और न ही संभव समाज में रहते हुए समाज के लिए अधिक से अधिक स्वस्थ सहायक बना रह सके, इसी में उसके जीवन की उपादेयता है। स्वस्थ व्यक्तियों से ही स्वस्थ समाज का निमार्ण होता है। एक-एक व्यक्ति स्वच्छचित्त हो, शान्तचित्त हो, तो ही समाज की शांति बनी रह सकती है। धर्म इस व्यक्तिगत शांति के लिए अनुपम साधन है और इस कारण विश्वशांति का भी एकमात्र साधन है।
धर्म का अर्थ सम्प्रदाय नही है। सम्प्रदाय तो मनुष्य-मनुष्य और वर्ग-वर्ग के बीच दीवारें खडी करने, विभाजन पैदा करने का काम करता है। जबकि शुद्ध धर्म दीवारों को तोड़ता है, विभाजनों को दूर करता है। धर्म को जाति, वर्ण, वर्ग समुदाय, सम्प्रदाय, राष्ट्र की सिमाओं को नहीं बांधा जा सकता. धर्म पालन का मुख्य उद्देश्य हम आदमी बनें। नेक आदमी बने, नेक आदमी बन जायेंगे तो, नेक हिंदू, नेक बौद्ध, नेक जैन, नेक मुसलमान, नेक ईसाई बन ही जायेंगे।
धर्म एक आदर्श जीवन शैली है। सुख से रहने की पावन पद्धति हैं, शांति प्राप्त करने की विमल विधा है। सर्वलन कल्याणी आचार संहिता है, जो सबके लिए है। क्या शीलवान, प्रज्ञावान, समाधिवान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है ? औरों का नहीं ? क्या वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह होना केवल जैनियों का धर्म है ? औरों का नहीं ? स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, जीवन मुक्त होना केवल हिंदूओं का ही धर्म है ? औरों का नहीं ? क्या प्रेम और करूणा से ओतप्रोत होकर जनसेवा करना केवल ईसाईओं की ही धर्म है ? औरों का नहीं ? क्या जात-पात से मुक्त रहकर सामाजिक समता का जीवन जिना केवल मुसलमानों का ही धर्म है ? औरों का नहीं ?
धर्म महज शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, आचरण में है। धर्म सैद्धान्तिक मान्यता में नहीं, सिद्धान्तों का जीवन जिने में है। धर्म आचरण में उतारे तो ही परिपूर्ण होता है, सम्यक होता है। अन्यथा मिथ्या ही मिथ्या रहता है। यह जान और समझ लेने मात्र से कि शक्कर मीठी होती है, हमारा मुंह मीठा नहीं हो सकता। उसके लिए हमें शक्कर जीभ पर रखनी ही होती है। जानना और समझना हमारे कल्याण की पहली सीढ़ीयां है। केवल जानी समझी बातों को जीवन में न उतारे तो ऐसा जानना समझना व्यर्थ गया। कोरा बुद्धिविलास, कोरी दिमागी कसरत हुई। और यही हम करते है। धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों के दाहापोह, वाद-विवाद, चर्चा-परिचर्चा, खण्डन-मण्डन, तर्क-वितर्क, व्यजंना-विश्लेषण में ही हम सारा जीवन बिता देते है। और दूर्भाग्य यह है कि इसी में अपने जीवन की सफलता मानते है।
 धर्म सार्वजनिक हैं, इसलिए शुद्ध धर्म सम्प्रदाय से कोई संबंध नहीं हैं शुद्ध धर्म का पाथिक जब धम पालन करता है जब किसी सम्प्रदाय विशेष के थोथे निष्प्राण रीति रिवाज पुरे करने के लिए नहीं, किसी ग्रन्थ विशेष के विधि-विधान का अनुष्ठान पुरा करने के लिए मिथ्या अंधविश्वासन्य रूढ़ि-पराम्परा का शिकार किसी लकिर का फकिर बनने के लिए नहीं बल्कि शुद्ध धर्म का अभ्यासी अपने जीवन को सुखी और स्वस्थ बनाने के लिए धर्म का पालन करता है। धार्मिक जीवन जिने के लिए भली-भांति समझ कर उसे आत्म कल्याण और पर कल्याण का कारण मानकर ही उसका पालप करता है। किसी अज्ञात शक्ति को संतुष्ट-प्रसन्न करने के लिए अथवा उसके भय से आशंकित आतंकिय होकर धर्म का पालन नहीं करता। परिवार, समाज, जाति, राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय आदि सारे पारम्परिक संबंध व्यक्ति-व्यक्ति के ही संबंध पर निर्भर होते है। अतः शुद्ध धर्म यही है कि, प्रत्येक व्यक्ति यही, इसी जीवन में औरों के साथ अपना व्यवहार-संबंध सुधारें। धर्म इसी जीवन में सुख-शांति से जीने के लिए है। मृत्यु के बाद बादलों के ऊपर किसी अज्ञात स्वर्ग का जीवन जीने के लिए नहीं। मृत्यु के बाद पृथ्वी के नीचे किसी अज्ञात नरक से बचने के लिए नहीं है। बल्कि हमारे ही भितर समाये हुए स्वर्ग का सुख भोगने के लिए, हमारे भीतर समय-समय पर जो नारकिय अग्नि जल उठती है उसे शान्त करने, उससे बचने के लिए है।
धर्म सांदृष्टिक है, प्रत्यक्ष है। इसी जीवन, इसी लोक के लिए है। वर्तमान के लिए। जिसने अपना वर्तमान सुधार लिखा, उसे भविष्य की चिंता करने की जरूरत नहीं है।  उसका भविष्य स्वतः ही सुधर जाता है। जिसने लोक सुधार लिया उसे परलोक की चिंता नहीं। उसका परलोक स्वतः ही सुधर जाता है। जो अपना वर्तमान नहीं सुधार सका, उसका इहलोक नहीं सुधर सका और केवल भविष्य की ओर आशा लगाये, परलोक की ओर टकटकी लगये बैठा है, वह अपने आप को धोका देता है। अपने वास्तविक मंगल से वंचित रहता है। शुद्ध धर्म से दूर रहता है। शील समाधि और प्रज्ञा के अभ्यास का प्रत्येक कदम शुद्ध धर्म के अभ्यास का, धर्म के सार को ग्रहण करने का सच्चे सुख को प्राप्त करने का कदम हैं। कोई व्यक्ति किसी भी जाती कुल, वर्ण या सम्प्रदाय में जन्मा हो, धनवान हो या निर्धन, विद्धान हो या अनपढ़ यदि शील समाधी और प्रज्ञा में प्रतिष्ठित है, तो निश्चिय ही पूर्ण मानव है।
किसी भी संकीर्ण बुद्धिवाले साम्प्रदायिक नेता को यह भय लगा रहता है कि, मेरे बाडे की एक भेड़ भी यह बाडा तुडाकर किसी दूसरे बाडे में नजा मिले। मेरे सभी अनुयायिओं का भेड बकरियों वाला अंधानुकरण स्वभाव बना रहें। इसलिए वह उन पर अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं की गहरी वरूणी चढ़ाए रखता है। अनेक बेतुकी व असंगत बातों को मनाने के लिए मजबूर करता है। न माने तो नरकिय यंत्रणाओं का आतंक और माने तो मुक्ति मोक्ष का प्रलोभन देता रहता है। उसकी नजरों में धम भले ही छूटे पर सम्प्रदाय बना रहें। जीवन की उपयोगिता के बारे मे साम्प्रदायिक प्रहरूओं ने समाज को निराश पूर्ण विचार दिए है। इन चिन्तकों ने धर्म को दुःखो का कारण माना है। संसार को दुःखो और यातनाओं से परिपूण बताकर घोर निरशा की सृष्टि बकी हैं गृहस्थ जीवन के परित्याग का उपदेश देकर व्यक्ति को पलायनवादीका का पाठ पढ़ाया है। मां, बाप, पति, पत्नि, पुत्र आदि के संबंधों को मोह की संज्ञा देकर परिवार ओर समाज के प्रति उत्तरदायित्वहीनता को बढ़ावा दिया है। सेक्स व अर्थ के प्रति कुत्सित प्रचार किया है, उसे पाप बताया है। भाग्यवाद का पाठ पढ़ाकर पददलित और शोषित जनता को हमेशा-हमेशा के लिए उसकी हालत में पड़े रहने को बाध्य किया है और सामन्तवादी प्रवृत्तियों के पोषण में सहयोग दिया है। नानावेशधारी वाणी के विलासियों की एक बहुत बड़ी व्यापारिक जमात रूढ़िवादी, मनगढंत, काल्पनिक, अवैज्ञानिक बातों की रट लगाये हुए व्यक्ति और समाज को पिछे की ओर धकेलने की असफल कोशिश में लगी हुई हैं।
आओं इन नाम और लेबलों से उपर उठकर अपने आचरण सुधारे। वाणी को संयमित रखते झूठ, कडवापन, निंदा और निरर्थकि पलाप से बचे। शरिर को संयमित रखते हुए हिंसा, चोरी, व्यभिाचार, प्रमादसेवन से बचे। अपनी आजीवीका को शुद्ध करें। जनअहितकारी व्यवसायों से बचे, मन को संयमित रखते हुए उस वश में रखना सीखे। उसे सतत सावधान, जागरूक बने रहने का अभ्यास कराएं। और प्रतिक्षण घटने वाली घटना को जैसी है, वैसे साक्षी भाव से देख सकने का सामर्थ बढ़ाकर अंतस की राग, द्वेष, मोह की ग्रन्थियां दूर करें। चित्त को नितांत, निर्मल बनाएं। उसे अनंत मैत्री और करूणा से भरे। धर्म का यही मंगल विधान है।
कर्म काण्ड न धर्म है, धर्म न बाह्मचार,
धर्म चित्त की शुद्धता, सेवा करूणा प्यार,
भीतर बाहर स्वच्छ हो, करे स्वच्छ व्यवहार,
सत्य प्रेम करूणा जगे, यही है धर्म का सार।
वासुदेवराव बागड़े
सौसर, जिला छिन्दवाड़ा
मो. नं. 09300643085





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