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मजदूर बिगुल

Siddharth Bagde
tpsg2011@gmail.com
Saturday, March 02, 2019, 09:28 PM
मोदी सरकार और संघ परिवार के नापाक मंसूबे दो साल में ही नंगे हो चुके हैं देश को खूनी दलदल या गुलामों के कैदखाने में तब्दील होने से बचाना है तो एकजुट होकर उठ खड़े हो!
मोदी सरकार के दो वर्षों में ही इसकी कलई एकदम आम लोगों के सामने भी पूरी तरह खुल चुकी है। आम चुनाव में लोगों को ठगने के लिए किये गये ‘सबका साथ सबका विकास’ के दावे हवा हो चुके हैं और जनता के बुनियादी अधिकारों की कीमत पर लुटेरे पूँजीपतियों के हक में सारे फैसले लिये जा रहे हैं। जनता के बढ़ते असन्तोष को तितर-बितर करने और लोगों का ध्यान बँटाने के लिए देशभर में धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के नाम पर नफरत फैलाने और दंगे कराने का खुला खेल खेला जा रहा है। हर बीतते दिन के साथ मोदी सरकार और संघ परिवार के नापाक मंसूबे नंगे होते जा रहे हैं।
ये हालात मेहनतकशों के लिए आने वाले खघ्तरनाक दिनों की ओर इशारा कर रहे हैं और हमें चेतावनी दे रहे हैं कि अगर हमने एकजुट होकर जुझारू ढंग से इन हमलों का मुकाबला नहीं किया तो ये फासिस्ट या तो इस देश को खघ्ून के दलदल में डुबो देंगे या फिर एक ऐसे जेलखाने में तब्दील कर देंगे जहाँ सिर्फ सिर झुकाकर, आँख-मुँह पर पट्टी बाँधकर धन्नासेठों और बर्बरों की गुलामी करने के सिवा लोगों के पास कोई चारा नहीं होगा। हालाँकि कुछ लोग अभी भी इस खघ्ुशफहमी में जी रहे हैं कि बस तीन साल इन्तजार करने की बात है, 2019 के चुनाव में जनता इन्हें सत्ता से उतार देगी और फिर सुख-चैन के दिन आ जायेंगे। ऐसा सोचकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना बहुत बड़ी भूल होगी। इतिहास गवाह है कि फासिस्टों को चुनाव से शिकस्त नहीं दी जा सकती। इन्हें छुट्टा छोड़ दिया गया तो ये सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी विनाशकारी कघ्दम उठा सकते हैं।
आज हालत ऐसी बना दी गयी है कि जो भी सरकार के गलत कघ्दमों के खिलाफ आवाज उठाये वह देशद्रोही है और जो भी सरकार की हर बात में सिर हिलाये वही देशभक्त है। तरह-तरह की गुण्डावाहिनियों को सड़क पर खुला छोड़ दिया है कि वह ऐसे सभी ‘देशद्रोहियों’ को सबक सिखायें जो कि मोदी और संघ परिवार की हाँ में हाँ न मिलाते हों! लेकिन जरा सोचिये! देशभक्ति के इस गुबार में आम जनता की जिन्दगी के जरूरी मुद्दों को ढँक देने की कोशिश हो रही है। दाल, सब्जी, दवाएँ, शिक्षा, तेल, गैस, किराया-भाड़ा, हर चीज की कीमतें आसमान छू रही हैं और गरीबों तथा निम्न मध्यवर्ग के लोगों का जीना मुहाल हो गया है। नरेन्द्र मोदी का पाखण्डी मुखौटा तार-तार हो चुका है। देश ही नहीं, विदेशों में भी उसकी फजीहत हो रही है और संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे घृणा के वातावरण की कड़ी आलोचना हो रही है। लेकिन पीछे हटने के बजाय वे और भी बेशर्मी के साथ गुण्डई पर आमादा हैं। बिका हुआ कारपोरेट मीडिया उनका भोंपू बना हुआ है। इसके जरिये वे तमाम प्रगतिशील, जनवादी और जनपक्षधर ताकतों को अन्धाधुन्ध झूठे प्रचार के जरिये देशद्रोही करार देकर उनका मुँह बन्द करना चाहते हैं।
जो आजादी के आन्दोलन के गद्दार थे और जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कभी एक ढेला तक नहीं चलाया वही आज देशभक्ति का सर्टिफिकेट बाँटने में लगे हैं। जिनके नेताओं ने अंग्रेजों के लिए मुखबिरी करने, माफीनामे लिखने और रानी को सलामी देने का काम किया था वे आज लोगों के हकघ् की बात करने वालों को देशद्रोही कह रहे हैं? जब देश के हिन्दू, मुस्लिम, सिख सभी मिलकर अंग्रेजों से लड़ रहे थे तब भी आरएसएस मुसलमानों के विरुद्ध लोगों को भड़काकर आपसी एकता तोड़ने और गोरों की मदद करने का काम कर रहा था। आज भी मोदी सरकार विदेशी लुटेरी कम्पनियों के साथ देश बेचने वाले समझौते कर रही है, अमेरिका के आगे घुटने टेककर देश के हितों के सौदे कर रही है और विजय माल्या और ललित मोदी जैसे देशी चोरों को देश का पैसा लेकर विदेश भाग जाने में मदद कर रही है। ये किस मुँह से देशभक्ति की बात करेंगे?
इतिहास गवाह है कि जर्मनी में हिटलर ने भी ठीक इसी तरह झूठे आरोप लगाकर पहले हर उस आवाज को चुप कराया जो उसका विरोध कर सकती थी और फिर जनता को लूटने और पीस डालने के लिए पूँजीपतियों को खुली छूट दे दी। देशभक्ति और विश्वविजय के नारों का बुखार जब तक जनता के सिर से उतरा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी! उनके सारे अधिकार छीने जा चुके थे। अगर हम आज ही हिटलर के इन अनुयायियों की असलियत नहीं पहचानते और इनके खिलाफ आवाज नहीं उठाते तो कल बहुत देर हो जायेगी। हर जुबान पर ताला लग जायेगा। इतिहास का आज तक का यही सबक रहा है कि फासीवाद विरोधी निर्णायक संघर्ष सड़कों पर होगा और मजदूर वर्ग को क्रान्तिकारी ढंग से संगठित किये बिना, संसद में और चुनावों के जरिए फासीवाद को शिकस्त नहीं दी जा सकती। फासीवाद विरोधी संघर्ष को पूँजीवाद विरोधी संघर्ष से काटकर नहीं देखा जा सकता। पूँजीवाद के बिना फासीवाद की बात नहीं की जा सकती। फासीवाद विरोधी संघर्ष एक लम्बा संघर्ष है और उसी दृष्टि से इसकी तैयारी होनी चाहिए।
दूसरे, हमें यह समझने की जरूरत है कि फासीवाद कुछ व्यक्तियों या किसी पार्टी की सनक नहीं है। यह पूँजीवाद के लाइलाज रोग से पैदा होने वाला ऐसा कीड़ा है जिसे पूँजीवाद खघ्ुद अपने संकट को टालने के लिए बढ़ावा देता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से सड़ चुकी है, और इसी सड़ाँध से पूरी दुनिया के पूँजीवादी समाजों में हिटलर-मुसोलिनी के वे वारिस पैदा हो रहे हैं, जिन्हें फासिस्ट कहा जाता है। फासिस्ट पूँजीवादी लोकतंत्रा को भी नहीं मानते और उसे पूरी तरह रस्मी बना देते हैं और वास्तव में पूँजी की नंगी, खुली तानाशाही कायम कर देते हैं। फासिस्ट धर्म या नस्ल के आधार पर आम जनता को बाँट देते हैं, वे नकली राष्ट्रभक्ति के उन्मादी जुनून में हक की लड़ाई की हर आवाज को दबा देते हैं। वे धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर एक नकली लड़ाई खड़ी करके असली लड़ाई को पीछे कर देते हैं और पूरे देश में दंगों और खून-खराबों का विनाशकारी खेल शुरू कर देते हैं। पूँजीपति वर्ग अपने संकटों से निजात पाने के लिए फासीवाद को बढ़ावा देता है और जंजीर से बँधे शिकारी कुत्ते की तरह जनता को डराने के लिए उसका इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन जब-तब यह कुत्ता अपनी जंजीर छुड़ा भी लेता है और तब समाज में भयंकर खूनी उत्पात मचाता है। ।
मोदी का सत्ता में आना पूरी दुनिया में चल रहे सिलसिले की ही एक कड़ी है। नवउदारवाद के इस दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे गम्भीर होता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनियाभर में फासीवादी उभार का एक नया दौर दिखायी दे रहा है। ग्रीस, स्पेन, इटली, फ्रांस और उक्रेन जैसे यूरोप के कई देशों में फासिस्ट किस्म की धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की ताकघ्त बढ़ रही है। अमेरिका में भी डोनाल्ड ट्रम्प और टी पार्टी जैसी धुर दक्षिणपंथी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है। नव-नाजी ग्रुपों का उत्पात तो इंग्लैण्ड, जर्मनी, नार्वे जैसे देशों में भी तेज हो रहा है। तुर्की, इंडोनेशिया जैसे देशों में पहले से निरंकुश सत्ताएँ वघ्फायम हैं जो पूँजीपतियों के हित में जनता का कठोरता से दमन कर रही हैं। हाल के वर्षों में कई जगह ऐसी ताकतें सीधे या फिर दूसरी बुर्जुआ पार्टियों के साथ गठबन्धन में शामिल होकर सत्ता में आ चुकी हैं। जहाँ वे सत्ता में नहीं हैं, वहाँ भी बुर्जुआ जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखा धूमिल-सी पड़ती जा रही है और सड़कों पर फासीवादी उत्पात बढ़ता जा रहा है।
संघ परिवार को दशकों की तैयारी के बाद इस बार जो मौका मिला है उसका पूरा फायदा उठाकर वह लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने की योजना पर काम कर रहा है। भाजपा गठबंधन के शासन का सबसे अधिक कहर मजदूर वर्ग पर बरपा हुआ है, ये अलग बात है कि मीडिया में उसकी कहीं चर्चा नहीं होती। मुनाफाखोरों की तिजोरियाँ भरने के लिए मजदूरों की हड्डियों तक को निचोड़ने की खुली छूट दे दी गयी है। ट्रेड यूनियनों के लिए मजदूरों-कर्मचारियों के आर्थिक मुद्दों की लड़ाई लड़ना भी मुश्किल हो गया है। कघनूनों में बदलाव करके मजदूरों के रहे-सहे कघनूनी भी खत्म करने की तैयारी पूरी हो चुकी है। हर साल दो करोड़ रोजगार देने के वायदे तो जुमले साबित हो ही चुके हैं, आँकड़े बता रहे हैं कि देश में रोजगार घट रहे हैं। मजदूर अपने अनुभव से भी इस बात को समझ रहे हैं। सरकारी नौकरियों में कटौती जारी है। ठेकाकरण-निजीकरण लगातार जारी है। सरकारी परिसम्पत्तियों को औने-पौने दामों पर पूँजीपतियों के हवाले किया जा रहा है और जनता को मिलने वाली सरकारी सुविधाओं में और अधिक कटौती की जा रही है।
संघी गिरोह की पूरी कोशिश है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को एक ‘आतंक राज’ के मातहत दोयम दर्जे का नागरिक बनकर जीने पर मजबूर किया जाये। अल्पसंख्यकों को बुरी तरह दबाकर, आतंकित करके, कोने में धकेलकर उनकी स्थिति बिल्कुल दोयम दर्जे की बना दी जाये। इसी के तहत देशभर में अल्पसंख्यकों पर हमले और उनके विरुद्ध जहर उगलने की खुली छूट संघी गुंडों को दी गयी है। अनेक सबूत होने के बावजूद एक-एक करके हिन्दुत्व के नाम पर आतंक फैलाने वालों को छोड़ा जा रहा है। दलितों का उत्पीड़न अपने चरम पर है। स्त्रियों के विरुद्ध संघी नफरत इनके नेताओं के मुँह से फूटी पड़ रही है। मोदी की आर्थिक नीतियों का बुलडोजर आगे बढ़ने के साथ-साथ अवाम में बढ़ते असन्तोष को भटकाने के लिए साम्प्रदायिक और जातिगत आधार पर मेहनतकश जनता को बाँटकर उसकी वर्गीय एकजुटता को ज्यादा से ज्यादा तोड़ने की कोशिशें अभी और तेज होती जायेंगी। देश के भीतर के असली दुश्मनों से ध्यान भटकाने के लिए उग्र अन्धराष्ट्रवादी नारे दिये जायेंगे और सीमाओं पर तनाव पैदा किया जायेगा। इसलिए मेहनतकशों, नौजवानों और सजग-निडर नागरिकों को चैकस रहना होगा। उन्हें खुद साम्प्रदायिक उन्माद में बहने से बचना होगा और उन्माद पैदा करने की किसी भी कोशिश को नाकाम करने के लिए सक्रिय हस्तक्षेप करने का साहस जुटाना होगा। साथ ही इन असली देशद्रोहियों और जनद्रोहियों को नंगा करने के लिए जनता के बीच जाकर धुआँधार प्रचार अभियान चलाना होगा।
फासीवादी उभार के लिए उन संशोधनवादियों, संसदमार्गी नकली कम्युनिस्टों और सामाजिक जनवादियों को इतिहास कभी नहीं माफ कर सकता, जिन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान मात्रा आर्थिक संघर्षों और संसदीय विभ्रमों में उलझाकर मजदूर वर्ग की वर्गचेतना को कुण्ठित करने का काम किया। ये संशोधनवादी फासीवाद-विरोधी संघर्ष को मात्रा चुनावी हार-जीत के रूप में ही प्रस्तुत करते रहे, या फिर सड़कों पर मात्रा कुछ प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शनों तक सीमित रहे। आज भी ये फिर वही कर रहे हैं और मोदी सरकार से जनता के बढ़ते मोहभंग का चुनाव में फायदा उठाने की उम्मीद में जी रहे हैं। दरअसल ये संशोधनवादी आज फासीवाद का जुझारू और कारगर विरोध कर ही नहीं सकते, क्योंकि ये ”मानवीय चेहरे” वाले नवउदारवाद का और कीन्सियाई नुस्खों वाले ”कल्याणकारी राज्य” का विकल्प ही सुझाते हैं। आज पूँजीवादी ढाँचे में चूँकि इस विकल्प की सम्भावनाएँ बहुत कम हो गयी हैं, इसलिए  पूँजीवाद  के लिए भी ये संशोधनवादी काफी हद तक अप्रासंगिक हो गये हैं। बस इनकी एक ही भूमिका रह गयी है कि ये मजदूर वर्ग को अर्थवाद और संसदवाद के दायरे में कैद रखकर उसकी वर्गचेतना को कुण्ठित करते रहें और वह काम ये करते रहेंगे। ये बस संसद में गत्ते की तलवारें भाँजते रहे और टीवी और अखबारों में बयानबाजियाँ करते रहे। ना इनके कलेजे में इतना दम है और ना ही इनकी ये औकघत रह गयी है कि ये फासीवादी गिरोहों और लम्पटों के हुजूमों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने के लिए लोगों को सड़कों पर उतार सकें।
फासीवादी हमला लगातार जारी है, लेकिन मजदूर वर्ग और समूची मेहनतकश जनता और देश के छात्र-नौजवान सब कुछ झेलते रहने के लिए तैयार नहीं हैं। वे लड़ने के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। इन संघर्षों को दिशा देने, उन्हें और व्यापक बनाने की जरूरत है। आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिर्फ एक है। हमें जमीनी स्तर पर गरीबों और मजदूरों के बीच अपना आधार मजबूत बनाना होगा। बिखरी हुई मजदूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चैकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज्बा और दमखम रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मजदूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। हमें अपनी भरपूर ताकत के साथ इसकी तैयारी में जुट जाना चाहिए।
साभार - मजदूर बिगुल 
- मई 2016, समाचारपत्र
 




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