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भाग्यवादी नहीं कर्मवादी बनों

Pratima Ramesh Meshram

Friday, April 26, 2019, 03:03 PM
andhvishvash

भाग्यवादी नहीं कर्मवादी बनों
आज विश्व के लोग अपनी उन्नति करके शिखर पर पहुंच गये हैं, किन्तु भाग्यवादी हिन्दू अपना भाग्य उज्जवल करने के लिये देवी देवताओं की पूजा अर्चना करने, मन्नत कबुल करने में लगे हुए है। अंधविश्वास में देवी का शरीर में प्रवेश करना, गड़े ताबिज से बांझपन दूर होना। फलां ने जादू टोना किया, इसलिये उसकी तबियत बिगड़ गई। चिकित्सा उपचार डाॅ. के पास न जाकर झाड़-फुंक करना, पूजा पाठ के नाम पर बली चढ़ाना। ये सब ढ़ोंग व अंधविश्वास की बाते आज भी हमारे देश में चली आ रही है। इन सबके चक्करो में पड़कर कई बार जान से भी हाथ धोना पड़ता है। आज मेडिकल साईन्स ने इतनी तरक्की की इतना आगे साइंस आ गया है कि असाध्य से असाध्य बिमारी का इलाज हो जाता है तथा रोगी रोगमुक्त होकर पुन्ह अपना जीवन जीता है।
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सेवक डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर पेशे से डाॅक्टर थे। किन्तु 30 साल पहले उन्होंने डाॅक्टरी छोड़ समाज सुधार में अपना पूरा वक्त देने लगे थे। उन्होंने महिलाओं का मंदिर प्रवेश का कानूनी अधिकार दिलवाया था। उन्होंने महाराष्ट्र में विभिन्न गावों में व शहरो में अंधश्रद्धा निर्मुलन समिति के माध्यम से अंधविश्वासी जनता को सुधारने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने स्त्रीयों के लिये अहमदनगर के शनि मंदिर के द्वार खुलवाये। डाॅ. दाभोलकर ने अपने जीवन में हमेशा अंधविश्वास व कुरीतियो का विरोध कया। वे धर्म या ईश्वर विरोधी नही थे। लेकिन वह भोली भाली जनता को इन पाखंड़ियो से, ढ़ोगी बाबाओ से सावधान करते रहते है। 
क्या यह संभव है कि पत्थर की मूर्ति दूध पीने लगे या कोई मूर्ति के आँख से आँसू बह रहे हो, या कोई बाबा उंगली से स्पर्श करे तो चमत्कार हो जायेगा, कोई तांत्रिक तथाकथित ढ़ोगी बाबा यदि कोई स्त्री के मुंह में फुंके तो वह गर्भधारण कर लेगी या कोई स्त्री बाबा की एकांत में सेवा करे तो उसका पति उसीका हो जायेगा। इस तरह की न जाने कितने तरह के अंधविश्वास से व्याप्त हम लोग अपना धन व समय इन बाबा के चक्करो में बरबाद कर देते है। नतीजा वही ‘‘ढ़ाक के तीन पात’’ हम आज 21वीं सदी में जी रहे है, हमने हर क्षेत्र में तरक्की की है, फिर भी हम आँख मूंद कर अंधविश्वास की नदी में डुबकी लगाने को तैयार है। आखिर ऐसा क्यों होता है। ये लोग अपने ढ़ोंगी चमत्कार का पाखंड फैलाकर भोली व गरीब जनता को शोषित कर उन्हें लुटते है। उन्हें मजबुर व विवश कर देते है। यदि हमारा समाज इन बिमारी से ग्रसित होने से बचे तो हम इन पाखंडियो का पर्दापाश करने में सफल होगें।
डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर कई सालो से अंधविश्वास उन्मुलन के लिये कानून बनाने की महाराष्ट्र सरकार से बातचीत चला रहे थे। कोशिश की थी कि यह कानून पारित हो जाये, किन्तु उनसे जीते जी ऐसा नहीं हुआ। 20 अगस्त 2013 पूणे में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई और हमने डाॅ. दाभोलकर के रूप में एक विख्यात व समर्पित समाज सेवक को खो दिया। उनकी हत्या के बाद शासन जागा व महाराष्ट्र सरकार ने (राज्यपाल ने) अंधविश्वास बिल को मंजूरी दी। इसे 06 महिने में पास किया जायेगा। डाॅ. दाभोलकर का बलिदान हमारे लोकतंत्र के लिये भी बड़ी चुनौती है। उन्होंने अपने संघठन से अंधश्रद्धा का विरोध करते हुये अपने आप को बलिदान कर गये है। उनकी हत्या का प्रयास अनेक बार किया गया था। क्योंकि वे जानते थे कि उन धार्मिक महलो के नीचे बने तलघरो में कुरितियों और अंधविश्वास का व्यापार चलता है।
उन्नीसवीं सदी में दयानन्द सरस्वती राजाराम मोहन राय आदि ने इस प्रथा का विरोध किया था तत्पश्चात इस काम को आगे बढ़ाने में डाॅ. बाबासाहब, ज्योतिबा फूले,  राम मनोहर लोहिया आदि के नाम प्रमुख रूप से गिनाये जा सकते है। मेरा आपसे अनुरोध है कि मनुष्य को भाग्यवादी बनने की अपेक्षा कर्मवादी बनकर अपनी उन्नति व विकास करना चाहिये। इसमें हम सबकी भलाई है। यही बुद्ध की शिक्षा है।
सौ0 प्रतिमा मेश्राम
पाण्ढूर्णा, म0प्र0।

 





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