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मारटेंग्यू चेम्सफोर्ड सुधार एक्ट

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Monday, April 29, 2019, 08:33 AM
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मारटेंग्यू चेम्सफोर्ड सुधार एक्ट

मारटेंग्यू चेम्सफोर्ड सुधार एक्ट 1919-1921 के बाद 1921 मद्रास प्रेसीडेंसी ने पहली बार जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों  यानि क्षत्रिय व वैश्यों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। इस तरह सभी जातियों और धर्मों को भी आरक्षण (प्रतिनिधित्व) का प्रावधान मिला।

इस देश में अंग्रेजों के बाद सबसे ज्यादा पड़े लिखे ब्राह्मण ही थे, क्योंकि धर्म के हिसाब से केवल उनको ही पढ़ने पढ़ाने का अधिकार था। क्षत्रिय, वैश्य भी पढ़ सकते थे लेकिन शूद्रों को यह अधिकार नही था। अंग्रेजों ने अपने बच्चों के लिए देश में नए नए स्कूल खोलने का फैसला किया और ब्राह्मण भी अपने बच्चों को उनमें पढ़ाने के इच्छुक थे। इससे पहले हिन्दू केवल गुरुकुल में और मुस्लिम मदरसों में ही पढ़ते थे जहाँ की शिक्षा ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य पुरुषों के लिए आरक्षित होती थी। अंग्रेजों के स्कूलों में दाखिल होने के बाद भारतीय विद्यार्थी अधिक संख्या में फेल होने के कारण ब्राह्मणों ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध कर शुरू करवाई थी थर्ड डिवीजन की व्यवस्था।

सन् 1854 के मशहूर वुड्स डिस्पैच के बाद ब्रिटिश शासन ने भारत में मॉडर्न एजुकेशन की शुरुआत की, तो सिर्फ फर्स्ट और सेकंड दो डिविजन होती थीं। मिनिमम पासिंग मार्क्स 65 परसेंट होते थे। तब न तो थर्ड डिवीजन थी और न ही 33 परसेंट में पास कर लेने की सुविधा। ये दोनों बातें भारतीय एजुकेशन सिस्टम में कैसे जुड़ीं, इसका किस्सा बेहद दिलचस्प है। यह बात उनके लिए खासतौर पर है जो आजकल आरक्षण, मेरिट आदि पर हायतौबा किये हुए हैं।

हुआ यह कि जब 1857 के आसपास मद्रास में पहला डिग्री कॉलेज बना तो एक संकट खड़ा हो गया। बिल्डिंग तैयार थी और ब्रिटेन से प्रोफेसर बुला लिए गए थे। दिक्कत यह थी कि पढ़ाने के लिए पर्याप्त स्टूडेंट्स ही नहीं मिल पा रहे थे। मद्रास के ब्राह्मणों ने इस समस्या का एक हल ढूंढा। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से यह मांग कर डाली कि इंटरमीडिएट पास करने के लिए एक नई थर्ड डिविजन शुरू कर दी जाए और पास मार्क्स घटाकर 33 परसेंट कर दिए जाएं।  ब्राह्मणों की बात मान ली गई और तब से यह सिस्टम चला आ रहा है।

 

थर्ड डिविजन की मांग करते हुए ब्राह्मण समाज का तर्क था कि ब्रिटिश एजुकेशन सिस्टम भारत के लिए एकदम नया है, इसलिए इसे अपनाने और समझने में कुछ वक्त लगेगा। यह समय कितना लम्बा था, इसे ‘प्रोग्रेस ऑफ एजुकेशन इन इंडिया 1927-1932’ की रिपोर्ट पार्ट-टू से समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, 1927-1932 के दौरान मेडिकल के फाइनल एग्जाम में 47 परसेंट स्टूडेंट्स फेल हो जाते थे। इंजीनियरिंग में फेल होने वालों का परसेंटेज 34 था। यानी सिर्फ साढ़े सात दशक पहले द्विज (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) समाज की मेरिट का हाल यह था। यानी उनकी मेरिट में उस समय के 70 सालों में सुधार का लेखा जोखा आपके समक्ष है।

आज रिजर्वेशन के खिलाफ झंडा लेकर घूम रहे लोगों को अपने वर्ग का इतिहास अवश्य देखना चाहिए। इसके उलट आज के आरक्षित वर्गों के आन्दोलनों ने कभी न तो फोर्थ डिवीजन जोड़ने की मांग की और न ही पास मार्क्स घटाकर 20 या 25 परसेंट करने की। दलित सिर्फ प्रवेश के लिए रिजर्वेशन मांगते हैं और एग्जाम उसी स्टैन्डर्ड पर देते हैं, जिस पर द्विज, यह जानते हुए भी कि दलितों को स्कूलों में प्रवेश देना अंग्रेजों ने शुरू किया लेकिन 1930 के बाद थोड़ा ज्यादा जोर दिया गया जिसका कारण था गांधी और अम्बेडकर विचारधारा का आगमन और 1950 के बाद कानूनन हक मिला। आज भी दलित स्टूडेंट्स कुछ पीछे रह जाते हैं। इसके तमाम कारण हो सकते हैं, पर क्या 1857 के द्विजों और आज के दलितों के बीच तुलना नहीं कर लेनी चाहिए? खासकर उनको जो आरक्षण पर माथा पीटते नजर आते हैं? 

सदियों से दौड़ लगा रहे द्विजों और अचानक शिक्षा की बेड़ियां तोड़कर अवसर मिलने वाले दलित समाज के लोगों को एकसाथ मेरिट नामक प्रतिस्पर्धा करवाई जाए, तो परिणाम किस करवट बैठेंगे यह अनुमान लगाना ज्यादा मुश्किल नही हो सकता। समस्या यह है किसी वर्ग को इतिहास की वास्तविक जानकारियां नही है खासकर आरक्षित वर्ग को। इसीलिए आज एक ऐसा माहौल बन गया है कि लोग सीधे हमलावर का रुख अपना रहे हैं। 90 साल तक उन्होंने जिस आरक्षण का लाभ लिया आज उसी पर तंज कस रहे हैं।

अंग्रेज भी काबिल थे मगर उन्होंने प्रतिनिधित्व, आरक्षण व अवसर सभी को समान रूप से दिया। क्योंकि वे पृष्टभूमि और सच्चाई जानते थे। वे जानते थे कि हमारे ही देश में पढ़कर भारत के युवा हमारे ही खिलाफ आंदोलन करेंगे बावजूद इसके उन्होंने न शिक्षा से किसी को वंचित रखा और न प्रताड़ित व अपमानित किया। देश में भी और विदेश में भी। आज भी भारत की आधी शिक्षित आबादी विदेश में रहती है। यह नही भूलना चाहिए। उन्होंने सत्ता, शिक्षा, धर्म को कभी एक नजर से नही देखा। कम से कम इतना तो हमे अंग्रेजों से व इतिहास से सीखना ही चाहिए।

- आर. पी. विशाल





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