सामाजिक क्रांति के अग्रदूत - संत कबीर Nilesh Vaidh nileshvaidh149@gmail.com Saturday, April 27, 2019, 10:23 AM सामाजिक क्रांति के अग्रदूत - संत कबीर सन्त कबीर का संपूर्ण जीवन क्रान्ति से भरा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त उनका जीवन आलौकिक रहस्यों से भरपूर है, पर हम जब उनके साहित्य का गहराई से अवलोकन करते हैं तो रहस्य की हर गांठ हमें खुलती नजर आती है जिससे ज्ञात होता है कि उनकी हर बात किसी न किसी सच्चाई को उजागर करने के लिए है। आज से 600 वर्ष पूर्व सन्त कबीर ने 15वीं सदी में धर्म, वर्ण, जाति, ऊंच-नीच, भेदभाव, मूर्ति पूजा, पाखण्ड-आडम्बर के विरुद्ध निर्भीकता पूणर्् अपनी बातें कहीं। उस समय की सत्ता और धर्म के ठेकेदारों ने उनका विरोध किया, पर वेअपने इरादे से तनिक भी विचलित नहीं हुए। हिन्दु और इस्लाम में जो बुराईयां देखीं, उसे कहने से तनिक भी नहीं हिचके। उनकी बातों में दम था और वे तर्क की कसौटी पर खरी उतरती थीं। फिर अपनी बात जन साधारण की भाषा में कही जो लोगों के दिलों में सीधी उतरती थी। इसलिए आम जनता उनसे प्रभावित हुई और वे सब उनके अनुयायी होते गए। और इस तरह ‘कबीर पंथ’ चल निकला। काशी का ‘लहरतारा’ सन्त कबीर का उद भव स्थान है जहां नीमा-नीरू को नवजाति शिशु के रूप में पड़े मिले थे। ‘मगहर’ में जाकर आत्मदाहका त्याग किया। संपूर्ण जीवन ब्राम्हणवादी गढ़ काशी में ही बिताया और धार्मिक पाखण्डवाद को अपने जीवन के दृष्टान्त से खुली चुनौती दी। सतयुग में भक्ति (तपस्या) करने के अपराध में शूद्र शम्बूक का सिर जो राम अपने हाथ से काटते हैं, कलियुग के मध्यकाल में उसी शूद्र का वंशज कबीर राम नाम की भक्ति करके ब्राम्हणवाद की धज्जियां उखाड़ता है और अपौरुषय कहे जाने वाले वेद, उपनिषद पुराण मनुस्मृति को झूठा साबित करता है, और इंसान इंसान में भेद करने वाली वर्ण व्यवस्था और सनातन धर्म को ललकारता है। वेद पुरान पढतअस पांडे, खर चन्दन जैसे भारा। श्राम नाम सत समझत नाहीं, अति पढ़े मुख धारा। और आगे कहा- वेद कितेब कहौ मत झूठे, झूठा जो न विचारै। सन्त कबीर ने जन्म-जात ऊंच-नीच के भेद का व्यवहारिक तर्को से खण्डन किया- काहे को कीजे पांडे छोति विचारा, छोतहिं ते अपना संसारा। ळमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध तुम कैसे ब्राम्हण पांडे हम कैसे सूद कबीर साहब मनुष्य के जाति धर्म को नहीं मानते थे। वह जोर देकर कहते हैं कि सृष्टि में सभी प्राणी एक समाज ही रक्त, पानी और अस्थिमज्जा से बने हैं। पांच तत्व का पुतला, रज बीरज की बूंद। एक ही घाटी तीसरा, ब्राम्हण क्षत्री शूद्र। इसे और स्पष्ट करते कहते हैं- एक ही बूंद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा। एक जाति से सब उतपनां, कौनर वामन कौन सूदा। वे वर्ण व जाति गर्व में चूर ब्राम्हणों से पूछते हैं- तू ब्राम्हण हौं काशी का जुलाहा, चीन्ह न मोर ग्याना। तू जो बामन बामनी जाया, और राह है क्यों नहीं आया। कबीर साहब को समाज में जन साधारण पर बोझ बने योगी, साधु-सन्यासी, ऋषि-मुनि और पंडितों का ब्राम्हाडम्बर कभीअच्छा नहीं लगा। इसलिए उन्होंने ब्राम्हाडम्बरों का खुलकर विरोध किया। हिन्दुओं के व्रत उपवास की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंनंे कहा- अन्न को त्यागे, मन को न हटके, पारन करे सगोती। पूजा पाठ का मजाक उड़ते कहा- पापी पूजा बैठि करि, भरवै मांस मद दोई। मूर्ति पूजा पर करारी चोट करते हुए कहा- पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़। इसी तरह भेषधारी साधुओं का माला धारण करना मिथ्या बताया- माला पहराया कुछ नहीं काती मन के साथी। मूड मुंडावत दिन गये, अजहूं न मिलिया राम कहकर संन्यासियों के केश मुंडाने को झूठा बताया। छाया तिलक बनाई करि, दगध्या लोक अनेक कहकर लम्बे तिलक, त्रिमुंड छाया लगाने वालों को बनावटी सिद्ध किया। दिगम्बर साधुओं की नग्नता पर करारी चोट करते कहा- नांगे फिरे जोगजे होई, बन का मृग मुकति गया कोई। उन्होंने तीर्थाटन की व्यर्थ बताते कहा- तीरथ भइ सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाई उन्होंने अवसरवाद का खण्डन करते कहा- दशरथ घर औतरि आवा। ब्राम्हणवाद के गढ़ काशी में रहकर उन्होंने हिन्दुओं के हर पाखंड कोअपनी आंखों से खुलकर देखा था। अनपढ़ होने के कारण कोई ‘पोथी’ पढ़ी नहीं थी। इसलिए हर पाखण्ड की पोल खोलते हुए ब्राम्हण, पंडितों कोललकार कर कहते थे- तू कहता कागद की लेखि, मैं कहता अंखियन की देखी। तू कहता उलझावन हारी, मैं कहता सुलझाओ रे। फिर तेरा मेरा मनुआ कैसे एक होय रे? कबीर साहब का बचपन और यौवन मुस्लिम जुलाहा नीमा नीरू के परिवार में बीता था। इसलिए मुसलमानों के मिथ्या आचार, विचार पाखंड और ब्राम्हण्डबरों से पूरी तरह अवगत थे। इसलिए हिन्दुओं की तरह मुस्लिम पाखंडवाद पर भी खुलकर चोट की। कहा उड़ीसे मज्जन किया, क्या मसीत सिर नायें। दिल महि कपट निवाज गुजारै, क्या हज कावै जायें। कांकर पाथर जोरि कै मसजिद लई बनाय। ता ऊपर मुल्ला अजान दै, क्या बहरा हुआ खुदाय। कबीर साहब ने मुसलमानों के धार्मिक कर्मकांडों को व्यर्थ बताते हुए अजां, नमाज, रोजा, हलाल, सुन्नत पर करारा व्यंग्य किया है। पर उनकी ये आलोचनायें किसी की खिल्ली उड़ाने के लिए नहीं हैं बल्कि उनको मानव धर्म का सच्चा रास्ता दिखाने के लिए है। ‘अरे इन दोऊन राह न पाई’ कहकर दोनों को ठीक राह पर लाने के लिए है। उनकी नजर मैं हिन्दू मुसलमान दोनों बराबर हैं। दोनों के घर में मिथ्याडम्बरों की आग लगी है। कबीर साहब अपनी वाणी से दोनों को सही मार्ग पर लाना चाहते हैं जिससे मानवता का कल्याण हो। सन्त कबीर का समग्र साहित्य- वाणी व साखियां-आध्यात्मिकता और सामाजिकता में बंटी है। पर ये दोनों एक दूसरे की पूरक है। वे आध्यात्मिकता के बल से समाज में फैली विषमताओं को दूर करके सच्चा, नया आदर्शपूर्ण समाज स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए किसी की आलोचना करने से पहले वे अपना आदर्श दूसरों के सामने रखते हैं। कबीर राम भक्ति के प्रति अंधविश्वासी नहीं है। वह अपनी वाणी व साखियों में बार-बार ‘राम’ का नाम लेते हैं, पर इस बात को भी वह पहले स्पष्ट कर देते हैं कि उनका ‘राम’ अवतारी दशरथ पुत्र नहीं है: कबीर का ‘राम’ घट घट में व्याप्त है पर उसे पाने के लिएमन की शुद्धता आवश्यक है। उसमें अंशमात्र भी पक्षपात नहीं होना चाहिए। संत सुजान वही हो सकता है जो निष्पक्ष भाव से ‘हरि भजन’ करता है- पखा पखी के कारणै, सब जब रहा भुलान निर पख होइ कै हरि भजै, सोई संत सुजान। कबीर स्वयं कपड़ा बुनकर मेहनत करके खाते थे, इसलिए निठल्लु साधु-सन्यासी, मुल्ला-मौलवी पर सीधी चोट कर सके। उन्होंने हर सच्चाई को स्वयं निरखा-परखा, कभी किसी पाठशाला में नहीं गये थे न कोई पौथी पढ़ी थी, पर उनकाज्ञान विवेकपूर्ण सर्वोपरि था। उन्होंने स्वयं कहा भी है- मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही न हाथ। तीन लोक की बातें, कबिरा लिखी बनाय। कबीर साहब क्रान्ति की मूर्ति थे। वे अछूत और शूद्रों के आश्रयदाता, बुद्ध धर्म के विनाश से भली-भांति परिचित थे। इसके लिए जो तल दोखी थे, उन्हें भी अच्छी तरह जानते थे। ब्राम्हणवादी सनातन धर्म ने तो बुद्ध धर्म की इमारत को क्षति पहुंचाई थी ही, पर मुस्लिम शासकों ने तो इसे मलियामेंट कर दिया था। ऐसे में बुद्ध धर्म से पलायन किये लोग कहां जाएं, उन्हें धार्मिक आडम्बर से कैसे छुटकारा मिले। समाज में उन्हें यथोचित सम्मान कैसे प्राप्त हो। इन सब प्रश्नों के हल के लिए ही कबीर ने भक्ति का ‘मध्य मार्ग’ प्रतिपादित किया जिससे लाखों लोगों को राहत मिली, सच्चा ज्ञान मिला और स्वाभिमान जागृत हुआ। कबीर साहब स्वभाव से अक्खड़ थे। ये अक्खड़ता उन्हें अपने आध्यात्मिक एवं सामाजिक ज्ञान से मिली थी। जब धर्म और शास्त्रों के नाम पर पाखंडी भोली भाली, कमाऊ ईमानदार जन साधारण को लूट रहे हों, शोषण कर रहे हों, तो उन्हें चुपचाप यह कैसे बर्दाश्त होता, इसी मनोद्वेग ने उन्हें निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता, इस सबके बावजूद उनके अन्दर सबके लिए प्यार भरा थ, वे तो सबमें प्यार, सद्भावना और भातृभाव पैदा करने चाहते थे, उनकी किसी से दुश्मनी नहीं थी। कबीरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर। ना काहू से दोस्ती और ना काहू से बैर।। संत कबीर मस्त मौला थे, वे भी जानते थे कि जिन धर्म के ठेकेदारों ने शान्ति, अहिंसा और मानवतावादी बौद्धों को नहीं बक्शा वे उनके साथियों को कैसे बर्दाश्त कर सकेंगे? इसीलिए वे अपने साथियों को स्पष्ट कहते हैं- हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ। अब घर जादों तासुका, जोचलै हमारे साथ।। उन्होंने जोर देकर कहा- यह घर है प्रेम का, खाला का घर नाहीं। सीस उतारे हाथि धरि, तब बैठे घर माहीं।। कबीर साहब महान समाज सुधारक थे। महात्मा बुद्ध के दो हजार वर्ष बाद उनका आगमन एक ऐसे महापुरुष के रूप में हुआ जिसने पीड़ित, शोषित, कर्तव्य विमुख जन साधारण की न केवल रक्षा की, उन्हें धार्मिक उन्माद और धार्मिक शास्त्रों के शोषण से बचाया बल्कि जीवन जीने की नई राह दिखाई। उन्होंने समाज में नई मान्यतायें स्थापित कीं, नये आदर्श प्रतिपादित किए। उन्होंने मानवीय शोषण एवं उत्पीड़न के खिलाफ चेतावनी दी- दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय। - संग्रहक - निलेश वैद्य Tags : secrets literature mysteries revolution Kabir whole