शूद्रो की खोज TPSG Tuesday, August 13, 2019, 06:39 PM शूद्रो की खोज यह हर कोई जानता है कि शूद्र लोग भारतीय आर्य समुदाय का चैथा वर्ण थे। किंतु बहुत कम लोगों ने यह पता करने का कष्ट किया है कि ये शूद्र थे कौन और वे चैथा वर्ण कैसे बने। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस प्रकार का अन्वेषण सर्वोच्च महत्व का है। क्योंकि यह बात जानने योग्य है कि शूद्र चैथे स्थान पर कैसे आए, इसका कारण उद्विकास था अथवा क्रांति। पुरूष सूक्त के सभी स्त्रोत समान रूप से महत्वपूर्ण नही है और उनकी सार्थकता भी समान नही है। स्त्रोत 11 और 12 एक श्रेणी में आते है और शेष स्त्रोत अन्य श्रेणी में आते है। स्त्रोत 11 और 12 को छोड अन्य स्त्रोतों को शैक्षिक रूचि का माना जा सकता है। कोई उन पर निर्भर भी नही करता। कोई हिंदू उन्हें याद भी नही रखता। किंतु 11 और 12 स्त्रोत की बात अलग है। पहली दृष्टि में देखने पर ये स्त्रोत बस यह बताते है कि चार वर्गोअर्थात (1) ब्राम्हण अथवा पुरोहित, (2) क्षत्रिय अथवा सैनिक, (3) वैश्य अथवा व्यापारी, और (4) शूद्र अथवा दास की उत्पत्ति स्रष्टा (ब्राम्हण) के शरीर से किस प्रकार हुई। किंतु सच यह है कि इन स्त्रोतों को मात्र एक ब्रम्हांडीय परिघटना की व्याख्या के रूप में नहीं समझा जाता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में कहा गया है- चार जातियां है- ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें, पहले उल्लिखित प्रत्येक (जाति) अपने बाद वाले जाति से जन्म के आधार पर श्रेष्ठ है। शूद्रो और उन लोगों को छोड जिन्होनें बुरे कर्म किए है, इन सभी को (1) उपनयन (अथवा पवित्र जनेऊ पहनने का), (2) वेदों के अध्ययन का, और (3) पवित्र अग्नि प्रज्वलित करने (यज्ञ करने) का अधिकार है। यही कथन वशिष्ठ धर्म में भी दोहराया गया है, जिसमें कहा गया है- चार जातियां (वर्ण) है- ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। तीन जातियां ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज (कहलाती है)। उनका पहला जन्म उनकी मां से होता है, दूसरा पवित्र सूत्र धारण करने (यज्ञोपवीत) से। उस (दूसरे जन्म) में मां सावित्री होती है, किंतु शिक्षक को पिता बताया जाता है। वे शिक्षक को पिता कहते है, क्योंकि वह उन्हें वेद की शिक्षा देता है। चारों जातियों में जन्म और संस्कार के आधार पर अंतर होता है। वेद का यह अंश भी है, ब्राम्हण उसका मुख था, क्षत्रिय उसकी भुजाएं, वैश्य उसकी जंघाए, शूद्र उसके पैरों से जन्मा। आगामी अंश में यह घोषित है कि शूद्र संस्कारों को प्राप्त नही करेगा। हिंदू लोग यह दावा करते है कि पुरूष सूक्त अनूठा है। निस्संदेह यह उस विचार के विषय में बढ-चढ कर किया गया दावा है जिसका प्रादुर्भाव तब हुआ था जब मनुष्य का मस्तिष्क आदिम अवस्था में था और उसे आज के जमाने के विविध चिंतन उपलब्ध नही थे। किनतु इस दावे को स्वीकार करने में अधिक कठिनाई नही होनी चाहिए बशर्ते कि यह समझ लिया जाए कि यह किस मायने में अनूठा है। पुरूष सूक्त में सृष्टि की रचना का जो सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है वह ऋग्वेद में उपलब्ध विश्वोत्पत्ति का एक मात्र सिद्धांत नही है। ऋग्वेद के दसवें मंडल के 72वें सूक्त में एक अन्य सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है। इसमें लिखा है- 1. हम स्पष्ट शब्दों में देवों की उत्पत्ति का वर्णन करते है। ये देव भविष्य में स्त्रोतों के उच्चारण के समय स्तोता को देखेंगे। 2. लोहार जिस प्रकार धौंकनी चलाता है, उसी प्रकार ब्रम्हणस्पति ने देवों को उत्पन्न किया। देवों से पूर्व के समय में असत् से सत् उत्पन्न हुआ। 3. देवों की उत्पत्ति से पहले के समय में असत् से सत् उत्पन्न हुआ। इसके बाद दिशाएं उत्पन्न हुई। दिशाओं से वृक्ष उत्पन्न हुए। 4. वृक्षों से भूमि उत्पन्न हुई एवं भूमि से दिशाएं उत्पन्न हुई। अदिति से दक्ष उत्पन्न हुए और बाद में दक्ष से अदिति उत्पन्न हुई। 5. हे दक्ष! तुम्हारी पुत्री अदिति ने देवों को उत्पन्न किया। अदिति के पश्चात प्रशंसनीय एवं अमृत के बंधु देवों ने जन्म लिया। 6. हे देवो! जब तुम इस जल में रहकर अपने को जानते हुए स्थित थे, तब तुम नृत्य सा करने लगे। इससे बहुत धूल उडी। 7. बादल जिस प्रकार वर्षा द्वारा संसार को भरते है, उसी प्रकार देवों ने संसार को ढक लिया। उन्होनें सागर में ढके हुए सूर्य को चमकने के लिए बाहर निकाला। 8. अदिति के शरीर से आठ पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से सात के साथ वह देवलोक में चली गई। आठवां सूर्य आकाश में स्थित हुआ। 9. प्राचीनकाल में अदिति सात पुत्रों के साथ देवलोक में चली गई। केवल सूर्य को प्रजाओं के जन्म-मरण के लिए आकाश में स्थिर किया। पुरूष सूक्त को पढने वाला कोई भी व्यक्ति यह देख सकता है कि इसका आरंभ गधो, घोडो, बकरों आदि की रचना से होता है, किंतु यह सूक्त मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में सर्वथा मौन है। जहां मनुष्य की उत्पत्ति की बात करना स्वाभाविक होता, वहां आकर यह कडी टूट जाती है और आर्य समुदाय में वर्गो की उत्पत्ति की व्याख्या की जाने लगती है। वास्तव में, लगता तो यही है कि पुरूष सूक्त का मुख्य सरोकार आर्य समुदाय के चार वर्गो अथवा वर्णो की व्याख्या ही रही है। इस प्रक्रिया में, पुरूष सूक्त केवल अन्य धर्मशास्त्रों से ही नही बल्कि ऋग्वेद के अन्य भागों से भी बिलकुल विपरीत चला गया है। ऋग्वेद में केवल पुरूष सूक्त ही ऐसा एकमात्र स्थल नही है जहां सृष्टि की रचना के विषय में चर्चा की गई है। ऋग्वेद में ऐसे अन्य स्थल भी है जहां इसी विषय का उल्लेख हुआ है। इस संबंध में, ऋग्वेद में ऐसे अन्य स्थल भी है जहां इसी विषय का उल्लेख हुआ है। इस संबंध मे, ऋग्वेद के निम्नलिखित अंश का उल्लेख किया जा सकता है- अग्नि ने वायु की पूर्वकाल कृत एवं गुणनिष्ठ स्तुति को सुनकर इस मानवी प्रजा को उत्पन्न किया है एवं आच्छादक तेज के आकाश को व्याप्त किया है। ऋत्विजों ने ध्णनदाता अग्नि को धारणा किया है। इसमें, वर्णो के अलग निर्माण का बिलकुल भी उल्लेख नही है, हालांकि इसमें कोई संदेह नही है कि ऋग्वेद के समय में भी भारतीय आर्य समुदाय में विभिन्न वर्णो का विभेद हो चुका था। फिर भी, ऋग्वेद के उपर्युक्त अंश में वर्णो का उल्लेख न करते हुए केवल मनुष्य की रचना का वर्णन किया गया है। फिर पुरूष सूक्त में और भी आगे जाकर वर्णो की उत्पत्ति की बात क्यों कही गई? पुरूष सूक्त एक और संदर्भ में ऋग्वेद के विरूद्ध जाता है। ऋग्वेद तो भारतीय आर्यो की उत्पत्ति के विषय में एक लौकिक सिद्धांत का प्रतिपादन करता है, जैसा कि निम्नलिखित अंशों से स्पष्ट है- 1. अथर्वा ऋषि, समस्त पिताओं के प्रजा तुल्य मनु एवं अथर्वा के पुत्र दध्यड् ऋषि ने जितने भी यज्ञ कर्म किए, उनमें प्रयुक्त हवि रूप अन्न एवं स्तोत्र प्राचीन ऋषियों ने अपने अधिकार का प्रदर्शन किया। 2. हे रूद्र हमारे निमित्त तुम सुखकारक बनो एवं हमें सुख प्रदान करो। हम नमस्कारपूर्वक वीरनाशक रूद्र की सेवा करते है। पिता मनु ने जो रोगशांति और निर्भयता प्राप्त की थी, हे रूद्र! तुम्हें नमस्कार करने पर हम भी उन्हें प्राप्त करें। 3. हे अभीष्टवर्षक मरूद्गण! तुम्हारी जो औषधियां शुद्ध एवं अत्यधिक सुख देने वाली है, जिन्हें हमारे पिता मनु ने पसंद किया था, रूद्र की उन्ही सुखदायक व भयानक औषधियों की हम इच्छा करते है। 4. प्रमुख एवं पूजनीय यजमानों के यज्ञकर्मो में सुंदर इंद्र आते है। देवों के मध्य में प्रजाओं के पालक मनु ने ही इंद्र को पाने का द्वार प्राप्त किया था। 5. यज्ञ को सिद्ध करने वाले देवों तथा ऋत्विजों के साथ यज्ञकर्म द्वारा यजमान के भांति-भांति के यज्ञों को पूर्ण करने वाले, सारे लोक के नेता, शीघ्र काम करने वाले, दानशील एवं शत्रुनाशक अग्नि धरती और आकाश के बीच जाते है। 6. हे सुंदर ऋृभुओं एवं वाजगण! जिस प्रकार तुम दिवसों को शोभन बनाने के लिए मनुष्यों का यज्ञ धारण करते हो, उसी प्रकार देवमार्गो द्वारा हमारे यज्ञ में आओं। 7. अग्नि ही उत्तम ज्ञानसंपन्न है, वह यज्ञ कर्मो के कुशलतम कर्ता एवं सबके दृष्टा है। यजमानों के ऋत्विज यज्ञों में अग्नि को देवों का बुलाने वाला बताकर स्तुति करते है। इन पाठों से यह तो बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वेद के स्तोतों के रचयिता ऋषिगण मनु को भारतीय आर्यो का जनक मानते थे। मनु के भारतीय आर्यो का जनक होने संबंधी इस सिद्धांत का आधार इतना गहरा था कि इसे ब्राम्हण ग्रंथो और पुराणों ने भी आगे बढ़ाया। इसका प्रतिपादन ऐतरेय ब्राम्हण में, विष्णु पुराणण् और मत्स्य पुराण में हुआ है। यह सच है कि उन्होनें ब्रम्हा को मनु का जनक बताया है, किंतु मनु के जनक होने संबंधी ऋग्वेद के सिद्धांत को उन्होनें स्वीकार किया है और उसका पोषण भी किया है। पुरूष सूक्त में मनु का कोई उल्लेख क्यों नही है? यह विचित्र है क्योंकि यह प्रतीत होता है कि पुरूष सूक्त के लेखक को इस तथ्य का ज्ञान था कि मनु स्वयंभू को विरज कहा जाता है और विरज को आदि पुरूष कहा जाता है, क्योंकि वह भी सूक्त के पांचवे स्तोत्र में विरज आदि पुरूष की बात करता है। एक तीसरी बात और है जिसे लेकर पुरूष सूक्त ऋग्वेद से भी आगे चला गया है। वैदिक आर्य सभ्यता के स्तर पर काफी उन्नत थे और यह स्वाभाविक है कि उन्होनें श्रम-विभाजन का सूत्रपात किया होगा। वैदिक आर्यो के समुदाय में भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न व्यवसाय करते थे। वे लोग इससे अवगत थे, इसका प्रमाण निम्नलिखित ऋचा में मिलता है- उषा किसी को धन के लिए, किसी को अन्न के लिए, किसी को महायज्ञ के लिए एवं किसी को अभीष्ट वस्तु प्राप्ति के लिए जगाती है। वह नानारूप जीविकाओं के निमित्त समस्त विश्व को प्रकाशित करती है। ऋग्वेद में इतना ही कहा गया है। किंतु पुरूष सूक्त इससे भी आगे की बात करता है। यह श्रम विभाजन की धारणा को लेकर उसे कामगारों के विभाजन की योजना में बदल देता है। जिसमें व्यावसायिक श्रेणियां नियत और स्थाई है। पुरूष सूक्त ऐसा विकृत कृत्य क्यों करता है? एक और बिंदु है जहां पुरूष सूक्त ऋग्वेद से अलग चला गया है। ऐसा नही है कि ऋग्वेद केवल मनुष्य की बात करता है। यह भारतीय आर्य राष्ट्र की बात भी करता है। यह राष्ट्र पांच जनजातियों से बना था जो एक साझा भारतीय आर्य कौम के रूप में घुल मिल गए थे। निम्नलिखित स्तोत्रों में इन पांच जनजातियों के एक राष्ट्र के रूप में ढलने का उल्लेख है- 1. बुद्धिमान एवं तेजस्वी अग्नि भली प्रकार प्रकाशित होते है। हे अग्नि! तुम विस्तृत धरती आकाश की हव्य से पूजा करो। लोग जिस प्रकार अतिथि की पूजा करते है, उसी प्रकार यजमान हव्य द्वारा अग्नि को प्रसन्न करते है। 2. कवि, गृहपालक एवं युवा अग्नि पंच-जनों के सामने प्रत्येक घर में स्थिर होते है। इस विषय में कुछ मतभेद है कि ये पांच जनजातियां कौन-सी है। यास्क ने अपने निरूक्त में कहा है कि ये गंधर्व, पितृ, देव, असुर और राक्षस है। चातुर्वण्र्य का सिद्धांत प्रतिपादित करने की प्रक्रिया में पुरूष सूक्त ने दोहरी चाल चली है। पहले तो इसने यथार्थ को, अर्थात भारतीय-आर्यो के समाज में चार वर्गो (अथवा वर्णो) के अस्तित्व को, एक आदर्श के स्तर तक उठा दिया है। यह एक धोखाधड़ी है क्योंकि आदर्श किसी भी प्रकार से विद्यमान वास्तविकताओं से भिन्न नही है। यथार्थ को आदर्श के उच्च स्तर पर ले जाने के बाद इसने यह दिखाना चाहा है कि प्रवंचना ही है क्योंकि आदर्श तो पहले से ही यथार्थ में मौजूद है। यथार्थ को आदर्श बनाने और आदर्श को यथार्थ बनाने का पुरूष सूक्त का हय प्रयास एक प्रकार की राजनीतिक बाजीगरी है, और मेरा विश्वास है कि ऐसी बाजीगरी और किसी भी धर्म ग्रंथ में नही मिलेगी। अगर यह धोखाधडी और प्रवंचना नही है तो फिर और क्या है? यथार्थ को आदर्श का रूप देना, जो बहुधा ही अन्यायों से परिपूर्ण है, बहुत ही स्वार्थपूर्ण कृत्य है। जब किसी व्यक्ति को यथास्थिति में ही व्यक्तिगत लाभ मिलता दिखाई देता है तभी वह यथार्थ को आदर्श का रूप देने का प्रयास करता है। इस प्रकार के आदर्श को यथार्थ का रूप देना अपराध से कम नही है। इसका मतलब होता है अन्याय को इस आधार पर चलाते रहना कि एक बार जो स्थापित हो गया वह हमेशा के लिए स्थापित हो गया। यह दृष्टिकोण तमाम नैतिकता के विरूद्ध हैं सामाजिक विवेक रखने वाले किसी समाज ने इसे कभी स्वीकार नही किया। इसके विपरीत, इतिहास में व्यक्तियों और वर्गो के बीच संबद्ध जीवन की शर्तो को बेहतर बनाने की दिशा में जो भी प्रगति हुई है वह पूरे तौर पर इस नैतिक सिद्धांत की मान्यता के कारण है कि जो कुछ गलत ढंग से स्थापित हुआ है, वह कभी स्थापित नही हुआ और उसे फिर से स्थापित किया ही जाना चाहिए। इसलिए, पुरूष सूक्त में अंतर्निहित सिद्धांत अभिप्राय से आपराधिक है और उसके परिणाम समाज विरोधी रहे है। क्योंकि, इसका लक्ष्य एक वर्ग द्वारा अर्जित अवैध लाभ को और एक अन्य वर्ग के विरूद्ध की गई गलती को आगे चलाते रहना है। पुरूष सूक्त की इस बाजीगरी का क्या उद्देश्य हो सकता है? यह दूसरा जटिल प्रश्न है। इन तमाम पहेलियों में अंतिम और जटिलतम पहेली वह है जो पुरूष सूक्त की समाज शास्त्रीय छानबीन से सामने आती है और जिसका संबंध शूद्र की स्थिति से है। पुरूष सूक्त ने वर्णो की उत्पत्ति से सरोकार रखा है, और यह कहा है कि इनकी रचना ईश्वर ने की है। यह एक ऐसा सिद्धांत है जिसे प्रतिपादित करने को किसी भी धर्म शास्त्र ने बुद्धिमतापूर्ण नही माना। यह अपने आप में एक विचित्र बात है। किंतु चकित करने वाली बात तो यह है कि विभिन्न वर्णो की तुलना स्रष्टा के विभिन्न अंगों से की गई है। विभिन्न वर्णो को शरीर के विभिन्न अंगों के समान बताना मात्र संयोग नही है। ऐसा जान-बूझकर किया गया है। इस योजना के पीछे संभवतः यह विचार रहा होगा कि एक ऐसा सूत्र खोजा जाए जिससे दो समस्याओं का समाधान हो जाए, पहली तो चारों वर्णो के कार्यो को नियत करने की समस्या और दूसरी एक पूर्व विचरित योजना के अनुसार चारों वर्णो के वर्गीकरण अथवा श्रेणीकरण की समस्या। विभिन्न वर्णो को स्रष्टा के शरीर के विभिन्न अंगों के समतुल्य बताने के सूत्र का यही लाभ है। अंग विशेष के अनुसार संबंधित वर्ण की श्रेणी नियत हो जाती है और श्रेणी के अनुसार उस वर्ण का कायणर्् नियत हो जाता है। ब्राम्हण की उत्पत्ति स्रष्टा के मुख से बताई गई है। मुख क्योंकि शरीर का श्रेष्ठतम अंग होता है, इसलिए ब्राम्हण चारों वर्णो में सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। क्योंकि इस सोपान में वह श्रेष्ठतम है, इसलिए उसे श्रेष्ठतम कार्य दिया जाता है, अर्थात ज्ञान और विद्या के पालक का कार्य। क्षत्रिय की उत्पत्ति स्रष्टा की भुजाओं से बताई गई है। शरीर के अंगों में भुजाओं का स्थान मुख के ठीक नीचे होता है। परिणामतः, क्षत्रिय को ब्राम्हण के तुरंत नीचे स्थान दिया गया है और ऐसा कार्य दिया गया है जो केवल ज्ञान के बाद आता है, अर्थात लडने का कार्य। वैश्य की उत्पत्ति स्रष्टा की जांघों से बताई गई है। शरीर के अंगों की श्रेणी में जांघों का स्थान भुजाओं के नीचे है। परिणामतः, वैश्य को क्षत्रिय के ठीक नीचे स्थान दिया गया है और उसे उद्योग और व्यापार का कार्य सौंपा गया है जो नाम और यश में एक योद्धा से नीचे है या यों कहिए कि प्राचीनकाल में था। शूद्र की उत्पत्ति स्रष्टा के चरणों से बताई गई है पैर तो मनुष्य के शरीर के निम्नतम और निकृष्टतम अंग होते है। इसके अनुसार, शूद्र को सामाजिक व्यवस्था में सबसे अंतिम स्थान पर रखा गया है और उसे सबसे गंदा कार्य दिया गया है अर्थात दास अथवा भृत्य के रूप में सेवा करने का। पुरूष सूक्त ने चार वर्णो की उत्पत्ति की व्याख्या का यही तरीका क्यों चुना? इसने शूद्र की उत्पत्ति पैरों से क्यों बताई? इसने चार वर्णो की उत्पत्ति को स्पष्ट करने का कोई और तरीका क्यों नही चुना? ऐसा नही है कि सृष्टि की व्याख्या के लिए केवल पुरूष को उपमान बनाया गया है। छांदोग्य उपनिषद में दी गई वेदों की उत्पत्ति की व्याख्या की तुलना कीजिए। इसमें कहा गया है- प्रजापति ने ब्रम्हाण्ड में उष्णता उत्पन्न करके उसमें से तत्व निकाले यानी पृथ्वी से अग्नि, हवा से वायु तथा आकाश से सूर्य निकाले। उस प्रजापति ने फिर तीन आराध्य देवों में उष्णता उत्पन्न की जिसके सार स्वरूप अग्नि से ऋग्वेद की ऋचाएं, वायु से यजुर्वेद के मंत्र और सूर्य से सामवेद की ऋचाएं उत्पन्न की। उसने इन तीनों (वेदों) को उष्णता प्रदान की और इस प्रकार उष्ण हुए वेदों से उत्पन्न तत्व से ऋग्वेद की ऋचाओं से ‘भुव’ शब्द, यजुर्वेद के मंत्रों से ‘भुवः’ और सामवेद से ‘स्वर’ शब्दों की रचना की। विष्णु पुराण में इसका प्रयोग विभिन्न वेदों की उत्पत्ति की व्याख्या के लिए हुआ है, जैसा कि निम्नलिखित अंश से स्पष्ट है- अपने पूर्वी मुख से ब्रम्हा ने गायत्री, ऋग्वेद की ऋचाओं, त्रिवृत, सामवेद के रथांतर और यज्ञों, अग्निष्टोम की रचना की। अपने दक्षिणी मुख से उन्होनें यजुर्वेद के स्तोत्रों, त्रिष्टुभ छंद, पंचदश स्तोम, बृहत्तम और अकथ्य की रचना की। अपने पश्चिमी मुख से उन्होनें सामवेद के स्तोत्रों, जगती छंद, सप्तदश स्तोम, वैरूप, और अतिरात्र की रचना की। अपने उत्तरी मुख से उन्होनें एकविंश, अथर्ववेद, और अनुष्ठुम और विरज छंदों में अप्तोर्यमन की रचना की। एक यज्ञ को संपन्न करने हेतु कुल सत्रह भिन्न भिन्न वर्गो के पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। यह किसी के लिए भी संभव नही है कि प्रत्येक की उत्पत्ति की व्याख्या के प्रयास में स्रष्टा के शरीर के एक अलग अंग का उल्लेख करे और पुरूष के चरणों का प्रयोग एक वर्ण के उत्पत्ति स्थल के रूप में करने से बच जाए, क्योंकि पुरूष्ण के अंगों की संख्या इतनी कम है और पुरोहितों की संख्या इतनी अधिक। फिर भी वैशम्पायन ने क्या किया? उसे स्रष्टा के शरीर के एक ही अंग से पुरोहितों के एक से अधिक वर्णो की उत्पत्ति बताने से कोई गुरेज नही हुआ। वह किसी भी पुरोहित की उत्पत्ति चरणों से बताने से चालाकी से बच गया है। यह स्थिति तब नितांत षडयंत्रसूचक हो जाती है जब हम यह तुलना करने बैठते है कि उत्पत्ति के संबंध में हरिवंश में ब्राम्हणों को जो सम्मान के साथ प्रस्तुत किया गया है और पुरूष सूक्त में शूद्रों के प्रति ओछापन दिखाया गया है। क्या इसके पीछे विद्वेष की भावना है कि पुरूष सूक्त ने यह कहने में संकोच नही किया कि शूद्र की उत्पत्ति पुरूष के चरणों से हुईऔर उसका कार्य सेवा करना है? यदि यह सच है तो फिर इस विद्वेश का कारण क्या है? हमें यह देखना होगा कि इन शब्दों का, इन नामों का कानूनी दृष्टि से क्या अर्थ निकलता है। सवर्ण की तुलना सामान्य तौर पर अवर्ण से की जाती है। सवर्ण का अर्थ होता है वह व्यक्ति जो चार वर्णो में से किसी एक का सदस्य है। अवर्ण वह व्यक्ति होता है जो इन चारों में से किसी भी वर्ण का सदस्य नही होता। ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सवर्ण है। अछूतों अथवा अतिशूद्रो को अवर्ण कहा जाता है, अर्थात जिनका कोई वर्ण नही है। तर्क के स्तर पर देखा जाए तो ब्राम्हणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों की गिनती चातुर्वण्र्य के अंदर होती है। तर्क के स्तर पर, अछूतों अथवा अतिशूद्रों का स्थान चातुर्वण्र्य के बाहर है। द्विज की तुलना सामान्य तौर पर गैर द्विज से होती है। द्विज का शाब्दिक अर्थ होता है दोबारा जन्मा और गैर द्विज ऐसा व्यक्ति होता है जिसका जन्म केवल एक बार हुआ है। यह भेद उपनयन के अधिकार पर आधारित है। उपनयन को दूसरा जन्म माना जाता है। जिन लोगों को पवित्र सूत्र (जनेऊ) पहनने का अधिकार प्राप्त है वे द्विज कहलाते है। जिन्हें यह अधिकार नही है उन्हें गैर द्विज कहा जाता है। ब्राम्हणों, क्षत्रियों और वैश्यों को जनेऊ धारण करने का अधिकार है। तर्क की दृष्टि से, वे द्विज है। शूद्रों और अतिशूद्रों को जनेऊ धारण करने का अधिकार नही है। तर्क की दृष्टि से ये दोनों ही गैर द्विज है। त्रैवर्णिक की तुलना शूद्र से की जाती है। किंतु इस तुलना में कुछ विशेषता नही है। इनमें वही अंतर है जो द्विजों और गैर द्विजों में होता है, सिवाय इसके कि यह तुलना शूद्र तक ही सीमित है और अतिशूद्र इसमें नहीं आते। इसका कारण शायद यह है कि यह शब्दावली अतिशूद्रों के पृथक वर्ण के अस्तित्व में आने से पहले ही प्रचलन में आ गई थी। यदि यह ध्यान में रखें कि शूद्र और अतिशूद्र दोनों ही गैर द्विज है, तो प्रश्न उठता है कि फिर शूद्र को सवर्ण और अतिशूद्र को अवर्ण क्यों माना जाता है? शूद्र जन चातुर्वण्र्य के अंदर है और अतिशूद्र उससे बाहर क्यों? ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी चातुर्वण्र्य के चारों कोनों में स्थित है। ये सभी सवर्ण है। तो फिर शूद्र को ही त्रैवर्णिक के अधिकार से क्यों वंचित रखा गया? क्या शूद्रों के इस जटिल प्रश्न से बढकर कोई और जटिल प्रश्न हो सकता है? निश्चय ही, इसकी पडताल और व्याख्या होनी चाहिए कि वे कौन थे और आर्यो के समाज का चैथा वर्ण कैसे बने? क्या ब्राम्हणी साहित्य में शूद्रों की उत्पत्ति के विषय में कोई व्याख्या मिलती है? इसमें कोई संदेह नही कि ब्राम्हणी साहित्य सृष्टि संबंधी आख्यानों से भरा पडा है, जिनमें विश्व की, मनुष्य की और विभिन्न वर्णो की उत्पत्ति का वर्णन है। इन आख्यानों में शूद्रों की उत्पत्ति की खोज के लिए कोई सूत्र मिले या न मिले, इस विषय में कोई संदेह नही हो सकता कि ऐसे सभी सिद्धांतों को इस पुस्तक में स्थान मिलना चाहिए जिसका संबंध शूद्रों की समस्या से है। और यह किसी और कारण से नही तो इस कारण से होना चाहिए कि शूद्रों से संबंधित सभी सामग्री को एक जगह एकत्र करके उनकी कहानी को पूरा किया जा सके। बेहतर यही होगा कि ब्राम्हणी साहित्य की प्रत्येक रचना को अलग अलग लिया जाए और यह देखा जाए कि इस विषय पर उसमें क्या सामग्री मिलती है। अब हम ब्राम्हण ग्रंथों पर आते है। शतपथ ब्राम्हण में छह व्याख्याएं मिलती है। इनमें से दो में वर्णो की उत्पत्ति का वर्णन है। इन दो में से जिस व्याख्या में शूद्रों की उत्पत्ति का वर्णन है वह निम्नानुसार है- ब्रम्हा (जो टीकाकार के अनुसार अग्नि के रूप में विद्यमान थे और ब्राम्हण जाति के थे) पहले यह (ब्रम्हाण्ड) थे, एक ही थे। एक होने के कारण उनका विस्तार नही हुआ। उन्होनें सोत्साह क्षत्रिय का श्रेण रूप उत्पन्न किया। देवताओं में ये शक्तिशाली है- इन्द्र, वरूण, सोम, रूद्र, परजन्य, यम, मृत्यु, ईषान। इसलिए क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई भी नही है। इसलिए ब्राम्हण राजसूय यज्ञ में क्षत्रिय से नीचे बैठता है, यह गौरव वह क्षत्रिय (राज सत्ता) को देता है। यह ब्रम्हा, क्षत्रिय (की उत्पत्ति) का स्रोत है। इस प्रकार, यद्यपि राजा श्रेष्ठता को प्राप्त करता है, अंत में वह अपने उद्गम के रूप में ब्राम्हण की शरण में आता है। जो उसे (ब्राम्हण को) नष्ट करता है वह अपने ही उद्गम को नष्ट करता है। वह अत्यंत दयनीय बन जाता है, जैसे वह व्यक्ति जो अपने से श्रेष्ठ को आहत करता है। उनका विकास नही हुआ। उन्होनें विश को अर्थात देवताओं के उस वर्ग को उत्पन्न किया जिसमें वसु, रूद्र, आदित्य, विश्वदेव, मारूत आते है। उनका विकास नही हुआ। उन्होनें शूद्र वर्ण पूषण को उत्पन्न किया। यह पृथ्वी पूषणी है, क्योंकि वह सब का पोषण करती है। उनका विकास नही हुआ। उन्होनें सोत्साह एक श्रेष्ठ रूप धर्म को उत्पन्न किया। यह शासक का शासक अर्थात न्याय है। इसलिए न्याय से श्रेष्ठ कुछ भी नही है। इसलिए दुर्बल व्यक्ति सबल को न्याय द्वारा, जैसा राजा के द्वारा, जीतता है। यह न्याय ही सत्य है। परिणामतः सत्यवादी के विषय में कहा जाता है, वह न्याय की बात करता है। क्योंकि यह दोनों ही है। यह ब्रम्हा, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र है। अग्नि के द्वारा यह देवताओं में ब्राम्हण, मनुष्यों में ब्राम्हण, (दिव्य) क्षत्रिय के द्वारा (मानव) क्षत्रिय, (दिव्य) वैश्य द्वारा (मानव) वैश्य, (दिव्य) शूद्र द्वारा (मानव) शूद्र बना। इसलिए, देवताओं में यह अग्नि और मनुष्यों में ब्राम्हण है। तैत्तिरीय ब्राम्हण में इसे निम्नानुसार व्याख्यायित किया गया है- (1) ब्राम्हण जाति की उत्पत्ति देवताओं से, शूद्रों की उत्पत्ति असुरों से हुई है। (2) इस शूद्र की उत्पत्ति शून्य से हुई है। चार वर्णो और शूद्रों की उत्पत्ति के संबंध में ब्राम्हणी अटकलों का यहां पूरा संग्रह है। प्राचीन ब्राम्हणों को इस तथ्य का ज्ञान था कि चार वर्णो की उत्पत्ति एक असाधारण और असामान्य सामाजिक परिघटना थी और इसमें शूद्र का स्थान अत्यंत अप्राकृतिक था और इसकी व्याख्या अपेक्षित थी। नही तो, चातुर्वण्र्य और शूद्र की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के इन असंख्य प्रयासों का औचित्य बताना असंभव होता। किंतु इन व्याख्याओं के विषय में क्या कहा जाए? ये विविध व्याख्याएं, बस भरमाने वाली है। कुछ में कहा गया है कि चार वर्णो की उत्पत्ति पुरूष से हुई, और कुछ इनकी उत्पत्ति ब्रम्हा से बताते है, तो कुछ प्रजापति से इनकी उत्पत्ति मानते है और कुछ व्रत्य से। एक ही स्रोत भिन्न भिन्न व्याख्याएं देता है। शुक्ल यजुर्वेद में दो व्याख्याएं दी गई है, एक पुरूष के संबंध में और दूसरी प्रजापति के संबंध में। कृष्ण यजुर्वेद में तीन व्याख्याएं मिलती है। दो प्रजापति के संबंध में और तीसरी ब्राम्हण के संबंध में। अथर्ववेद में चार व्याख्याएं है, एक पुरूष के संबंध में, दूसरी ब्राम्हण के संबंध में, तीसरी व्रत्य के संबंध में और चैथी इन तीनों से सर्वथा भिन्न है। सिद्धांत एक ही होते हुए भी विवरण में असमानता है। कुछ व्याख्याए, जैसे प्रजापति अथवा ब्रम्हा वाली व्याख्याएं धर्म शास्त्रीय है। मनु अथवा कश्यप संबंण्धी व्याख्याएं मानवीय प्रकृति की है। यहां सब कुछ काल्पनिक है। इनमें न तो इतिहास है और न ही कोई तर्कशीलता। ब्राम्हण ग्रंथों पर टिप्पणी करते हुए मैस मूलर कहते है- इसमें कोई संदेह नही कि ब्राम्हण ग्रंथ भारतीय मानस के इतिहास के एक अत्यधिक रोचक दौर का प्रतिनिधित्व करते है, किंतु साहित्यिक कृतियों के रूप में वे अत्यधिक निराश करते है। किसी ने यह सोचा भी नही होगा कि इतने प्रारंभिक काल में, और इतने आदिम समाज में, ऐसे साहित्य की रचना हुई होगी जिनके पांडित्यदंभ और अनर्गलता का सानी और कहीं मिलना दुर्लभ है। इनमें जबरदस्त विचार है, सशक्त अभिव्यक्तियां है, ठोस तर्क है, और विचित्र परंपराएं है। किन्तु ये एक धड के खंडित अंशों के समान ही है, जैसे पीतल और सीसे में कीमती रत्न जड दिए हो। इन रचनाओं में छिछला और नीरस शब्दाडंबर है, पुरोहिती दर्प है, और पुरातन पांडित्यदंभ है। इतिहासकार के लिए यह जानना अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि पुरोहित लीला और अंधविश्वास किसी राष्ट्र के नूतन और स्वस्थ विकास को कितने शीघ्र बाधित कर सकता है। हमारे लिए यह जानना अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र अपनी तरूणाई में और अपनी परिपक्वावस्था में भी इन महामारियों के शिकार हो सकते है। इन रचनाओं का उसी प्रकार से अध्ययन किया जाना चाहिए जैसे चिकित्सक मंदबुद्धियों के अनर्गल प्रलाप और पागलों की बडबड का अध्ययन करता है। चार वर्णो की, और विशेषकर शूद्रों की, उत्पत्ति के विषय में इन ब्राम्हणी अटकलों के बारे में पढकर प्रो. मैक्स मूलर के इन शब्दों का स्मरण हो आता है। ये सारी अटकले सचमुच मंदबुद्धियों का अनर्गल प्रलाप और पागलों की बडबड है और इसीलिए एक मानवीय समस्या की एक प्राकृतिक व्याख्या की खोज में लगे इतिहास के विद्यार्थी के लिए ये किसी काम की नही है। अपने स्वामी द्वारा मुक्त किए जाने पर भी, शूद्र दासता से मुक्त नही होता, क्योंकि यह (दासता) उसमें जन्मजात है, फिर कौन उसे इससे मुक्त कर सकता है। पर निंदा से दूर रहने वाला शूद्र जिस प्रकार द्विजातियों की सेवा करता है, उसी प्रकार आनंदित होकर इस लोक में, और परलोक में भी आनंद प्राप्त करता है। अब शूद्र का परम कर्तव्य तो केवल वेद को समझने वाले और गृहस्थ के रूप में रहने वाले यशस्वी पुरोहितों की आज्ञा मानना (सेवा करना) है और उसी से उसका कल्याण सुनिश्चित होता है। यदि वह शूद्ध उच्च जातियों के प्रति आज्ञाकारी, मधुरभाषी, अहंकार रहित और सदा ब्राम्हण की सेवा में समर्पित हो, तो (अगले जन्म में) उच्च जाति प्राप्त करता है। अब यदि ब्राम्हण की सेवा से शूद्र की जीविका नहीं चलती है तो वह क्षत्रिय की सेवा करे, और यदि वह भी नही उपलब्ध हो तो वह धनी वैश्य की सेवा करें। किंतु वह ब्राम्हणों की सेवा स्वर्ग के लिए, अथवा (स्वर्ग और जीविका) दोनों के लिए करें। केवल ब्राम्हण की सेवा करना ही शूद्र का सर्वोत्तम व्यवसाय बताया गया है, क्योंकि यदि वह इसको छोड कुछ और करता है तो उससे उसे कोई लाभ नही होने का। शूद्र (सेवको) की सेवाओं के कौशल, उनकी कार्य क्षमता, और उनके आश्रितों की संख्या को ध्यान में रखकर ब्राम्हण अपने घर से ही उनकी आजीविका निश्चित करे। उसे जूठन और पुराने वस्त्र दिए जाएं, और निकृष्ट धान्य और पुरानी सामग्री देनी चाहिए। ब्राम्हण का नाम शुभ, क्षत्रिय का नाम शक्ति, वैश्य का नाम धन से युक्त और शूद्र का नाम तिरस्कार युक्त होना चाहिए। ब्राम्हण के नाम के साथ शर्मा, क्षत्रिय के नाम के साथ रक्षा सूचक, वैश्य के नाम के साथ धन सूचक और शूद्र के नाम के साथ सेवा सूचक शब्द (उपाधि) का प्रयोग किया जाए। यदि एक जन्म वाला व्यक्ति (शूद्र) किसी द्विज को कठोर वचन कहे, तो उसकी जीभ काट दी जाए क्योंकि वह निम्नतम (अर्थात पैर से उत्पन्न) है। यदि वह उनके नाम और जाति का उल्लेख अपमानजनक ढंग से करे, तो उसके मुख में दस अंगुल लंबी लोहे की गरम छड घुसेड दी जाए। यदि व्यक्ति (शूद्र) अभिमान से पुरोहितों को अपने कर्तव्य के विषय में उपदेश दे, तो राजा उसके मुख और कान में खौलता गरम तेल डलवा दे। कोई निम्नतम व्यक्ति (शूद्र) किसी उच्च जाति के व्यक्ति को जिस भी अंग से आहत करे, उसका वही अंग काट दिया जाए, मनु का यही आदेश है। यदि वह उस पर अपना हाथ डंडा उठाए, तो उसका हाथ काट दिया जाए, और यदि क्रोध में उस पर लात उठाए, तो उसके पैर काट दिए जाएं) ब्राम्हणवादी स्मृतिकारों ने शूद्रों के विरूद्ध ऐसे ही विधान बनाए थे। इनका सार निम्नानुसार दिया जा सकता है- 1. सामाजिक सोपान में शूद्र सबसे नीचे था। 2. शूद्र अशुद्ध है इसलिए कोई भी पवित्र कार्य वहां नही किया जा सकता जहां शूद्र उसे देख अथवा सुन सके। 3. शूद्र को वह सम्मान नही दिया जा सकता जो अन्य वर्णो को प्राप्त है। 4. शूद्र के जीवन का कोई महत्व नही है और कोई भी व्यक्ति उसे मार डाले तो उसे कोई मुआवजा देने की जरूरत नही है। और यदि उसका थोडा बहुत महत्व है भी तो वह ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य की तुलना में कुछ भी नही है। 5. शूद्र को ज्ञान प्राप्त करने का कोई अधिकार नही है। उसे शिक्षा देना पाप व अपराध है। 6. शूद्र को संपत्ति अर्जित करने का कोई अधिकार नही है। ब्राम्हण जब चाहे उसकी संपत्ति ले (हडप) सकता है। 7. शूद्र किसी राजकीय पद पर नही रह सकता। 8. शूद्र का कर्तव्य है कि वह उच्च वर्णो की सेवा करे, और इसी में उसका मोक्ष भी है। 9. उच्च जातियों को शूद्र से अंतरविवाह नहीं करना चाहिए। हां, यदि वे चाहे तो शूद्र स्त्री को रखैल बनाकर रख सकते है। किंतु यदि शूद्र किसी उच्च जाति की स्त्री को छुए तो वह कठोर दंड का भागी होगा। 10. शूद्र का जन्म दासता में हुआ है और उसे हमेशा दासता में ही रखा जाना चाहिए। शूद्र ने ब्राम्हण के विरूद्ध कोई अपराध किया है तो ब्राम्हण को यह विशेषाधिकार है कि क्षत्रिय अथवा वैश्य के मुकाबले उसके लिए अधिक दंण्ड की मांग कर सकता है। शूद्र यदि किसी अपराध का दोषी नही है तब भी ब्राम्हण यज्ञ के लिए शूद्र की संपत्ति ले सकता है। शूद्र को इसलिए संपत्ति का संचय नही करना चाहिए क्योंकि इससे ब्राम्हण आहत होता है। ब्राम्हण को उस देश में नही रहना चाहिए जिसका राजा शूद्र हो। ऐसा क्यों है? क्या ब्राम्हण किसी कारण से शूद्र को अपना विशेष शत्रु मानता था? ब्राम्हणी लेखकों से हमें इस बात का कोई सूत्र नही मिलता है कि शूद्र कौन थे और वे चैथा वर्ण कैसे बने। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम पाश्चात्य लेखकों की ओर उन्मुख हो और यह देखें कि इस विषय में उनका क्या कहना है। शूद्रों की उत्पत्ति के विषय में पाश्चात्य लेखकों का एक निश्चित सिद्धांत है। हालांकि सभी पाश्चात्य लेखक इस सिद्धांत के सभी पहलुओं को लेकर एकमत नही है, फिर भी कुछ बिंदु है जिन पर उनमें एक हद तक सहमति दिखाई देती है। ये निम्नानुसार है- 1. वैदिक साहित्य की रचना करने वाले आर्य प्रजाति के थे। 2. यह आर्य प्रजाति भारत में बाहर से आई थी और उसने भारत पर आक्रमण किया था। 3. भारत के मूलनिवासी दास व दस्यु कहलाते थे तथा उनकी प्रजाति आर्यो से भिन्न थी। 4. आर्य गोरे रंग के थे। दास और दस्यु काले थे। 5. आर्यो ने दासों और दस्युओं को पराजित किया था। 6. पराजित होने और गुलाम बना लिए जाने के बाद ये दास एवं दस्यु लोग शूद्र कहलाए। 7. आर्य लोग (मनुष्य की चमडी के) रंग के बारे में पूर्वग्रह से ग्रस्त थे, इसलिए उन्होनें चातुर्वण्र्य व्यवस्था कायम की और इसके अंतर्गत गोरी प्रजाति (नस्ल) को काली प्रजाति जैसे दास और दस्यु से अलग कर दिया। इस सिद्धांत के औचित्य की परख के लिए सबसे अच्छा तरीका तो यही होगा कि उसकी अंश अंश करके समीक्षा की जाए और यह देखा जाए कि प्रत्येक अंश की पुष्टि में साक्ष्यों का कहां तक प्रयोग हुआ है। यह पूरा सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि अतीत में ऐसे लोग रहते थे जिनकी प्रजाति आर्य थी। इसलिए उचित यही होगा कि सबसे पहले इसी मसले से निपटा जाए। यह आर्य प्रजाति है क्या? आर्य प्रजाति के मसले पर विचार करने से पहले हमें यह निश्चित कर लेना होगा कि प्रजाति (नस्ल) शब्द से हमारा तात्पर्य क्या है। यह सवाल उठाना इसलिए जरूरी है क्योंकि एक कौस को प्रजाति समझने की गलती करना असंभव नही है। इस तरह की गलती का सबसे अच्छा उदाहरण यहूदी है। अधिकांश लोग यही मानते है कि यहूदी एक प्रजाति है। नंगी आंखों से देखने पर वे ऐसे दिखाई भी देते है। किंतु विशेषज्ञों का इस विषय में क्या मत है। यहूदियों के बारे में प्रो. रिप्ले का यह कहना है- तो, हमारा अंतिम निष्कर्ष यह है- यह हमारी दृढोक्ति है कि यह विरोधाभासपूर्ण किंतु सत्य है। यहूदी एक प्रजाति नही है, बल्कि आखिरकार एक कौम है। उनके चेहरों में हमें इसकी पुष्टि पढने को मिलती है, जबकि उनके अन्य लक्षणों के विषय में हम आश्वस्त है कि उनकी जो व्यक्तिगत विशिष्टता है वह किसी भी प्रकार से नगण्य न होते हुए- उनकी पीढी दर पीढी की उनकी अपनी निर्मिति है और अभूतपूर्व वंशानुगत शुद्धता का परिणाम नही है। प्रो. मैक्स मूलर के इस मत को वे लोग समझेंग, सराहेंगे जिन्हें यह पता है कि वह कभी आर्य प्रजाति के सिद्धांत को मानने वालों में हुआ करते थे और इसके प्रचार प्रसार में उनकी अहम भूमिका भी रही। ये दोनों मत स्पष्ट तौर पर एक दूसरे से भिन्न है। एक मत के अनुसार, आर्य प्रजाति शारीरिक विशिष्टताओं के साथ विद्यमान थी, उसमें विशिष्ट वंशानुगत लक्षण थे, और एक निश्चित शिरस्थ तथा आनन सूचकांक था। प्रो. मैक्स मूलर के अनुसार, आर्य प्रजाति का आधार उसकी भाषाई विशिष्टता थी, वे एक साझा भाषा बोलने वाले लोग थे। इन विरोधाभासी मतों को देखते हुए यह प्रश्न उठ सकता है- वैदिक साहित्य क्या साक्ष्य प्रस्तुत करता है? वैदिक साहित्य के विवेचन से यह पता चलता है कि ऋग्वेद में दो शब्द आए है- एक है अर्य और दूसरा है आर्य। अर्य शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अठासी (88) स्थानों पर हुआ है। इसका प्रयोग किस अर्थ में हुआ है? इस शब्द का प्रयोग चार भिन्न अर्थो में हुआ है- (1) शत्रु के अर्थ में, (2) सम्माननीय व्यक्ति के अर्थ में, (3) भारत के नाम के रूप में, और (4) स्वामी, वैश्य अथवा नागरिक के रूप में। आर्य शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में इकतीस स्थानों पर हुआ है। किंतु इनमें से किसी में भी इस शब्द का प्रयोग प्रजाति के अर्थ में नही हुआ है। इस चर्चा से एक निर्विवाद निष्कर्ष यह निकलता है कि वेदों में आने वाले अर्य और आर्य शब्दों का प्रयोग प्रजाति के अर्थ में तो बिलकुल नही हुआ है। प्रश्न यह भी उठ सकता है- मानवभिति क्या साक्ष्य प्रस्तुत करती है? आर्य प्रजाति का वर्णन लंबे सिर वालों के रूप में मिलता है। यह वर्णन पर्याप्त नही है। क्योंकि, जैसा कि प्रो. रिप्ले द्वारा दी गई तालिका से पता चलता है, लंबे सिर वाली दो प्रजातियां है। यह प्रश्न अभी भी बना हुआ है कि इनमें से कौन सी आर्य प्रजाति है। अब हम अगले आधार पर आते है कि आर्य लोग भारत में बाहर से आए थे, उन्होनें भारत पर आक्रमण किया और यहां की मूल जनजातियों पर जीत हासिल की थी। इन मसलों को अलग अलग लेना बेहतर होगा। इस बात का क्या प्रमाण है कि आर्य प्रजाति ने भारत पर आक्रमण किया था और यहां की मूल जनजातियों को अपने अधीन कर लिया था? जहां तक ऋग्वेद का सवाल है, तो उसमें इस बात का रत्ती भर भी प्रमाण नही है कि भारत के बाहर से आर्यो ने इस पर आक्रमण किया था। जैसा कि पी.टी. श्रीनिवास आयंगर कहते है- जिन मंत्रों में आर्य, दास और दस्यु शब्द आते है उनकी सावधानीपूर्वक जांच करने से यह पता चलता है कि उनका संबंध प्रजाति से न होकर पूजा पद्धति से है। ये शब्द अधिकतर ऋग्वेद में आए है, जहां आर्य शब्द मंत्रों में लगभग 33 बार आया है जिनमें कुल मिलाकर 1, 53, 972 शब्द है। इन शब्दों का इतनी कम बार आना ही इस बात का प्रभाव है कि जो जनजातियां स्वयं को आर्य कहती थी, वे देश को जीतने वाली और लोगों को तहस-नहस कर देने वाले आक्रमणकारी नहीं थे। क्योंकि आक्रामक जनजाति स्वाभाविक तौर पर अपनी उपलब्धियों की लगातार डींग मारती रहती है। जहां तक वैदिक साहित्य के साक्ष्य का सवाल है, वह इस सिद्धांत के विपरीत है कि आर्यो का मूल निवास स्थान भारत से बाहर था। ऋग्वेद (10, 75, 5) में सप्त नदियों का उल्लेख जिस भाषा में हुआ है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैसा कि प्रो. डी.एस. त्रिवेद ने कहा है- नदियों को मेरी गंगा, मेरी यमुना, मेरी सरस्वती आदि कहकर संबोधित किया गया है। कोई भी विदेशी किसी नदी को इतने परिचित और प्रेमिल अंदाज में तभी संबोधित करेगा, तब बहुत समय तक उसके सान्निध्य में रह लेने पर उसके साथ उसका भावनात्मक लगाव हो जाए। सबसे पहली बात तो यह कि ऋग्वेद में दासों और दस्युओं के विरूद्ध आर्यो की लडाइयों के उल्लेखों का ऋग्वेद में अभाव है। ऋग्वेद में जिन 33 स्थानों पर इस शब्द का उल्लेख हुआ है, उनमें से केवल आठ स्थानों में इसका प्रयोग दासों के विरूद्ध और केवल सात स्थानों में दस्युओं शब्द के विरूद्ध हुआ है। इससे यह तो पता चल सकता है कि दोनों के बीच छिटपुट झडपे हुई थी, किंतु यह निश्चय ही किसी जीत अथवा अधीनता का साक्ष्य नही है। दूसरी बात दासों के संबंध में यह है कि यहां उनके और आर्यो के बीच जो भी टकराव था, इन दोनों के बीच एक आपसी समझौता हो गया था, जो सम्मान सहित शांति पर आधारित था। इसकी पुष्टि ऋग्वेद में आए उन उल्लेखों से होती है जिनसे यह पता चलता है कि दास और आर्य एक साझा दुश्मन के खिलाफ कैसे एकजुट होकर खडे हो गए है। यह तीसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि टकराव चाहे जिस सीमा तक रहा हो, यह प्रजाति का टकराव नही था। यह एक ऐसा टकराव था जो अलग-अलग धर्म होने के कारण पैदा हुआ था। यह टकराव जनजातिगत न होकर धार्मिक था, इस तथ्य की पुष्टि स्वयं ऋग्वेद से होती है। तो यह था विवेचन आर्यो, भारत पर उनके आक्रमण, और दास-दस्युओं को उनके द्वारा अपने अधीन किए जाने का। अभी तक इस प्रश्न पर हमने आर्यो के परिप्रेक्ष्य से विचार किया। अब इस पर दासों और दस्युओं के पक्ष से चर्चा कर ली जाए तो ठीक रहेगा। दास और दस्यु नामों का प्रयोग किस अर्थ में किया जाता है? क्या इनका प्रयोग प्रजाति के अर्थ में होता है? अब दासों की बात करे, तो यह सच है कि ऋग्वेद 6, 47, 21 में उन्हें कृष्ण योनि बताया गया है किंतु इसका कोई अर्थ निकालने से पहले हमें कई बातों पर विचार करना होगा। पहली तो यह कि ऋग्वेद में यह अकेला अंश है जहां दासों के लिए कृष्ण योनि का प्रयोग हुआ है। दूसरी बात, यह बिलकुल भी निश्चित नही है कि कृष्ण योनि का प्रयोग शाब्दिक अर्थ में हुआ है अथवा लाक्षणिक अर्थ में। तीसरी बात यह कि हमें यह नही ज्ञात कि यह यथार्थ कथन है अथवा अपशब्द। जब तक इन बातों का स्पष्टीकरण नही हो जाता, तब तक इस मत को स्वीकार करना संभव नही है कि दासों को क्योंकि कृष्ण योनि कहा गया है इसलिए वे काले रंग की प्रजाति के थे। इन स्तोत्रों से क्या पता चलता है? इससे यह पता चलता है कि आर्यो और दास-दस्युओं के बीच जो विभेद था वह रंग अथवा मुखाकृति पर आधारित प्रजातीय विभेद नही था। तभी तो एक दास अथवा दस्यु एक आर्य बन सकता था। तभी तो इन्द्र को यह काम सौंपा गया था कि वह उन्हें आर्य से पृथक करें। आर्य प्रजाति का सिद्धांत मात्र एक मान्यता अथवा धारणा है और इससे अधिक कुछ भी नही है। यह उस भाषाविज्ञानी प्रस्तावना पर आधारित है जिसे डाॅण्. बाॅप ने 1835 में प्रकाशित अपनी युगांतरकारी पुस्तक कम्परेटिव ग्रामर (तुलनात्मक व्याकरण) में प्रस्तुत किया था। इस पुस्तक में डा. बाॅप ने यह दिखाया था कि यूरोप की बहुत सारी भाषाओं और एशिया की कुछ भाषाओं का स्रोत एक साझा पुश्तैनी भाषा ही है। डा. बाॅप की प्रस्तावना जिन यूरोपीय भाषाओं और एशियाई भाषाओं पर लागू होती है उन्हें भारतीय जर्मन कहा जाता है। सामूहिक रूप में, वे आर्य भाषाएं कहलाई, और इसका प्रमुख कारण यह है कि वैदिक भाषा का संबंध आर्यो से है और यह भी भारतीय-जर्मन भाषा परिवार की ही है। यह धारणा वह मुख्य आधार है जिस पर आर्य प्रजाति का सिद्धांत टिका है। इस मान्यता अथवा धारणा से दो निष्कर्ष निकलते है- (1) प्रजाति की एकता और (2) वह प्रजाति आर्य प्रजाति है। यहां तर्क यह है कि यदि इन भाषओं का जन्म एक साझा पुश्तैनी भाषा से हुआ है तो ऐसी कोई प्रजाति अवश्य ही रही होगी, जिसकी मातृभाषा यही थी और क्योंकि इस मातृभाषा को आर्य भाषा कहा जाता था, इसलिए इसे बोलने वाली प्रजाति आर्य प्रजाति थी। इस प्रकार, एक पृथक और विशिष्ट आर्य प्रजाति का होना मात्र एक अनुमान हे। इस अनुमान से एक और अनुमान एक साझा मूल निवास स्थान का सामने ताना है। यह तर्क दिया जाता है कि भाषा का कोई समुदाय तभी हो सकता है जबकि एक साझा निवास स्थान हो और उसमें निकट संसर्ग की छूट हो। इस प्रकार, साझा मूल निवास तो एक अनुमान से निकला अनुमान है। आक्रमण वाला सिद्धांत तो एक आविष्कार है। यह आविष्कार पाश्चात्य सिद्धांत में निहित एक अकारण धारणा के कारण आवश्यक हो गया है। धारणा यह है कि भारतीय-जर्मन लोग तो मूल आर्य प्रजाति के वर्तमान प्रतिनिधियों में सबसे अधिक शुद्ध है। इनका पहला मूल निवास यूरोप में कहीं माना गया है। इन धारणाओं से एक सवाल उठता है- आर्य भाषा भारत में कैसे आई होगी? इस सवाल का जवाब केवल इस धारणा में मिल सकता है कि आर्य लोग भारत में बाहर से ही आए होंगे। इसीलिए आक्रमण वाले सिद्धांत का आविष्कार करना आवश्यक हो गया। तीसरी धारणा यह है कि आर्य लोगों की प्रजाति श्रेष्ठ थी। इस सिद्धांत के मूल में यह विश्वास है कि आर्य लोग यूरोपीय प्रजाति के है और एक यूरोपीय प्रजाति होने के नाते यह एशियाई प्रजातियों से तो श्रेष्ठ होगी ही। इसकी श्रेष्ठता की धारणा बना लेने के बाद, अगला तार्किक कदम यह हो जाता है कि श्रेष्ठता के तथ्य को प्रमाणित किया जाए। पाश्चात्य लेखकों को यह पता था कि आर्य प्रजाति की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का सबसे अच्छा आधार है। मूल स्वदेशी प्रजातियों पर आक्रमण और जीत, इसलिए उन्होनें आर्यो द्वारा भारत पर आक्रमण और दासों तथा दस्युओं पर विजय की कहानी को आविष्कृत कर लिया। चैथी धारणा यह है कि यूरोपीय प्रजातियां गोरी थी और काली प्रजातियों के विरूद्ध पूर्वग्रह से ग्रस्त थी। आर्य क्योंकि यूरोपीय प्रजाति के थे, इसलिए यह मान लिया गया है कि उनमें रंग को लेकर तो पूर्वग्रह रहा ही होगा। इस सिद्धांत में रंग संबंधी पूर्वग्रह के प्रमाण ढूंढने के लिए भारत में आने वाले आर्यो का उदाहरण ले लिया गया है। यह प्रमाण इसे चातुर्वण्र्य में मिल गया है। इस संस्था की स्थापना आर्यो ने भारत में आने के बाद की थी, और जिसका आधार इन विद्वानों के अनुसार वर्ण है, जिसका अर्थ वे रंग लगाते है। इनमें से एक भी धारणा की पुष्टि के लिए तथ्य नही हैं आर्य प्रजाति संबंधी कथन को ही ले। इस सिद्धांतमें इस संभावना का ध्यान नही रखा गया है कि शरीर विज्ञान के अर्थ में आर्य प्रजाति एक बात है और भाषा विज्ञान के अर्थ में आर्य प्रजाति बिलकुल अलग बात है, और यह पूरे तौर पर संभव है कि यदि कोई आर्य प्रजाति है तो शरीर विज्ञान के अर्थ में उसका निवास किसी एक स्थान में हो और भाषा विज्ञान के अर्थ में उस आर्य प्रजाति का निवास किसी बिलकुल अलग स्थान में हो। आर्य प्रजाति का सिद्धांत एक साझा भाषा पर आधारित है और इसे साझा इसलिए माना जाता है कि क्योंकि इसमें संरचनागत समानता है। आर्य लोग बाहर से आए और उन्होनें भारत पर आक्रमण किया, इसका प्रमाण नही है, और यह भी गलत है कि दास और दस्यु भारत की आदिम जनजातियां हे। यह कहना भी अतिश्योक्ति होगी कि चातुर्वण्र्य संस्था तो आर्यो के रंग संबंधी जन्मजात पूर्वग्रह का प्रतिफलन है। यदि रंगही वर्ण भेद का मूल है तो फिर चातुर्वण्र्य के चार विभिन्न वर्गो अथवा वर्णो के लिए चार विभिन्न रग भी होने ही चाहिए। किसी ने यह नही कहा है कि वे चार रंग कौन से है और कौन-सी वे चार अगौर प्रजातियां थी जिन्हें जोडकर चातुर्वण्र्य का निर्माण हुआ था। वस्तुतः यह सिद्धांत केवल दो विरोधी लोगों, आर्यो और दासों से शुरू होता है- जिसमें एक को गोरा माना गया है और दूसरे को काला। आर्य प्रजाति सिद्धांत के जनक अपना मत स्थापित करने को इतने आतुर है कि उनमें यह देखने का भी धैर्य नही है कि वे किन अनर्गल बातों में पड रहे है। वे जो कुछ सिद्ध करना चाहते है उसे सिद्ध करने के अभियान पर निकल पडते है और वेदों से ऐसे साक्ष्यों को लेने में भी संकोच नही करते जो उनके विचार में उनके काम के है। प्रो. माइकेल फाॅस्टर ने कहीं कहा है कि परिकल्पना तो विज्ञान का लवण है। परिकल्पना के अभाव में सफल अनुसंधान की कोई संभावना नही होती। किंतु यह भी उतना ही सच है कि जहां एक परिकल्पना विशेष को सिद्ध करने की इच्छा हावी रहती है, परिकल्पना वहां विज्ञान का विष बन जाता है। पाश्चात्य विद्वानों का आर्य प्रजाति वाला सिद्धांत इस बात का अच्छा उदाहरण है कि परिकल्पना किस प्रकार विज्ञान का विष बन सकता है। आर्य प्रजाति वाला सिद्धांत इतना अनर्गल है कि इसे तो बहुत पहले मृत (प्रचलन से बाहर) हो जाना चाहिए था। किंतु प्रचलन से बाहर होने की बात तो छोडिए, इसने तो लोगों पर अच्छा खासा असर जमा रखा है। इस स्थिति की दो व्याख्याएं है। पहली व्याख्या इस सिद्धांत को ब्राम्हण विद्वानों से प्राप्त होने वाले समर्थन के रूप में मिलती है। यह अत्यंत विचित्र स्थिति है। हिंदू होने के नाते, आम तौर पर उन्हें तो आर्य सिद्धांत को नापसंद कर देना चाहिए था जो एशियाई प्रजातियों पर यूरोपीय प्रजातियों की श्रेष्ठता का दम भरता है। किंतु ब्राम्हण विद्वान में ऐसी अरूचि तो है ही नही, बल्कि वह तो बडी तत्परता से इसका जय जयकार करता है। इसके कारण भी स्पष्ट है। ब्राम्हण द्वि-राष्ट्र सिद्धांत में विश्वास करता है। वह आर्य प्रजाति का प्रतिनिधि होने का दावा करता है और वह शेष हिंदुओं को अनार्यो की संतान मानता हैं इस सिद्धांत से उसे यूरोपीय प्रजातियणें के साथ अपनी नातेदारी प्रमाणित करने और उनकी तरह अपना दंभ और अपनी श्रेष्ठता जताने में मदद मिलती है। उसे इस सिद्धांत का वह हिस्सा विशेष अच्छा लगता है जिसमें आर्य प्रजाति को अनार्य आदिम प्रजातियों का विजेता और आक्रमणकारी बताया जाता है। क्योंकि इससे उसे गैर ब्राम्हणों पर अपना आधिपत्य बनाए रखने, और उसे उचित ठहराने में भी मदद मिलती है। पाश्चात्य सिद्धांत की मीमांसा से जो निष्कर्ष निकलते है। उन्हें संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है- 1. वेद तो आर्य जैसी किसी भी प्रजाति से अनभिज्ञ है। 2. वेदों में इसका कोई प्रमाण नही है कि आर्य प्रजाति ने कभी भारत पर आक्रमण किया था और भारत के मूलनिवासी माने जाने वाले दासों और दस्युओं को अपने अधीन कर लिया था। 3. इस बात का कोई प्रमाण नही है कि आर्यो और दासो-दस्युओं के बीच जो अंतर था वह प्रजातिगत था। 4. वेद इस तर्क की पुष्टि करते कि आर्य लोग दासो और दस्युओं से भिन्न रंग के थे। हमने जितना कह दिया है वह यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि यह आर्य संबंधी सिद्धांत कितना दोषपूर्ण है जिसे पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित किया गया और उनके ब्राम्हण बंधुओं द्वारा इतनी तत्परता से स्वीकार कर लिया गया है। फिर भी सामान्य लागों पर इस सिद्धांत का इतना जबरदस्त प्रभाव है कि इसके विरोध में कही बातों से शायद इस पर खरोंच ही पड कर रह जाएगी। इसे तो सांप की तरह मार ही डालना चाहिए। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि इस सिद्धांत के खोखलेपन के पूरे तौर पर बेनकाब करने के इरादे से इसका और भी विवेचन किया जाए। जो लोग इस सिद्धांत का समर्थन करते है कि आर्य प्रजाति ने भारत पर आक्रमण किया और दासों तथा दस्युओं पर विजय प्राप्त की थी, वे ऋग्वेद के कुछ स्तोत्रों की अनदेखी कर जाते है। इन स्तोत्रों का अत्यधिक महत्व है। इन स्तोत्रों का उल्लेख किए बिना, आर्य प्रजाति के भारत में आने और यहां की मूल गैर आर्य जनजातियों पर विजय प्राप्त करने जैसे किसी सिद्धांत को विकसित करना नितांत व्यर्थ ही होगा। 1. ऋग्वेद, 6, 33.3- हे इंद्र, तुमने हमारे दोनों शत्रुओं, दासों और आर्यो को मार दिया है। 2. ऋग्वेद, 6, 60.3- इंद्र और अग्नि-धर्म और न्याय के रक्षक हमें आहत करने वाले दासों और दस्युओं का हनन करें। 3. ऋग्वेद, 7, 81.1- इंद्र और वरूण ने सुदास के शत्रु दासों और आर्यो को मार डाला और इस प्रकार उनसे सुदास की रक्षा की। 4. ऋग्वेद, 8, 24.27- हे इंद्र, तुम जिसने सिंधु तट पर रहने वाले आर्यो और क्रूर राक्षसों से हमें बचाया, तुम दासों को उनके शस्त्रों से विहीन करो। 5. ऋग्वेद, 10, 38.3- हे अति आदरणीय इंद्र, वे दास और आर्य जो अधर्मी है, और जो हमारे शत्रु है, उनका दमन करने हेतु हमें अपना आशीर्वाद दो। तुम्हारी सहायता से हम उन्हें मार देंगे। 6. ऋग्वेद, 10, 86.19- हे मामेयु, जो तुमसे प्रार्थना करता है, तुम उसे समस्त शक्तियां दो। तुम्हारी सहायता से हम अपने आर्य और दस्यु शत्रुओं का नाश करेंगे। जो भी व्यक्ति इन स्तोत्रों को पढेगा, उनके कथ्य पर शांत भाव से ध्यान देगा और उन्हें पाश्चात्य सिद्धांत के विरूद्ध समझेगा, वह उन्हें पढकर स्तब्ध रह जाएगा। यदि उन मंत्रों के रचयिता आर्य थे, तो इन मंत्रों से यह विचार संप्रेषित होता है कि आर्यो के दो भिन्न समुदाय थे जो केवल भिन्न ही नही थे। बल्कि एक दूसरे के विरोधी और शत्रु भी थे। दो आर्यो का होना मात्र अनुमान अथवा व्याख्या की बात नही है। यह एक तथ्य है, जिसके समर्थन में अनेकानेक प्रमाण उपलब्ध है। ऐसा पहला प्रमाण, जिसकी ओर ध्यान आकर्षित किया जा सकता है, वह भेदभाव है जो विभिन्न वेदों की पवित्रता को मानने के संबंध में एक लंबे समय से विद्यमान था। वेदों के सभी अध्येता यह जानते है कि वास्तव में वेद दो है- (1) ऋग्वेद, और (2) अथर्ववेद। सामवेद और यजुर्वेद तो ऋग्वेद के ही विभिन्न रूप है। वेदों के सभी अध्येता जानते है कि एक लंबे समय तक ब्राम्हण लोग अथर्ववेद को ऋग्वेद जैसा पवित्र नही मानते थे। ऐसा अंतर क्यों रखा गया? ऋग्वेद को पवित्र क्यों माना गया? अथर्ववेद को असंस्कृत क्यों माना गया? मेरे अनुसार इन प्रश्नों का उत्तर यह है कि ये आर्यो की दो भिन्न प्रजातियां थी, और जब दोनों में एका हो गया तब जाकर अथर्ववेद को ऋग्वेद के समान माना गया। इसके अतिरिक्त, समग्र ब्राम्हणी साहित्य में दो भिन्न विचार धाराओं के विद्यमान होने के प्रमाण बिखरे पडे है, जो विशेषकर सृष्टि रचना के संबंध में है। इनसे भी आर्यो की दो भिन्न प्रजातियों के अस्तित्व का संकेत मिलता है। इनमें से एक का उल्लेख हम अध्याय दों में कर चुके है। अब दूसरे प्रकार की विचारधारा की ओर ध्यान आकर्षित करना शेष रह जाता है। प्रारंभ में हम वेदों को ही लेते है। तैत्तिरीय संहिता में निम्नलिखित विचारधारा मिलती है- तैत्तिरीय संहिता, 6, 5.6.1 (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 26 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- पुत्रों की प्राप्ति की इच्छुक अदिति ने देवताओं और साध्यों हेतु ब्रम्होदन आहुति तैयार की। उन्होेनें अदिति को उसका शेषांश दिया, जिसे उसने खा लिया। उसे गर्भाधान हुआ और उसने चार आदित्यों को जन्म दिया। अदिति ने दूसरा ब्रम्होदन तैयार किया। उसने सोचा कि आहुति के शेषांश से मुझे ये उत्पन्न हुए है। यदि मै इसे पहले खा लू तो और भी पुत्र उत्पन्न होंगे। उसने इसे पहले खा लिया, उसे गर्भाधान हुआ, उससे एक अपूर्ण अंडा बना। उसने तीसरी आहुति आदित्यों के लिए तैयार की, और यह सूत्र दोहराया कि यह धार्मिक उधम मेरे आनंद हेतु किया गया। आदित्यों ने कहा, हम एक वरदान का चयन करते है। इससे जो भी उत्पन्न हो वह केवल हमारा हो, जो समृद्ध है उसकी कोई भी संतान हमारे लिए आनंद का स्रोत हो। इसके फलस्वरूप आदित्य विवस्वत का जन्म हुआ। यह उसकी संतान अर्थात मनुष्य है। उनमें केवल वही समृद्ध होता है जो आहुति देता है, और वह देवताओं के लिए आनंद का कारण होता है। अब ब्राम्हण ग्रंथों की बात करते है। शतपथ ब्राम्हण में सृष्टि (विश्वोत्पत्ति) की कथाएं इस प्रकार दी गई है- शतपथ ब्राम्हण, 1, 8.1.1 (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 181-184 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- सुबह वे मनु के लिए प्रक्षालन हेतु जल लेकर आए जैसी कि मनुष्यों की आदत है। जब मनु इस प्रकार प्रक्षालन कर रहे थे तो उनके हाथों में एक मछली आ गई। मछली ने उनसे कहा कि मुझे बचा लो, मै तुम्हें बचाउंगी। मनु ने उससे पूछा कि वह उन्हें किससे बचाएगी? मछली ने उत्तर दिया, एक बाढ़ इन सभी प्राणियों को बहा ले जाएगी, मै तुम्हें इससे बचाउंगी। मनु ने पूछा, तुम मुझे कैसे बचाओगी? मछली ने कहा, जब तक हम छोटी रहती है, हम अत्यधिक खतरे में रहती है, क्योंकि मछली ही मछली को खा जाती है, तुम पहले मुझे एक मात्र में बचाकर रखोगे। जब (मै बडी हो जाउंगी और) पात्र मेरे लिए छोटा पड जाएगा, तब तुम मुझे सागर में ले जाना। तब मै खतरे से बाहर हो जाउंगी। वह तुरंत बहुत बडी मछली बन गई। उसने कहा, अमुक-अमुक वर्ष में बाढ आएगी, जब बाढ का पानी उपर चढे तो तुम नौका में सवार हो जाना, और मै तुम्हें इससे बचाउंगी। इस प्रकार मछली को बचाकर मनु उसे सागर में ले गए। और मछली के बताए वर्ष में ही मनु ने एक नौका बनाई और उसका सहारा लिया। जब बाढ का पानी चढा तो मनु नौका में सवार हो गए। मछली तैरती हुई उनकी ओर आई। उन्होनें नौका की रस्सी को मछली के सींग में बांध दिया। इस माध्यम से उसने उस उत्तरी पर्वत को पार किया। मछली ने कहा, मैने तुम्हें बचाया है, नौका को किसी वृक्ष से बांध दो। किंतु जब तक तुम पर्वत पर हो, ऐसा न हो कि पानी तुम्हें काट दे, इसीलिए जैसे-जैसे पानी (का स्तर) घटे, वैसे-वैसे तुम नीचे आना। मनु ने ऐसा ही किया। इसीलिए उत्तरी पर्वत का नाम मनु का उतरना पडा। अब बाढ इन सभी प्राणियों को बहाकर ले जा चुकी थी, इसलिए अकेले मनु वहां रह गए। संतान की इच्छा से मनु ने पूजा और श्रमसाध्य धार्मिक संस्कार करने शुरू कर दिए। उन्होनें पाक की आहुति भी दी। उन्होनें घी, दूध, छाछ और दही की आहुति जल में दी। तब एक वर्ष में उससे एक स्त्री उत्पन्न हुई। वह चिकनी थी। घी उसके पैरों से चिपका था। मित्र और वरूण उसे मिले। उन्होनें उससे कहा, तुम कौन हो? मनु की पुत्री (उसने उत्तर दिया)। (यह) कहो (कि तुम) हमारी (हो), (उन्होनें कहां)। उसने कहा, नही, मै उसकी हॅू, जिसने मुझे उत्पन्न किया। उन्होने उसमें हिस्सेदारी चाही। उसने इसका वचन दिया, अथवा नही दिया, किंतु वह आगे निकल गई। वह मनु के पास आई। मनु ने उससे कहा, तुम कौन हो? उसने उत्तर दिया, तुम्हारी पुत्री। तुम मेरी पुत्री कैसे हो? तुमने मुझे उत्पन्न किया है, वह बोली। (तुमने मुझे) उन आहुतियों से, घी, दूध, छाछ और दही से (उत्पन्न किया है), जो तुमने जल में डाली थी। मै एक आशीष हॅू। मुझे आहुति में प्रयोग करो। यदि तुम मुझे आहुति में प्रयोग करोगे तो तुम्हारे पास बहुतायत में संताने और मवेशी होंगे। मेरे माध्यम से तुम जो भी आशीष मांगोगे, वह तुम्हें मिलेगी। मनु ने (तदनुसार) उसका प्रयोग आहुति (यज्ञ) के मध्य में करना प्रारंभ किया। उसके साथ वह संतान की इच्छा से पूजा करते और कठोर धार्मिक संस्कार करते रहे। उससे उन्होनें जो भी आशीषे मांगी, वे सभी उन्हें मिली। यही मूल रूप में इडा है। जो कोई भी, यह जानते हुए, इडा के साथ रहता है, उसे यही संतान प्राप्त होती है, जो मनु को प्राप्त हुई थी। वह उससे जो भी आशीष उससे मांगता है, वह उसे मिलती है। (2) शतपथ ब्राम्हण, 6, 1.2.11 (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 30 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- उन लोकों की रचना कर लेने के उपरांत, प्रजापति को पृथ्वी पर धारण किया गया। उसके लिए इन औषधियों को भोजनाथ पकाया गया। उस (भोजन) को उन्होनें खाया। वह गर्भवान हुए। अपनी उपरी प्राणवायु से देवताओं को रचा और निम्न प्राणवायु से मत्र्य संतति को। उन्होनें जैसे भी रचा, वैसे रचा। किंतु प्रजापति ने इस सबको रचा, जो कुछ भी अस्तित्वमान है। (3) शतपथ ब्राम्हण, 7, 5.2.6 (म्यूर खंड 1, पृष्ठ 24 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- प्रजापति पहले यह (विश्व) थे, केवल एक थे। उन्होनें इच्छा की, मै भोजन को उत्पन्न करूं और प्रसारित होऊं। अपने श्वास से उन्होनें पशुओं को बनाया, अपनी आत्मा से एक मनुष्य को, अपनी आंख से एक घोडे को, अपने श्वास से एक सांड को, अपने कान से एक भेड को, अपनी वाणी से एक बकरे को बनाया। पशुओं को क्योंकि उन्होनें अपने श्वास से बनाया, इसलिए मनुष्य कहते है, श्वास तो पशु है। आत्मा ही पहला श्वास है। क्योंकि उन्होनें मनुष्य का अपनी आत्मा से बनाया, इसलिए कहते है मनुष्य सबसे पहला पशु है, और सबसे शक्तिशाली भी। आत्मा समस्त श्वास है, क्योंकि समस्त श्वास आत्मा पर निर्भर करते है। क्योंकि उन्होनें मनुष्य को अपनी आत्मा से बनाया, इसलिए कहते है, मनुष्य समस्त पशु है, क्योंकि ये सब मनुष्य के है। (4) शतपथ ब्राम्हण, 10, 1.3.1 (म्यूर खंड 1, पृष्ठ 31 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- प्रजापति ने प्राणियों को उत्पन्न कियां अपनी उपरी प्राण वायु से उन्होनें देवताओं को उत्पन्न किया, अपनी निम्न प्राण वायु से मत्र्य जीवों को। बाद में उसने प्राणियों का भक्षण करने वाली मृत्यु को बनाया। (5) शतपथ ब्राम्हण, 14, 4.2.1 (म्यूर खंड 1, पृष्ठ 25 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- यह विश्व पहले केवल आत्मा था जो पुरूष के रूप में था। निकट से देखने पर, उसे बस वह स्वयं (आत्मा) दिखाई दिया। पहले उसने कहा, यह मै हॅू। फिर वह एक हो गया और उसका नाम हो गया मै। इसलिए आज भी जब किसी मनुष्य को पुकारा जाता है, तो वह पहले यही कहता है, यह मै हॅू। और फिर वह अपना दूसरा नाम बताता है। क्योंकि उसने इससे पहले (पूर्व) समस्त पापों को जला डाला (ओषल), इसलिए उसे पुरूष कहा जाता है जो मनुष्य यह जानता है वह उस व्यक्ति को जला देता है जो उससे पहले होने की कामना करता है। वह भयभीत हुआ। इसलिए मनुष्य एकाकी होने पर डरता है। इस (जीव) ने सोचा कि मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नही है, मै किससे भयभीत हॅू? तब उसका भय जाता रहा। क्योंकि वह डरता भी क्यों? लोग दूसरे व्यक्ति से भय खाते है। उसने सुख का आनंद नही लिया। इसलिए अकेला होने पर कोई व्यक्ति सुखी नही होता। उसने दूसरे की इच्छा की। आलिंगनबद्ध अवस्था में वह नर भी था और नारी भी। उसने इसे दो भागों में विभक्त कर दिया। उससे पति और पत्नी की उत्पत्ति हुई। इसीलिए याज्ञवल्क्य ने कहा है कि इसका स्व एक फटे मटर के आधे के समान है। इसलिए निर्वात को नारी ने भरा। उसने उस (नारी) से सहवास किया। उनसे मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। उस (नारी) ने सोचा, अपने आप में से मुझे उत्पन्न करने के बाद, उसने मुझसे सहवास क्यों किया? मै विलुप्त हो जाती हॅू। वह गाय बन गई, और वह सांड, और उसने उसके साथ सहवास किया। उनसे गाय उत्पन्न हुई। वह घोडी बन गई, और वह घोडा। उसने उसके साथ सहवास किया। वह गधी बन गई, और वह गधा। उसने उसके साथ सहवास किया। उनसे अविभक्त खुरों वाले पशु उत्पन्न हुए। वह बकरी बन गई, और वह बकरा, वह भेड बन गई और वह मेंढा। उसने उसके साथ सहवास किया। उनसे बकरे-बकरियां और भेंडे उत्पन्न हुई। इस प्रकार सभी जीवों के, (बडे से लेकर) चीटियों तक के जोडे उत्पन्न हुए। तैत्तिरीय ब्राम्हण में इस प्रकार लिखा है- तैत्तिरीय ब्राम्हण, 2, 2.9.1 (म्यूर खंड 1, पृष्ठ 28-29 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- पहले यह (विश्व) कुछ नही था। न आकाश था, न धरती, न वायु। इसने संकल्प किया ‘मेरा अस्तित्व हो।’ यह तेजमय हो गया। उस तेज से धुएं की उत्पत्ति हुई। वह फिर तेजमय हुआ। उस तेज से अग्नि उत्पन्न हुई। यह फिर तेजमय हुआ। उस तेज से प्रकाश उत्पन्न हुआ। यह फिर तेजमय हुआ। उस तेज से लौ उत्पन्न हुई। यह फिर तेजमय हुआ। इस तेज से किरणें उत्पन्न हुई। यह फिर तेजमय हुआ। इस तेज से कौंध उत्पन्न हुई। यह फिर तेजमय हुआ। यह एक मेघ के समान घनीभूत हो गया। यह फटा। इससे सागर बना। इसलिए मनुष्य सागर का जल नही पीते। क्योंकि वे इसे उत्पत्ति का स्थान मानते है। इसीलिए जब कोई जीव उत्पन्न होता है तो उससे पहले पानी बाहर आता है। उसके बाद दसहोत्रि की रचना हुई। प्रजापति ही दसहोत्रि है। जो मनुष्य तप (अथवा तेज) की शक्ति को जानकर उसका अभ्यास करता है, वह सफल होता है। तब यह जल था, तरल था। प्रजापति ने रोकर कहा, किस उद्देश्य से मैने जन्म लिया, यदि मैने इससे जन्म लिया जिसका कोई आधार नही है। जो (अश्रु) जल में गिरा उससे धरती बन गई। जो उसने उपर की ओर पोंछ दिए, उससे आकाश बन गया। उसके रोने (अरोदित) के कारण इन दो का नाम रोदसि है। जो मनुष्य इसे जानता है उसके घर में वे नहीं रोते। यह पता था इन लोकों का। जो इन लोकों के जन्म के विषय में जानता है, उसे इन लोकों में कोई कष्ट नही होता। उसने इस (पृथ्वी) को एक आधार के रूप में प्राप्त किया। इसे आधार रूप में प्राप्त करने के उपरांत उसने इच्छा की, मेरा विस्तार हो। उसने तप किया। वह गर्भवान हुआ। अपने उदर से उसके असुरों को उत्पन्न किया। उन्हें उसने मिट्टी के पात्र में भोजन दिया। उसने अपने उस शरीर को त्याग दिया। अंधकार हो गया। उसने इच्छा की, मेरा विस्तार हो। उसने तप किया। वह गर्भवान हुआ। उसने अपने जननांग से प्राणियों (प्रजा) को उत्पन्न किया। इसलिए उनकी संख्या सबसे अधिक है, क्योंकि उसने उन्हें अपने जननांग से उत्पन्न किया। उन्हें उसने एक लकडी के पात्र में दूध दिया। उसने अपने उस शरीर को त्याग दिया। चांदनी हो गई। उसने इच्छा की, मेरा विस्तार हो। उसने तप किया। वह गर्भवान हुआ। उसने अपनी कांख से ऋतुओं को उत्पन्न किया। उन्हें उसने चांदी के पात्र में मक्खन दिया। उसने अपना वह शरीर त्याग दिया। यह दिन रात का संधिकाल हो गया। उसने इच्छा की, मेरा विस्तार हो। उसने तप किया। वह गर्भवान हुआ। उसने अपने मुख से देवताओं को उत्पन्न किया। उन्हें उसने सोने के पात्र में सोम दिया। उसने अपने इस शरीर को त्याग दिया। यह दिन हो गया। ये प्रजापति की रचनाएं है। जो इसे जानता है, वह संतान उत्पन्न करता है। हमें दिन (दिवा) प्राप्त हुआ है- इस कथन से देवताओं के देवत्व की अभिव्यक्ति होती है। जो इस देवत्व को जानता है, वह देवताओं को प्राप्त करता है। यह जन्म है दिवसों और रात्रियों का। जो दिवसों और रात्रियों के जन्म को जानता है उसे दिनों और रातों में कोई कष्ट नही होता। मन (अथवा आत्मा, मानस) की उत्पति शून्य से हुई। मन से प्रजापति की उत्पत्ति हुई। प्रजापति से संतान की उत्पत्ति हुई। जो कुछ भी विद्यमान है, उसका आधार मन है। इसी को ब्रम्हा ने स्वोवास्य कहा है। जो मनुष्य इसे जानता है, उसके लिए उषा अधिकाधिक चमकीली होती है, उसकी अनेक संताने होती है, उसके पास अनेक मवेशी होते है, वह परमेष्ठि पर प्राप्त कर लेता है। (3) तैत्तिरीय ब्राम्हण, 2, 3.8.1 (म्यूर खंड 1, पृष्ठ 23 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- प्रजापति ने इच्छा की, मेरा विस्तार हो। उसने तप किया। वह गर्भवान हुआ। वन पीत-ताम्रवर्ण का हो गया। इसलिए एक गर्भवती स्त्री पीली होने पर ताम्रवर्ण की हो जाती है। भ्रूण धारण कर वह थकित हो गया। थकित होकर वह श्याम-ताम्र वर्ण का हो गया। इसलिए, थकित मनुष्य श्याम-ताम्र वर्ण का हो जाता है। उसका श्वास प्राणवान हो गया। उस श्वास (असु) से उसने असुरों को उत्पन्न किया। इसी में असुरों का असुर स्वभाव निहित है। जो असुरों के इस असुर स्वभाव को जानता है उसे श्वास मिलता है। उसे श्वास त्यागता नही है। असुरों को उत्पन्न करने के पश्चात उसने स्वयं को पिता माना। उसके उपरांत उसने पिताओं (पितृ) को उत्पन्न किया। इसमें पिताओं का पितृत्व निहित है। जो इस तरह पिताओं के पितृत्व को जानता है वह स्वयं पिता समान हो जाता है, पिता उसकी आहुति का सहारा लेते है। पिताओं को उत्पन्न करने के पश्चात उसने मनन किया। उसके उपरांत उसने मनुष्यों को उत्पन्न किया। इसमें मनुष्यों का मनुष्यत्व निहित है। जो मनुष्यों के मनुष्यत्व को जानता है, वह बुद्धिमान हो जाता है। मन उसका त्याग नही करता। जब वह मनुष्यों की रचना कर रहा था, स्वर्ग में दिन प्रकट हुआ। उसके उपरांत उसने देवताओं को बनाया। इसमें देवताओं का देवत्व निहित है। जो इस प्रकार देवताओं के देवत्व को जानता है, उसके लिए स्वर्ग में दिन प्रकट होता है। ये चार धाराए है- देवता, मनुष्य, पितृ और असुर। इन सबसे जल तो वायु के समान है। (4) तैत्तिरीय ब्राम्हण, 3, 2.3.9 (म्यूर खंड 1, पृष्ठ 21 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- इस शूद्र की उत्पत्ति शून्य से हुई है। तैत्तिरीय अरण्यक, 1, 12.3.1 (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 52 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- यह जल है, तरल (है)। अकेले प्रजापति का जन्म एक कमल पत्र से हुआ। उसके मन में यह इच्छा उठी, मै इसकी रचना करूं। इसलिए मनुष्य अपने मन में जो ध्येय बनाता है, उसकी घोषणा वह वाणी से करता है, और कर्म द्वारा उसे कार्य रूप में परिणत करता है। इसलिए यह कहा गया है, परमेश्वर के मन में सबसे पहले सृष्टि रचना की इच्छा उत्पन्न हुई। वही सबसे पहले मन में सृष्टि का बीज बनी। विद्वानों ने बुद्धि से हृदय में विचार किया और असत् में सत् के कारण को खोजा। (ऋग्वेद, 10, 129.4)। इस प्रकार जो मनुष्य जानता है उसे उसकी इच्छा का पता चल जाता है। उसने तप किया। तप करने के पश्चात उसने अपने शरीर को झकझोरा। उसके मांस से अरूण, केतु और वातरसन (नामक) ऋषियों की उत्पत्ति हुई। नखों से वैखानस और केशों से वालाखिल्य का जन्म हुआ। उसके शरीर के द्रव्य से एक कछुआ बना जिसने जल में विचरण किया। उसने उससे कहा, तुम मेरी त्वचा, मेरे मांस से उत्पन्न हुए हो। नहीं, कछुए ने उत्तर दिया, मै यहां पहले से था। उसके पहले (पूर्वम) रहे होने में मनुष्य (पुरूष) का मनुष्य निहित है। एक सहस्र सिरों, एक सहस्र आंखों, एक सहस्र चरणों वाला पुरूष बन कर वह उत्पन्न हुआ। (ऋग्वेद, 10, 90.1)। प्रजापति ने उससे कहा, तुम्हारा जन्म मुण्झसे पहले हुआ, पहले तुम इसे करो। उसने अपनी दोनों हथेलियों में पानी लिया और इस पाठ को दोहराते हुए इसे पूर्व दिशा में रखा, ऐसा हो, हे सूर्य। उससे सूर्य निकला। वह पूर्व दिशा हुई। फिर अरूण केतु ने जल को दक्षिण में रखकर कहा, ऐसा हो, हे अग्नि। उसे अग्नि की उत्पत्ति हुई। यह दक्षिण दिशा हुई। फिर अरूण केतु ने जल का यह कहते हुए पश्चिम में रखा, ऐसा हो, हे वायु। उसे वायु की उत्पत्ति हुई। वह पश्चिम दिशा हुई। फिर अरूण केतु ने जल को उत्तर में रखकर कहा, ऐसा हो, हे इंद्र। तब इंद्र का जन्म हुआ। यह उत्तर दिशा होती है। तब अरूण केतु ने जल को मध्य में रखते हुए कहा, ऐसा हो, हे पूषा। उससे पूषा का जन्म हुआ। वह यही दिशा है। अरूण केतु ने जल को उपर रखकर कहा, ऐसा हो, हे देवो। उससे देवताओं, मनुष्यों, पितरों, गंधर्वो और अप्सराओं का जन्म हुआ। वह उपरी दिशा है। जो बूंदे गिर गई, उनसे असुरों, राक्षसों और पिशाचों का जन्म हुआ। इसलिए नष्ट हो गए क्योंकि उनकी उत्पत्ति बूंदों से हुई थी। इसलिए यह कहा गया है- जब महाजल गर्भवान हुआ, उसमें बुद्धि थी, और उससे स्वयंभू की उत्पत्ति हुई, तो उनसे इन सृष्टियों को रचा गया। इन सब की रचना जल से हुई इसलिए यह सब ब्रम्ह स्वयंभू है। यह शिथिल था, और इसलिए अस्थिर था। प्रजापति वह था। स्वयं को स्वयं से उत्पन्न कर, उसने उसमें प्रवेश किया। इसलिए यह स्तोत्र कहा गया है- विश्व की रचना करके, विद्यमान की रचना करके, दिग-दिगंत की रचना करके, सबसे पहले उत्पन्न हुए प्रजापति आत्मसात हो गए। महाभारत का इस विषय में अपना अलग ही योगदान है। इसमें मनु द्वारा सृष्टि रचना किए जाने के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है। वनपर्व में लिखा है (म्युर, खंड 1, पृष्ठ 199-201 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- एक महान ऋषि थे, मनु-विवस्वत के पुत्र, वैभवशाली, प्रजापति के समान तेजस्वी। ऊर्जा, श्री और तपोबल में वह अपने पिता और पितामह दोनों से बढकर थे। विशाल बद्री में हाथ उठाकर, एक पैर पर खडे होकर, उन्होनें घोर तप किया। अपना सिर झुकाकर निर्निमेष, दस हजार वर्षो तक वह यह कठोर तप करते रहे। एक बार जब उन्होनें जटा बढाई, टपकते लत्तों में इस प्रकार लीन थे, तो चिरणी के तट पर एक मत्स्य उनके पास आया और बोला, प्रभो, मै एक छोटा मत्स्य हॅू। मै शक्तिशाली मत्स्यों से भयभीत हॅू, आप उनसे मेरी रक्षा करें। क्योंकि शक्तिशाली मछलियां अशक्त मछलियों को खा जाती है। अनादि काल से हमारे भरण-भोषण का यही साधन है। आशंका की इस बाढ से मेरी रक्षा करें, जिसमें मै डूब रहा हॅू। मै इस कर्म का प्रतिफल दूंगा। यह सुनकर मनु का हृदय दया से भर गया, उन्होनें मछली को अपने हाथ में लिया और उसे पानी में लाकर ज्योत्सना समान धवल पात्र में डाल दिया। इस पात्र में, बढ़िया देखभाल होने से, वह मत्स्य बडा हो गया, क्योंकि मनु उसे पुत्र समान मानते थे। एक लंबे समय के बाद वह मत्स्य इतना बडा हो गया कि वह पात्र उसके लिए छोटा पड गया। तब, मनु को देखकर उसने फिर कहा, मुझे कहीं और रखे जिससे मै बढ सकूं। तब मनु ने उसे पात्र में से निकालकर एक बडे से ताल में डाल दिया। वहां कई वर्षो तक उसका बढना जारी रहा। यद्यपि वह ताल दो योजन लंबा और एक योजन चैडा था, उस कमल नयन मछली के लिए इसमें चलने फिरने लायक जगह नही थी। उसने मनु से फिर कहा, मुझे सागर सम्राट की प्रिय रानी गंगा में ले चले, उसमें ही मै रहूंगी, या फिर आपको जो अच्छा लगे वही करे, क्योंकि मै आपके ही अधीन हॅू। क्योंकि आपकी कृपा से ही मै इतना बडा हो गया हॅू। मनु ने उसे ले जाकर गंगा में डाल दिया। कुछ समय तक वह वहां बढता रहा, तो उसने मनु से फिर कहा, मै इतना विशाल हॅू कि गंगा में घूम फिर नही सकता, कृपा करके तुरंत मुझे सागर में डाल दे। भारी होने पर भी, मनु उसे आसानी से ले गए, उसका स्पर्श और उसकी गंध सुखद थी। जब मनु ने उसे सागर में डाल दिया, तो उसने मनु से कहा, महाप्रभो, आपने हर प्रकार से मेरी रक्षा की है, अब आप मुझसे सुने कि समय आने पर आपको क्या करना है। शीघ्र ही ये सभी चल-अचल वस्तुएं नष्ट हो जाएंगी। लोकों के शुद्धिकरण का समय अब आ पहुंचा है। इसलिए मै आपको आपके भले की बात बता रहा हॅू। इस विश्व के लिए, चल-अचल के लिए भयंकर काल आ गया है। अपने लिए एक मजबूत नौका बनाएं, उसमे एक रस्सी लगाए, सात ऋषियों सहित इसमें सवार हो जाए, और ब्राम्हणोें द्वारा प्राचनी काल से बताई गई सीाी बीजों को सावधानी पूर्वक इसमें जमा करेें। जब नौका में सवार हो तो मेरी खोज करें। मुझे आप मेरे सींग से पहचान सकेंगे। आप ऐसा ही करें, मै आपको प्रणाम करके विदा लेता हॅू। इस विशाल जलराशि को मेरे बिना पास नही किया जा सकता। मेरे शब्दों पर अविश्वास न करें। मनु ने उत्तर दिया, मै वैसा ही करूंगा जैसा तुमने कहा है। एक दूसरे को विदा कह, वे अपनी-अपनी राह चले गए। तब मनु, कहे अनुसार, अपने साथ बीज लेकर सुंदर नौका में सवार होकर ठाठे मारते सागर में निकले, तब उन्हें उस मछली का विचार आया, और वह मत्स्य उनकी इच्छा को जान पूरी गति से वहां आ पहुंचा, और अपने सींग द्वारा पहचाना गया। जब मनु ने उस सींगदार पर्वताकार मत्स्य को देखा तो नौका की रस्सी को उसके सींग से बांध दिया। मत्स्य ने नौका को बहुत तेजी से खींचा और उसे खारे सागर के पास ले चला, जिसकी लहरे जैसे नृत्य कर रही थी और जिसका जल गर्जन कर रहा था। तूफानों के थपेडे खाती, नौका एक मदमस्त और चकराती स्त्री की तरह चक्कर खाती रही। न तो धरा दिखाई देती थी, जल, वायु और आकाश के अतिरिक्त कुछ भी नही था। इस भ्रमित विश्व में सात ऋषि, मनु और मछली ही दिखाई देते थे। इस तरह, कई वर्षो तक वह मत्स्य नौका को जल के उपर अनथक खींचता रहा, और हिमवत की सबसे उंची चोटी पर ले आया। तब उसने, मुस्कराते हुए, उन ऋषियों से कहा, नौका को अविलंब इस चोटी से बांध दो। और उन्होने ऐसा ही किया। और हिमवत के उस सर्वोच्च शिखर को आज भी नौबंधन (नौका को बांधना) कहा जाता है। तब उस मित्रवत मत्स्य (अथवा अनिमिष देव) ने ऋषियों से कहा, मै प्रजापति ब्रम्हा हॅू, जिससे उंचा कोई नही है। एक मत्स्य के रूप में मैने तुम्हें इस महा विपत्ति से बचाया है। मनु समस्त जीवों, देवों, असुरों, मनुष्यों समस्त लोकों, और समस्त चल-अचल वस्तुओं की रचना करेंगे। मेरी कृपा और कठोर तप के बल पर उन्हें उनके सृजन हेतु पूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी, और वह हैरान नही होंगे। यह कहकर वह मत्स्य एक क्षण में गायब हो गया। मनु ने समस्त प्राणियों के सृजन की इच्छा से, और अपने कार्य को संपन्न करने के लिए कठोर तप किया, और फिर समस्त जीवों की रचना में लग गए। महाभारत के आदि पर्व में सृष्टि की कुछ अलग ही कहानी बताई गई है। इसमें लिखा है (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 122-126 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- वैशम्पायन ने कहा- स्वयंभू को प्रमाण करके मै तुम्हें देवताओं तथा अन्य प्राणियों के सृजन और विनाश का सही सही विवरण देता हॅू। छह महान ऋषि ब्रम्हा के मानस पुत्रों के रूप में ख्यात है- मारीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और कृतु। मारीचि के पुत्र कश्यप थे, और कश्यप से इन जीवों की उत्पत्ति हुई। दक्ष के तेरह पुत्रियों हुई- अदिति, दिति, दनु, कला, दनयु, सिमुक, क्रोधा, प्रधा, विस्वा, विनता, कपिला और मुनि। कद्रु भी इनमें थी। इन कन्याओं के असंख्य वीर पुत्र और पौत्र हुए। गौरवशाली, शांत और तपी दक्ष ऋषि की उत्पत्ति ब्रम्हा के दाहिने अंगूठे से हुई। बाएं अंगूठे से उन महान ऋषि की पत्नी की उत्पत्ति हुई, जिसने पचास पुत्रियों को जन्म दिया। इनमें से दस उसने धर्म को दे दी। सत्ताईस इंदु (सोम) को, और दिव्य व्यवस्था के अनुसार तेईस कश्यप को दे दी। पितामह के वंशज और प्राणियों के देव और स्वामी मनु उसके (यह स्पष्ट नही है कि किसके) पुत्र थे। आठ वसु उनके पुत्र थे, जिनके विषय में मै विस्तार से बताउंगा। ब्रम्हा के दाहिने वक्ष को विभक्त कर, गौरवशाली धर्म ने मानव रूप में जनम लिया, और सभी लोगों को सुख दिया। उसके तीन ख्यात पुत्र थे- साम, काम और हर्ष। ये तीनों समस्त प्राणियों को आनंद देने वाले है और अपने बल से संसार को अवलंब देते है..... मनु की पुत्री आरूशि उस ऋषि (भृगुपुत्र च्यवन) की पत्नी थी.... ब्रम्हा के दो अन्य पुत्र है, जिनका चिन्ह विश्व में शेष है। ये धातृ और विधातृ, जो मनु के साथ रहे। इनकी बहन सुंदर देवी लक्ष्मी थी, जो कमलवासिनी है। उसके मानस पुत्र अश्व थे जो आकाश में विचरण करते है.... जब भोजनाभिलाषी जीवों ने एक दूसरे को खा लिया, तो अधर्म का जन्म हुआ जो सभी प्राणियों का विनाशक है। उसकी पत्नी निऋृति थी, और इसीलिए राक्षसों को नैऋत अर्थात निऋति की संतान कहा जाता है। निऋति के तीन भयानक पुत्र हुए भय, महाभय, और मृत्यु जो निरंतर दुष्कर्मो में रत रहे। पुत्र मृत्यु प्राणियों का अंत करने वाला है। उसके न तो पत्नी है और न कोई पुत्र, क्योंकि वह तो अंत करने वाला है। महान ऋषियों के समान तेजस्वी दस प्रचेता पुत्र गुणी और पवित्र थे, और उनके मुखों से निकलती अग्नि पहले महिमावानों को भस्म कर चुकी थी। उनसे दक्ष प्रचेता का जन्म हुआ, और दक्ष से इन प्राणियों का जन्म हुआ। वीरिणी के साथ सहवास करके मुनि दक्ष ने अपने समान एक हजार पुत्रों को उत्पन्न किया, जो अपने धार्मिक कृत्यों के लिए प्रख्यात थे। नारद ने उन्हें मोक्ष का सिद्धांत सिखाया और सांख्य का अनुपम ज्ञान दिया। संतानोत्पत्ति की इच्छा से, प्रजापति दक्ष ने तदुपरांत पचास पुत्रियों को उत्पन्न किया। इनमें से दस कन्याएं उन्होनें धर्म को दे दी, तेरह कश्यप को, और समय के नियंत्रण सत्ताईस कन्याएं उन्होनें इंदु (सोम) को दी..... अपनी तेरह पत्नियों में सर्वश्रेष्ठ दक्षयानी से मारीचिपुत्र कश्यप ने आदित्यों को उत्पन्न किया जिनके नेता इंद्र थे। इनके अतिरिक्त उन्होनें विवस्वत को भी उत्पन्न किया, जिसका पुत्र शक्तिशाली यम वैवस्वत हुआ। मार्तड (विवस्तव, सूर्य) ने बुद्धिमान और शक्तिशाली पुत्र मनु और उसके छोटे भाई, प्रसिद्ध यम को उत्पन्न किया। यह मनु धर्मालु थे, और वह एक वंश के संस्थापक हुए। इसलिए मनुष्यों का यह परिवार मनु के वंश के रूप में जाना गया। ब्राम्हण, क्षत्रिय और अन्य मनुष्यों की उत्पत्ति इन्हीं मनु से हुई। उन्ही से, हे राजा, ब्राम्हण और क्षत्रिय निकले। उनमें से मनु की संण्तान ब्राम्हणों ने वेदांग सहित वेद को धारण किया। मनु की संतान वेण, धृणु, नरिश्यांत, नायाग, इक्ष्वाकु, करूष, शर्याति, इला, प्रशाद्र और नामगरिष्ट थे। मनु के पचास अन्य पुत्र भी थे। किंतु जैसा कि हमने सुना है, वे सभी आपसी फूट के कारण नष्ट हो गए। बाद में, इला से पुरूरवा उत्पन्न हुए, और हमने सुना है कि इला उनकी मां भी थी और पिता भी। रामायण में भी सृष्टि के विषय में बताया गया है। इसका एक विवरण इसके दूसरे कांड में इस प्रकार मिलता है (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 115, से उद्ध्त अंश का अनुवाद)- राम को रूष्ट जानकर वसिष्ठ ने उत्तर दिया, जाबालि भी यह जानते है कि इस लोक के प्राणियों का परलोक में जाना और आना होता रहता है। किंतु उन्होनें तुम्हें लौटाने की इच्छा से यह कहा था। हे भूपति, तुम मुझसे विश्व की उत्पत्ति का यह विवरण सुनो। इस संसार में बस जल ही जल था। इसके भीतर पृथ्वी का निर्माण हुआ। तब ब्रम्हा स्वयंभू अस्तित्व में आए, और उनके साथ देवता भी। फिर ब्रम्हा ने वराह का रूप धारण किया और पृथ्वी को निकाला, और अपने संत पुत्रों के साथ समूचे विश्व की रचना की। शाश्वत, नित्य और अविनाशी ब्रम्हा की उत्पत्ति आकाश से हुई। उनसे मरीचि उत्पन्न हुए, जिनके पुत्र कश्यप थे। कश्यप से विवस्वत उत्पन्न हुए, और उनसे मनु उत्पन्न हुए जो पहले जीवों के स्वामी (प्रजापति) थे। मनु के पुत्र इक्ष्वाकु थे, और उन्हीं को यह समृद्ध पृथ्वी पहले उनके पिता ने दी थी। इन इक्ष्वाकु थे, और उन्हीं को यह समृद्ध पृथ्वी पहले उनके पिता ने दी थी। इन इक्ष्वाकु को तुम अयोध्या का पूर्ववर्ती राजा समझो। इसके अतिरिक्त सृष्टि का एक और वृत्तांत मिलता है। तीसरे कांड में इस प्रकार लिखा है (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 116 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- राम के वचन सुनकर, उस पक्षी (जटायु) ने उन्हें अपने कुल के विषय में स्वयं अपने विषय में, और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में बताया, पूर्वकाल में जो-जो प्रजापति हो चुके है, उन सबके विषय में प्रारंभ से बताता हॅू, सुनो। सर्वप्रथम कर्दम हुए, फिर विकृत, शेष, संश्रय, पराक्रमी बहुपुत्र, स्थाणु, मरीचि, अत्रि, अक्तिशाली क्रतु, पुलस्त्य, अंगिरा, प्रचेता, पुलह, दक्ष, फिर विवस्वत, अरिष्टनेमि, और अंत में तेजस्वी कश्यप हुए। प्रजापति दक्ष की साठ पुत्रियां थी। इनमें से आठ सुंदर कन्याओं को कश्यप ने अपनी पत्नी बनाया। इनके नाम है अदिति, दिति, दनु, कालका, ताम्रा, क्रोधवशा, मनु और अनला। तब कश्यप ने प्रसन्न होकर इन कन्याओं से कहा, तुम मेरे समान पुत्रों को जन्म दोगी जो तीनों लोकों के संरक्षक होंगे। अदिति, दिति, दनु और कालका तो कश्यप की बात से सहमत हो गई, किंतु अन्य सहमत नही हुई। अदिति ने तैंतीस देवताओं को जन्म दिया- इनमें आदित्य, वसु, रूद्र और दो अश्विनी कुमार थे। कश्यप की पत्नी मनु ने ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के मनुष्यों को जन्म दिया। ब्राम्हणों का जन्म मुख से, क्षत्रियों का वक्ष से, वैश्यों का जंघाओं से, और शूद्रों का जन्म पैरों से हुआ। वेद यही कहते है। अनला से पवित्र फल वाले समस्त वृक्ष उत्पन्न हुए। पुराण इस विषय में क्या कहते है, इसे स्पष्ट करने के लिए मै विष्णु पुराण का निम्नलिखित अंश उद्धृत कर रहा हॅू (म्यूर, खंड 1, पृष्ठ 220-221 से उद्धृत अंश का अनुवाद)- ऐहिक अंड से पहले दिव्य ब्रम्हा हिरण्यगर्भ का, समस्त लोकों के शाश्वत जनक का अस्तित्व था, जो ब्रम्हा का रूप और सार था, जो दिव्य विष्णु है, जो ऋक, यजुस, साम और अािर्ववेद के समान हे। ब्रम्हा के दाहिने अंगूठे से प्रजापति दक्ष उत्पन्न हुए, दक्ष की पुत्री अदिति थी, अदिति से विवस्वत उत्पन्न हुए और विवस्वत से मनु उत्पन्न हुए। मनु के पुत्रों का नाम इक्ष्वाक, नृग, धृष्ट, सर्याति, नारिश्यांत, प्रांशु, नमगणेदिष्ट, करूश और पृशाघ्र था। पुत्र की इच्छा से मनु ने मित्र और वरूण के निमित्त यज्ञ किया। किंतु होत्रि पुरोहित की अनियमितता के कारण गलत आवाहन हो गया, जिससे इला नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। फिर मित्र और वरूण की कृपा से वह मनु के लिए सुद्युम्न नामक पुत्र बन गई। किन्तु ईश्वर (महादेव) के कोप से वह दोबारा कन्या बन गई, तो वह सोम (चंद्रमा) के पुत्र बुध के आश्रम के निकट विचरण करने लगी। वह उस पर मोहित हो गया और उसके साथ संसर्ग से उसे पुरूरवा नामक पुत्र प्राप्त हुआ। उसके जन्म के पश्चात यज्ञ से, ऋक, यजुस, साम और अथर्ववेद से समस्त वस्तुओं से, मन से, शून्य से बने देवता की, याज्ञिक नर रूपी की अनंत तेज वाले ऋषियों ने पूजा की, जिनकी इच्छा थी कि सुद्युम्न फिर से पुरूष बन जाए। इस देवता की कृपा से इला फिर से सुद्युम्न बन गई। आगे विष्णु पुराण में मनु पुत्रों का निम्नलिखित विवरण दिया गया है- 1. अपने धर्मगुरू की गाय का वध करने के कारण, पृशाघ्र शूद्र बन गया। 2. करूष से महा शक्तिशाली क्षत्रिय कारूष निकले। 3. नेदिष्ट का पुत्र नाभाग वैश्य बना। उपर्युक्त कथा सूर्य वंश की है। विष्णु पुराण में चंद्र वंश की कथा भी है, जिसकी उत्पत्ति इसके अनुसार अत्रि से हुई थी, जैसे सूर्य वंश की उत्पत्ति मनु से हुई- अति तो ब्रम्हा के पुत्र और सोम (चंद्रमा) के पिता थे, जिन्हें ब्रम्हा ने पौधों, ब्राम्हणों ने पौधो, ब्राम्हणों और नक्षत्रों का राजा नियुक्त किया था। राजसूय यज्ञ संपन्न करने के पश्चात, सोम अभिमान से उन्मत्त हो गया और देवताओं के गुरू बृहस्पति की पत्नी तारा को ले गया। यद्यपि ब्रम्हा, देवों और ऋषियों ने उससे बहुत कहा, किंतु सोम ने तारा को नहीं लौटाया। सोम का पक्ष उषाण ने लिया जबकि अंगिरा से शिक्षा प्राप्त करने वाले रूद्र ने बृहस्पति की सहायता की। क्रमशः देवताओं और दैत्यों द्वारा समर्पित इन पक्षों के बीच भीषण संघर्ष हुआ, ब्रम्हा ने हस्तक्षेप करते हुए सोम को बाध्य किया कि वह बृहस्पति को उनकी पत्नी लौटा दे। किंतु इस बीच तारा गर्भवती हो गई और उसने बुध नामक पुत्र को जन्म दिया। जब उससे जोरदार आग्रह किया गया, तो उसने स्वीकार किया कि बुध का पिता सोम था। पुरूरवा इसी बुध का पुत्र था जो मनु की पुत्री इला के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। पुरूरवा के छह पुत्र थे जिनमें सबसे बडा अयुस था। अयुस के पांच पुत्र थे-नहुष, क्षत्रवृद्ध, रंभा, राजी और अनेनरू। क्षत्रवृद्ध का पुत्र शुनहोत्र था जिसके तीन पुत्र काश, लेश और गृत्समद थे। गृत्समद से शौनक उत्पन्न हुआ, जिसने चातुर्वण्र्य व्यवस्था की शुरूआत की। काश के एक पुत्र काशीराज हुआ, जिसका पुत्र दीर्घतमस ािा, जैसे दीघतमस का पुत्र धन्वंतरि था। अब सृष्टि के इन सिद्धांतों की तुलना अध्याय दो में वर्णित सिद्धांतो से की जाए, तो निष्कर्ष क्या निकलता है? मेरे विचार से इस तुलना का परिणाम यह निकलता है- (1) एक का रंग और चरित्र पुरोहिती है, तो दूसरे का लौकिक, (2) एक मनु जैसे मनुष्य को सृष्टि का जनक बताता है, तो दूसरा परमात्मा ब्रम्हा अथवा प्रजापति को, (3) एक में ऐतिहासिकता है, तो दूसरे में अलौकिकता, (4) एक में बाढ की बात कही गई है, तो दूसरा इस विषय में मौन है, (5) एक का ध्येय चार वर्णो की व्याख्या करना है, तो दूसरे का ध्ेय केवल समाज की उत्पत्ति की व्याख्या करना है। ये अंतर अनेक है और बुनियादी भी। चातुर्वण्र्य से संबंधित जो अंतर है वह विशेष बुनियादी दिखाई देता है। पुरोहिती विचारधारा तो इसे मानती है किंतु लौकिक सिद्धांत इसे नहीं मानता। यह सच है कि इन दोनों सिद्धांतों को मिलाकर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया जाता है कि मनु की संतानों ने किस प्रकार चार वर्णो का रूप ले लिया। रामायण और पुराणों में यही किया गया है। किंतु यह स्पष्ट रूप में दो सिद्धांतों को एक में ढालने का ही प्रयास है। यह प्रयास जानबूझ कर और खूब सोच समझकर किया गया है। किंतु इन दो विचारधाराओं का यह अंतर इतना बुनियादी है कि इस प्रयास के बावजूद ये दो पृािक सिद्धांत ही बने हुए हे। हुआ बस यह है कि अब हमारे पास चातुर्वण्र्य, पुरूष द्वारा उद्भूत अलौकिक चातुर्वण्र्य, और मनु के पुत्रों में विकसित प्राकृतिक चातुर्वण्र्य की एक के बजाय दो व्याख्याए है। इनका परिणाम जो इतना अटपटा है तो इससे यही स्पष्ट होता है कि ये दो सिद्धांत अथवा विचारधाराएं बुनियादी तौर पर भिन्न और बेमेल है। यह खेद का विषय है कि ब्राम्हणी साहित्य में अभिलिखित इन दो सिद्धांतों की ओर इस विषय के विश्लेषक विद्वानों का ध्यान नही गया। किंतु इस तथ्य की अनदेखी नही की जा सकती कि इन सिद्धांतों का वजूद है, और महत्व भी। बुनियादी तौर पर भिन्न और बेमेल इन दो विचारधाराओं के वजूद का महत्व क्या है? मुझे तो ऐसा लगता है कि ये दो भिन्न आर्य प्रजातियों अथवा वंशों की विचारधाराएं है, जिनमें से एक का विश्वास चातुर्वण्र्य में दूसरे का नही, और जो बाद में जाकर एक हो गए। यदि इस तर्क का ठोस आधार है तो ब्राम्हणी साहित्य में उजागर सिद्धांतों में निहित इस अंतर से नए सिद्धांत के पक्ष में और भी प्रमाण मिलता है। मेरे विचार के पक्ष में तीसरा और सर्वाधिक अकाट्य प्रमाण भारतीय जन के मानवमितीय सर्वेक्षण से सामने आता है। ऐसा सर्वेक्षण सबसे पहले सर राॅबर्ट रिसले द्वारा सन् 1901 में किया गया था। उन्होनें शिरस्य सूचकांक के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि भारतवासी चार भिन्न प्रजातियों का मिश्रण थे- (1) आर्य, (2) द्रविड, (3) मंगोल, और (4) शक। उन्होनें तो उन क्षेत्रों को भी स्पष्ट कर दिया है जहां इनका जमाव था। यह सवेक्षण अत्यंत सरसरी तौर पर किया गया था। डाॅ. गुहा ने उनके निष्कर्षो का परीक्षण 1936 में किया। इस विषय पर उन्होंने जो रिपोर्ट दी है वह भारतीय मानव विज्ञान के क्षेत्र में एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है। डाॅ. गुहा द्वारा तैयार किए गए नक्शे से भारतीय जन के प्रजातीय गठन पर प्रकाश पडता है। अपने इसी मानचित्र के आधार पर डाॅ. गुहा ने भारतीय जन के सिर की माप के अनुसार उनका वर्गीकरण किया है। डाॅ. गुहा का यह निष्कर्ष है कि भारतीय जन दो प्रजातीय संततियों से बने है- लंबे सिर वाले, और छोटे सिर वाले, और लंबे सिर वाले भारत के अंदरूनी भागों में और छोटे सिर वाले बाह्यांचलों में है। भारत के विभिन्न हिस्सों में मिली खोपड़ियों के साक्ष्य से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। इससे संबंधित साक्ष्य के विषय में डाॅ. गुहा का कहना है- उपर्युक्त प्रागैतिहासिक स्थलों से प्राप्त मानव अवशेषों के विवरण यद्यपि, सिंधु घाटी के अवशेषों के अपवाद को छोडकर, अत्यधिक कम है, फिर भी उनसे हमें इस काल में भारत के प्रजातीय इतिहास की वयापक रूपरेखा को समझने में मदद मिलती है। चैथी सहस्राब्दी ई.पू. के प्रारंभ से उत्तर-पश्चिम भारत एक लंबे सिर और पतली उंची नाक वाली प्रजाति के कब्जे में दिखाई देता है। उनके साथ-साथ हमें एक और अत्यंत मजबूत गठन वाली प्रजाति का भी अस्तित्व दिखाई देता है, और ये भी लंबे सिर वाले थे, किंतु इनकी खोपडी छोटी थी और ये वैसे ही लंबी मुखाकृति और पतली नाक वाले थे। चैडे सिर वाले और आर्मेनाॅइड किस्म की एक तीसरी प्रजाति का भी अस्तित्व था, किंतु इन अधिकांश खोपडियों के मिलने के स्थल हडप्पा की आयु के अनुसार इनका प्रादुर्भाव कुछ बाद में हुआ था। ऐल्पाइन और भूमध्यसागरीय प्रजाति की बात करें तो हम यह कह सकते है कि भारतीय जन ण्दो संततियों से है- (1) भूमध्यसागरीय अथवा लंबे सिर वाली प्रजाति, और (2) ऐल्पाइन अथवा छोटे सिर वाली प्रजाति। भूमध्यसागरीय प्रजाति के विषय में कुछ तथ्यों को स्वीकार किया जाता है। यह स्वीकार किया जाता है कि यह प्रजाति आर्य भाषा बोलती थी। यह स्वीकार किया जाता है कि इसका मूल निवास यूरोप में भूमध्यसागरीय थाले के आसपास था और ये लोग वहीं से भारत में आए। इनके स्थानीयकरण से यह स्पष्ट है कि ये ऐल्पाइन प्रजाति से पहले ही भारत में आ गए थे। ऐल्पाइन प्रजाति के विषय में ऐसे ही तथ्यों की अभी पुष्टि होनी है। पहला तथ्य ऐल्पाइन प्रजाति के मूल निवास के संबंध में है और दूसरा इसकी मूल भाषा के संबंध में। प्रो. रिप्ले के अनुसार ऐल्पाइन जन का मूल निवास एशिया में कहीं हिमालय मे था। उनके तर्को को उन्ही के शब्दों में दिया जा सकता है। प्रो. रिप्ले का कहना है- हमें यह कहने का क्या अधिकार है कि पूर्व से जनसंख्या का यह अतिक्रमण- यह विजय नही थी, हर तथ्य इसके क्रमिक शांतिपूर्ण आप्रवास होने की ओर संकेत करता है, और प्रायः यह अनधिकृत भूभाग पर बसने तक ही सीमित था- एशिया की ओर से आने वाली एक बाढ थी? इसके प्रमाण व्यापक रूप में उस महाद्वीप के लोगों से संबंधित, विशेषकर पामीर क्षेत्र के पश्चिमी हिमालयी उच्चभूमि के लोगों से संबंधित हमारे ज्ञान पर आधारित है। ठीक यहां दुनिया की छत पर जहां मैक्स मुलर और प्रारंभिक भाषाविज्ञानियों ने आर्य सभ्यता का मूल निवास होना बताया है, ठीक यहां एक मानव प्रजाति रहती है, जो हमारी आदर्श ऐल्पाइन अथवा सेल्टिक प्रजाति से बहुत मिलती-जुलती है। डि उयफाल्वी, तोपीनार, और अन्य विद्वानों ने यहां आसपास के एक विशाल भूभाग पर इसके विशिष्ट लक्षणों को देखा है। गालचा, पहाडी ताजिक और उनके साथी भूरी आंखों वाले, काले बालों वाले, गठे शरीर वाले है जिनके शिरस्थ सूचकांक अधिकतर 86 से उपर हे। इस क्षेत्र से ऐसे ही शारीरिक गठन वाले लोगों की एक लंबी श्रृंखला अनवरत पश्चिम की ओर एशिया माइनर होती हुई यूरोप तक चली गई है। एक आदर्श ऐल्पाइन प्रजाति के कब्जे वाले पश्चिम एशिया के एक विस्तृत क्षेत्र की खोज से जिस एकमात्र प्रश्न का समाधान होता है कि इससे इस विशिष्ट प्रजाति की बंधुता को बल मिलता है। यह एशिया से सीधे आप्रवास का प्रमाण तो बिलकुल भी नही है, जैसा कि टापेनर ने कहा है। किंतु, इससे हम इस बात के लिए तो प्रेरित होते ही है कि जब हम चैडे सिर वाली प्रजाति के मूल की खोज करते है जो हमें पूर्व की ओर अपनी नजर घुमानी होती है। तथ्यों से एक अस्पष्ट सा संकेत यही मिलता है कि इनका मूल जातीय आधार इसी दिशा में कहीं है। यह पश्चिम की ोर नही हो सकता, क्योंकि एटलांटिक क्षेत्र में हर कहीं यह प्रजाति धीरे-धीरे गायब होती जाती है। इस मामले में हम पूर्वग्रह के शिकार इसलिए भी हो जाते है क्योंकि ऐल्पाइन लोग एशिया महाद्वीप के अन्य लाखों लोगों से विशेषकर सिर की आकृति के मामले में, किंतु बाल, रंग और कद के मामले में भी मिलते जुलते है। यह उसी प्रकार है जैसे कि हमारी भूमध्यसागरीय प्रजाति के सिरों की बढती लंबाई और अतिशय ललछौंछेपन के आधार पर पहले हम इसे अफ्रीकी नीग्रो प्रजाति की जडे पूर्व की ओर है, भूमध्यसागरीय प्रजाति की जडे दक्षिण की ओर। इसकी भाषा को लेकर थोडा विवाद है कि यूरोप में आर्य भाषा को किसने प्रचलित किया नाॅर्डिक (शुद्धतम भारतीय जर्मन) लोगों ने अथवा ऐल्पाइन लोगों ने। किंतु इस विषय में कोई विवाद नही है कि ऐल्पाइन प्रजाति की भाषा आर्य थी और इसलिए भाषाशास्त्रीय अर्थ में यह आर्य प्रजाति कहलाने की अधिकारी है। उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वेद के समर्थन में मानवमिति और इतिहास में इस मत का ठोस आधार है कि भारत में एक नही दो आर्य प्रजातियां थी। इसे देखते हुए, यह स्वीकार करना ही होगा कि पाश्चात्य सिद्धांत और ऋग्वेद के साक्ष्य में प्रत्यक्ष टकराव है। यहां पाश्चात्य सिद्धांत एक आर्य प्रजाति की बात करता है, वही ऋग्वेद दो आर्य प्रजातियों की बात करता है। इस तरह, पाश्चात्य सिद्धांत एक बडे मुद्दे पर ऋग्वेद से मतभेद रखता है। ऋग्वेद क्योंकि इस विषय का सर्वोत्तम साक्ष्य है, इसलिए इससे मतभेद रखने वाले सिद्धांत को खारिज करना ही होगा। इससे बचने का कोई रास्ता नही है। इस बडे मुद्दे पर इस मतभेद के फलस्वरूप आक्रमण और विजय के मुद्दे पर भी मतभेद पैदा हो जाता है। हम नहीं जानते कि दोनों में से कौन-सी आर्य प्रजाति भारत में पहले आई। किंतु यदि उनका संबंध ऐल्पाइन प्रजाति से था, तो इसका मूल निवास हिमालय के निकट था, और इसलिए बाहर से आक्रमण वाले सिद्धांत के लिए कोई गुंजाइश नहीं बनती। जहां तक यहां की मूल जनजातियों पर विजय का सवाल है, तो अगर इसे सच मान भी लिया जाए तब भी यह मामला इतना आसान नही है जितना पाश्चात्य लेखकों ने मान लिया है। यह मानते हुए कि दास और दस्यु दोनों आर्यो से भिन्न प्रजाति के थे, तो विजय के सिद्धांत में केवल आर्यो द्वारा दासों और दस्युओं के संभाव्य पराभव को ही ध्यान में नही रखना होगा, बल्कि आर्यो द्वारा आर्यो के पराभव को भी ध्यान में रखना होगा। इसमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि यदि आर्यो ने दासों और दस्युओं पर विजय पाई भी थी तो दोनों में से किस आर्य प्रजाति ने उन्हें परास्त किया था। यह स्पष्ट है कि पाश्चात्य सिद्धांत तो मात्र हडबडी में निकाला गया निष्कर्ष है जो तथ्यों की अपर्याप्त जांच पर आधारित है और इसे इसलिए सही माना जाता है क्योंकि यह प्राचीन आर्यो की मानसिकता की पूर्व निश्चित धारणाओं से मिलता जुलता था। कथित रूप में, यह मानसिकता आर्यो में केवल इस आधार पर थी कि उनके कथित आधुनिक वंशज अर्थात भारतीय जर्मनों में यही मानसिकता पाई जाती है। यह सिद्धांत उन कुछ चुनींदा तथ्यों पर निर्मित है जिन्हें एकमात्र तथ्य माना जाता है। यह असाधारण बात है कि ऐसे विरल और असुरक्षित आधार वाले सिद्धांत को पाश्चात्य विद्वानों ने गंभीर अध्येताओं के लिए प्रतिपादित किया और यह इतने लंबे समय तक मान्य रहा। इस अध्याय में ंप्रस्तुत नए तथ्यों की खोज के आलोक में यह सिद्धांत अब चल नही सकता और इसे रद्दी के ढेर में डाल देना चाहिए। अब इस सिद्धांत का जो हिस्सा विचारणीय रह जाता है, वह यह है- शूद्र कौन है? मान्यवर ए.सी. दास का इस विषय में यह कहना है- दास और दस्यु या तो असभ्य थे अथवा अवैदिक आर्य जनजातियों के सदस्य थे। उनमें से जो लोग युद्ध में बंदी बना दिए गए, उन्हें शायद गुलाम बना लिया गया और वे शूद्र (जाति) हो गए। एक अन्य वैदिक विद्वान ण्और पाश्चात्य सिद्धांत के समर्थक मान्यवर काणे का यह विचार है कि- परावर्ती साहित्य में दास शब्द का अर्थ सेवक अथवा गुलाम होता है। ऋग्वेद में जिस दास जनजाति को हम आर्यो के विरूद्ध देखते है, उन्हें धीरे-धीरे परास्त कर दिया गया और फिर आर्यो की सेवा में लगा दिया गया। मनुस्मृति (8,413) में कहा गया है कि परमात्मा ने शूद्र को ब्राम्हण की सेवा के लिए उत्पन्न किया। तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राम्हण और अन्य ब्राम्हण ग्रंथो से यह पता चलता है कि यहां शूद्र को वही स्थान प्राप्त था जो उसे स्मृतियों में प्राप्त है। इसलिए यह अर्थ निकालना तर्कपूर्ण होगा कि आर्यो द्वारा पराजित दास अथवा दस्यु धीरे-धीरे शूद्र बन गए थे। इस मत के अनुसार शूद्र और दास दस्यु एक ही है और यह भी कि शूद्र लोग भारत के अनार्य मूलनिवासी थे और सभ्यता की आदिम तथा जंगली अवस्था में थे। हमें अब इन्ही मतों की विवेचना करनी है। पहले हम पहले मत को लेते है। वास्तव में यह एक मत नही है बल्कि दो मत है जिन्हें एक करके प्रस्तुत किया गया है। एक मत तो यह है कि दास और दस्यु एक ही जन है। दूसरा मत यह है कि वे शूद्र एक ही जन है। दासों और दस्युओं के एक ही जन होने की बात इतनी विश्वसनीय नही है। ऋग्वेद में उनके संबंध में जो उल्लेख मिलते है वे निर्णायक नही है। कुछ स्ािलों में दास में दास और दस्यु शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया गया है माना दोनों में कोई अंतर था ही नही। शंबर, शुष्ण, वृत्र, और पिप्रु को दास भी बताया गया है और दस्यु भी। दासो और दस्युओ दोनों को इंद्र और देवों का और विशेषकर अश्विनी कुमारों का शत्रु बताया गया है। यह बताया गया है कि दासों और दस्युओं दोनों के ही नगरों को इंद्र और देवों ने ध्वस्त कर दिया था। जहां इन उल्लेखों से यह संकेत मिलता है कि दास और दस्यु एक ही थे, वही अन्य उल्लेख उनके अलग अलग होने का संकेत देते है। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि 54 स्थलों पर दासों का पृथक उल्लेख मिलता है और 78 स्थलों में दस्युओं का अलग उल्लेख पाया जाता है। यदि वे दो अलग अलग जन नही थे तो इतने अधिक पृथक उल्लेख क्यों मिलते है? संभावना यही है कि वे दो अलग समुदायों की बात कर रहे है। शूद्रों और दास दस्युओं के एक ही जन होने संबंधी जो दूसरा मत है, उसके विषय में यह निश्चित रूप में कहा जा सकता है कि इसका कोई भी आधार नही है। शूद्र और दास दस्यु एक है, इस मत को स्थापित करने के लिए, शूद्र शब्द को अन्य मूल से निकला बताने का प्रयास किया जाता है। यह शब्द शूक (दुख) और द्र (ग्रस्त) से निकला बताया जाता है, जिसका अर्थ होता है दुखग्रस्त। इस संबंध में वेदांत सूत्र (1,3.34) में वर्णित जनश्रुति की कथा को आधार बनाया जाता है, जिसके विषय में कहा गया है कि वह अपने बारे में राजहंसो की तिरस्कारपूर्ण बाते सुनकर दुख से अभिभूत (ग्रस्त) हो गया था। विष्णु पुराण में भी इसी व्युत्पत्ति की बात कहीं गई है। इन कथनों का आधार कितना ठोस है? यह कहना कि शूद्र एक व्यक्तिवाचक नाम नहीं बल्कि व्युत्पन्न यौगिक शब्द है, यह मूर्खतापूर्ण है। यह चेतावनी वेदांत सूत्र और वायु पुराण पर भी उतनी ही लागू होती है जिनमें शूद्र को एक व्युत्पन्न शब्द बनाने का प्रयास किया गया है जिससे यह संकेत निकलता है कि इस शब्द का अर्थ दुखग्रस्त लोग है और इसलिए हमें इसे अनर्गल और निरर्थक मानकर खारिज कर देना चाहिए। किंतु हमारे पास इस सिद्धांत अथवा मत के समर्थन में प्रत्यक्ष साक्ष्य है कि शूद्र एक जनजाति अथवा एक कुल का व्यक्तिवाचक नाम है और यह व्युत्पन्न शब्द नही है जैसा कि स्थापित करने का प्रयास किया गया है। इस मत के पक्ष में अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते है। भारत पर सिकंदर के आक्रमण के इतिहासकारों ने अनेक गणराज्यों को स्वतंत्र, स्वाधीन और स्वायत बताया है जिनसे सिकंदर का सामना हुआ था। ये निस्संदेह विभिन्न कबीलो अथवा जनजातियों से बने थे और उन जनजातियों के नाम से जाने जाते थे। इन्हीं में एक जनजाति सोदरी थी, जो अत्यधिक महत्वपूर्ण थी, और उन जनजातियों में से थी जिन्होनें सिकंदर से युद्ध किया था, हालांकि ये लोग सिकंदर से हार गए थे। लासेन ने इनकी पहचान प्राचीन शूद्रों के रूप में की है। पातंजलि ने अपने महाभाष्य (1, 2.3) में शूद्रो का उल्लेख किया है और उनकी पहचान अमीरों के साथ जोडी है। महाभार के सभा पर्व के अध्याय 32 में शूद्रों के गणराज्य की बात कही गई है। विष्णु पुराण और मार्कण्डेय पुराण तथा ब्रम्ह पुराण में भी शूद्रो को अन्य अनेक जनजातियों में एक पृथक जनजाति बताया गया है और उनका निवास देश के पश्चिमी भाग में विंध्य के उपर बताया गया है। अब हम दूसरे मत पर आते है और उसके विभिन्न तत्वों का विवेचन करते है। इस मत में दो तत्व है। पहला है- क्या दस्यु और दास शब्दों का प्रयोग जाति के अर्थ में हुआ है और उनके अनार्य जनजाति होने का सूचक है? दूसरा यह है कि यदि हम उसे मान ले, तो क्या इसका कोई संकेत है कि वे भारत की आदिम जनजातियां थी? यदि इन दोनों प्रश्नों का उत्तर हां है, तभी दस्युओं और दासों को शूद्र बताने की संभावना बनेगी। दस्युओं के संबंध में, इसका कोई साक्ष्य नही है कि इस शब्द का प्रयोग प्रजाति (नस्ल) के अर्थ में हुआ है और यह एक अनार्य कौम को इंगित करता है। दूसरी ओर, इस निष्कर्ष के पक्ष में सकारात्मक साक्ष्य है कि इसका प्रयोग उन व्यक्तियों के लिए होता था जो आर्यो के धर्म को नही मानते थे। इस संबंध में महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 65 के पद 23 का उल्लेख किया जा सकता है। यह इस प्रकार है- दश्यन्ते मानुषे, लीके सर्ववर्णेषु दस्यवः। लिंगान्तरे वर्तमाना आश्रमेषुचतुष्यर्वपि।। जिसका अर्थ है कि समस्त वर्णो और समस्त आश्रयों में हमें दस्युओं का अस्तित्व मिलता है। यह कहना कठिन है कि दस्यु शब्द का स्रोत क्या है, अर्थात इसकी व्युत्पत्ति कहां से हुई। किंतु, एक मत के अनुसार भारतीय आर्य इस शब्द का प्रयोग भारतीय ईरानियों के लिए अपशब्द के रूप में करते थे। इस मत में कुछ भी अस्वाभाविक अथवा आरोपित नही है। इतिहास गवाह है कि दोनों में टकराव हुआ था। इसलिए यह बहुत संभव है कि भारतीय आर्यो ने अपने शत्रुओं के लिए ऐसे अपमानजनक नाम को गढा होगा। यदि यह सही है तो दस्युओं को भारत का मूलनिवासी नही माना जा सकता। क्या शूद्र अनार्य थे? इस संबंध में मान्यवर काणे कहते है- ब्राम्हण गंथो के समय में और धर्मसूत्रों में भी आर्य और शूद्र के बीच एक स्पष्ट अंतर रेखा खिंची हुई थी। तांड्य ब्राम्हण में एक झूठी लडाई की बात कही गई है कि शूद्र और आर्य इस प्रकार लडते है कि जीत आर्य की ही हो। आपस्तम्भ धर्मसूत्र (1, 1.3.40-41) में लिखा है कि यदि कोई ब्रम्हचारी भिक्षा में प्राप्त अपना सारा भोजन स्वयं नही खा सकता, तो वह इसे किसी आर्य के पास (उसके खाने के लिए) रख सकता है अथवा वह इसे किसी शूद्र को दे सकता है जो (उसके गुरू का) दास है। जहां तक शूद्र और आर्य के बीच अंतर रेखा का सवाल है, तो इस विषय का गहन विवेचन होना चाहिए। शूद्र लोग अनार्य थे, इस तर्क की पुष्टि निम्नलिखित कथनों से होती है- अथर्ववेद, 4, 20.4- सहस्र आंखों वाला देवता इस बूटी को मेरे दाहिने हाथ में रखे, जिससे मै शूद्र और आर्य, सभी को देखूं। काठक संहिता, 34, 5- शूद्र और आर्य चमडी को लेकर झगडते है। देवता और दैत्य सूर्य को लेकर लडे, देवों ने इस (सूर्य) को जीत लिया। (शूद्र के साथ झगडने के इस कृत्य से) आर्य तो आर्य वर्ण को जिताता है, स्वयं को सफल बनाता है। आर्य वेदी के अंदर रहे, शूद्र वेदी के बाहर। शूद्र और आर्य को पृथक और विरोधी बताने वाले ये छंद इस सिद्धांत का आधार है कि शूद्र लोग अनार्य है। किंतु, इस तरह का निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। इन कथनों से कोई निष्कर्ष निकालने से पहले दो बाते दिमाग में रखनी होगी। पहले तो यह बात दिमाग में रखनी होगी कि पूर्वोक्त कथनों के अनुसार और ऋग्वेद के साक्ष्य के अनुसार, आर्यो की दो श्रेणियां है, वैदिक और अवैदिक। इस तथ्य को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि एक श्रेणी के आर्य के लिए दूसरी श्रेणी के आर्य के बारे में इस प्रकार बात करना बहुत आसान हो सकता है मानों वे दोनों पृथक और विरोधी हो। इस प्रकार व्याख्या करने पर, शूद्रों के आर्यो के विरूद्ध रखने वाले उपर्युक्त कथनों का यह अर्थ नही निकलता कि वे आर्य नही थे। वे एक भिन्न पंथ अथवा वर्ण के आर्य थे। हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथो में जो निम्नलिखित कथन मिलते है, उनसे यह समझा जा सकता है कि ऐसा संभव है- (1) अथर्ववेद (19, 32.8)- हे दूर्बा, मुझे ब्राम्हण, राजन्य (अर्थात क्षत्रिय), शूद्र, आर्य, प्रियजन और देख पाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का प्रिय बना। (2) अथर्ववेद (19, 62.1)- मुझे देवताओं में प्रिय बना। मुझे राजकुमारों में प्रिय बना, मुझे प्रत्येक देखने वाले का प्रिय बना, मुझे शूद्र और आर्य का प्रिय बना। (3) वाजसनेयी संहिता (18, 48)- (हे अग्नि), हमें ब्राम्हणों में, राजाओं में, वैश्यों में और शूद्रों में तेज दो, मुझे तेज पर तेज दो। (4) वाजसनेयी संहिता (20, 17)- हमने गांव में, जंगल में, सभा में, अपनी इंद्रियों से, शूद्र अथवा आर्य के विरूद्ध जो भी पाप किया है, हममें से (याजक और उसकी पत्नी में से) किसी ने भी जो पाप (दूसरे के प्रति) अपने कर्तव्य के मामले में किया है- उस पाप के आप विनाशक हों। (5) वाजसनेयी संहिता (18, 48)- जब मै ये शुभ वचन लोगों से, ब्राम्हण और राजन्य से, शूद्र और आर्य और मेने अपने शत्रु से कहूं, तो मै देवताओं का और दक्षिणा देने वाले का, यहां इस लोक में, प्रिय बनूं। मेरी यह इच्छा पूरी हो। वह (मेरा शत्रु) मेरे अधीन हो। धर्मसूत्र कहते है कि शूद्र को वैदिक संस्कार और यज्ञ करने का कोई अधिकार नही है। किंतु पूर्व मीमांसा के लेखक जैमिनी के अनुसार बदरी नाम के एक प्राचीन गुरू ने यह विचार सामने रखा कि शूद्र भी वैदिक यज्ञ कर सकते है। भारद्वाज श्रौत सूत्र (5, 28) में यह स्वीकार किया गया है कि एक अन्य चिंतन संप्रदाय है जिसके अनुसार शूद्र वैदिक यज्ञ संपन्न करने के लिए आवश्यक तीन पवित्र अग्नि जला सकता है। इसी प्रकार कात्यायन स्रौत सूत्र (1, 4.16) के टीकाकार ने भी स्वीकार किया है कि कुछ वैदिक पाठों के अनुसार शूद्र वैदिक संस्कार संपन्न करने योग्य थे। धर्मसूत्र कहते है कि शूद्र को दिव्य सोम पान का अधिकार नही है। किंतु अश्विनी कुमारों की कथा में, इस बात के निश्चित प्रमाण है कि शूद्र को दिव्य सोम पीने का अधिकार था। कथा के अनुसार अश्विनी कुमारों ने एक बार सुकन्या को उस समय देख लिया जब वह अभी अभी नहाई थी और उसके शरीर पर कोई वस्त्र नही था। सुकन्या एक युवती थी जिसका विवाह च्यवन नाम के एक ऋषि से हुआ था, जो विवाह के समय इतने वृद्ध थे कि कभी भी मर सकते थे। अश्विनी कुमार सुकन्या के सौंदर्य पर मोहित हो गए और बोले, हम दोनों में से किसी को अपना पति स्वीकार कर लो। यह तुम्हें शोभा नही देता कि अपने यौवन को व्यर्थ नष्ट करो। सुकन्या ने यह कहते हुए मना कर दिया कि मै अपने पति की समर्पिता हॅू। उन्होनें उससे फिर बात की, और इस बार उन्होनें उसके समक्ष एक प्रस्ताव रखा। उन्होनें कहा, हम दोनों जाने-माने दिव्य चिकित्सक (वैद्य) है। हम तुम्हारे पति को युवा और सुंदर बना देंगे। तब तुम हममें से एक को अपना पति चुन लों। उसने अपने पति के पास जाकर उसे उनके प्रस्ताव के विषय में बताया। च्यवन ने सुकन्या से कहा, तुम ऐसा ही करो, और वह प्रस्ताव मान लिया गया और अश्विनी कुमारों ने च्यवन को जवान बना दिया। इसके बाद यह प्रश्न उठा कि अश्विनी कुमारों को देवताओं के पेय सोम को पीने का अधिकार था। इंद्र ने यह कहते हुए आपत्ति की कि अश्विनी कुमार शूद्र थे और इसलिए उन्हें सोमपान का अधिकार नही था। अश्विनी कुमारों से अक्षय यौवन प्राप्त कर चुके च्यवन ने इस विरोध को दरकिनार करते हुए इंद्र को बाध्य किया कि वे उन कुमारों को सोम दे। शूद्र लोग अनार्य है, इस विषय में धर्मसूत्रों के साक्ष्य को नही स्वीकार किया जा सका, इसका एक और कारण है। पहली बात तो यह कि यह मनु के मत के विपरीत है। शूद्र लोग आर्य थे अथवा अनार्य, इस विषय पर कोई निर्णय करते समय इन श्लोकों पर ध्यानपूर्वक विचार किया जाए- यदि ब्राम्हण से शूद्रा को कन्या उत्पन्न हो और वह उत्तम स्त्री हो जाए तो वह हीन कन्या भी सातवें जन्म में ब्राम्हण जाति की हो जाती है। जैसे शूद्र एक ब्राम्हण हो जाता है और ब्राम्हण एक शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न शूद्र भी क्षत्रिय और वैश्य हो जाते है। ब्राम्हण से शूद्रा को उत्पन्न और शूद्र द्वारा ब्राम्हणी को उत्पन्न संतान में कौन सी श्रेष्ठ है, इसका उत्तर यह है कि ब्राम्हण से शूद्रा को उत्पन्न संतान ही गुणी होने के कारण श्रेष्ठ है, किंतु शूद्र से ब्राम्हणी को उत्पन्न होने वाली संतान निश्चय ही नीच होती है। यह सच है कि ऋग्वेद में दास शब्द का प्रयोग गुलाम अथवा नौकर के रूप में हुआ है। किंतु इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग मात्र पांच बार हुआ है, उससे अधिक नही। और यदि इसका प्रयोग पांच बार से अधिक हुआ भी हो, तो क्या इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि शूद्रों को गुलाम बनाया गया था? जब तक यह सिद्ध नही हो जाता कि ये दोनों एक ही जन थे, जब तक इस विचार को अनर्गल ही कहा जाएगा। यह ज्ञात तथ्यों के विपरीत है। शूद्र लोग राजाओं के राज्याभिषेक में भाग लेते थे। उत्तर वैदिक अथवा ब्राम्हण ग्रंथों के काल में, राजा का राज्याभिषेक वास्तव में प्रजा द्वारा राजा को राजत्व का प्रस्ताव होता था। इस काम को प्रजा के प्रतिनिधि संपन्न करते थे जिन्हें रत्नी कहते थे। राज्याभिषेक में इन रत्नियों उपस्थिति की अत्यंत महत्वपूर्ण होती थी। ये इसलिए रत्नी कहलाते थे क्योंकि इनके पास राजत्व का प्रतीक रत्न होता था। रत्नी जब राजा को राजत्व का रत्न सौंप देते थे तभी राजा को उसका राजत्व प्राप्त होता था, और राजत्व प्राप्त करने के बाद राजा प्रत्येक रत्नी के घर जाकर उसे भेंट देता था। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि उनमें से एक रत्नी अनिवार्य रूप में शूद्र होता था। नीतिमयूख के लेखक नीलकंठ ने एक परवर्ती काल के राज्याभिषेक समारोह का वर्णन किया है। उसके अनुसार, चार मुख्य मंत्री, ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नए राजा का अभिषेक करते थे। फिर प्रत्येक वर्ण और उनसे भी नीची जातियों के प्रमुख जन पवित्र जल से राजा का अभिषेक करते थे। फिर द्विज राजा का जयघोष करते थे। राजा की ताजपोशी के समय ब्राम्हणों के साथ-साथ शूद्रों को भी उपस्थित रहने का निमंत्रण दिया जाता था, इसका प्रमाण पांडवों के सबसे बडे भाई युधिष्ठिर के राजतिलक के वर्णन में मिलता है जो महाभारत में दिया गया है। शूद्र लोग प्राचीन काल की दो राजनीतिक सभाओं, जनपद और पौर के सदस्य थे और इनका सदस्य होने के नाते शूद्र को ब्राम्हण से भी विशेष सम्मान प्राप्त होता था। मनुस्मृति (6, 61) और विष्णु स्मृति (21, 64) के अनुसार भी यही स्थिति थी। अन्यथा, मनु के इस कथन का कोई अर्थ नही है कि ब्राम्हण को उस देश में नहीं रहना चाहिए जिसका राजा शूद्र हो। इसका तो यह अर्थ हुआ कि शूद्र राजा थे। महाभारत के शांति पर्व में युधिष्ठिर को राजनीति का पाठ पढाते हुए भीष्म कहते है- मै तुम्हें बताता हॅू कि तुम्हें किस प्रकार के मंत्रियों को नियुक्त करना चाहिए। तुम्हें वेदों के ज्ञाता, गरिमा बोध से युक्त, स्नातक श्रेणी के, और पवित्र आचरण वाले चार ब्राम्हणों को, बलशाली और शस्त्रास्त्र प्रयोग में निपुण आठ क्षत्रियों को, इक्कीस धनी वैश्यों को, और तीन विनम्र तथा पवित्र आचरण वाले और दैनिक कर्तव्यों के प्रति समर्पित शूद्रों को, और पुराणों के ज्ञात तथा आठ गुणों से युक्त एक सूत को अपना मंत्री बनाना चाहिए। इससे प्रमाणित होता है कि शूद्र मंत्री थे और उनकी संख्या ब्राम्हणों के लगभग बराबर थी। शूद्र निर्धन और नीच नहीं थे। वे धनी थे। इस तथ्य की पुष्टि मैत्रायणी संहिता (5, 2.7.10) और पंचविंश ब्राम्हण (6, 1.11) से होती है। इस प्रश्न के दो अन्य पहलू भी है। यदि इसे सच मान भी लिया जाए कि शूद्रों को गुलाम बनाया गया था, तो इसका महत्व क्या है? इसका थोडा बहुत महत्व तब होता यदि आर्यो को गुलामी का ज्ञान नही होता अथवा वे आर्यो को गुलाम बनाने के लिए तैयार नही थे। किंतु सच तो यह है कि आर्यो को गुलामी के बारे में जानकारी थी और उन्होनें आर्यो को गुलाम बन जाने दिया। यह ऋग्वेद (7, 86.7, 8, 19.36 और 8, 56.3) से स्पष्ट है। इस स्थिति में उन्होनें विशेष तौर पर शूद्रों को ही गुलाम बनाना क्यों चाहा? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उन्होनें शूद्र गुलामों के लिए अलग नियम क्यों बनाए? संक्षेप में, पाश्चात्य सिद्धांत से हमें हमारे इन प्रश्नों के उत्तर पाने में मदद नही मिलती कि शूद्र कौन थे और वे चैथा वर्ण कैसे बने? शूद्र यदि एक अनार्य आदिवासी प्रजाति के नही थे तो फिर कौन थे? अब इस सवाल का सामना करना होगा। मै जो सिद्धांत प्रस्तुत करना चाहता हॅू उसे निम्नलिखित तीन मतों में रखा जा सकता है- 1. शूद्र लोग आर्य थे। 2. शूद्र लोग क्षत्रिय वर्ण के थे। 3. शूद्र इतने महत्वपूर्ण क्षत्रिय वर्ण के थे कि प्राचीन आर्य समुदायों के कुछ सर्वाधिक ख्यात और शक्तिशाली राजा शूद्र थे। शूद्रों का उत्पत्ति संबंधी यह दावा यदि क्रांतिकारी नही तो चैंकाने वाला तो अवश्य ही है। यह इतना चैंकाने वाला है कि बहुत से लोग इसे मानने को तैयार ही नही होंगे, भले ही इसके पक्ष में पर्याप्त साक्ष्य हों। मेरा दायित्व तो साक्ष्य प्रस्तुत करना है, लोगों का काम यह तय करना है कि इसमें कितना दम है। मेरे इस दावे, इस सिद्धांत का पहला आधार साक्ष्य महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 60 के श्लोक 38-40 के इस अंश में मिलता है- हमने यह सुना है कि प्राचीन काल में पैजवन नाम के एक शूद्र ने (अपने यज्ञ में) दस लाख पूर्ण पत्रों की दक्षिणा दी जो ऐंद्राग्नि के आदेशानुसार थी। इस अंश में तीन महत्वपूर्ण बाते कही गई है- (1) पैजवन एक शूद्र था, (2) इस शूद्र पैजवन ने यज्ञ किया, और (3) ब्राम्हणों ने उसके लिए यज्ञ किया और उससे दक्षिणा ली। महाभारत के समीक्षात्मक संस्करण के विद्वान संपादक प्रो. सुक्थांकर ने, महाभारत के अनेक संस्करणों की जांच करने के बाद यह निष्कर्ष दिया कि- प्रथम संस्करण (कोलकाता-1856) लगभग एक शताब्दी बाद आज भी सर्वोत्तम संस्करण है। यद्यपि महाभारत के मान्यवर राॅय द्वारा संपादित संस्करण की प्रामाणिकता पर संदेह नही किया जा सकता, फिर भी आलोचकों का यह कहना अनुचित नही होगा कि इस पाठ के पीछे और किस पांडुलिपि का साक्ष्य है जिसके आधार पर शूद्रों की उत्पत्ति का यह नया सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है। इस तरह की विवेचना करने के लिए दो बातों पर विचार करना आवश्यक है। एक तो यह कि महाभारत की ऐसी अकेली कोई पांडुलिपि नही है जिसमें सभी अठारह पर्वो की पांडुलिपियों का समावेश हो। प्रत्येक पर्व को एक अलग इकाई के रूप में लिया गया है, जिसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न पर्वो की प्रतियों की संख्या में बहुत बडा अंतर है। इसलिए जब हम यह तय करने बैठते है कि सही पाठ कौन-सा है, तो उसके लिए आधार बनाई जाने वाली पांडुलिपियों की संख्या प्रत्येक पर्व के लिए अलग अलग होगी ही। दूसरी यह कि इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि महाभारत का पाठ दो भिन्न रूपों में चलता चला आ रहा है- एक तो उत्तरी संस्करण और एक दक्षिणी संस्करण, जो क्रमशः आर्यावर्त और दक्षिणपथ की विशेषताओं से युक्त है। यह स्पष्ट है कि इन पांडुलिपियों की जांच करते समय अनेक पांडुलिपियों का मिलान करना चाहिए, और इनमें उत्तरी और दक्षिणी दोनों ही संस्करणों की पांडुलिपियों का उचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए। 1. शूद्र: पैजवनो नाम (के)एस 2. शूद्र: पैलवनो नाम (एम/1ःएम/2)एस 3. शूद्र: यैलननो नाम (एम/3ःएम/4)एस 4. शूद्र: यैजननो नाम (एफ) 5. शूद्रोपि यजने नाम (एल) 6. शूद्र: पौंजलक नाम (टीसी)एस 7. शुद्धो वैभवनो नाम (जी)एन 8. पुरा वैजवनो नाम (ए, डी/2) 9. पुरा वैजननो नाम (एम)एन यहां हमने नौ पांडुलिपियों के मिलान का परिणाम दिया है। क्या नौ पांडुलिपियां उस ग्रंथ के लिए पर्याप्त है जिसके अनेक अलग अलग पाठ है? यह सच है कि महाभारत के विभिन्न पर्वो के समीक्षात्मक संस्करण के लिए ली गई पांडुलिपियों की संख्या नौ से उपर है। पूरे महाभारत में ग्रंथ के लिए पांडुलिपियों की न्यूनतम संख्या केवल दस है। इसलिए यह नही कहा जा सकता कि नौ की संख्या अपर्याप्त है। नौ पांडुलिपियां दो भौगोलिक वर्गो में आती है, उत्तरी और दक्षिणी। एम/1, एम/2, एम/3, और एम/4 और टीसी का संबंध दक्षिणी संस्करण से है। ए, एम, जी और डी/2 का संबंध उत्तरी संस्करण से है। इसलिए, पांडुलिपियों का चयन विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित दो परीक्षणों पर खसरा उतरता है। इन पाठों की जांच से यह स्पष्ट होता है कि- 1. पैजवन के वर्णन में भिन्नता है, 2. पैजवन के नाम में भिन्नता है, 3. नौ में से छह पाठों में उसे शूद्र बताया गया है। एक पाठ में उसे शुद्ध बताया गया है और दो में उसका वर्ण बताने के बजाय उसके काल का उल्लेख किया गया है। पुरा शब्द का प्रयोग किया गया है। 4. जहां तक नाम का सवाल है तो नौ में से किन्ही भी दो पांडुलिपियों में समानता नही है। प्रत्येक में अलग अलग पाठ है। इस परिणाम को देखते हुए, सवाल यह उठता है कि असली पाठ क्या है। पहले नाम से संबंधित पाठों को ले, तो यह स्पष्ट है कि यह ऐसा विषय नही है जिसमें अर्थ का सवाल संलिप्त है। इसमें व्याख्या बनाम पाठ संशोधन जैसा कोई सवाल नही उठाया गया है और न ही किसी एक पाठ को प्राथमिकता दी गई है जिससे यह पता चले कि अन्य पाठों का उदगम कैसे हुआ होगा। सवाल यह है कि सही नाम कौन सा है और कौन से पाठ लेखन करने वालों की लेखन संबंधी भूल है। इसमें कोई संदेह नही दिखता कि सही पाठ पैजवन हैं इसकी पुष्टि दक्षिणी और उत्तरी दोनों ही संस्करणों से होती है। क्योंकि सं. 8 में अंकित वैजवनों भी पैजवनो ही है। शेष सीाी उसी के पाठांतर है जिनका कारण लिखने वालों की अज्ञानता है जो मूल प्रति को सही सही पढ नही पाए और उन्होनें पाठ की रचना अपने ही तरीके से की। अब पैजवन के वर्णन की बात करे, तो यह स्वीकार करना ही होगा कि शूद्र को बदलकर पुरा करना मात्र संयोग नही है। लगता है यह जानबूझकर किया गया है। यह साफ तौर पर कहना मुश्किल है कि यह बदलाव क्यों हुआ। दो बाते बिलकुल स्पष्ट लगती है। पहली तो यह कि बदलाव नितांत स्वाभाविक लगता है। दूसरी बात यह कि यह बदलाव इस निष्कर्ष के विरोध में नही जाता कि पैजवन एक शूद्र था। श्लोक 38-40 को उनसे पहले के इन श्लोकों के संदर्भ में देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह पूरा अंश शूद्र के विषय में है। पैजवन की कथा तो मात्र एक उदाहरण है। इस पृष्ठभूमि में, पैजवन से पहले शूद्र शब्द को दोहराना अनावश्यक है। इससे यह बात समझ में आ जाती है कि इन दो पांडुलिपियों में पैजवन से पहले शूद्र शब्द क्यों नही आया है। शूद्र की जगह पुरा शब्द के प्रयोग का कारण ढूंढते समय यह याद रखना चाहिए कि पैजावन की कथा अत्यंत प्राचीन काल की है। इसलिए, लिखने वाले के लिए ऐसा सोचना बिलकुल स्वाभाविक था कि इस तथ्य को स्पष्ट तौर पर लिख देना उचित रहेगा। लिखने वाले को यह ज्ञान था कि पैजवन को शूद्र बताना आवश्यक नही था क्योंकि संदर्भ से यह स्पष्ट था, इसलिए उसने इस पर जोर देना जरूरी नही समझा। दूसरी ओर, लिखने वाले को यह पता था कि पैजवन बहुत प्राचीन काल में हुआ था और संदर्भ से यह तथ्य बहुत स्पष्ट नही होता था, इसलिए उसने पुरा शब्द जोडना अधिक उचित समझा क्योंकि यह आवश्यक था और शूद्रः शब्द को छोड देना उचित समझा क्योंकि वह संदर्भ के अनुसार अनावश्यक था। यदि इस व्याख्या का ठोस आधार है, तो हम इसे सुप्रमाणित मान सकते है कि महाभारत के शांति पर्व में जिस व्यक्ति का उल्लेख हुआ है वह पैजवन है और यह पैजवन एक शूद्र था। अगला विचारणीय प्रश्न पैजवन की पहचान से संबंधित है। कौन है यह पैजवन? यास्क के निरूक्त में इसका सूत्र दिखाई देता है। निरूक्त 2, 24 में यास्क कहता है- ऋषि विश्वामित्र पिजवन के पुत्र सुदास के पुरोहित थे। विश्वामित्र सबके मित्र थे। सुदास महादानी था। पैजवन तो पिजवन का पुत्र था। अगला सवाल यह है कि यह सुदास कौन है और हम उसके बारे में क्या जानते है? ब्राम्हणी साहित्य को खंगालने पर सुदास नाम के तीन व्यक्तियों का पता चलता है। एक सुदास का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उसका पारिवारिक विवरण ऋग्वेद के निम्नलिखित स्त्रोत्रों में मिलता है- 1. ऋग्वेद, 7, 18.21- हे इंद्र! अनेक राक्षसों का नाश करने वाले पराशर और वसिष्ठ तुम्हारी कामना करके घर को गए और उन्होने तुम्हारी स्तुति की। वे अपने पालनकर्ता की अर्थात तुम्हारी मित्रता को नहीं भूले। उनके दिन सदा शोभन होते है। 2. ऋग्वेद, 7, 18.22- हे अग्नि! मैने इंद्र की स्तुति करके राजा देववान के नाती और पिजवन के पुत्र सुदास से रथ पाया था। मै होता के समानन यज्ञशाला में जाता हॅू। 3. ऋग्वेद, 7, 18.23- पिजवन के पुत्र राजा सुदास को श्रद्धा और दान के प्रतिरूप, सोने के अलंकारों से सुशोभित, उंचे नीचे स्थान में भी सीधे चलने वाले और पृथ्वी पर स्थिर चार घोडे पुत्र के समान पालनीय वसिष्ठ को पुत्र के यश के लिए ढोते है। 4. ऋग्वेद, 7, 18.24- जिस सुदास का यश धरती पर फैला है, जिसने दाता बनकर प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति को धन दिया है, उस सुदास की स्तुति सातों लोकों में इंद्र के समान होती है। नदियों ने युद्ध में युध्यामधि नाम के शत्रु को मार डाला था। 5. ऋग्वेद, 7, 18.25- हे नेता मारूतो! पिता दिवोदास के ही समान राजा सुदास की भी सेवा करो और पिजवन के पुत्र सुदास के घर की रक्षा करो। सुास की सेना अजर और अविनाशी हो। दो अन्य सुदासों का उल्लेख विष्णु पुराण में हुआ। एक सुदास का उल्लेख अध्याय चार में सगर के वंशज के रूप में हुआ है। इस सुदास का संबंध सगर से स्थापित करने वाली वंशावली इस प्रकार है- कश्यप की पुत्री सुमति और राजा विदर्भ की पुत्री केशिनी, ये दो पत्नियां थी सगर की। संतानरहित होने के कारण राजा ने ऋषि और्व की सहायता मांगी। ऋषि ने यह वरदान दिया कि एक पत्नी से एक पुत्र उत्पन्न होगा जो उसका वंशवाहक होगा, और दूसरी पत्नी से साठ हजार पुत्र होंगे, और उन्होनें चयन का विकल्प उन्ही पर छोड दिया। केशिनी ने एक अकेले पुत्र की मां बनने का चयन किया, सुमति ने अनेक पुत्रों की मां बनना चाहा, और कुछ ही समय बाद ऐसा हुआ कि केशिनी ने राजकुमार असमंजस को जन्म दिया जिससे वंश आगे बढा, और सुमति के साठ हजार पुत्र हुए। असमंजस का पुत्र अंशुमत हुआ। अंषुमत का पुत्र दिलीप हुआ, उसके पुत्र भगीरथ हुए जिन्होनें गंगा को धरा पर उतारा, इसलिए उसे भगीरथी कहा जाता है। भगीरथी का पुत्र नाभाग हुआ, उसका पुत्र ऋतुपर्ण हुआ जो नल का मित्र था और पांसा फेंकने में अत्यंत चतुर था। ऋतुपर्ण का पुत्र सर्वकाम था, उसका पुत्र सुदास था, जिसका नाम मित्रसाह भी था। एक अन्य सुदास का उल्लेख अध्याय 19 में पुरू के वंषज के रूप् में हुआ। इस सुदास का संबंध पुरू से स्थापित करने वाली वंषावली इस प्रकार है- पुरू का पुत्र जनमेजय था, उसका पुत्र प्राचीनवत था, उसका पुत्र प्रवीर, और उसका पुत्र मनस्यु हुआ, उसका पुत्र भयद, उसका पुत्र सुधुम्न हुआ, उसका पुत्र बाहुगव, उसका पुत्र शम्यति, उसका पुत्र भाम्यति हुआ, उसका पुत्र रूद्राश्य हुआ, जिसके दस पुत्र थे-रीतेयु, कक्षेयु, स्थानदिलेयु, घृतेयु, जलेयु, स्थलेयु, धनेयु, वनेयु और व्रतेयु। रीतेयु का पुत्र रंतनार हुआ, उसके पुत्र तंशु, अप्रतीर्थ और ध्रुव थे। अप्रतीर्थ का पुत्र कण्व था, और उसका पुत्र मेधातिथि था, जिसके वंशज काण्वायन है। तंशु का पुत्र अनिल था, और उसके चार पुत्र थे, जिनमें दुष्यंत बडा था। दुष्यंत का पुत्र राजा भरत था.... .... भरत के विभिन्न पत्नियों से नौ पुत्र थे, किंतु उन्हें उनकी मांओ ने ही मार डाला क्योंकि भरत ने यह कह दिया था कि वे देखने भालने में उस जैसे नही लगते, और पत्नियों को डर लगा कि वह उन्हें छोड देगा। तब भरत ने मारूतो को आहुति दी, और उन्होनें उसे उतथ्य की पत्नी ममता से उत्पन्न बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज को उसे दे दिया। भरत के पुत्रों के अलाभकारक (वितथ) जन्म के कारण भारद्वाज का नाम वितथ भी पडा। वितथ का पुत्र भवनमन्यु हुआ, उसके अनेक पुत्र हुए, जिनमें प्रमुख थे बृहत्क्षत्र, महावीर्य, नार और गर्ग। नार का पुत्र संस्कृति हुआ, उसके पुत्र रूचिराधि और रंतिदेव हुए। गर्ग का पुत्र सिनि हुआ, और उनके वंशज गाग्र्य और सैन्य कहलाए, और जन्म से क्षत्रिय होने पर भी ब्राम्हण बने। महावीर्य का पुत्र उरूक्षय था, जिसके तीन पुत्र हुए त्राश्यरूण, पुष्करन और कपि हुए, जिनमें कपि ब्राम्हण हुआ। बृहत्क्षत्र का पुत्र सुहोत्र हुआ, जिसका पुत्र हस्तिन हुआ और उसने हस्तिनापुर नगर की स्थापना की। हस्तिन के पुत्र हुए अजमेध, द्विमेध और पुरूमेध। अजमेध का एक पुत्र कण्व हुआ, जिसका पुत्र मेधातिथि हुआ, उसका अन्य पुत्र बृहदिशु हुआ, जिसका पुत्र बृहद्वासु हुआ, उसका पुत्र बृहत्कर्मण हुआ, उसका पुत्र जयद्रथ हुआ, उसका पुत्र विश्वजीत हुआ, उसका पुत्र सेनजित हुआ, जिसके पुत्र रूचिराश्व, काश्य, द्रिधाधनुष और वसहनु हुए। रूचिराश्व का पुत्र पृथुसेन हुआ, उसका पुत्र पार हुआ, उसका पुत्र निप हुआ, उसके सौ पुत्र हुए, जिनमें से प्रमुख समर था जो काम्पिल्य का शासक हुआ। समर के तीन पुत्र पार, संपार और सदाश्व हुए। पार का पुत्र पृथु हुआ, उसका पुत्र सुकीर्ति हुआ, उसका पुत्र विभ्राम हुआ, उसका पुत्र अनुह हुआ, जिसने व्यास के पुत्र शुक की पुत्री कृत्वि से विवाह किया, और उससे ब्रम्हदत्त नामक पुत्र प्राप्त हुआ, उसका पुत्र विश्वकसेन हुआ, उसका पुत्र उदकसेन हुआ, और उसका पुत्र भल्लाट हुआ। द्विमेध का पुत्र यविनार हुआ, उसका पुत्र धृतिमत हुआ, उसका पुत्र सतयधृति हुआ, उसका पुत्र दृधनेमि हुआ, उसका पुत्र सुपाश्र्व हुआ, उसका पुत्र सुमति हुआ, उसका पुत्र सन्नतिमत हुआ, उसका पुत्र कृत हुआ, जिसे हिरण्यनाम ने योग-दर्शन की शिक्षा दी, और उसने चैबीस संहिताओं की रचना की जो सामवेद का अध्ययन करने वाले पूर्वी ब्राम्हणों के प्रयोग के लिए थी। कृत का पुत्र क्षेम्या हुआ, उसका पुत्र सुवीर हुआ, उसका पुत्र नृपंजय हुआ, उसका पुत्र बहुरथ हुआ। ये सभी पौरव कहलाए। अजमेध की निलिनी नाम की एक पत्नी थी, और उससे उसका एक पुत्र नील था, उसका पुत्र शांति था, उसका पुत्र सुशांति हुआ, उसका पुत्र पुरूजानु हुआ, उसका पुत्र चक्षु हुआ, उसका पुत्र हर्याश्व हुआ, जिसके पांच पुत्र हुए मुद्गल, सृंजय, बृहादिशु, प्रवीर, और काम्पिल्य। उनके पिता ने कहा, ये मेरे पांच (पंच) पुत्र देशों की रक्षा करने में समर्थ (अलम) है, इसलिए वे पंचाल कहलाए। मृद्गल के वंशज मौदगल्य ब्राम्हण हुए, उसके बहवाश्व नामक एक पुत्र हुआ, जिसके दो जुडवां बच्चे हुए, एक पुत्र और एक पुत्री, जिनका नाम दिवोदास ओर अहल्या था। दिवोदास का पुत्र मित्रायु हुआ, उसका पुत्र च्यवन हुआ, उसका पुत्र सुदास हुआ, उसका पुत्र सौदास हुआ, जिसे सहदेव भी कहा जाता है, उसका पुत्र सोमक हुआ, उसके एक सौ पुत्र हुए जिनमें जांतु सबसे बडा था, और पृशत सबसे छोटा। पृशत का पुत्र द्रुपद था, उसका पुत्र धृष्टद्युम्न हुआ, उसका पुत्र धृष्टकेतु हुआ। अजमेध के एक अन्य पुत्र का नाम रिक्ष था, उसका पुत्र संवरण हुआ, उसका पुत्र कुरू हुआ, जिसके नाम पर कुरूक्षेत्र जिला बना, उसके पुत्र सुधनुष, परीक्षित, तथा अन्य हुए। सुधनुष का पुत्र सुहोत्र हुआ, उसका पुत्र च्यवन हुआ, उसका पुत्र कृतक हुआ, उसका पुत्र उपरिचर (वसु) हुआ, जिसके सात बच्चे हुए बृहद्रथ, प्रत्याग्र, कुशाम्ब, मावेल, मत्स्य, और अन्य। बृहद्रथ का पुत्र कुशाग्र था, उसका पुत्र ऋषभ हुआ, उसका पुत्र पुष्पवत हुआ, उसका पुत्र सत्यधृत हुआ, उसका पुत्र सुधन्वा हुआ, और उसका पुत्र जांतु हुआ। बृहद्रथ के एक और पुत्र हुआ, और जन्म के समय में इसके दो भाग थे, जिन्हें जरा नाम की महिला मित्र ने जोड़ा (संधि), जिससे उसका नाम जरासंध पडा, उसका पुत्र सहदेव हुआ, उसका पुत्र सोमापि हुआ, उसका पुत्र श्रुतश्रवा हुआ। ये मगध के राजा हुए। इन तीनों सुदासों की वंशावली यहां साथ साथ दी जा रही है, जिससे इस प्रश्न के समाधान में सुविधा हो कि ये एक ही व्यक्ति है अथवा तीन अलग अलग व्यक्ति- ऋग्वेद में उल्लिखित सुदास विष्णु पुराण में उल्लिखित सुदास 7, 18.22 7, 18.23 7, 18.25 सगर परिवार में पुरू परिवार में देववत पिजवन दिवोदास=पिजवन ऋतुपर्ण बहकश्व पिजवन सुदास सुदास सर्वकाम दिवोदास सुदास सुदास मित्रायु सौदास=मित्रसाह च्यवन सुदास सोमक उपर्युक्त तालिका से दो बाते दिन के उजाले की तरह स्पष्ट हो जाती है। पहली बात तो यह कि विष्णु पुराण में उल्लिखित किसी भी सुदास का .ग्वेद में उल्लिखित सुदास से कोई लेना-देना नही है। दूसरी बात यह स्पष्ट हो जाती है कि यदि महाभारत में उल्लिखित पैजवन की पहचान प्राचीन काल के किसी चरित्र से की जा सकती है तो यह केवल ऋग्वेद में उल्लिखित सुदास से हो सकती है जो इसलिए पैजवन कहालाता था क्योंकि वह पिजवन का पुत्र था जो दिवोदास का ही दूसरा नाम था। मेरे लिये यह सुयोग ही है कि मेरा निष्कर्ष भी वही है जो प्रो. वेबर का है। मेरा मत महाभारत के शांति पर्व के जिस अंश पर आधारित है, उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो. वेबर कहते है- यहां उल्लेखनीय परंपरा यह अभिलिखित है कि पैजवन अर्थात सुदास जो अपने यज्ञो के लिए अत्यंत प्रसिद्ध था और जिसे ऋग्वेद में विश्वामित्र का संरक्षक और वसिष्ठ का शत्रु बताया गया है, वह एक शूद्र था। दुर्योगवश, प्रो. वेबर ने इस अंश का पूरा महत्व नही समझा। यह एक अलग मामला है। मेरा उद्देश्य तो इससे ही पूरा हो जाता है कि वह भी यही सोचते है कि महाभारत का पैजवन और कोई नही ऋग्वेद का सुदास ही था। हम सुदास अर्थात पैजवन के बारे में क्या जानते है? उसके विषय में ये विवरण उपलब्ध है- 1. सुदास न तो दास था और न आर्य। दास और आर्य दोनों ही उसके शत्रु थे। इसका मतलब यह हुआ कि वह एक वैदिक आर्य था। 2. सुदास का पिता दिवोदास था। वह संभवतः वध्रयाश्व का दत्तक पुत्र था। दिवोदास एक राजा था। उसने तुर्वस और यदु, शम्बर, परव और करंज और गुंगू से अनेक बार युद्ध किया था। तूर्यवन और दिवोदास के बीच और उसके मित्र अयु और कुत्स के बीच युद्ध हुआ था, जिसमें जीत तूर्यवन की हुई थी। ऐसा लगता है कि एक बार, विशेषकर तूर्यवन के युद्ध में, इंद्र उसके विरूद्ध थे। उसके पुरोहित भारद्वाज थे, जिन्हें दिवोदास ने अनेक उपहार दिए थे। भारद्वाज ने दिवोदास के विरूद्ध तूर्यवन से हाथ मिलाकर विश्वासघाती की भूमिका निभाई थी। सुदास की मां का कोई उल्लेख नही मिलता है। किंतु सुदास की पत्नी का उल्लेख है। उसकी पत्नी का नाम सुदेवी दिया गया है। कहते है कि सुदास के लिए उसकी व्यवस्था अश्विनी कुमारों ने की थी। 3. सुदास एक राजा था और उसका राज्याभिषेक ब्रम्हर्षि वसिष्ठ ने किया था। ऐत्तरेय ब्राम्हण में उन राजाओं की निम्नोक्त सूची दी गई है जिनका महाभिषेक हुआ था, और उसे संपन्न करने वाले का नाम भी दिया गया है। इस संस्कार से मनु के पुत्र शर्याति का अभिषेक भृगु के पुत्र च्यवन ने किया। तब शर्याति ने पूरी पृथ्वी पर अपनी विजय पताका फहराई, और अश्वमेध यज्ञ किया, और देवताओं के यज्ञ में भी उपस्थित हुआ। इस संस्कार से वाजरत्न के पुत्र सामसुषम ने सत्रजित के पुत्र शातनिक का अभिषेक किया। तब शातनिक ने पृथ्वी के छोर तक विजय प्राप्त की, और अश्वमेध यज्ञ किया। इस संस्कार से पार्वत और नारद ने उग्रसेन के पुत्र युधामस्रौष्टि का अभिषेक किया। तब युधामस्रौष्टि ने पृथ्वी के छोर तक विजय प्राप्त की, और अश्वमेध यज्ञ किया। इस संस्कार के कश्यप ने भुवन के पुत्र विश्वकर्मा का अभिषेक किया। तब विश्वकर्मा ने पृथ्वी के छोर तक विजय प्राप्त की, और अश्वमेध यज्ञ किया। कहते है कि पृथ्वी ने विश्वकर्मा के लिए यह छंद गाया- किसी भी मनुष्य को मुझे (दान के रूप में) देने की अनुमति नही है। हे विश्वकर्मा, तुमने मुझे दिया है, (इसलिए) मै सागर के बीच में निमग्न हो जाउंगी। कश्यप को व्यर्थ ही वचन दिया गया। इस संस्कार से वसिष्ठ ने पिजवन के पुत्र सुदास का अभिषेक किया। तब सुदास ने पृथ्वी के छोर तक विजय प्राप्त की, और अश्वमेध यज्ञ किया। इस संस्कार से अंगिरा के पुत्र संवर्त ने अविक्षित के पुत्र मारूत का अभिषेक किया। तब मारूत ने पृथ्वी के छोर तक विजय प्राप्त की, और अश्वमेध यज्ञ किया। इस सूची में सुदास का वसिष्ठ द्वारा उसका अभिषेक किए जाने का विशेष उल्लेख है। सुदास ऋग्वेद में वर्णित प्रसिद्ध दसराज्ञ युद्ध अथवा दस राजाओं की लडाई का नायक था। इस प्रसिद्ध युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के सातवें मंडल के विभिन्न सूक्तों में हुआ है। सूक्त 83 में कहा गया है- 4. हे इंद्र और वरूण! तुमने आयुधों द्वारा वश में न आने वाले भेद को मारा और राजा सुदास की रक्षा की। तुमने मेरे यजमान तृत्सुवंशीय ऋषियों की स्तुतियां सुनी और युद्ध के समय उनकी पुरोहिताई सफल हुई। 6. युद्ध के समय सुदास और तृत्सु दोनों धन पाने के लिए इंद्र और वरूण को बुलाते है। वहां तुमने दस राजाओं द्वारा पीडित सुदास के सााि तृत्सुओं को भी बचाया। 7. हे इंद्र और वरूण! यह नहीं करने वाले दस राजा भी मिलकर अकेले सुदास से युद्ध नही कर सके। हव्य धारण करने वाले नेता रूप ऋत्विजों की स्तुतियां भी सफल हुई और उनके यज्ञों में सब देव उपस्थित हुए। 9. हे इंद्र और वरूण! तुमसें से एक संग्रामों में शत्रुओं का नाश करता है, दूसरा हमेशा यज्ञकर्मो की रक्षा करता है। हे अभिलाषापूरको! हम शोभन स्तुतियों द्वारा तुम्हें बुलाते है। तुम हमें सुख दो। सूक्त 33 में कहा गया है- 2. वसिष्ठ पुत्र वयतसुत पाशद्युम्न का दूर से तिरस्कार करके चमस में भरे सोमरस को पीते हुए इंद्र को ले आए थे। इंद्र ने भी उसे छोडकर सोमरस निचोडने वाले वसिष्ठपुत्रों को स्वीकार किया था। 3. इसी प्रकार वसिष्ठपुत्रों ने सुखपूर्वक सिंधु नदी को पार किया था। इसी प्रकार इन्होनें भेद नाम के शत्रु को मारा। हे वसिष्ठपुत्रों! इसी प्रकार दाशराज्ञ युद्ध में तुम्हारे मंत्रों की शक्ति से इंदु ने सुदास राजा की रक्षा की थी। 5. प्यासे और राजाओं से घिरे हुए वसिष्ठपुत्रों ने वर्षा की याचना करते हुए दाशराज्ञ युद्ध में इंद्र को सूर्य के समान उपर उठाया था। वसिष्ठ की स्तुतियां इंद्र ने सुनी थी और तृत्सु राजाओं को विस्तृत राज्य दिया था। सूक्त 19 में कहा गया है- 3. हे शत्रुनाशक इंद्र! तुम अपने धर्षक वज्र द्वारा रक्षा के सभी साधनों का प्रयोग कर हव्य देने वाले सुदास को बचाओ। भूमि के कारण होने वाले युद्ध में पुरू-कुत्स के पुत्र त्रसदस्यु और पुरू की रक्षा करो। 6. हे इंद्र! हव्य देने वाले यजमान सुदास के लिए तुम्हारे दिए हुए धन सनातन हुए थे। हे बहुकर्म वाले और अभिलाषापूरक इंद्र! तुम्हें लाने के लिए दो मनचाहे घोडे मै रथ में जोडता हॅू, स्तुतियां तुझ बलशाली के पास जाएं। 17. इंद्र ने दरिद्र सुदास से उस समय एक काम कराया था। सिंह जैसे शत्रु को बकरे के समान सुदास से मरवाया। यूप, तुला शत्रुओं को सूई के समान सुदास से बिंधवाया। इंद्र ने सारा धन सुदास को दे दिया। 18. हे इंद्र! तुम्हारे बहुत से शत्रु तुम्हारे वश में हो गए है। उत्साही नास्तिक को वश में करो। नास्तिक तुम्हारी स्तुति करने वालों का अहित करता है। उसके विरूद्ध शक्तिशाली वीर को भेजो और उसे अपने वज्र से मारो। 19. इस युद्ध में इंद्र ने नास्तिक भेद को मारा था और यमुना ने तृत्सुओं और इंद्र को प्रसन्न किया था। अज, शिग्रु और यक्षु जनपद ने घोडो के सिर इंद्र को भेंट दिए थे। 20. हे इंद्र! तुम्हारी नई तथा पुरानी कृपाएं और संपत्तियों का वर्णन उषा से नही हो सकता। तुमने मान्यमान के पुत्र देवक का वध किया और बडे पहाड से शंबर को फेंक दिया। इस युद्ध में सुदास के विरूद्ध लडने वाले राजा थे- 1. शिन्यु, 2. तुर्वश, 3. द्रह्यु, 4. कवष, 5. पुरू, 6. अनु, 7. भेद 8. शंबर 9. वैकर्ण, 10. एक अन्य वैकर्ण, 11. यदु, 12. मत्स्य, 13. पक्थ, 14. भालनास, 15. अलीन 16. विंशानिन, 17. अज, 18. शिव, 19. शिग्रु, 20. यक्षु, 21. युध्यामधि, 22. यद्व, 23.देवकमन्यमान, 24. चयमान कवि, 25. सुतुक, 26. उचथ, 27. श्रुत, 28. वृद्ध, 29. मन्यु, और 30 पृथु। स्पष्ट है कि इस युद्ध के नाम से जैसा लगता है, उससे भी कहीं बडा युद्ध था वह। यह भारतीय आर्यो के इतिहास की निश्चय ही बहुत बडी घटना रही होगी। इसमें आश्चर्य की कोई बात नही है कि विजेता सुदास अपने समय का एक महान नायक बन गया था। यह हमें नही पता कि इस युद्ध की असली जड क्या थी। इसका कुछ संकेत ऋग्वेद 7, 83.7 में मिलता है जहां सुदास के विरूद्ध लामबंद राजाओं को अधार्मिक बताया गया है जिससे ऐसा लगता है कि शायद यह एक धार्मिक युद्ध था। ये पैजवन के जीवन से संबंधित टिप्पणियां है जिनका उल्लेख महाभारत के शांतिपर्व में, सर्वाधिक प्रामाणिक स्रोत ऋग्वेद से छन कर, मिलता है। ऋग्वेद से हमें यह जानकारी मिलती है कि उसका असली नाम सुदास था और वह एक क्षत्रिय था। वह क्षत्रिय से भी बढकर था। वह एक राजा था और शक्तिशाली राजा था। महाभारत में इसके साथ एक और नई जानकारी जुड जाती है कि वह शूद्र था। एक शूद्र जो आर्य था, एक शूद्र जो क्षत्रिय था और एक शूद्र जो राजा था। इससे बढकर और कोई विज्ञप्ति हो सकती है क्या? इससे बढकर क्रांतिकारी और कुछ हो सकता है क्या? जीवन चरित संबंधी विवरणों की इस खोज को तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों की चर्चा के साथ समाप्त किया जा सकता है- क्या सुदास एक आर्य था? यदि सुदास एक आर्य है तो उसकी जनजाति क्या थी? यदि सुदास एक शूद्र है तो शूद्र का अर्थ क्या है? हम दूसरे प्रश्न से अपनी चर्चा की शुरूआत करेंगे। इस प्रश्न के समाधान हेतु ऋग्वेद में उपलब्ध कुछ उल्लेखों से कुछ मदद लेना संभव होगा। ऋग्वेद में अनेक जनजातियों का उल्लेख है, जिनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, त्रित्सु, भरत, तुर्वष, द्रह्यु, यदु, पुरू और अनु। किंतु ऋग्वेद में उपलब्ध उल्लेखों के अनुसार सुदास का संबंध केवल तीन से था-पुरू, त्रित्सु और भरत से। हमारे लिए इन्हीं तीनों तक सीमित रहकर यह पता लगाना पर्याप्त होगा कि वह इनमें से किस जनजाति का था। त्रित्सु और सुदास के संबंधों के विषय में ऋग्वेद के सर्वाधिक महत्वपूर्ण छंद है- 1, 63.7, 1, 130.7, 7, 18.15, 7, 33.5, 7, 33.6, 7, 83.4, 6 स्त्रोत्र 1, 63.7 में दिवोदास को पुरूओं का राजा कहा गया है, और 1, 130.7 में दिवोदास को पौरव अर्थात पुरूओं का संबंधी कहा गया है। ऋग्वेद 7, 18.15 और 8, 83.6 के अनुसार सुदास कोई त्रित्सु नही था। इसमें से पहले छंद के अनुसार सुदास ने त्रित्सु शिविर पर धावा बोला था और त्रित्सु जन भाग गए थे, और तब सुदास ने उनकी संपदा पर कब्जा कर लिया था। दूसरे छंद के अनुसार त्रित्सु गण और सुदास ने मिलकर दस राजाओं से युद्ध किया था, किंतु उन्हें अलग अलग दर्शाया जाता है किन्तु 7, 35.5 और 7, 83.4 में सुदास की ही पहचान त्रित्सु के रूप में की गई है, और 7, 35.5 में तो सुदास सचमुच त्रित्सुओं को राजा बन जाता है। त्रित्सु गण भरत गण के बीच और उनके तथा सुदास के बीच संबंधों के इस सवाल पर हमारे पास साक्ष्य के तौर पर ऋग्वेद 7, 33.6 और 5, 16.4, 6, 19 है। इनमें से प्रथम के अनुसार, त्रित्सु और भरत एक ही है। दूसरे स्तोत्र के अनुसार सुदास के पिता दिवोदास को भरतवंशी बताया गया है। इन उल्लेखों से एक बात तो तय है कि पुरू, त्रित्सु और भरत या तो एक ही जन की विभिन्न शाखाएं थी अथवा ये अलग अलग जनजातियां थी जो कालांतर में एक हो गई। यह असंभव नही है। सवाल बस यह उठता है- यदि यह मान लिया जाए कि ये अलग अलग जनजातियां थी, तो फिर सुदास मूल रूप में इनमें से किस जनजाति का था? पुरू, त्रित्सु अथवा भरत का? पुरू और भरत जनजातियों के साथ सुदास के पिता दिवोदास के संबंध को ध्यान में रखे तो स्वाभाविक तौर पर यह जाना जा सकता है कि सुदास मूल रूप में या तो पुरू जनजाति का था अथवा भरत का- किस का था, यह कहना कठिन है। वह पुरू में से था अथवा नही, इस बात में तो कोई संदेह नही है कि- यदि इस तथ्य को ध्यान में रखा जाए कि उसके पिता दिवोदास को भरत जनजाति का बताया गया है तो- सुदास का संबंध भरत जनजाति से था। अगला सवाज है- ये भरत कौन थे, और क्या ये वही जन थे जिनके नाम पर इस देश का नाम भरत भूमि पडा? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकांश लोगों को सही तथ्यों की जानकारी नही है। जब हिंदु लोग भरत की बात करते है तो उनके दिमाग में दुष्यंती भरत अथवा दुष्यंत और शकुंतला के वंशज भरत रहते है जिन्होनें महाभारत में वर्णित युद्ध लडा था। वे केवल किन्ही अन्य भरत से ही अनभिज्ञ नही है किंतु वे यह भी विश्वास करते है कि इस देश को जो भारत भूमि नाम दिया गया वह दुष्यंती भरत के नाम पर ही दिया गया था। भरत दो है जो एक दूसरे से बिलकुल अलग है। एक भरत जनजाति में तो ऋग्वेद के भरत है जिनके पूर्वज मनु थे और जिनमें से सुदास थे। दूसरी भरत जनजाति में दुष्यंती भरत आते है। इससे भी अधिक महत्वूपूर्ण यह है कि यदि इस देश का नाम भारत भूमि रखा गया है, तो यह ध्यान में रखना होगा कि यह नाम ऋग्वेद के भरत के नाम पर रखा गया है, दुष्यंती भरत के नाम पर नहीं। यह तथ्य भगवत पुराण के निम्नलिखित छंद से स्पष्ट हो जाता है- प्रियवंदो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य ह। तस्याग्नीघ्रस्ततो नाभिर्ऋषभश्च सुतस्ततः।। अवतीर्णं पुत्रशतं तस्यासीद्रह्यापारगम्। तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः। विख्यातं वर्षमेतद्यन्मानना भारतमुत्तप्रभ्।। स्वयंभू के पुत्र मनु के प्रियवंद नाम का एक पुत्र था, उसका पुत्र अग्नीध्र था, उसका पुत्र नाभी हुआ, इसके ऋषभ नाम का एक पुत्र था। उसके सौ पुत्र उत्पन्न हुए, वे सभी वेद ज्ञानी थे, उनमें भरत सबसे बा था, नारायण भक्त था, जिसके नाम से यह विख्यात भूमि भारत कहलाती है। इससे पता चलता है कि यह शूद्र सुदास कितने श्रेष्ठ राजवंश का था। अब अगली बात यह जाननी है कि सुदास क्या एक आर्य था। भरत तो निश्चय ही आर्य थे, और इसलिए सुदास एक आर्य ही रहा होगा। यदि संदर्भ ऋग्वेद 7, 18.7 का लिया जाए, तो आर्यो के साथ त्रित्सुगण का यह संबंध उसके आर्य मूल पर थोडा संदेह उत्पन्न करता हैं इस छंद में कहा गया है कि इंद्र ने आर्यो की गायों को त्रित्सुओं से छुडाया और त्रित्सुओं को मार डाला, जिससे यह पता चलता है कि त्रित्सु लोग आर्यो के शत्रु थे। ग्रिफिथ्य इस बात से बहुत विचलित होते है कि त्रित्सु जन को अनार्य दिखाया जा रहा है जो इस दंद को शाब्दिक अनुवाद का परिणाम है, और इससे मुक्ति के लिए वह यह समझते है कि गायों का अर्थ कामरेड (साथी) लगाया है। यह निश्चय ही तब अनावश्यक हो जाता है जब हम यह ध्यान में रखते है कि ऋग्वेद में दो प्रकार के आर्यो की कथा है, वे प्रजाति के मामले में अथवा धर्म के मामले में भिन्न थे, यह कहना कठिन है। इस आलोक में व्याख्या की जाए तो इस दंद का बस यह अर्थ निकलता है कि जब यह छंद लिखा गया था उस समय त्रित्सु लोग धर्म से आर्य नही बने थे। इसका यह अर्थ नही है कि वे प्रजाति से आर्य नही थे। इसलिए यह निर्विवाद तथ्य है कि सुदास को चाहे भरत माना जाए अथवा त्रित्सु, था वह एक आर्य ही। उनका यह निष्कर्ष बिलकुल सटीक है कि शूद्र लोग आर्य थे। संदेह बस इतना है कि क्या शूद्र एक जनजाति थे। इसमें तो कोई संदेह है ही नही कि वे आर्य और क्षत्रिय थे। भारतय आर्यो के समाज में प्रारंभ से ही चार वर्ण थे, इसे हर जगह और हर वर्ग के हिंदू तो क्या यूरोपीय विद्वान भी मानते हैं यदि पिछले अध्याय में प्रस्तुत इस मत को मान लिया जाए कि शूद्र लोग क्षत्रिय थे, तो फिर यह मत भी मानना होगा कि यह सिद्धांत गलत है और एक समय था जब भारतीय आर्यो के समाज में केवल तीन वर्ण थे-ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य। इस तरह, जहां यह मत एक समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है वही यह दूसरी समस्या भी खडी कर देता है। कोई और इस समस्या के महत्व को समझे या न समझे, मै तो समझता हॅू। सच में, मै इस तथ्य से अवगत हॅू कि जब तक मै यह साबित नही कर पाता कि मूलतः केवल तीन ही वर्ण थे, तब तक मेरे इस मत को संदेह से परे नही कहा जा सकता कि शूद्र लोग क्षत्रिय थे। जहां यह एक दुर्योग ही है कि मै एक ऐसे मत पर पहुंचा हॅू जो एक समस्या के समाधान की आशा बंधाते हुए भी एक अन्य समस्या पैदा कर देता है, वही मै इसे एक सुयोग भी मानता हॅू कि मेरे पास ऐसे मजबूत और ठोस प्रमाण है जिनकी सहायता से यह दर्शाया जा सकता है कि भारतीय आर्यो में मूलतः तीन ही वर्ण थे। मै जिन साक्ष्यों पर निर्भर कर रहा हॅू उनमें पहला साक्ष्य तो स्वयं ऋग्वेद का ही है। कुछ विद्वान यह मानते है कि ऋग्वेदिक काल में वर्ण व्यवस्था थी ही नही।यह कथन इस विचार पर आधारित है कि पुरूष सूक्त को ऋग्वेद में बहुत बाद में जोडा गया है। यदि इसे मान भी लिया जाए, तो भी इस कथन को स्वीकार नही किया जा सकता कि ऋग्वेद के समय में वर्ण व्यवस्था नही थी। इस प्रकार की व्यवस्था ऋग्वेद के पाठ से बिलकुल मेल नही खाती।क्योंकि, पुरूष सूक्त को छोड दें तो ऋग्वेद में ब्राम्हणों, क्षत्रियों और वैश्यों का उललेख एक बार नही अनेक बार हुआ। एक अलग वर्ण के तौर पर, ब्राम्हणों का उल्लेख पंद्रह बार तो क्षत्रियों का नौ बार हुआ है। यहां महत्वूपर्ण यह है कि ऋग्वेद में शूद्र का उल्लेख एक अलग वर्ण के रूप में नही हुआ है। यदि शूद्र एक अलग वर्ण होते, तो कोई कारण ही नही है कि ऋग्वेद में उनका उल्लेख नही होता। ऋग्वेद से प्राप्त होने वाला सही निष्कर्ष यह नही है कि वर्ण व्यवस्था उस समय नही थी, बल्कियह हैकि उस समय केवल तीन वर्ण थे और शूद्रों को चैथा और पृथक वर्ण नहीं माना जाता था। दूसरा साक्ष्य दो ब्राम्हण ग्रंथो- शतपथ और तैत्तिरीय- का है। इन दोनों ही ग्रंथों में केवल तीन वर्णो की बात कही गई है। इनमें एक अल वर्ण के रूप में शूद्रों की उत्पत्ति की चर्चा नही है। शतपथ ब्राम्हण के अनुसार- प्रजापति ने भूः (कहकर) इस पृथ्वी की रचना की। भुवः (कहकर) वायु की रचना की, और स्वः (कहकर) उन्होनें आकाश की रचना की। यह विश्व इन शब्दों के साथ ही बना। अग्नि इनके साथ बनी। भूः कहकर प्रजापति ने ब्राम्हण को उत्पन्न किया, भुवः कहकर उन्होनें क्षत्रिय को उत्पन्न किया, और स्वः कहकर वैश्य को उत्पन्न किया। अग्नि इनके साथ बनी। भूः कहकर प्रजापति ने स्वयं को बनाया, भुवः कहकर संतान को उत्पन्न किया, स्वः कहकर पशुओं को उत्पन्न किया। यह संसार प्रजापति, उसकी संतान (प्राणी), और पशुओं का हैं अग्नि इनके साथ बनी। (2, 1.4.11) तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार- इस समग्र (विश्व) को ब्रम्हा ने बनाया। मनुष्य कहते है कि वैश्य की उत्पत्ति ऋग्वैदिक मंत्रों से हुई। उनके अनुसार यजुर्वेद वह कोख है जिससे क्षत्रिय उत्पन्न हुआ। सामवेद से ब्राम्हण की उत्पत्ति हुई। यह वचन प्राचीनों ने प्राचीनों से कहा। (3, 12.9.2) यह है मेरा साक्ष्य। इसमें एक ऋग्वेद से है और दो कथन ब्राम्हण ग्रंथो से है जो प्रमाणिकता के संदर्भ में वेदों के समकक्ष ही है। क्योंकि दोनों ही श्रुति ग्रंथ है और दोनों में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि वर्ण केवल तीन ही थे। दोनों ही ग्रंथो में इस बात पर सहमति है कि शूद्र चैथा वर्ण तो क्या एक पृथक और भिन्न वर्ण भी नही थे। इसलिए मेरे तर्क के पक्ष में इससे बेहतर और कोई साक्ष्य हो ही नही सकता कि मूलतः केवल तीन ही वर्ण थे और शूद्र दूसरे वर्ण का ही एक हिस्सा थे। यही है मेरा साक्ष्य। दूसरी ओर, ऋग्वेद के पुरूष सूक्त का साक्ष्य है जिसमें यह कहा गया है कि आदिकाल से ही तीन वर्ण थे। सवाल अब यह उठता है- इन दोनों में से सही किसे माना जाए? इस प्रश्न को हल कैसे किया जाए? मीमांसा के नियमों के अनुसार तो इसे हल किया नही जा सकता। यदि हम इसे इन नियमों के अनुसार हल करें तो हमें यह स्वीकार करना पडेगा कि ये दोनों ही कथन सही है कि (1) वर्ण चार थे (पुरूष सूक्त), और (2) वर्ण तीन थे (शतपथ ब्राम्हण और तैत्तिरीय ब्राम्हण)। यह बडी अटपटी स्थिति होगी। हमें इस मसले को ऐतिहासिक आलोचना के विधानों के आलोक में हल करना होगा, जैसे कालक्रम और आंतरिक अलोचना आदि। मुख्य प्रश्न तो यह है कि क्या पुरूष सूक्त को ऋग्वेद में बाद में जोडा गया। इस प्रश्न के उत्तर के लिए सूक्त की भाषा और शेष ऋग्वेद की भाषा के अंतर को आधार बनाया गया है। सभी विद्वानों का मत तो यही हैकि यह बाद की रचना है। कोलब्रुक के अनुसार- वह उल्लेखनीय स्तोत्र (पुरूष सूक्त) ऐसी भाषा, मात्रा (छंद), और शैली में है तो उन शेष प्रार्थनाओं से अत्यंत भिन्न है जिसके साथ यह संबद्ध है। इसका लहजा निश्चय ही अधिक आधुनिक है, और इसकी रचना तभी हुई होगी जब संस्कृत भाषा परिष्कृत हो चुकी होगी और इसकी लय और व्याकरण परिशुद्ध हो गई होंगी। इससे प्राप्त आंतरिक साक्ष्य से यह महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता है कि वेदों का संकलन, प्रस्तुत रूप में, तब हुआ जब संस्कृत भाषा उस गंवारू और अनियमित बोली की स्थिति से आगे बढ चुकी थी जिसमें वेद की अधिकांश ऋचाएं और प्रार्थनाएं रची गई थी, और परिष्कृत तथा मंजुल भाषा का रूप ले चुकी थी, जिसमें पुराणों और काव्यों की रचना हुई है। प्रो. मैक्स मूलर के अनुसार- उदाहरणार्थ, इसमें किंचित भी संदेह नही हो सकता कि दसवे मंडल का 90वां स्तोत्र.... अपने लक्षण और भाषा दोनों ही दृष्टि से आधुनिक है। इसमें याज्ञिक अनुष्ठानों के संदर्भो की भरमार है, इसमें पारिभाषिक दार्शनिक शब्दों का प्रयोग किया गया है, इसमें वसंत, ग्रीष्म और शरद के क्रम में तीन ऋतुओं का उल्लेख है, इसमें ऋग्वेद का वह एकमात्र अंश है जिसमें चार जातियां गिनाई गई है। इसकी रचना आधुनिक होने के संदर्भ में इसकी भाषा का साक्ष्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ, गरमी के मौसम के लिए प्रयुक्त ग्रीष्म शब्द ऋग्वेद के अन्य किसी स्तोत्र में नही आता, और वसंत शब्द भी वैदिक कवियों की प्राचीनतम शब्दावली में नही है। यह शब्द ऋग्वेद (10, 161.4) में बस एक ही बार उस अंश में आया है जिसमें तीनों मौसमों का उल्लेख शरद, हेमंत, और वसंत के क्रम में हुआ है। प्रो. वेबर का कहना है- ऋग्वेद का स्तोत्र माना जाने वाला पुरूष सूक्त उस संग्रह का एक नवीनतम अंश है, यह बात इसके कथ्य से बिलकुल स्पष्ट हो जाती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि साम संहिता में इसका कोई भी मंत्र लिया नही गया है (मैने एकेडेमिकल प्रिलेक्शंस में जो कहा गया है उससे तुलना करे।) वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है (यद्यपि यह निश्चित नही है) कि नैगेय संप्रदाय ने पहले पांच मंत्रों को प्रथम अर्चिका के सातवें प्रपाठक में लिया गया है, जो इसकी विशिष्टता है। यह एक तर्क है। एक और तर्क है जिससे हमें यह तय करने में मदद मिलती है कि पुरूष सूक्त की रचना पहले हुई अथवा बाद में। इसके लिए यह पता करना जरूरी हो जाता है कि वेदों की कितनी संहिताओं में पुरूष सूक्त को लिया गया है। विभिन्न वेदों और संहिताओं का परीक्षण करने पर, यह स्थिति सामने आती है- सामवेद में पुरूष सूक्त से केवल पांच मंत्र लिए गए है। जहां तक शुक्ल यजर्वेद का सवाल है, तो वाजसनेयी संहिता में इसे सम्मिलित किया गया है, किंतु इन दोनों का अंतर बहुत अधिक है। ऋग्वेद में पुरूष सूक्त के केवल 16 मंत्र है। किंतु वाजसनेयी संहिता के पुरूष सूक्त में 22 मंत्र है। कृष्ण यजुर्वेद की वर्तमान में तीन संहिताएं उपलब्ध है। किंतु तैत्तिरी, कठ और मैत्रायणी, इन तीन संहिताओं में से किसी में भी पुरूष सूक्त को स्थान नहीं दिया गया है। अथर्ववेद ऐसा एकमात्र वेद है जिसमें ऋग्वेद के पुरूष सूक्त को कमोबेश वैसा का वैसा लिया गया है। पुरूष सूक्त के छंदो की शैली में जो अंतर है, वह भी अत्यधिक उल्लेखनीय है। पुरूष सूक्त पढने वाला कोई भी व्यक्ति देख सकता है कि इन दो-11 और 12-मंत्रों को छोडकर पूरा का पूरा सूत्र वर्णनात्मक शैली में है। किंतु, चार वर्णो की उत्पत्ति की व्याख्या करने वाले दो मंत्र प्रश्नोत्तर शैली में है। प्रश्न यह है- वर्णनात्मक शैली को भंग करते हुए इन स्तोत्रों को प्रश्नात्मक शैली में क्यों रखा गया? इसका एक मात्र उत्तर यही है कि रचयिता एक नए विषय को एक सटीक ढंग से प्रस्तुत करना चाहता था। इसका यह अर्थ हुआ कि पुरूष सूक्त को ऋग्वेद में बाद में तो जोडा गया ही, ये मंत्र विशेष भी पुरूष सूक्त से बहुत बाद के है। कुछ आलोचकों ने तो यहां तक कहा है कि पुरूष सूक्त और कुछ नहीं ब्राम्हणों द्वारा अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए की गई एक जालसाजी है। पुरोहित अनेक प्रकार की जालसाजी करने के लिए ख्यात है। कांस्टैन्टाइन और सूडो-इजिडोर डिक्रीटल्स के योगदान पोपतंत्र के इतिहास की सुविख्यात जालसाजियां है। भारत के ब्राम्हण इस प्रकार के प्रपंच से अछूते नही थे। उन्होनें विधवाओं को जलाने के समर्थन में ऋग्वेद को दिखाने के इरादे से अग्रे शब्द को किस प्रकार अग्ने में बदल दिया, यह बात स्वयं प्रो. मैक्स मूलर जैसे विद्वान ने कही है। यह भी सुविदित है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में किस प्रकार एक-एक वादी के मामले को पुष्ट करने के लिए एक पूरी की पूरी स्मृति ही रच डाली गई थी। इसलिए, इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नही है, यदि ब्राम्हणों ने चातुर्वण्र्य व्यवस्था को वेदसम्मत बनाने की दृष्टि से पुरूष सूक्त को पूरा का पूरा नही तो, कम से कम दो मंत्रों 11 और 12 को चैथा वर्ण बनने के बहुत बाद गढ दिया। पुरूष सूक्तक्या ब्राम्हण ग्रंथों से भी पहले का है? यह प्रश्न पहले प्रश्न से भिन्न और पृथक है। हो सकता है कि पुरूष सूक्त ऋग्वेद के अंतिम भाग में है। फिर भी, यदि पूरा ऋग्वेद ब्राम्हण ग्रंथों से पहले का है, तो पुरूष सूक्त फिर भी ब्राम्हण ग्रंथों से पहले का ही कहलाएगा। इसलिए, इस प्रश्न पर अलग से विचार किया जाना चाहिए। यह प्रो. मैक्स मूलर का विचार है कि वैदिक साहित्य के विकास का क्रम वेदों, ब्राम्हण ग्रंथो से होकर सूत्रों तक आता है। यदि इस मत को मान लिया जाए तो इसका अर्थ होगा कि पुरूष सूक्त को ब्राम्हण ग्रंथो से पहले का ही होना चाहिए। सवाल उठता है- क्या प्रो. मैक्स मूलर के मत को त्रुटिरहित माना जा सकता है? यदि इसे त्रुटिहीन माना जा सकता है, तो इस मत के दो निष्कर्ष निकलेंगे- 1. ऋग्वेद के समय में चार वर्ण थे और शतपथ ब्राम्हण के समय में वे तीन हो गए, अथवा 2. यह परंपरा शतपथ ब्राम्हण में पूर्ण रूपेण अभिलिखित नहीं है। स्पष्ट है कि ये दोनों ही निष्कर्ष अनर्गल है और इन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। पहला निष्कर्ष तो प्रत्यक्ष तौर पर अनर्गल है। दूसरा निष्कर्ष इसलिए अमान्य है क्योंकि ब्राम्हण ग्रंथों में वर्णो के उद्विकास का जो सिद्धांत मिलता है वह पुरूष सूक्त में प्रतिपादित सिद्धांत से भिन्न है और अपने आप में पूर्ण भी है। यदि मैक्स मूलर के मत को बिलकुल सही मान लें तो इस निष्कर्ष की अनर्गलता अपरिहार्य हो जाती है। इस मत को इस अर्थ में सही नहीं माना जा सकता कि सभी संहिताओं की रचना हो जाने से पहले किसी भी ब्राम्हण की रचना नही हुई थी। दूसरी ओर, जैसा कि प्रो. बेलवलकर और प्रो. रानाडे ने कहा है, यह संभव है कि इनमें से अधिकांश रचनाएं मिली जुली और एक ही काल की है, और इसलिए वेदों का एक भाग दूसरे भाग से पहले का हो सकता है और ब्राम्हण ग्रंथों का एक भाग वेदों के विभिन्न भागों से पहले का हो सकता है। यदि यह विचार सही है तो फिर यह मानना ही होगा कि शतपथ ब्राम्हण और तैत्तिरीय ब्राम्हण के वे अंश ऋग्वेद के पुरूष सूक्त से पहले के है जिनमें यह कहा गया है कि एक समय केवल तीन ही वर्ण थे। पुरूष सूक्त के इस परीक्षण से क्या निष्कर्ष निकलता है? इससे केवल एक ही निष्कर्ष निकलता है कि यह सूक्त ऋग्वेद में बाद में जोडा गया था, और इसलिए इस विषय में कोई विवाद नही हो सकता कि आर्यो के समाज के आदि काल से ही चार वर्ण थे। उपर्युक्त कारणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि शूद्रो की उत्पत्ति संबंधी मेरे सिद्धांत से ऐसी कोई समस्या उत्पन्न नही होती जिसका उल्लेख इस अध्याय के प्रारंभ में किया गया है। यदि ऐसा लगता भी है कि इससे कोई समस्या उत्पन्न हुई है, तो यह इस मान्यता के कारण है कि पुरूष सूक्त उस बात का प्रामाणिक और सही अभिलेख है जो उसमें कही गई है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि यह मान्यता बिलकुल निराधार है। इसलिए, मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं दिखाई देती कि एक समय था जब आर्यो के समाज में केवल तीन ही वर्ण थे और शूद्र दूसरे अर्थात क्षत्रिय वर्ण के थे। इस सिद्धांत से समस्या का पूर्ण समाधान नहीं होता कि शूद्र लोग क्षत्रिय थे और यदि वे चैथे वर्ण में पहुंच गए तो इसका कारण यह था कि उन्हें उस स्थिति में धकेला गया था। इससे एक और ही समस्या खडी होती है। समस्या यह है कि आखिर शूद्रों को नीचे धकेला ही क्यों गया। शूद्र राजा सुदास और ब्राम्हण ऋषि वसिष्ठ के बीच हिंसक टकराव के प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध है। किंतु इस टकराव से संबंधित तथ्य अत्यंत भ्रामक रूप में प्रस्तुत किए गए है। आगे मैने उन्हें एक स्पष्ट और व्यवस्थित ढंग में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यह टकराव अथवा संघर्ष किस प्रकार का था, इसे समझने के लिए पहले वसिष्ठ और विश्वमित्र के संबंधों को समझना होगा। वसिष्ठ और विश्वामित्र शत्रु थे और कट्टर शत्रु थे। ऐसा कोई भी प्रसंग नही होता था जिसमें उनमें से कोई एक पक्ष हो और दूसरा उसका विरोधी न हो। उनकी शत्रुता के साक्ष्य के तौर पर, मै कुछ प्रसंगों का उल्लेख करूंगा। एक प्रसंग सत्यव्रत अथवा त्रिशंकु का है। हरिवंश में यह कथा इस प्रकार वर्णित है- इस बीच वसिष्ठ, राजा (सत्यव्रत के पिता) के साथ अपने गुरू शिष्य संबंध के नाते अयोध्या नगरी, देश, और राज-मल का शसन चलाते रहे। किंतु, सत्यव्रत मूर्खता के कारण अथवा अथवा नियति के चलते वसिष्ठ से निरंतर चिढ़ता था, क्योंकि उन्होनें (उचित कारण से ही) उसके पिता द्वारा उसे राजसत्ता से बाहर रखने पर हस्तक्षेप नही किया था। विवाह संस्कार के नियम तभी बाध्यकारी होते है, जब सातवां फेरा पूरा हो जाता है, सत्यव्रत का कहना था, और जब मैने कन्या का अपहरण किया तब यह पूरा नही करते। इसीलिए सत्यव्रत के मन में वसिष्ठ के प्रति रोष था, जबकि वसिष्ठ ने मर्यादा के अनुसार ही किया था। सत्यव्रत अपने पिता द्वारा मौन धारण कराए जाने के औचित्य को भी नहीं समझता था.... जब उस (राजा) ने इस कठोर व्रत का समर्थन किया तो उसका मानना था कि उसने अपने परिवार की परंपरा का ही पालन किया है। किंतु, जैसा कहा जा चुका है, मुनि वसिष्ठ ने उसके पिता को ऐसा करने से नही रोका, किंतु उसे राजा बनाने का संकल्प कर लिया। जब शक्तिशाली राजकुमार ने बारह वर्ष का प्रायश्चित पूरा कर लिया, तब खाने के लिए मांस न होने की स्थिति में उसने वसिष्ठ की दुधारू गाय को देखा जो सारे मनोवांछित पदार्थ देती थी, और क्रोध, उन्माद तथा अशक्तता के वशीभूत होकर भूख की पीडा में उसने उस गाय का वध कर दिया.... उसने उसका मांस स्वयं तो खाया ही विश्वामित्र के पुत्र को भी खिलाया। जब वसिष्ठ ने यह सुना तो उन्हें उस पर बहुत क्रोध आया, और उन्होनें उसे त्रिशंकु नाम दे दिया क्योंकि उसने तीन पाप किए थे। घर लौटने पर विश्वामित्र अपनी पत्नी को मिली सहायता से प्रसन्न हुए, और उन्होनें त्रिशंकु से वरदान मांगने को कहा। त्रिशंकु ने सशरीर स्वर्ग जाने का वरदान मांगा। बारह वर्षो से सूखे का अंत हो चुका था, और मुनि (विश्वामित्र) ने त्रिशंकु को उसके पिता के राज्य का शासक बना दिया और उसके निमित्त यज्ञ किया। तब प्रतापी कौशिक ने देवताओं और वसिष्ठ के विरोध के बावजूद राजा को सशरीर स्वर्ग पहुंचा दिया। एक और प्रसंग त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र का है जिसमें ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी दिखाई देते है। यह कथा विष्णु पुराण और मार्कण्डेय पुराण में वर्णित है। यह कथा इस प्रकार है- एक बार शिकार करते समय राजा ने स्त्रियों का विलाप सुना जो ऋषि विश्वमित्र के अभूतपूर्व कठोर तप के कारण था। निर्बलों की रक्षा करने के क्षत्रिय धर्म का पालन करने के उद्देश्य से और गणेश देवता की प्रेरणा से, हरिश्चन्द्र ने ललकारा, यह कौन पापी है जो अपने वस्त्रांचल में अग्नि बांध रहा है, जबकि मै उसका स्वामी शक्ति और तेज से संपन्न यहां उपस्थित हॅू? आज वह उन बाणों से बिंधाा चिर-निद्रा में निमग्न हो जाएगा जो मेरे धनुष से निकलकर आकाश की सभी दिशाओं को दीप्त करते है। यह सुनकर विश्वमित्र भडक उठे। उनके क्रोध से उनकी (तप) विद्या वहीं नष्ट हो गई, और हरिश्चंद्र ने पीपल के पत्ते के समान कांपते हुए कहा कि वह तो बस राज-धर्म निभा रहे थे, जिसके अंतर्गत प्रतिष्ठित ब्राम्हणों को तथा अन्य निर्धनों को दान देना, निर्बलों की रक्षा करना, और शत्रुओं से युद्ध करना आता था। तब विश्वामित्र ने राजा से दक्षिणा की मांग की। राजा ने कहा कि ऋषि जो मांगना चाहे मांग ले- सोना, उसका पुत्र, पत्नी, शरीर, जीवन, राजय, सौभाग्य, कुछ भी। ऋषि ने सबसे पहले राजसूय यज्ञ का दान मांगा। राजा ने उसका वचन दे दिया और ऋषि से और कुछ भी मांगने को कहा। ऋषि ने पूरी धरती का साम्राज्य मांगा जिसमें स्वयं हरिश्चंद्र, उसकी पत्नी, उसके पुत्र, और सदा साथ रहने वाले सद्गुण को छोड राजा को सभी कुछ देना था। हरिश्चंद्र इसके लिए सहर्ष तैयार हो गया। तब विश्वामित्र ने उससे सभी आभूषण उतारकर वृक्षों की छाल पहन अपनी पत्नी शैव्या और पुत्र के साथ राज्य छोडकर चले जाने को कहा। जब वह जाने लगा तो विश्वामित्र ने उसे रोककर उससे यज्ञ की दक्षिणा मांगी जो उसने अभी तक नहीं दी थी। राज ने कहा कि अब तो उसके पास उसकी पत्नी, पुत्र और स्वयं का शरीर ही बचा है। विश्वासमित्र ने फिर भी उससे दक्षिणा की मांग की और कहा कि ब्राम्हणों को वचनानुसार दक्षिणा न देने से उसका सर्वनाश हो जाएगा। इस शाप से भयभीत राजकुमार ने एक महीने में दक्षिणा देने की बात कही और अपनी प्रजा को विलाप करता छोड अपनी पत्नी के साथ चल पडा जो इस थकान की अभ्यस्त नही थी। जब वह राज्य न छोडने की अनुनय विनय करने वालों की बात सुनने के लिए ठहर गया तो विश्वामित्र वहां आ गए और इस विलंब तथा राजा की अनिच्छा को देखकर वह रानी को अपने डंडे से मारने लगे और राजा उसे घसीट कर ले चला। तब हरशचंद्र अपनी पत्नी और छोटे-से पुत्र को लेकर बनारस चल दिया कि शिव की इस दिव्य नगरी में ऐसा कुछ नही होगा। किंतु यहां उसे विश्वामित्र ने मोहलत की अवधि पूरी न होते हुए भी हरिश्चंद्र से अपनी दक्षिणा की मांग कर डाली। शैव्या ने सिसकते हुए कहा कि वह (हरिश्चंद्र) उसे (शैव्या को) बेच दे। यह प्रस्ताव सुनकर हरिश्चंद्र अचेत हो जाता है, फिर होश में अपने पर विलाप करता है, और फिर से अचेत हो जाता है। उसे इस हालत में देख रही उसकी पत्नी शैव्या भी अचेत हो जाती है। जब वे इस प्रकार अचेत होते है तो उनका भूखा प्यासा पुत्र आर्तनाद करता है, पिता, मुझे रोटी दो, मां, मां, मुझे भोजन दो, भूख मुझे सता रही है और मेरी जीभ सूख रही है। उसी क्षण विश्वामित्र लौट आए और हरिश्चंद्र पर पानी छिडक कर उसे होश में लाए, और फिर से दक्षिणा की मांग करने लगे। राज फिर अचेत हो गया और उन्होनें उसे फिर सचेत कर दिया। ऋषि ने उसे धमकी दी कि यदि उसने सूर्यास्त तक दक्षिणा नहीं दी तो वह उसे शाप दे देंगे। उसकी पत्नी उस पर दबाव डालती है तो वह उसे बेचने को तैयार हो गया। किंतु उसने यह भी कहा कि वह जो कर रहा है वह कोई अमानवीय अभागा भी नही करेगा। तब उसने शहर में जाकर अपनी पत्नी को एक दासी के रूप में बेचने के लिए प्रस्तुत कर दिया। एक धनी वृद्ध ब्राम्हण ने उसे घर के काम के लिए खरीद लिया। अपनी मां को घसीट कर ले जाते देख उसका पुत्र उसके पीछे भागा। उसकी आंखे आंसुओं से भीग रही थी। और वह मां-मां चिल्लाता जा रहा था। जब वह समीप आया तो खरीददार ब्राम्हण ने उसे लात मारी, किंतु वह अपनी मां को ले जाने नहीं दे रहा था, और लगातार मां-मां चिल्ला रहा था। तब रानी ने उस ब्राम्हण से कहा, स्वामी, दया करके इस बच्चे को भी खरीद लें, क्योंकि उसके बिना मै आपके किसी काम नही आ पाउंगी। मेरे अभागेपन को देख मुझ पर दया करें और मुझे मेरे बेटे से उसी प्रकार मिला दें जैसे बछडे के साथ गाय। ब्राम्हण इस पर सहमत हो गया- ये पैसे लो और बालक मुझे दे दो। जब ब्राम्हण दोनों को लेकर ओझल हो गया तो विश्वामित्र फिर प्रकट हो गए और उन्होनें अपनी मांग फिर रख दी। और जब दुखी हरिश्चंद्र ने उन्हें वह छोटी-सी राशि देनी चाही जो उसने अपनी पत्नी और पुत्र को बेचकर प्राप्त की थी, तो उन्होनें क्रोध में कहा, नीच क्षत्रिय, यदि तू सोचता है कि यह दक्षिणा मेरी योग्यता के अनुरूप है, तो तुझे शीघ्र ही मेरे तप और मेरे ज्ञान की शक्ति को देखेगा। हरिश्चंद्र ने उन्हें अतिरिक्त दान का वचन दिया और विश्वामित्र ने उसे इसके लिए दिन की शेष अवधि का समय दिया। जब आतंकित और दुखी हरिश्चंद्र ने स्वयं को बेचने के लिए प्रस्तुत किया कि उस ऋषि की क्रूरतापूर्ण मांग को पूरा करके, तो धर्म एक चांडाल का वेश धारण कर उसे मुंहमांगे दास पर खरीदने को तैयार हो गया। हरिश्चंद्र ने यह कहते हुए मना कर दिया कि ऐसी नीच दासता से तो वह ऋषि शाप में भस्म हो जाना पसंद करेगा। किंतु विश्वामित्र फिर वहां आ गए और उससे पूछने लगे कि उसने चांडाल की इतनी बडी राशि क्यों ठुकरा दी। जब हरिश्चंद्र ने अपने सूर्यवंशी होने की बात कही तो विश्वामित्र ने उसे धमकी दी कि यदि उसने इस तरीके से अपना दायित्व पूरा नही किया तो वह उसे शाप दे देंगे। हरिश्चंद्र ने उनसे याचना की कि वह उन्हें एक चांडाल की गुलामी करने को बाध्य न करें और वह अपना शेष ऋण उतारने के लिए विश्वामित्र का दास बनने को तैयार है। इस पर विश्वामित्र ने कहा, यदि तू मेरा दास है, तो फिर मै तुझे इस चांडाल को एक हजार लाख मुद्रा में बेचता हॅू। चांडाल ने प्रसन्न होकर भुगतान कर दिया और हेरान दुखी हरिश्चंद्र को बांधकर पीटता हुआ अपने निवास की ओर लेकर चल दिया। चांडाल ने हरिश्चंद्र को एक श्मशान में कपन चुराने के लिए भेज दिया और कहा कि उसे इसका 2/6 अंश मिलेगा, 3/6 उसके स्वामी को और 1/6 राजा को दिया जाएगा। हरिश्चंद्र ने इस भयावह स्थान और इस नीच व्यवसाय में अत्यधिक दुखी अवस्था में बारह महीने काटै, जो उसके लिए एक सौ वर्षो के समान थे। फिर वह सो गया और उसने अपने विगत जीवन के सपने देखे। जब वह जागा, तो उसकी पत्नी उनके पुत्र को अंतिम संस्कार के लिए वहां लेकर आई, जिसे सांप ने डस लिया था। विपदाओं ने उनकी शक्ल सूरत इतनी बदलकर रख दी थी कि पहले तो पति पत्नी दोनों ही एक दूसरे को नही पहचान पाए। किंतु, हरिश्चंद्र ने उसके विलाप स्वर से शीघ्र ही पहचान लिया कि वह उसकी पत्नी है, और वह अचेत हो गया, रानी ने अपने पति को पहचाना तो वह भी मूर्छित हो गई। होश में आने पर दोनों ही विलाप करने लगे। पिता अपने पुत्र के निधन पर विलाप कर रहा था, तो पत्नी राजा की दारूण स्थिति पर। फिर वह उसके आलिंगन में, उसके गले लगकर उससे पूछने लगी, यह सच है या सपना। वह बेहद हैरान थी। फिर वह बोली कि यदि यह सच है तो फिर धर्म उनके लिए व्यर्थ है जो धर्म का पालन करते है। अपने स्वामी की अनुमति लिए बिना अपने पुत्र का अंतिम संस्कार करने से हरिश्चंद्र ने पहले तो संकोच किया, किंतु फिर हर परिणाम को भुगतने के लिए तैयार हो गया और उसने स्वयं को दिलासा दी। वह बोला, यदि मैने दान दिया है, यज्ञ किए है और अपने धर्म गुरूओं को प्रसन्न किया है, तो फिर मै और तुम (मेरी पत्नी) अपने पुत्र के साथ परलोक में जा मिले। रानी ने भी इसी तरीके से मरने का संकल्प कर लिया। जब हरिश्चंद्र अपने पुत्र के पार्थिव शरीर को चिता पर रखकर परमात्मा भगवान हरि नारायण कृष्ण का ध्यान कर रहा था तभी धर्म के नेतृत्व और विश्वामित्र के सान्निध्य में सभी देवता वहां आ गए। धर्म ने राजा से आग्रह किया कि वह अपने कठोर इरादे को त्याग दे, और इंद्र ने कहा कि उसने, उसकी पत्नी ने, और उनके पुत्र ने अपने सद्कर्मो से स्वर्ग को जीत लिया है। देवताओं ने आकाश से अमृत और पुष्पों की वर्षा की, और राजा का पुत्र जीवित हो उठा और उसकी तरूणाई लौट आई। दिव्य वस्त्रों और मालाओं से सुशोभित राजा, और रानी ने अपने पुत्र को सीने से लगा लिया। किंतु, हरिश्चंद्र ने कहा कि वह तब तक स्वर्ग नही जा सकता जब तक अपने स्वामी चांडाल की अनुमति नही ले लेता और उसे पर्याप्त धन नहीं दे देता। तब धर्म ने उसे बताया कि उन्होनें स्वयं चांडाल का वेष धारण किया था। फिर राजा ने यह आपत्ति व्यक्त की कि वह तभी जा सकता है जब उसकी पुण्य की भागीदार उसकी स्वामीभक्त प्रजा को भी स्वर्ग जाने की अनुमति हो, चाहे वह एक ही दिन के लिए हो। इंद्र ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया। और जब विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व का अभिषेक उसके उत्तराधिकारी के रूप में कर दिया, तो हरिश्चंद्र, उसके मित्र और अनुयायी, सभी साथ-साथ स्वर्ग को चले गए। जब गंगा जल में बारह वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात हरिश्चंद्र के कुल पुरोहित वसिष्ठ को इस सबका पता चला तो वह इस श्रेष्ठ राजा पर हुए इस अत्याचार पर अत्यंत क्रोधित हुए और बोले कि उनका रोष तब भी इतना नही भड़का था जब उनके अपने सौ पुत्र विश्वामित्र के हाथों मारे गए थे। और उन्होनें उसे बक होने का अभिशाप दिया, वह दुष्ट मनुष्य, ब्राम्हणों का शत्रु, मेरे शाप से बुद्धिमानों के समाज से बहिष्कृत हो जाएगा और अपनी प्रज्ञा को खोकर बक बन जायेगा। विश्वामित्र ने शाप का बदला शाप से दिया और वसिष्ठ को अरि नाम की चिडिया बना दिया। अपने नए रूपों में दोनों में भीषण लडाई हुई। अरि दो हजार योजन अर्थात 18000 मील की उंचाई छू सकता था और बक 3090 योजन की। पहले उन्होनें अपने डैनों से एक दूसरे पर वार किया। गिरते पहाड़ो, उनके डैनों की फडफडाहट से जो आंधी उठी उसने पहाडों को गिरा दिया और इससे पूरी धरती कांप गई, सागर का पानी उमड पडा, पृथ्वी पाताल की ओर झुक गई। इनसे अनेक प्राणी नष्ट हो गए। इस घोर अवस्था को देख ब्रम्हा समस्त देवताओं सहित वहां पहुंच गए और उन्होेनें उन दोनों से बाज आने को कहा। वे इतने क्रोध में थे कि उन्होनें ब्रम्हा की बात भी नही मानी। तब ब्रम्हा ने उन्हें फिर से मनुष्य बना दिया और उनसे समझौता कर लेने को कहा। इस प्रकार इस टकराव का अंत हुआ। उनके एक दूसरे के विरोध में खड़े होने का एक और प्रसंग अयोध्या कये राजा अंबरीष से जुडा है- कथा इस प्रकार है कि जब अंबरीष एक यज्ञ में व्यस्त था तो इंद्र शिकार (बलि) का अपहरण कर ले गए। पुरोहित ने कहा कि यह अशुभ घटना राजा के कुशासन के कारण हुई है और इसके शमन के लिए नर बलि का प्रबंध करना होगा। बहुत खोजने के बाद राजर्षि अंबरीष की भेंट ब्राम्हण ऋषि ऋचिक से हुई जो भृगु के वंशज थे। उन्होनें ऋचिक से कहा कि वह एक लाख गायों के बदले अपने एक पुत्र को नर बलि के लिए बेच दें। ऋचिक ने कहा कि वह अपने सबसे बडे पुत्र को नहीं बेचेंगे और उनकी पत्नी ने कहा कि वह सबसे छोटे को नहीं बेचेंगे, क्योंकि उनके अनुसार सबसे छोटा बेटा मां का दुलारा होता है। इस पर दूसरे पुत्र शुनःशेप ने कहा कि तब तो उसे ही बेच देना चाहिए और उसने राजा से कहा कि उसे ही ले चले। एक लाख गाए, एक करोड स्वर्ण मुद्राएं और ढेरों जवाहरात देखकर शुनःशेप को ले जाया गया। जब वे पुष्कर से होकर जा रहे थे तो शुनःशेप ने अपने मामा विश्वामित्र को देखा जो अन्य ऋषियों के साथ वहां तप कर रहे थे। वह उनकी भुजाओं में जा गिरा और अपनी अनाथ, मित्रहीन तथा असहाय अवस्था का वास्ता देकर उनसे सहायता की याचना करने लगा। विश्वामित्र ने उसे सांत्वना दी और अपने पुत्रों से कहा कि वे स्वयं को शुनःशेप के कक्ष में बलि के रूप में प्रस्तुत करें। मधुसयंद और राजर्षि के अन्य पुत्रों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा, तुम अपने पुत्रों की बलि देकर दूसरों के पुत्रों को क्यों बचा रहे हो? हमें तो यह बात गलत, और अपना मांस स्वयं खाने जैसी लगती है। ऋषि अपने आदेश की अवहेलना होने पर अपने पुत्र से अत्यंत कुपित हुए और उन्हें शाप दिया कि वे वसिष्ठ के पुत्रों के समान अत्यधिक नीच वर्णो में पैदा हो और एक हजार वर्षो तक कुत्ते का मांस खाएं। फिर उन्होनें शुनःशेप से कहा, जब तुम्हें पवित्र रज्जुओं से बांधा जाए, लाल माला पहनाई जाए, और लेप करके विष्णु के यूप से बांध दिया जाए तब तुम अंबरीष के यज्ञ में अग्नि की स्तुति में ये दो गाथाएं कहना, और तब तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जाएगी। जब शुनःशेप को दो गाथाएं मिल गई तो उसने तुरंत राजा अंबरीष से कहा कि उन्हें अपने गंतव्य को चलना चाहिए। जब उसे लाला वस्त्र पहना कर यूप से बांध दिया गया, तो उसने उन उत्कृष्ट गाथाओं से दोनों देवताओं इंद्र और उनके छोटे भाई (विष्णु)- की स्तुति की। सहस्र आंखों वाले इंद्र इस स्तोत्र से प्रसन्न हुए और उन्होनें शुनःशेप को दीर्घायु होने का वरदान दिया। ऐसे विशेष उदाहरण मिलते है। जिनमें वसिष्ट और विश्वामित्र का टकराव हुआ था। किंतु कभी कभार की ऐसी घटनाओं के अतिरिक्त उनमें आम शत्रुआ भी थी। यह शत्रुता इतनी घातक थी कि विश्वामित्र तो वसिष्ट का वध की कर देना चाहते थे, जैसा कि महाभारत के शल्य पर्व से स्पष्ट होता है। महाभारत के रचयिता के अनुसार- विश्वामित्र और ब्राम्हण ऋषि वसिष्ठ के बीच उनकी तपस्या को लेकर घोर शत्रुता थी। वसिष्ठ का आश्रम स्थाणुतीर्थ में था, और उसके पूर्व में विश्वामित्र का आश्रम था। ये दो महान सन्यासी अपनी अपनी तपस्या में नई-नई तरकीबे सामने लाते थे। किंतु चिढे हुए थे। वह गहन सोच में पड गए। इस ऋषि का विचार यह था, यह सरस्वती नदी अपनी धारा के साथ मेरे पास उस तपस्वी वसिष्ठ को तीव्रता से ले आएगी जो प्रार्थनाओं में सबसे आगे है। जब वह अति श्रेष्ठ ब्राम्हण यहां आ जाएगा, तौ मै उसे अवश्य ही मार डालूंगा। यह संकल्प करने के पश्चात, ऋषि विश्वामित्र ने क्रोध से लाल आंखे लिए नदियों की साम्राज्ञी को स्मरण किया। वह चिंता में पड गई, क्योंकि वह जानती थी कि वह अत्यंत शक्तिशाली, और क्रोधी स्वभाव के है। तब सरस्वती (नदियों की साम्राज्ञी) कांपती हुई हाथ जोडकर मुनिवर के आगे उस स्त्री के समान आ खडी हुई जिसके पति का वध हो गया हो। वह अत्यंत परेशान होकर बोली, मै क्या करूं? क्रोधित मुनि ने उत्तर दिया, वसिष्ठ को शीघ्रता से यहां लाओं जिससे मै उसका वध कर सकूं। वह कमलाक्ष देवी हाथ जोड अत्यंत भय से ऐसे कांपने लगी जैसे हवा में लता कांपती है। किंतु विश्वामित्र ने उसकी हालत देखते हुए भी अपनी आज्ञा दोहरा दी। सरस्वती जानती थी कि ऋषि का कृत्य पापपूर्ण है, और वह यह भी जानती थी कि वसिष्ठ की शक्ति अनुपम है। वह अत्यंत भयभीत हुई कि दोनों ही ऋषि उसे शाप दे सकते है, और वह कांपनी हुई वसिष्ठ के पास जा पहुंची और उनसे बता दिया कि उनके शत्रु ने क्या कहा है। वसिष्ठ ने उसे दीन और चिंतित अवस्था में देख उससे कहा, हे नदी साम्राज्ञी, मुझे निस्संकोच विश्वामित्र के पास ले चलो, कहीं वह तुम्हें शाप न दे दे। दयालु ऋषि के ये वचन सुनकर सरस्वती सोचने लगी कि उसे क्या करना चाहिए जो बुद्धिमतापूर्ण हो। उसने सोचा, वसिष्ठ ने मुझ पर सदा दया की है, मुझे उनका कल्याण करना चाहिए। तब कौशिक ऋषि को अपने तट पर प्रार्थना करते और आहुति देते देख, उसने इसे सुअवसर माना और तट को अपनी धारा में बहा ले गई। इस प्रकार मित्र और वरूण के पुत्र (वसिष्ठ) को सरस्वती बहा ले चली, और जब वह वसिष्ठ को बहाए ले जा रही थी तो उन्होनें इस प्रकार उसकी स्तुति की, हे सरस्वती, तुम ब्रम्हा के कमंडल से निकलती हो और अपनी श्रेष्ठ धाराओं सहित पूरे संसार में व्याप्त हो। आकाश में रहकर तुम मेघो में जल छोडती हो। अकेली तुम ही समस्त जल हो। तुमसे ही अध्ययन करते। तुम ही पोषण, दीप्ति, यश, पूर्णता, बुद्धि और प्रकाश हो। तुम ही वाणी, तुम ही स्वाहा हो, यह संसार तुम ही से है। तुम ही चार रूपों में समस्त प्राणियों में वास करती हो। जब विश्वामित्र ने देखा कि सरस्वती वसिष्ठ को निकट ला रही है तो वह हथियार तलाशने लगे, जिससे उनका अंत कर दे। उनके क्रोध को देखकर, और इस भय से कि कहीं ब्राम्ह हत्या न हो जाए, सरस्वती तेजी से वसिष्ठ को पूर्व दिशा में बहा ले चली, और इस प्रकार उसने दोनों ही ऋषियों के आदेश का पालन कर दिया। जब विश्वामित्र ने देखा कि सरस्वती वसिष्ठ को बहाकर दूर लिए जा रही है, तो उन्होनें उससे कहा, हे नदियों की साम्राज्ञी, क्योंकि तुमने मेरे साथ छल किया है और अपनी दिशा बदल दी है, इसलिए तुम्हारी लहरोंा में खून बहेगा। इस शाप के अनुसार सरस्वती में एक वर्ष तक रक्त बहता रहा। राक्षस गणण् उस स्थान में तीर्थ के लिए आए जहां सरस्वती वसिष्ठ को बहा ले गई थी और उन्होनें छक कर वह रक्त मिश्रित जल पिया, और इस तरह नाचते और रंगरेलियां मनाते रहे मानों उन्होनें स्वर्ग को जीत लिया हो। जब उस स्थान पर कुछ देर बाद कुछ ऋषि आए तो वह रक्तरंजित जल को देखकर और राक्षसों को वहां अतिपान करता देखकर वे स्तब्ध रह गए और उन्होनें सरस्वती को मुक्त करने का प्रबल प्रयास किया। वसिष्ठ और विश्वामित्र की शत्रुता मात्र दो पुरोहितों की शत्रुता नही थी। यह एक ब्राम्हण पुरोहित और एक क्षत्रिय पुरोहित की शत्रुता थी। वसिष्ठ एक ब्राम्हण थे। विश्वामित्र एक क्षत्रिय थे। वह राजवंशी क्षत्रिय थे। ऋग्वेद (3, 33.11) में विश्वामित्र को कुशिक का पुत्र बताया गया है। विष्णु पुराण में विश्वामित्र के बारे में और भी विवरण दिया गया है। इसमें कहा गया है कि वह (विश्वामित्र) राजा पुरूरवा के वंशज गाधि के पुत्र थे। इसकी पुष्टि हरिवंश से होती है। ऋग्वेद (3, 1.21) से पता चलता है कि विश्वामित्र का परिवार प्रत्येक पीढी में अग्नि को प्रज्वलित रखता रहा है। ऋग्वेद से हमें यह भी पता चलता है कि विश्वामित्र ने इस वेद के अनेक मंत्र लिखे थे और उन्हें राजर्षि माना जाता था। उन्होनें वेदों के सबसे पवित्र मंत्र अर्थात गायत्री मंत्र की रचना की थी जो ऋग्वेद (3, 62.10) में संकलित है। उनके बारे में एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह एक क्षत्रिय थे और उनका परिवार भरतवंशी था। ऐसा प्रतीत होता है कि इसी समय ब्राम्हणों और क्षत्रियों के बीच इन बातों को लेकर विवाद चल रहा था- 1. दान लेने का अधिकार। दान का अर्थ होता है बिना काम कराए भुगतान करना। ब्राम्हणों की आपत्ति यह थी कि दान लेने का अधिकार केवल ब्राम्हणों को है, और अन्य कोई भी दान नहीं ले सकता। 2. वेद पढाने का अधिकार। ब्राम्हणों का कहना था कि क्षत्रिय को केवल वेद पढने का अधिकार है। उसे वेदों की शिक्षा देने का कोई अधिकार नही है। यह तो केवल ब्राम्हणों का ही विशेषाधिकार है। 3. यज्ञ संपन्न करवाने का अधिकार। इस विषय में ब्राम्हणों का कहना था कि क्षत्रिय को यज्ञ करने का अधिकार तो है किंतु उन्हें पुरोहित की हैसियत से यज्ञ संपन्न करवाने का अधिकार नही है। यह ब्राम्हणों का ही विशेषाधिकार है। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि इन मुद्दों पर विवाद में और विशेषकर तीसरे मुद्दे पर विवाद में भी एक दूसरे के विरोधी की भूमिका निभाने से नही चूके। रामायण में वर्णित त्रिशंकु की कथा से इसकी पुष्टि हो जाती है, जो इस प्रकार है- इक्ष्वाकु के एक वंशज राजा त्रिशंकु ने एक यज्ञ करने की युक्ति सोची थी जिसके बल पर वह सशरीर स्वर्ग जा सकता था। जब उसके बुलाने पर वसिष्ठ ने यह कह दिया कि यह असंभव है, तो त्रिशंकु दक्षिण की ओर चला गया जहां ऋषि (वसिष्ठ) के एक सौ पुत्र तप कर रहे थे। राजा ने उनसे आग्रह किया कि जिसके लिए उनके पिता ने मना कर दिया था उसे वे करें। यद्यपि उसने उन्हें अत्यंत आदर और विनम्रता के साथ संबोधित किया और यह भी कहा कि इक्ष्वाकुवंशी अपने कुल पुरोहितों को विपत्ति में सबसे बडा सहायक मानते है, और अपने पिता के पश्चात वह उन्हें अपने संरक्षक देव मानता है, फिर भी उन धृष्ट पुरोहितों ने उसे फटकार दिया, मूर्ख, तुम्हें सत्यवादी गुरू ने मना कर दिया है। तुमने उनके अधिकार की उपेक्षा करते हुए किसी और शाखा का सहारा लेने के विषय में कैसे सोच लिया? कुल पुरोहित समस्त इक्ष्वाकुवंशियों का सर्वोच्च देवता होता है, और उसके आदेश का उल्लंघन नही किया जा सकता। देवर्षि वसिष्ठ ने कह दिया है कि यह नहीं हो सकता, तो फिर हम कैसे यज्ञ कर सकते है? तुम मूर्ख हो, राजन, अपनी राजधानी लौट जाओ। देवर्षि (वसिष्ठ) में तीन लोकों का पुरोहित बनने की योग्यता है, हम उनका अनादर कैसे कर सकते है? त्रिशंकु ने तब यह समझाया कि जब उसके गुरू और उनके पुत्रों ने उनका अनरोध ठुकरा दिया है तो उसे कोई और उपाय सोचना होगा। इससे क्रोधित होकर वसिष्ठ पुत्रों ने उसे शाप दे दिया कि वह चांडाल हो जाए। शाप ने शीघ्र ही असर दिखाया और दुखी राजा का रूप एक पतित चांडाल का हो गया। तब राजा विश्वामित्र के पास जा पहुंचा (जो उस समय दक्षिण में ही रह रहे थे) और अपने सद्गुणों और पवित्रता की दुहाई देते हुए अपने भाग्य पर विलाप करने लगा। विश्वामित्र ने उसकी हालत पर तरस खाया और उसे वचन दिया कि वह उसके निमित्त यज्ञ करेंगे और उसे इसी चांडाल रूप में स्वर्ग पहुंचाएंगे जिस रूप में वह उसके गुरू के शाप के कारण आ गया था। विश्वामित्र ने राजा से कहा कि स्वर्ग बस अब उसके (राजा के) अधिकार में ही है, क्योंकि उसने कुशिक के पुत्रों से सहायता मांगी हैं फिर ऋषि ने कहा कि यज्ञ की तैयारियां की जाएं और वसिष्ठ के परिवार समेत सभी ऋषियणें को उसमें आमंत्रित किया जाए। विश्वामित्र का संदेश पहुंचाने वाले उनके शिष्यों ने लौटकर यह समाचार दिया, आपका संदेश सुनकर सभी देशों के सभी ब्राम्हण एकत्र हो रहे है, और महोदय (वसिष्ठ) को छोड सभी पहुंच चुके है। यह सुनिए कि उन सौ वसिष्ठ पुत्रों ने क्रोध से कांपते स्वर में क्या कहा, देवता और ऋषिगण उस मनुष्य के नैवेद्य को कैसे ग्रहण कर सकते है जिसके निमित्त एक क्षत्रिय यज्ञ संपन्न कर रहा है, और विशेषकर तब तो और भी नही जब वह मनुष्य एक चांडाल हो। कोई ब्राम्हण एक चांडाल का भोजन ग्रहण करने और विश्वामित्र के सान्निध्य के पश्चात स्वर्ग कैसे जा सकता है? ये शब्द समस्त वसिष्ठ पुत्रों और महोदय ने कहे थे और उनकी आंखें क्रोध से जल रही थी। विश्वामित्र यह सुनकर अत्यधिक क्रोधित हुए, और उन्होनें शाप दिया कि वसिष्ठ पुत्र भस्म हो जाएं और पतित सात सौ जन्मों तक पतित अछूत बनकर पैदा हो, और महोदय को शाप दिया कि वह निषाद बन जाएं। यह जानकर कि उनके शाप का असर हो गया है, विश्वामित्र ने त्रिशंकु की प्रशंसा करने के बाद वहां उपस्थित ऋषियों से कहा कि अब यज्ञ संपन्न कराया जाए, और ऋषि के कोप से भयभीत उन ऋषियों ने सहमति दे दी। विश्वामित्र ने स्वयं याजक की हैसियत से यज्ञ कराया, और अन्य ऋषियों ने ऋत्विजों की भूमिका में अन्य सभी अनुष्ठान किए। वसिष्ठ और विश्वामित्र के इस झगडे में सुदास की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वसिष्ठ तो सुदास के कुल पुरोहित थे। वसिष्ठ ने ही सुदास का राज्याभिषेक किया था। वसिष्ठ ने ही सुदास को दस राजाओं के विरूद्ध युद्ध जीतने में मदद की थी। इतना सब होने पर भी, सुदास ने वसिष्ठ को हटाकर उनके स्थान पर विश्वामित्र को अपना पुरोहित बना लिया और उन्हीं ने सुदास के निमित्त यज्ञ किया। सुदास का यह पहला कृत्य था जिससे वसिष्ठ के साथ उसकी शत्रुता हुई। सुदास ने एक और ऐसा काम किया जिससे यह शत्रुता और गहरी हो गई। उसने वसिष्ठ के पुत्र शक्ति को आग में फेंककर उसे जिंदा जला दिया। यह कथा शाट्यायन ब्राम्हण में वर्णित है। शाट्यायन ब्राम्हण में इस अत्याचार का कारण नही बताया गया है। सद्गुरूशिष्य ने कात्यायन द्वारा प्रस्तुत ऋग्वेद की अनुक्रमणिका में इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला है। सद्गुरूशिष्य के अनुसार, सुदास ने एक यज्ञ किया जिसमें विश्वामित्र और वसिष्ठ पुत्र शक्ति के बीच एक तरह का शास्त्रार्थ हुआ था, और इसमें, सद्गुरूशिष्य के अनुसार- विश्वामित्र की शक्ति और वाणी को वसिष्ठपुत्र शक्ति ने बिलकुल पराजित कर दिया, और इस तरह पराजित होने पर गाधिपुत्र (विश्वामित्र) निराश हो गए। यही कारण था कि सुदास ने शक्ति को आग में फेंक दिया था। स्पष्ट है कि सुदास ने विश्वामित्र के अपमान का बदला लेने के लिए ऐसा किया था। सुदास और वसिष्ठ के बीच बढ रही शत्रुता को कोई नही टाल पाया। जब वसिष्ठ के पुत्र का वध हो गया, तो उन्होनें संतान प्राप्ति की और सुदासवंशियों को पराजित करने की कामना की। उन्होनें यज्ञ किया और इसके पश्चात उन्हें संतान प्राप्त हुई और उन्होनें सुदासवंशियों को पराजित किया। इसकी पुष्टि कौषीतकि ब्रामहण में होती है- जब वसिष्ठ के पुत्र का वध हो गया, तो उन्होनें संतान ओर पशु प्राप्ति की और सुदासों को हराने की कामना की। उन्होनें यज्ञ किया ओर इसके पश्चात उन्होनें सुदासों को पराजित किया। सुदास और वसिष्ठ का यह टकराव राजाओं और ब्राम्हणों के बीच होने वाला एक मात्र टकराव नही है। पुराणों में राजाओं और ब्राम्हणों के टकराव के अन्य उदाहरण भी मिलते है। यहां उन्हें प्रस्तुत करना वांछनीय होगा। पहला प्रसंग राजा वेण का है। ब्राम्हणों के साथ वेण के टकराव की कथा अनेक ग्रंथों में वर्णित हैं यहां हम हरिवंश में वर्णित विवरण को उद्धत कर रहे है- पहले एक प्रजापति, एक धर्मरक्षक हुए है। अत्रि के इस वंशज का नाम अंग था और वह अपने पूर्वज के समान ही शक्तिशाली थे। उनका पुत्र प्रजापति वेण था जो अलग ढंग से कर्तव्य में कुशल था, और वह मृत्यु की पुत्री सुनीता की कोख से उत्पन्न हुआ था। काल (मृत्यु) की पुत्री के इस पुत्र ने अपने नाना से प्राप्त दुष्टता के कारण अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर दी और कामी हो गया। इस राजा ने अधर्म का राज स्थापित कर दिया। वेद की आज्ञाओं का उल्लंघन करके वह उच्छंखल हो गया। उसके राज में ण्लोग पवित्र ग्रंथों का अध्ययन नही करते थे, हो नही करते थे, और यज्ञों के समय देवताओं को पीने के लिए सोम भी नहीं मिलता था। उस प्रजापति का यही संकल्प था क्योंकि उसके विनाश का समय निकट था। उसका कहना था कि यज्ञ का विषय, याजक, और यज्ञ भी मै ही हॅू। कर्तव्य का उल्लंघन करने वाले इस राजा से समस्त ऋषियों ने मारीचि के नेतृत्व में यह कहा, हम स्वयं को एक संस्कार के लिए शुद्ध करने जा रहे है जो अनेक वर्षो तक चलेगा। हे वेणण्, अधर्म मत करो, कर्तव्य का यह सनातन नियम नही है। तुम सचमुच एक अत्रिवंशी प्रजापति हो, और तुम्हारा काम तुम्हारी प्रजा की रक्षा करना है। अविवेकशील और मूर्ख वेण ने उन महर्षियों से कहा, मेरे सिवाय और कौन कर्तव्य का आदेश देने वाला है? मै किसी की आज्ञा क्यों मानूं? धरती पर कौन पवित्र ज्ञान, शक्ति, तप-तेन, सतय में मेरी बराबरी कर सकता है? तुम सब भ्रमित और मूर्ख हो, तुम्हें ज्ञात नही कि मै ही समस्त प्राणियों और कर्तव्यों का स्रोत हॅू। यह मानने में संकोच मत करो कि यदि मै चाहू तो पृथ्वी को जला सकता हॅू, अथवा इसे जलमग्न कर सकता हॅू, अथवा स्वर्ग और धरती को बंद कर सकता हॅू। जब वेण की भ्रांति और उसके दर्प के कारण उसे समझाया नही जा सका तो ऋषिगण क्रोधित हो गए, और उन्होनें उस दमदार, जूझते राजा को पकड लिया और उसकी वाम जंघा को रगड दिया। उसकी इस जंघा से एक नाटा, काला आदमी पैदा हो गया और हाथ जोडकर खडा हो गया। उसे उत्तेजित देख अत्रि ने उससे कहा, बैठ जाओ (निषिद) और इस प्रकार वह निषाद वंश का संस्थापक हुआ, और धीवरों (मछुआरो) का भी पूर्वज हुआ। ब्राम्हणों से टकराने वाला अगला राजा पुरूरवा था। यह पुरूरवा तो इला का पुत्र और मनु वैवस्वत का पौत्र हैं ब्राम्हणों के साथ उसके टकराव का विवरण महाभारत के आदि पर्व में मिलता है- बाद में, बुद्धिमान पुरूरवा की उत्पत्ति इला से हुई, जो हमारे सुने अनुसार, उसकी माता भी थी और उसका पिता भी। सागर के तेरह द्वीपों पर शासन करते हुए, और समस्त अतिमानवों से घिरे होकर, इस अति प्रसिद्ध पुरूष पुरूरवा ने अपनी शक्ति के मद में ब्राम्हणों से टकराव ले लिया, और उनके प्रतिरोध करने पर भी उनके रत्न लूट लिए सनतकुमार ने स्वर्ग से आकर उसे समझाया किंतु वह नहीं माना। कुपित ऋषियों ने उसे सीधे शाप दे दिया और तक यह शक्ति के मद में मतिभ्रमित हुआ लोभी सम्राट नष्ट हो गया। ब्राम्हणों से टकराने वाला चैथा राजा निमि था। उसकी कथा विष्णु पुराण में वर्णित है। शूद्रों को दूसरे से चैथे वर्ण पर ला पटकन के लिए ब्राम्हणों ने कौन-कौन सी युक्तियां अपनाई? अभी तक यह चर्चा दो प्रश्नों पर केंद्रित रही है कि शूद्र मूल रूप में दूसरे अर्थात क्षत्रिय वर्ण का हिस्सा थे अथवा नही, और दूसरा यह कि क्या ब्राम्हणों को शूद्रों की अवनति के लिए उकसाया गया था अथवा नहीं। अब आवश्यक हो जाता है कि हम उस प्रश्न का उत्तर तलाशने का प्रयास करें जो तार्किक दृष्टि से इन प्रश्नों के क्रम में अगला है। ब्राम्हणों ने अवनति की कौन-सी युक्ति अपनाई? मेरा उत्तर यह है कि ब्राम्हणों ने इसके लिए जो युक्ति अपनाई वह यह थी कि उन्होनें शूद्रो का उपनयन करने से मना कर दिया। मुझे इसमें कोई संदेह नही कि ब्राम्हणों ने अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए यही युक्ति अपनाई और इसी के द्वारा उन्होनें शूद्रों से अपना प्रतिशोध लिया। यह समझाना शायद आवश्यक होगा कि उपनयन का अर्थ क्या है और भारतीय आर्यो के समाज में इसका क्या महत्व था। इसे समझाने का सबसे अच्छा तरीका तो यही होगा कि इस संस्कार का वर्णन किया जाए। अनुष्ठान के रूप में उपनयन मूल रूप में एक अत्यंत साधारण सा संस्कार होता था। बालक अपने हाथ में एक समिध लेकर आता था और गुरू से कहता था कि वह एक ब्रम्हचारी (विद्यार्थी) बनना चाहता है, और गुरू से याचना करता था कि वह उसे अध्ययन के लिए अपने पास रहने दें। उपनयन संस्कार के समापन पर आचार्य उस बालक को वैदिक गायत्री मंत्र सिखाता है। यह कहना कठिन है कि गायत्री मंत्र को इतना महत्वपूर्ण क्यों समझा जाता है कि उसे सिखाने से पहले उपनयन संस्कार आवश्यक हो जाता है। उपनयन संस्कार के इस वर्णन से दो बाते तो स्पष्ट हो जाती है। पहली यह कि उपनयन का उद्देश्य व्यक्ति को वेदाध्ययन में दीक्षित करना होता था जिसका प्रारंभ आचार्य द्वारा ब्रम्हचारी को गायत्री मंत्र सिखाने से होता था। जहां मै अपने सिद्धांत के ठोस होने के बारे में आश्वस्त हॅू, वही यही सोचना भी अतिशय विश्वास का सूचक होगा कि ऐसे व्यक्ति नही मिलेंगे जो इस पर आपत्ति नहीं करेंगे। मुझे निम्नलिखित आपत्तियां उठने की अपेक्षा है- 1. क्या उपनायन का न होना शूद्रता का प्रमाण है? 2. क्या शूद्रों को कभी उपनयन का अधिकार रहा है? 3. उपनयन का अधिकार छिन जाने से शूद्रों की सामान्य अवनति कैसे संभव है? 4. शूद्रों को उपनयन से वंचित करने का ब्राम्हणों को क्या अधिकार था? अपने सिद्धांत के विरूद्ध उठने वाली आपत्तियों का उल्लेख कर देने के बाद, मै उनका उत्तर देना चाहूंगा। शुरूआत पहली आपत्ति से करते है। इस आपत्ति का जवाब देने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि न्यायिक फैसलों के माध्यम से यह पता किया जाए कि भारत की अदालतों में शूद्र की पहचान का सबसे प्रामाणिक मानदंड किसे माना है। पहला मामला हम 7, एम.आई.ए. 18 से लेते है। इसका फैसला प्रिवी कौंसिल द्वारा 1837 में किया गया था। इसमें मुद्दा यह था कि संबंधित काल में क्या भारत में क्षत्रिय थे। एक पक्ष का कहना था कि थे। दूसरे पक्ष का कहना था कि नहीं थे। और, इस दूसरे पक्ष का आधार ब्राम्हणों द्वारा प्रचारित यह सिद्धांत था कि ब्राम्हण परशुराम ने सभी क्षत्रियों को मार डाला था और यदि कोई क्षत्रिय बचे भी थे तो उन सभी को शूद्र राजा महापद्य नंद ने खत्म कर दिया था, और इस तरह उसके बाद एक भी क्षत्रिय नहीं बचा था और बस ब्राम्हण तथा शूद्र ही थे। प्रिवी कौंसिल ने इस सिद्धांत को गलत और ब्राम्हणों द्वारा गढा गया मानते हुए इसे अस्वीकार कर दिया था और यह माना था कि भारत में आज भी क्षत्रिय है। किंतु प्रिवी कौंसिल ने ऐसा कोई मानदंड निर्धारित नही किया था जिसके द्वारा क्षत्रिय और शूद्र में भेद किया जा सके। कौंसिल का मत था कि प्रत्येक मामले में इस सवाल को इसके संबंधित तथ्यों के आधार पर तय किया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर दूसरा मामला आई.एल.आर. 10 कल. 688 में मिलता है। इस मामले में उठाया गया मुद्दा यह था कि बिहार के कायस्थ लोग क्षत्रिय थे अथवा शूद्र। उच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया कि वे शूद्र थे। कायस्थों के हिमायतियों का पक्ष यह था कि बिहार के कायस्थ बंगाल, यू.पी. और बनारस के कायस्थों से भिन्न थे, और जहां यू.पी. और बनारस के कायस्थ शूद्र थे, वहीं बिहार के कायस्थ लोग क्षत्रिय थे। अदालत ने इस भेद को अस्वीकार करते हुए यही माना कि बिहार के कायस्थ भी शूद्र थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस फैसले को वैध नहीं माना। आई.एल.आर. 12 इला. 328 के पृष्ठ 334 में जस्टिस महमूद ने टिप्पणी दी- मुझे दोनों निचली अदालतों की इस राय के सही होने में काफी संदेह है कि देश के इस भाग में, जिससे ये पक्ष संबद्ध है, कायस्थों की जाति शूद्रों की श्रेणी में आती है, जैसा कि मनु संहिता अथवा हिंदू विधान के अन्य प्रामाणिक ग्रंथों में समझा गया है। तीसरा मामला (1916) 20 कल. डब्ल्यू.एन. 901 में सूचित है। इसमें यह सवाल उठाया गया था कि बंगाल के कायस्थ लोग क्षत्रिय थे अथवा शूद्र। कलकत्ता उच्च न्यायालय का मानना था कि वे शूद्र थे। यह मामला कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील के तौर पर प्रिवी कौंसिल में पहुंचा था। प्रिवी कौंसिल का फैसला (1926) 47 आई.ए. 140 में सूचित है। बंगाली कायस्थ जन शूद्र है अथवा क्षत्रिय, इस प्रिवी कौंसिल ने फैसला नहीं दिया था बल्कि इसे खुला छोड दिया गया था। 1916 और 1926 के बीच, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने दो फैसले दिए जिनमें यह माना गया कि दो नीची जातियों तांती तथा डोम और बंगाल के कायस्थों के बीच होने वाले अंतरविवाह इस आधार पर जायज थे क्योंकि ये दोनों ही शूद्रों की उपजातियां थी। इसके बाद वे मामले आते है जिसमें विचारणीय मुद्दा यह था कि मराठा लोग क्षत्रिय है अथवा शूद्र। जिस पहले मामले में इस मुद्दे को उठाया गया वह 47 मद्रास 1 में सूचित है। यह एक अंतर्वादीय मुकदमा था जो राजा तंजौर की रियासत के रिसीवर द्वारा दायर दिया गया था, जिसमें राजा के सभी वंशजों और दूर के पितृ संबंधियों तथा मातृ संबंधियों को प्रतिवादी बनाया गया था। तंजौर राज्य की स्थापना वेनकोजी ने की थी जिन्हें इकोजी भी कहा जाता था। वह एक मराठा थे और मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी के भाई थे। इस मुकदमें का फैसला 229 पृष्ठों में आया और इसमें इस मुद्दे पर विस्तार से विचार किया गया कि क्या मराठा लोग क्षत्रिय थे। मद्रास उच्च न्यायालय का फैसला था कि मराठा लोग शूद्र थे, और वे क्षत्रिय नहीं थे जैसा कि प्रतिवादियों का पक्ष था। अंतिम उल्लेखनीय मामला आई.एल.आर. (1927) 52, मद्रास, 1 में सूचित है। इसमें विचारित मुद्दा यह था कि मदुरै के यादव क्या क्षत्रिय थे। यादव अपने क्षत्रिय होने का दावा करते थे। किंतु मद्रास उच्च न्यायालय ने उनके इस दावे को झुठलाते हुए उन्हें शूद्र माना। मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार सभी मराठा लोग शूद्र है किंतु बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार, पांच परिवारों और छियानबे परिवारों के मराठा तो क्षत्रिय है और शेष शूद्र है। कृष्ण जिस यादव समुदाय में से थे उन्हें लोग क्षत्रिय मानते है। किंतु मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार यादव लोग शूद्र है। दूसरी आपत्ति नितांत अमान्य है। इस आपत्ति के अनुसार यदि यह मान लिया जाए कि आर्यो के समाज में आदि काल से ही विभिन्न वर्गो के साथ उपनयन के मामले में अलग अलग व्यवहार किया जाता था, तो मेरे विचार में ऐसा सोचना अत्यधिक अस्वाभाविक होगा। आदिम समाज की शुरूआत विभेद से नही होती। इसकी शुरूआत एकरूपता से होती है और इसका अंत विविधता में होता है। स्वाभाविक सोच तो यही होगी कि उपनयन के मामले में आर्यो का प्राचीन समाज अपने सभी वर्गो से एक ही स्तर पर व्यवहार करता था। किंतु दूसरी ओर यह तर्क दिया जा सकता है कि एकरूपता के पक्ष में ऐसी मौलिक प्रवृत्ति को सार्वभौमिक मानना आवश्यक नहीं है। यह भी हो सकता है कि आर्यो के प्राचीन समाज में शूद्रों और स्त्रियों को उपनयन से बाहर रखा जाता था। मेरे लिए यह गौरव की बात है कि मेरे लिए अकेले तर्क पर भरोसा करना आवश्यक नही है, हालांकि मै दावा करता हॅ कि तर्क मेरे पक्ष में है। क्योंकि इस बात के परिस्थितिजन्य और प्रत्यक्ष, दोनों प्रकार के, प्रमाण उपलब्ध है कि एक समय शूद्रों और स्त्रियों दोनों को ही पवित्र सूत्र धारण करने का अधिकार था। यदि निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि आर्यो के प्राचीन समाज में उपनयन को सभी के लिए आवश्यक माना जाता था। बहरो, गूंगो, मंदबुद्धि व्यक्तियों और यहां तक कि नपुंसक लोगों को भी उपनयन की इजाजत थी। गूंगो, बहरों और मंदबुद्धि व्यक्तियों के उपनयन के लिए एक विशेष प्रक्रिया निर्धारित थी। अन्य व्यक्तियों के उपनयन से उनका उपनयन जिन बिंदुओं पर भिन्न है, वे है- समिध अर्पित करना, पत्थर पर चलना, वस्त्र पहनना, मेखला बांधना, मृग चर्म और छडी प्रदान करना जैसी क्रियाएं चुपचाप होती है, बालक अपने नाम का उल्लेख नही करता, आचार्य स्वयं पके भोजन अथवा घी की आहुति देता है, आचार्य स्वयं मंद स्वर में समस्त मंत्रों का उच्चारण करता है। यही प्रक्रिया नपुंसको, दृष्टिहीनों, पागलों और कोढियों, अथवा मिर्गी के रोगियों के लिए भी अपनाई जाती थी। शूद्रों के संबंध में भी साक्ष्य उतने ही सकारात्मक है। यदि सुदास एक राजा था, यदि सुदास एक शूद्र था, यदि उसका राज्याभिषेक वसिष्ठ ने किया था और उसने राजसूय यज्ञ किया था, तो फिर इसमें कोई संदेह नही रहना चाहिए कि एक समय में शूद्र यज्ञोपवीत धारण किया करते थे। परिस्थितिजन्य साक्ष्य और उपर्युक्त रचनाकारों के साक्ष्य के अतिरिक्त, मैक्स मूलर द्वारा उद्धृत संस्कार गणपति में यह स्पष्ट घोषणा है कि शूद्र जन उपनयन के योग्य है। स्त्रियों और शूद्रों में एकमात्र अंतर यही है कि स्त्रियों के मामले में तो इस बारे में स्पष्टीकरण मिलता है कि स्त्रियों का उपनयन क्यों बंद कर दिया गया, किंतु शूद्रों का उपनयन बंद करने के बारे में कोई स्पष्टीकरण नही मिलता है। तर्क यह दिया जाता है कि स्त्रियों का उपनयन उस समय तक चला जब तक उपनयन की आयु और विवाह की आयु भिन्न रही। कहा जाता है कि प्राचीन काल में उपनयन की आयु आठ वर्ष थी और विवाह उसके बहुत बाद में होता था। किंतु कालांतर में, विवाह की आयु घटाकर आठ वर्ष कर दी गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि उपनयन संस्कार पृथक अथवा स्वतंत्र नही रह गया और विवाह संस्कार के साथ उसका विलय हो गया। यह स्पष्टीकरण सही है अथवा गलत, यह अलग मामला है। पते की बात तो यह है कि शूद्रों के मामले में एक समय उपनयन की अनुमति उन्हें थी, और इस अधिकार से यह बाद में जाकर वंचित किया गया, और इस बदलाव का कोई भी स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। मैने जो साक्ष्य दिए है, उनके बावजूद जो लोग यह सोचते है कि वे अपनी आपत्ति पर कायम रहेंगे, तो उन्हें यह याद रखना चाहिए कि उनका पक्ष कमजोर है। यदि यह मानकर चला जाए कि शूद्रों को उपनयन का लाभ कभी मिला ही नही, तो उन्हें इस सवाल का सामना करना होगा कि शूद्रों को उपनयन का लाभ क्यों नही दिया गया। रूढिवादी सिद्धांत में मात्र यह तथ्य रेखांकित है कि शूद्र के लिए कोई उपनयन नही है। किंतु इसमें यह नही कहा गया है कि शूद्र के लिए उपनयन क्यों नही है। यह स्पष्टीकरण तो आज की ही ईजाद (आविष्कार) है कि शूद्रों के लिए उपनयन संस्कार इसलिए नहीं था, क्योंकि वे अनार्य थे, और यह बिलकुल निराधार साबित हो चुका है। या तो कभी उपनयन हुआ करता था और उसे बंद कर दिया गया था, या फिर प्रारंभ से ही इसका अधिकार नही दिया गया। इनमें से कुछ भी सही हो सकता है। किंतु इनमें से किसी को भी सही मानने से पहले, उसके समर्थन में कारण अवश्य देने चाहिए। इस बात का क्योंकि कोई कारण नही है कि शूद्रों को उपनयन के लाभ से क्यों वंचित किया गया, इसलिए मान्यता मेरे सिद्धांत को ही मिलनी चाहिए कि उन्हें उपनयन का अधिकार था, और उन्हें इससे वंचित किया गया था, और मेरे सिद्धांत में वे कारण भी दिए गए है कि उन्हें इससे वंचित क्यों किया गया। संस्कारों में कुछ भी विचित्र नही है। ये प्रत्येक समाज में मान्य है। मसलन, ईसाई लोग बपतिस्मा, नामकरण (ईसाई धर्म में दीक्षित करना), विवाह, मरणासन्न व्यक्ति का तेल लेपन, प्रभु भोज और पवित्र भोज को संस्कार मानते है। बहरहाल, संस्कारों को लेकर भारतीय आर्यो और ईसाइयों की धारणाओं में अंतर दिखाई देता है। ईसाइयों की धारणा यह है कि संस्कार विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक मामला है- इसमें विशेष अनुष्ठानों द्वारा परमेश्वर की कृपा प्राप्त की जाती है। इसका कोई सामाजिक महत्व नही था। भारतीय आर्यो में संस्कारों का मूल रूप में विशुद्ध आध्यात्मिक महत्व था। पूर्वमीमांसा के लेखक जैमिनी के संस्कार संबंधी कथन से यह स्पष्ट हो जाता है। जैमिनी के अनुसार सामान्य सिद्धांत यह है कि संण्स्कारों से दुरूस्ती आती है। ये दो तरह से असर करते है। ये कलंक (दोष) मिटाते है और ये नए गुण उत्पन्न करते है। इन संस्कारों के बिना कोई व्यक्ति इस आधार पर अपने यज्ञ के प्रतिफलों से वंचित रह सकता है कि वह इसे करने के योग्य नही है। उपनयन एक संस्कार था और अन्य संस्कारों की तरह इसका महत्व मात्र आध्यात्मिक था। शूद्रों को उपनयन से वंचित रखने से इसके महत्व में आवश्यक तौर पर एक बदलाव आया। आध्यात्मिक महत्व के अतिरिक्त इसका सामाजिक महत्व भी हो गया, जो पहले नही था। जब उपनयन का अधिकार आर्य अथवा अनार्य सभी को मिला हुआ था, तब यह सामाजिक महत्व का विषय नही था। यह सभी का सामान्य अधिकार था। यह मात्र कुछ व्यक्तियों का विशेषाधिकार नही था। जब शूद्रों को इससे वंचित कर दिया गया, तो इस अधिकार का होना सम्मान का विषय बन गया है और इससे वंचित होना गुलामी का सूचक। शूद्रों को उपनयन से वंचित करने से भारतीय आर्यो के समाज में एक नया कारक जुड गया। इसका परिणाम यह हुआ कि शूद्र लोग उच्च वर्णो को अपने से श्रेष्ठ मानने लगे और तीनों उच्च वर्णो को शूद्रों को अपने से नीचा समझने की सामथ्र्य मिल गई। उपनयन का अधिकार छिनने से शूद्रों की अवनति होने का यह एक तरीका रहा। उपनयन के अन्य प्रसंग भी है। इनके बारे में जानने के लिए पूर्व मीमांसा में दिए नियमों का उल्लेख आवश्यक हो जाता है। इनमें से एक नियम यह है कि समस्त संपत्ति का पहला उद्देश्य व्यक्ति को यज्ञ के साधन उपलब्ध कराना है। संपत्ति का अधिकार यज्ञ करने की क्षमता पर निर्भर है। दूसरे शब्दों में, जो व्यक्ति यज्ञ नही कर सकता, वह संपत्ति भी नहीं रख सकता। यज्ञ वही कर सकता है जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो। इसका अर्थ यह हुआ कि जिन्हें उपनयन का अधिकार है केवल उन्हीं को संपत्ति का भी अधिकार है। पूर्व मीमांसा का दूसरा नियम यह है कि यज्ञ के साथ वैदिक मंत्र अवश्य चलने चाहिए इसका अर्थ यह हुआ कि यज्ञ करने वाले को वेद का अध्ययन अवश्य किया होना चाहिए। जिस व्यक्ति ने वेदों का अध्ययन नही किया है वह यज्ञ करने के योग्य नही है। वेद अध्ययन वही कर सकता है जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो। दूसरे शब्दों में, ज्ञान और विद्या अर्जित करने की योग्यता वेदाध्ययन का सही अर्थ है- उपनयन पर निर्भर है। जिस व्यक्ति का उपनयन कोई थोथा संस्कार नही है। संपत्ति का अधिकार और ज्ञान का अधिकार तो उपनयन के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रसंग है। जो लोग यह नही समझ पाते कि उपनयन का अधिकार छिन जाने से शूद्रों की अवनति कैसे हो सकती है, वे यदि पूर्व मीमांसा के उपर्युक्त नियमों को ध्यान में रखे तो उन्हें इसे समझने में कोई कठिनाई नही होगी। शिक्षा और संपत्ति के साथ उपनयन के संबंध को समझते ही इस सिद्धांत को स्वीकार करने की सारी कठिनाई समाप्त हो जाएगी कि शूद्रों की अवनति का एकमात्र कारण उपनयन के अधिकार का छिनना ही था। उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यो के प्राचीन समाज में उपनयन संस्कार मूलभूत था और व्यक्तियों की सामाजिक हैसियत और व्यक्तिगत अधिकार उसी पर निर्भर थे। जिस व्यक्ति का उपनयन नही होता था वह सामाजिक अवनति, अज्ञान और निर्धनता झेलने को अभिशप्त था। उपनयन का प्रतिबंध वह सबसे घातक हथियार था जो ब्राम्हणों ने शूद्रों से बदला लेने के लिए खोज निकाला था इसका असर ऐटम बम से कम नहीं था। ब्राम्हणों की भाषा में कहें, तो इसने शूद्र को सचमुच श्मशान बना दिया। यह तो विवाद से परे ही है कि ब्राम्हणों को उपनयन से वंचित करने का अधिकार था। संदेह शायद इस तथ्य से उपजता है कि ऐसा स्पष्ट कथन कहीं भी नही मिलता है कि, ब्राम्हणों का यह अधिकार दिया गया था। फिर भी, भारतीय-आर्यो की धार्मिक व्यवस्था के क्रियाशील अंशों से अनभिज्ञ व्यक्तियों के मन में जो भी संदेह है, वे इन दो बातों से अवश्य दूर हो जाने चाहिए- (1) उपनयन संस्कार की पुरोहिती का पूर्ण अधिकार ब्राम्हण को ही था, और (2) अनाधिकृत उपनयन संस्कार करने पर ब्राम्हण को दंडित किया जाता था। यह संभव है कि प्राचीनतम समय में बालक को गायत्री (मंत्र) उसका पिता ही सिखाता था, और इसी के साथ वेदाध्ययन का प्रारंभ होता है और इसी के लिए बाद में उपनयन संस्कार का उपाय किया गया था। किंतु इसमें कोई संदेह नही कि अति प्राचीन काल से ही उपनयन संस्कार संपन्न कराने का काम एक गुरू को अथवा एक अध्यापक को सौंपा जाता था। जिसे आचार्य कहते थे, और बालक आचार्य के पास ही जाता और उसी के घर में रहता था। किंतु आचार्य की सबसे पहली योग्यता यह होती है कि उसे ब्राम्हण ही होना चाहिण्ए- किसी व्यक्ति को केवल कठिनाई के समय (कोई ब्राम्हण उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में) ही क्षत्रिय अथवा वैश्य गुरू से पढने की अनुमति होती थी। इसकी अनुमति भी केवल उस काल में थी जब वेद अध्ययन के अधिकार और वेद अध्यापन के अधिकार के बीच अंतर नही किया गया था। किंतु जब यह भेद कर दिया गया- और यह भेद बहुत आदि काल में ही कर दिया गया था- तथा वसिष्ठ और विश्वामित्र का टकराव ही वस्तुतः इसी बात पर था, तो उपनयन संस्कार की पुरोहिती के योग्य आचार्य होने का अधिकार अकेले ब्राम्हण को ही मिला। इसलिए एक बात को तो सुप्रमाणित मानना ही होगा, और वह यह कि ब्राम्हण को छोड कोई और उपनयन संस्कार संपन्न नही कर सकता था। किसी और द्वारा संपन्न किया गया उपनय वैध नही है। मनु ने व्यवस्था दी है कि किस श्रेणी के ब्राम्हण को देव कर्म और पितरों के श्राद्ध के अयोग्य माना जाए। इस सूची में मनु ने निम्नलिखित को सम्मिलित किया है (देखिए, मनुस्मृति, 3, 156)- जो शुल्क लेकर पढाए और जो शुल्क देकर पढे, जो शूद्र शिष्यों को शिक्षा दे और जिसका शिक्षक शूद्र हो, जो कटु वचन बोले, जो व्यभिचारिणी का पुत्र हो, और जो विधवा का पुत्र हो। जहां तक अभिलेखों (रिकार्ड) का सवाल है, तो ऐसे 16 मामलों का वृत्तांत उपलब्ध है जिनमें ब्राम्हणणें ने विभिन्न समुदायोण्ं के खिलाफ इस अधिकार का प्रयोग करके उन्हें डराया है। नौ मामलों में उन्होनें कायस्थों को ललकारा, चार में पांचालों को ललकार, और एक मामले में उन्होनें पालशे महोदय को भी चुनौती दी। महत्वूपर्ण बात तो यह है कि उन्होनें दो मराठा राजाओं को भी चुनौती दे डाली। ये घटनाएं सन् 556 और 1904 ईसवी के बीच की है। यह सच है कि ये उदाहरण प्राचीनकाल के नही है। फिर भी, यह याद रखना होगा कि ये ब्राम्हणों द्वारा उपनयन से वंचित करने के उनके अधिकार का प्रयोग करने के साक्ष्य मात्र है। अधिकार तो और भी प्राचीन काल में प्राप्त हो चुका होगा। यह अधिकार उन्हें पहले ही प्राप्त हो गया था, यह निराधार खोखला दावा नही है। सत्यकाम जावालि का अत्यधिक प्राचीनकालीन उदाहरण आम तौर पर यह प्रमाणित करने के लिए दिया जाता है कि व्यक्ति का वर्ण उसके गुण से निर्धारित होता था, उसके जन्म से नही। यह तो सच है ही, किंतु यह भी उतना ही सच है जाबालि के मामले से यह प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में भी ब्राम्हणों ने उपनयन संस्कार संपन्न करने से मनाही का अधिकार हासिल कर लिया था। एक मामला ब्राम्हण बनाम शिवाजी का है जिससे संबंधित विवरण पूर्ण और सुविदित है। यह मामला काफी महत्वपूर्ण है और इसलिए इसकी विस्तृत समीक्षा भी आवश्यक है। इससे सामने आने वाले निष्कर्ष केवल रोचक और शिक्षाप्रद ही नही है बल्कि वे हमारे विचाराधीन विषय पर पर्याप्त प्रकाश भी डालते है। जैसा कि सुविदित है, महाराष्ट्र के पश्चिमी भाग में एक स्वतंत्र हिंदू राज्य स्थापित करने के बाद अपना राज्याभिषेक करवाकर स्वयं को राजा घोषित करने की सोची। शिवाजी और उनके मित्रों को लगा कि उनका राज्याभिषेक वैदिक रीति से होगा तभी उसका कोई महत्व होगा। किंतु अपनी इच्छा पूरी करने में शिवाजी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडा। उन्हें पता चला कि यह पूरी तौर पर ब्राम्हणों पर निर्भर करता है कि उनका राज्याभिषेक वैदिक रीति से हो सकता है अथवा नहीं। धार्मिक दृष्टि से ब्राम्हण के अतिरिक्त अन्य कोई भी इस संस्कार को संपन्न करने की योग्यता नही रखता था। दूसरी बात यह कि उन्हें यह भी एहसास हो गया कि ऐसा कोई भी संस्कार तब तक संपन्न नही हो सकता जब तक वह प्रमाणित न हो जाए कि वह क्षत्रिय है। उनके सामने तीसरी कठिनाई यह थी कि यदि उनका क्षत्रिय होना प्रमाणित हो भी जाए तो भी वह उपनयन की आयु सीमा को पार कर चुके थे और उपनयन के बिना राज्याभिषेक का संस्कार हो नही सकता था। यह तीसरी कठिनाई इतनी बडी नही थी क्योंकि इसे व्रात्य स्तोम द्वारा दूर किया जा सकता था। सबसे बडी अडचन तो पहली कठिनाई से थी। यह शिवाजी की हैसियत से संबंधित थी। प्रश्न यह था, क्या वह क्षत्रिय थे? यदि इस प्रश्न का समाधान हो जाता तो बाकी सब तो आसान था। शिवाजी के इस दावे के विरोधी अनेक लोग थे कि वह एक क्षत्रिय है। उनके सबसे प्रमुख विरोधी तो ब्राम्हण ही थे, जिनका नेतृत्व उनके अपने प्रधानमंत्री मोरो पंत पिंगले कर रहे थे। यह भी शिवाजी के लिए एक प्रतिकूल स्थिति थी कि उनके मराठा सरदारों ने भी उन्हें सामाजिक अग्रता देने से मना कर दिया था और उनके खिलाफ गोलबंद हो गए थे। उनकी दृष्टि में शिवाजी एक शूद्र थे। शिवाजी का दावा ब्राम्हणों द्वारा समर्थित इस पुराने सिद्धांत के भी खिलाफ जाता था कि कलियुग में एक भी क्षत्रिय नही था। शिवाजी कलियुग में रह रहे थे। स्पष्ट है कि वह क्षत्रिय नही हो सकते थे। उनके क्षत्रिय होने के दावे पर दर्ज की जाने वाली आपत्ति को इस तथ्य से और भी बल मिला कि उनका उपनयन संस्कार सही आयु में नही हुआ था, जो शास्त्रों के अनुसार (क्षत्रियों के मामले में) ग्यारहवे वर्ष में हो जाना चाहिए था। इसे शिवाजी के शूद्र होने का प्रमाण मान लिया गया। फिर भी, सुयोगवश उन्हें बनारस के एक प्रख्यात ब्राम्हण, वेदों तथा शास्त्रों के ज्ञाता, गागाभट्ट की सेवाएं मिल गई। गागाभट्ट ने सारी कठिनाइयां दूर कर दी। उन्होनें पहले व्रात्य स्तोम और फिर उपनयन करवाया, और फिर 06 जून 1674 को रायगढ में शिवाजी का राज्याभिषेक कर दिया। शिवाजी का प्रकरण कई कारणों से महत्वपूर्ण है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यह प्रमाणित होता है कि ब्राम्हण के अतिरिक्त और किसी को भी उपनयन संस्कार संपन्न करने का अधिकार नही है और यदि ब्राम्हण इसे नही करना चाहे तो कोई भी व्यक्ति उसे ऐसा करने के लिए बाध्य नही कर सकता है। शिवाजी एक स्वतंत्र राज्य के शासक थे और अपने आपको पहले ही महाराजा और छत्रपति कहना शुरू कर चुके थे। उनकी प्रजा में अनेक ब्राम्हण थे। फिर भी, शिवाजी उनमें से किसी को भी अपने राज्याभिषेक के लिए बाध्य नही कर सके। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यह प्रमाणित होता है कि ब्राम्हण द्वारा संपन्न करवाया गया संस्कार ही वैध हो सकता है। गैर-ब्राम्हण द्वारा करवाया गया संस्कार निष्फल होता है। शिवाजी को यह स्वतंत्रता थी कि वह अपना राज्याभिषेक संस्कार किसी गैर ब्राम्हण से करवा सकते थे। किंतु वह इसका साहस नही कर पाए। क्योंकि वह जानते थे कि इसका कोई सामाजिक अथवा आध्यात्मिक प्रभाव नही होगा। तीसरे यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यह प्रमाणित होता है कि एक हिन्दू व्यक्ति की प्रस्थिति तय करने का अधिकार पूर्णतः ब्राम्हणों की इच्छा पर निर्भर करता है। शिवाजी के पक्ष मं निर्णय को उचित ठहराने के लिए उनकी वंशावली का सहारा लिया गया जो उनके मित्र बालाजी आवाजी मेवाड से लेकर आए। इस वंशावली के अनुसार शिवाजी का संबंध मेवाड के सिसौदिया वंश से था जिन्हें क्षत्रिय माना गया है। यह आरोप है कि यह वंशावली फर्जी थी और इसे राज्याभिषेक के लिए तैयार किया गया था। यदि यह मानकर चले कि यह फर्जी नही थी, तो भी इससे शिवाजी के क्षत्रिय होने के दावे को उचित कैसे ठहराया जा सकता है? शिवाजी को क्षत्रिय प्रमाणित करना तो दूर, इस वंशावली से एक सवाल और उठा खडा होता है कि सिसौदिया क्या क्षत्रिय थे। सिसौदिया तो राजपूत थे। इस बारे में काफी संदेह है कि क्या राजपूत उन मूल क्षत्रियों के वंशज है जिन्हें प्राचीन भारतीय आर्य समुदाय में दूसरे वर्ण का दर्जा हासिल था। एक मत तो यह है कि वे विदेशी है, वे उस हूण जाति के अवशेष है जिन्होनें भारत पर आक्रमण किया और राजपूताना में जम गए थे, और जिन्हें ब्राम्हणों ने मध्य भारत में बौद्ध धर्म को कुचलने के मकसद से पवित्र अग्नि के समक्ष एक विशेष संस्कार द्वारा क्षत्रिय का उंचा दर्जा दे दिया था। इसीलिए उन्हें अग्निकुल क्षत्रिय कहा गया था। इस मत का समर्थन इस विषय के अनेक अधिकारी विद्वानों ने भी किया है। विलियम क्रुक कहते है- हाल के अनुसंधान ने राजपूतों की उत्पत्ति पर काफी प्रकाश डाला हैं वेदिक क्षत्रियों ओर मध्य युग के राजपूतों के बीच एक चैडी खाई है जिसे पाटना अब संभव नही है। अब यह निश्चित हो गया है कि अनेक कुलों की उत्पत्ति शकों अथवा कुषाणों के आक्रमण के समय से अथवा और भी पक्के तौर पर श्वेत हूणों के समय से हुई जिन्होनें लगभग 480 ईसवी में गुप्त साम्राज्य को नष्ट कर दिया था। हूणों से संबंधित गूजर जनजाति ने हिंदू धर्म अपना लिया और उन्हीं के नेताओं से उंचे राजपूत परिवारों का वंश चला। राजसी सम्मान के इन नए दावेदारों ने जब ब्राम्हणी धर्म और संस्था को अपना लिया तो स्वाभाविक है कि उनका संबंध महाभारत और रामायण के नायकों से जोडने का प्रयास तो होगा ही। इसीलिए इन ग्रंथों में दर्ज दंतकथाओं का उदय हुआ जिनमें इन राजपूत परिवारों की भव्य उत्पत्ति सूर्यवंश और चंद्रवंश से बताई गई.... क्षत्रिय अथवा राजपूत के नाम का समूह प्रस्थिति अथवा हैसियत पर निर्भर करता था, वंश पर नही, और इसीलिए विदेशियों के लिए जाति के पूर्वग्रहों का खंडन किए बिना इस जनजातियों अथवा कबीलों में प्रवेश पाना संभव हो गया, क्योंकि उस समय तक जाति संबंधी पूर्वग्रह आंशिक तौर पर ही बने थे। किंतु विदेशियों के इस प्रवेश को एक सुविधाजनक गल्प का छद्यावरण देना आवश्यक हो गया। इसीलिए इस दंतकथा का जन्म हुआ कि बौद्ध धर्म तथा अन्य अवधमों को कुचलने में ब्राम्हणों की मदद करने के लिए किस प्रकार प्राचीन वैदिक ऋषियों की देखरेख में शुद्धिकरण अथवा दीक्षा के संस्कार द्वारा अग्निकुलों की उत्पत्ति हुई। यह विशेषाधिकार चार अग्निकुलों अर्थात परमार, परिहार चालुक्य और चैहान परिवारों तक सीमित रहा। डाॅ. डी.आर. भंडारकर का भी यही मत है। उनके अनुसार, राजपूत लोग गूजरों के वंशज है, गूजर विदेशी थे, और इसलिए राजपूत लोग विदेशियों के वंशज है। ब्राम्हणों ने पहले ही यह निर्णय कर रखा है कि कलियुग में कोई क्षत्रिय नही है। यह एक पुरानी और दीर्घकालिक निर्णय था। और यदि ब्राम्हणों में पूर्व निर्णयों के लिए सम्मान था, तो वे सिसौदिया कुल के लोगों और शिवाजी के दावे को भी खारिज करने के लिए बाध्य थे। यदि वे ऐसा करते, तो कोई उन पर दोष नही लगता। किंतु ब्राम्हणों ने तो पूर्व निर्णय के नियम की बाध्यता को तो कभी माना ही नही। उनके लिए निर्णय के अनुसरण जैसी तो कोई चीज थी ही नहीं। चैथी बात, यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रस्थिति अथवा दर्जे के मामलेों में ब्राम्हणों के निर्णय कैथोलिक पदारियों के अनुग्रहों की तरह बिकाऊ थी। गागाभट्ट का निर्णय एक खरा निर्णय नहीं था, यह उस रकम से स्पष्ट हो जाता है जो गागाभट्ट और अन्य ब्राम्हणों ने संस्कार संपन्न कराने के एवज में ली थी। शिवाजी ने राज्याभिषेक में कितनी रकम खर्च की और इसका कितना अंश गागाभट्ट और ब्राम्हणों को मिला, इसकी जानकारी वैद्य द्वारा संकलित निम्नलिखित विवरण से मिलती है- इन मंत्रियों में से प्रत्येक को एक लाख होन (=तीन लाख रूपये), एक हाथी, एक घोडा, वस्त्र और आभूषण दिए गए। गागाभट्ट को पूरे संस्कार के लिए एक लाख रूपये दिए गए। राज्याभिषेक संस्कार के विभिन्न चरणों में शिवाजी ने जो दक्षिणा दी वह अवसर के अनुसार ही बहुत अधिक थी। सभासद के अनुसार राज्याभिषेक के अवसर पर कुल एक करोड बयालीस लाख होन अर्थात 426 लाख रूपये खर्च हुए। सभासद के अनुसार शिवाजी के राज्याभिषेक में 50,000 वैदिक ब्राम्हण एकत्र हुए थे। इनके अतिरिक्त इसमें हजारों जोगी, संन्यासी आदि भी जमा हुए। उन्हें दुर्ग के नीचे अन्न दिया गया अथवा खिलाया गया समकालीन पत्रों में यह बताया गया है कि राज्याभिषेक से पहले शिवाजी को सोने, लगभग अन्य सभी धातुओं और शुभ वस्तुओं से तौला गया। 03 अक्टूबर 1984 को इस संस्कार का वर्णन करने वाले डच अभिलेख के अनुसार शिवाजी का वजन 160 पौंड (=17000 होन) था और उन्हें चांदी, तांबा, लोहा इत्यादि, और कपूर, नमक, चीनी, मक्खन, विभिन्न प्रकार के फलों, सुपारी आदि से भी तौला गया, और इसे ब्राम्हणों में वितरित कर दिया गया। 07 जून को, अर्थात राज्याभिषेक के अगले दिन, आम दक्षिणा दी गई जिसमें प्रत्येक ब्राम्हण को तीन से पांच रूपये तक दिए गए और अन्य सभी को, चाहे स्त्री हो अथवा बच्चा, दो रूपये और एक रूपया दिया गया। कुल मिलाकर दक्षिणा स्वरूप डेढ लाख होन दिए गए। आॅक्सेनडन ने भी 18 मई से 13 जून तक की अपनी डायरी में लिखा है कि शिवाजी को सोने से तौला गया और उनके वजन के बराबर 16,000 होन में एक लाख होन और मिलाकर उस राशि को दक्षिणा के तौर पर ब्राम्हणों में बांट दिया गया। उपर्युक्त डच अभिलेख में यह भी कहा गया है कि व्रात्य संस्कार के लिए गागाभट्ट को 7,000 होन और अन्य ब्राम्हणों को 17,000 होन दिए गए। 05 जून को शिवाजी ने पवित्र गंगा जल में स्नान किया और वहां उपस्थित प्रत्येक ब्राम्हण को 100 होन दिए गए। क्या गागाभट्ट को दी गई रकम को एक पुरोहित को उचित रूप में दी गई दक्षिणा के अतिरिक्त और कुछ नही माना जा सकता? एक स्थिति है जिसके आधार पर यह स्पष्ट किया जा सकता है कि गागाभट्ट को तो पर्याप्त भुगतान भी नही किया गया था। स्थिति यह है कि गागाभट्ट को जो पैसा मिला वह शिवाजी के मंत्रियों को मिलने वाली रकम से बहुत कम था। बहरहाल इस तथ्य से कोई निष्कर्ष निकालने से पहले हमें दूसरे पक्ष को प्रभावित करने वाले दो तथ्यों पर ध्यान देना ही होगा। इन तथ्यों से यह तर्क बिलकुल खारिज हो जाता है। पहला तथ्य यह है कि मंत्रियों ने स्वयं राज्याभिषेक के अवसर पर शिवाजी को बडे उपहार दिये थे। शिवाजी के पेशवा मोरोपंत पिंगले ने 7,000 होन और अन्य दो मंत्रियों ने पांच पांच हजार रूपये दिए। इन्हें घटा देने पर, उन्हें शिवाजी द्वारा दिए गए उपहार बहुत कम ही कहे जाएंगे। दूसरा तथ्य यह है कि शिवाजी के ये मंत्री राज्याभिषेक की इस योजना में शिवाजी के सबसे प्रबल विरोधी थे। वे इस विचार में पक्के थे कि शिवाजी एक शूद्र थे और उन्हें राज्याभिषेक करवाने का अधिकार नही था क्योंकि यह अधिकार तो केवल क्षत्रियों को था। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य नही कि शिवाजी ने उनका मुंह बंद करने और उन्हें हमेशा के लिए अपने पक्ष में करने के मकसद से उन्हें बडे-बडे उपहार दिए। इसलिए, शिवाजी द्वारा मंत्रियों को दी गई रकम को यह तय करने का मानदंड नहीं बनाया जा सकता कि गागाभट्ट को दी गई रकम मात्र एक पुरोहित की उचित दक्षिणा से अधिक कुछ थी या नही। वास्तव में, गागाभट्ट ने इतने अधिक दांव पेंच किए कि हम यह निष्कर्ष निकालने को बाध्य हो जाते है कि यह मात्र उचित दक्षिणा ही नही थी और इसका कुछ अंश उसे सीधा रखने के लिए नाजायज पारितोषिक के तौर पर दिया गया था। राज्याभिषेक की इस पूरी योजना को सफल बनाने में जिस व्यक्ति की सबसे प्रमुख भूमिका रही वह शिवाजी का निजी सचिव बालाजी आवाजी था, जो महाराष्ट्र का एक कायस्थ था। बालाजी ने सबसे पहला कदम यह उठाायण कि उसने तीन ब्राम्हणों केशव भट्ट, भालचंद्र भट्ट, और सोमनाथ भट्ट को शिवाजी के संदेशवाहक बनाकर गागाभट्ट के पास इस पूरी जानकारी के साथ बनारस भेजा कि शिवाजी का मकसद और उनका दर्जा क्या है। गागाभट्ट ने क्या किया? उन्होनें उन तीन संदेशवाहकों को इस आशय का पत्र देकर वापस भेज दिया कि वह ण्इस आमंत्रण को स्वीकार नही कर सकते क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी एक शूद्र थे और इसलिए राज्याभिषेक के योग्य नहीं थे। बालाजी ने अगला कदम यह उठाया कि उसने शिवाजी के क्षत्रिय होने के समर्थन में प्रमाण जुटाए। वह एक वंशावली हासिल करने में सफल हो गया जिसमें शिवाजी को सिसौदिया कुल का एक क्षत्रिय वंशज दिखाया गया था, जो राजपूत और मेवाडा के शासक थे। इस प्रमाण को उसने एक अलग संदेशवाहक के हाथ गागाभट्ट के पास भेजा। गागाभट्ट उस प्रमाण से संतुष्ठ हो गए होंगे, तभी तो वह राज्याभिषेक का संस्कार संपन्न करने हेतु रायगढ आने को सहमत हो गए। गागाभट्ट ने वहां पहुंचकर क्या किया? उन्होनें यह कहा कि उन्होनें साक्ष्य की फिर से जांच की है और इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि शिवाजी एक शूद्र है और इसलिए उनका राज्याभिषेक नहीं हो सकता। इस मामले में गागाभट्ट की यह अकेली कलाबाजी नही थी। उन्होनें एक बार फिर एक विचित्र किस्म की पलटी खाई और यह कह दिया कि वह बालाजी आवाजी के राज्याभिषेक के लिए तैयार है, उन्होनें यह भी कहा कि वह शिवाजी का राज्याभिषेक नही कर सकते क्योंकि वह शूद्र है। गागाभट्ट की कलाबालियां यही खत्म नही हो गई। उन्होनें एक बार फिर पलटी खाई और यह राय दे दी कि शिवाजी एक क्षत्रिय है और वह उनका राज्याीिाषेक करने को तैयार है। यहां तक कि उन्होनें गागाभट्टी शीर्षक से एक रचना लिख डाली जिसमें उन्होनें यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कायस्थ लोग जारज है। इस कलाबाजियों से क्या पता चलता है? क्या इससे यह पता नही चलता कि वह पुरोहिती के लिए बिलकुल भी इच्छुक अथवा सहमत नही थे और उन्हें नगदी देकर ही सहमत किया जा सकता था? यदि इस तर्क में दम है तो फिर इसमें कोई संदेह नही कि उन्हें इस निर्णय के लिए नाजायज ढंग से पैसा लेकर खरीदा गया था। अंतिम बात, शिवाजी का प्रकरण इसलिए महत्वूपर्ण है क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रस्थिति के मामले में ब्राम्हण लोग अपने आपकों पहले से निर्णीत मुकदमें से बंधा नहीं मानते थे। वे तो यह मानते है कि जिस मामले को वे पहले ही निर्णीत कर चुके है, उसे फिर से खोलने को वे स्वतंत्र है। क्योंकि ब्राम्हणों ने अपने इस निर्णय का कितने दिन सम्मान किया कि शिवाजी एक क्षत्रिय है? शिवाजी ने अपने राज्याभिषेक वाले दिन अर्थात 06 जून 1674 से एक नया संवत आरंभ किया जिसे उन्होनें राज्याभिषेक संवत कहा। यह संवत कब तक प्रचलन में रहा? केवल तभी तक जब तक शिवाजी और उनके वंशज सक्रिय शासकों के तौर पर सिंहासनारूढ रहे। संप्रभुता जैसे ही ब्राम्हण पेशवाओं के हाथ में आई, उन्होनें इसे समाप्त करने का आदेश जारी कर दिया। उन्होनें न केवल इस संवत का प्रयोग करने को रूकवा दिया बल्कि मुसलमान सम्राटों के अंदाज में फसली वर्ष का प्रयोग शुरू कर दिया। ब्राम्हणों ने बस इतना ही नही किया। उन्होनें इससे भी आगे जाते हुए शिवाजी के वंशजों के क्षत्रिय होने पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिया। वे शिवाजी के दोनों पुत्रों संभाजी और राजाराम का तो कुछ बिगाड नही सकते थे क्योंकि शिवाजी ने अपने जीते जी उनका उपनयन संस्कार ब्राम्हणों द्वारा वैदिक रीति से संपन्न करवा कर दिया था। वे शिवाजी के पौत्र शाहू का भी कुछ नही बिगाड सके क्योंकि ब्राम्हणों के हाथों में शासक सत्ता ही नही थी। किंतु, जैसे ही शहू ने अपने ब्राम्हण पेशवा को अपनी संप्रभु शक्तियां सौंपी, उनके लिए अस्वीकार का रास्ता साफ हो गया। इस बात का कोई साक्ष्य नही है कि शाहू के उत्तराधिकारी और दत्तक पुत्र रामजी राजे का उपनयन संस्कार हुआ भी था या नही, और यदि हुआ था तो क्या यह वैदिक रीति से हुआ था (रामजी राजे नाबालिग था और उसके संरक्षक पेशवा थे)। किंतु इस बात के तो निश्चित प्रमाण है कि 1777 में गोद लिए गए उसके उत्तराधिकारी शहू द्वितीय का उपनयन संस्कार पेशवओं के निर्देशानुसार पौराणिक रीति से हुआ। शाहू द्वितीय का उपनयन संस्कार पौराणिक रीति से होना इस बात का परिचायक था कि पेशवा उसे मानते थे। क्योंकि केवल एक शूद्र का उपनयन संस्कार ही वैदिक रीति से किया जाता है। सन् 1808 में शाहू द्वितीय के उत्तराधिकारी बने महाराजा प्रतापसिंह के साथ हुआ, उनका उपनयन संस्कार हुआ या नही, और यदि हुआ तो वैदिक रीति से हुआ या पौराणिक रीति से, यह भी निश्चित रूप से नही कहा जा सकता। किंतु एक बात तो निश्चित रूप से ज्ञात है कि सन 1827 के आसपास करवीर के शंकराचार्य ने सांगली के कायस्थों की प्रस्थिति (हैसियत) पर दिए गए अपने निर्णय में कहा था कि कलियुग में कोई क्षत्रिय नही है और उनके दफ्तर में इस आशय के दस्तावेज मौजूद है कि न तो शिवाजी क्षत्रिय थे और न ही संभाजी और शाहू। यह आरोप लगाया जाता है कि यह कथन मूल दस्तावेज में नही है बल्कि इसे सांगली के ब्राम्हण राजा ने उसमें डाल दिया था। इस रूप में, यह शिवाजी का वंशज होने की प्रतापसिंह की प्रस्थिति को सीधी चुनौती थी। प्रतापसिंह को इस मुद्दे को सन् 1830 में सतारा में हुए ब्राम्हणों के एक सम्मेलन में रखना पडा। बहुमत का निर्णय प्रतापसिंह के पक्ष में गया और वह शूद्र की स्थिति में डाले जाने से बच गए। ब्राम्हण जब शिवाजी के वंश की एक शाखा को शूद्र की स्थिति में पहुंचाने के अपने प्रयास में सफल नही हुए, तो उन्होनें उनके वंश की दूसरी शाखा पर हमला बोल दिया, जो कोल्हापुर में बस गए थे। कोल्हापुर के एक शासक बाबासाहेब महाराज के शासनकाल में राजपुरोहित रघुनाथ शास्त्री पार्वटे ने महल में होने वाले सभी संस्कारों को पौराणिक रीति से संपन्न करने का विचार किया। कहते है कि उन्हें ऐसा करते रहने से रोक दिया गया। सन् 1886 में बाबासाहेब का निधन हो गया। सन् 1886 से 1894 तक सभी शासक नाबालिग रहे और राजकाज अंग्रेजों के हाथों में रहा। इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है कि राजपुरोहित ने संस्कारों के लिए कौन सी रीति अपनाई। सन 1902 में दिवंगत शाहू महाराज ने राजपुरोहित के लिए आदेश जारी किया कि वह सभी संस्कार वैदिक रीति से संपन्न कराएं। पुरोहित ने इससे मना कर दिया और इन्हें पौराणिक रीति से ही संपन्न करने पर अडा रहा, जिससे यही संकेत निकलता था कि कोल्हापुर के शासक शूद्र थे, क्षत्रिय नहीं। इस प्रकरण में करवीर मठ के शंकराचार्य की भूमिका अत्यंत उल्लेखनीय है। इस विवाद के समय गुरू कहलाने वाले इस मठ प्रमुख ने ब्राम्हणाल्कर नाम का एक चेला बनाया और उसे मठ प्रमुख के सभी अधिकार दे दिए थे। पहले तो गुरू और शिष्य दोनों ही राजपुरोहित के पक्ष में और महाराजा के विरूद्ध थे। बाद में, शिष्य ने महाराजा का पक्ष लिया और उन्हें क्षत्रिय मान लिया। अब भी राजपुरोहित का पक्ष ले रहे गुरू ने शिष्य को निकाल दिया। बाद में, महाराजा ने अपना शंकराचार्य बनाने का प्रयास किया किंतु उसने भी महाराजा का पक्ष नही लिया। शिवाजी को एक क्षत्रिय के रूप में मान्यता नहीं मिली। स्पष्ट है कि यह उन्हें दिया जाने वाला व्यक्तिगत सम्मान नही था। यह दर्जा तो उनके परिवार से और उनके वंशजों से संबद्ध था। इस पर तो कोई सवाल ही नही कर सकता था। यह दर्जा तो उस सूरत में छिन सकता था जब कोई वंशज विशेष कोई ऐसा कृत्य करता तो इस दर्जे के अनुकूल नही होता। सामान्य स्थिति में तो यह छिन नही सकता था। शिवाजी के किसी भी वंशज के साथ ऐसा कोई कृत्य नही जुडा जो क्षत्रिय के दर्जे के प्रतिकूल हो। फिर भी ब्राम्हण लोग उनके दर्जे पर लिए गए निर्णय का खंडन करने को आगे आए। यह केवल इसलिए संभव हुआ क्योंकि ब्राम्हणों का दावा था कि किसी भी समय किसी भी हिंदू का दर्जा बनाने या बिगाडने की सामथ्र्य उनके पास थी। वे किसी शूद्र का दर्जा बढाकर उसे क्षत्रिय बना सकते है। वे किसी क्षत्रिय का दण्र्जा घटाकर उसे शूद्र बना सकते है। शिवाजी के प्रकरण से यह प्रमाणित हो जाता है कि इस मामले में उनकी संप्रभुता असीम है और उसे कोई चुनौती भी नही दे सकता। अब तक मैने इन बातों को सिद्ध करने का प्रयास किया है कि- 1. भारतीय आर्यो के समाज में शूद्रों को दूसरे से चैथे वर्ण में पहुंचाने वाले ब्राम्हण ही थे। 2. ब्राम्हणों ने शूद्रों को अवनत करने की यह युक्ति अपनाई कि उन्हें उपनयन के लाभ से वंचित कर दिया। 3. ब्राम्हणों ने शूद्रों का दर्जा बदले की भावना से गिराया क्योंकि वे शूद्र राजाओं के हाथों अपने अपमान, उत्पीडन और अत्याचार से त्रस्त थे। यह सब बिलकुल साफ है, लेकिन कुछ लोग फिर भी ऐसे होंगे जो इस तरह के सवाल कर सकते है कि- 1. कुछेक राजाओं के साथ झगडा होने के कारण ब्राम्हण लोग पूरे शूद्र समुदाय के शत्रु क्यों होंगे? 2. क्या यह इतनी अधिक भडकाऊ स्थिति थी कि उससे घृणा की भावना और प्रतिशोध की इच्छा पैदा हो जाती? 3. क्या दोनों पक्षों में मेल या समझौता नही हुआ? और अगर हुआ, तो ब्राम्हणों के लिए शूद्रों को अवनत करने का अवसर ही कहां था। 4. शद्रों ने इस अवनति को कैसे सहा? मै मानता हॅू कि ये सवाल इतने दमदार और ठोस है कि इन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यह उचित ही होगा कि इनका जवाब दिया जाए। कुछेक राजाओं के साथ झगडा होने के कारण ब्राम्हण पूरे शूद्र समुदाय को अवनत करने का प्रवास क्यों करेंगे, यह सवाल केवल प्रासंगिक ही नही अत्यंत उचित भी है। बहरहाल, यदि इन दो बातों को ध्यान में रखा जाए तो इस सवाल का जवाब देने में कोई कठिनाई नही होगी। पहली बात तो यह कि इस पुस्तक के नौबे अध्याय में ब्राम्हणों और शूद्र राजाओं के बीच जिन टकरावों का वर्णन किया गया है, वे व्यक्तिगत लगते हुए भी व्यक्तिगत टकराव नही थे। जहां तक ब्राम्हणों की बात है, तो उनके पक्ष में तो पूरा वर्ग ही संलिप्त था। एक वसिष्ठ के प्रसंग को छोड दें, तो अन्य सभी प्रसंग समस्त ब्राम्हणों से संबंधित है। राजाओं के पक्ष में, यह सच है कि प्रसंगों में ब्राम्हणों के साथ टकराव के संदर्भ में व्यक्ति के रूप में राजाओं की संलिप्तता का उल्लेख हुआ है। किंतु हमें यह नहीं भूलना होगा कि वे सभी राजागण सुदास के ही वंश के थे। जहां तक सुदास का संबंध है, तो यहां टकराव ब्राम्हणों क्षत्रियों के शूद्र कुल के बीच था। इस बारे में संदेह की गुंजाइश ही नही है। हमारे पास इस बात के कोई सीधे प्रमाण नही है कि अन्य आक्रामक राजा भी क्षत्रियों के शूद्र कुल के थे। किंतु हमारे पास अन्य साक्ष्य है जिनसे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि वे सुदास के वंश के ही थे। निम्नांकित उस वंशावली पर ध्यान दे जो महाभारत के आदि पर्व से ली गई है। मारीचि कश्यप=दक्षयानी (दक्ष-प्रजापति की एक पुत्री) आदित्यगण वैवस्वत मनु (मनु के दस पुत्र थे) यम वेण धृष्णु नौश्यौत नाभाग इक्ष्वाकु करूष शर्याति इला पृशाद्र नाभागारिष्ट ब्राम्हणों की बात करें, तो यह स्पष्ट है कि समाज में श्रेष्ठता और विशेषाधिकारों के प्रति उनका दावा असहनीय हो चला था। ब्राम्हणों के दावों की सूची इस प्रकार है- 1. ब्राम्हणों को केवल उनके जन्म के आधार पर सभी वर्णो का गुरू माना जाना चाहिए। 2. ब्राम्हण को ही यह तय करने का अधिकार है कि अन्य सभी वर्णो के कर्तव्य क्या होंगे, उनके लिए कैसा आचरण करना उचित होगा कि उनकी आजीविका का साधन क्या होना चाहिए, और अन्य वर्णो को उनके निर्देशों का पालन करना चाहिए और राजा को इन निर्देशों के अनुसार ही शासन करना चाहिए। 3. ब्राम्हण पर राजा का अधिकार नही चल सकता। राजा ब्राम्हणों को छोड और सभी का शासक था। 4. ब्राम्हण को कोडे नहीं लगाए जा सकते, उसे बेडियों में नही जकडा जा सकता, उस पर जुर्माना नही लगाया जा सकता, उसे निर्वासित नही किया जा सकता, उसकी निंदा नही की जा सकती, और उसका बहिष्कार नही किया जा सकता। 5. श्रोतिय (वेद ज्ञाता ब्राम्हण) पर कर (टैक्स) नहीं लगाए जा सकते। 6. यदि ब्राम्हण को खजाना मिल जाए तो उस पूरे खजाने पर उस ब्राम्हण का दावा ही होगा। यदि राजा को यह खजाना मिले तो उसे इसका आधा ब्राम्हण को देना होगा। 7. यदि किसी ब्राम्हण की मृत्यु हो जाए और उसका कोई वारिस नही हो तो उसकी संपत्ति राजा को नही मिलेगी बल्कि श्रोतियों अथवा ब्राम्हणों में बांट दी जाएगी। 8. यदि राजा को सडक पर कोई श्रोतिय अथवा ब्राम्हण मिल जाए तो राजा को उसके लिए रास्ता छोड देना चाहिए। 9. सबसे पहले ब्राम्हण को प्रणाम किया जाये। 10. ब्राम्हण का शरीर पवित्र होता है। हत्या का दोषी पाए जाने पर भी उसे मृत्यु दण्ड नही दिया जा सकता। 11. ब्राम्हण को मारने की धमकी देना, अथवा उसे मारना अथवा उसके शरीर से खून बहाना अपराध है। 12. कुछ अपराधों के लिए ब्राम्हणों को अन्य वर्णो की अपेक्षा कम दंड दिया जाएगा। 13. जहां अभियोगी ब्राम्हण न हो वहां राजा किसी ब्राम्हण को गवाह के तौर पर नही बुलाएगा। ब्राम्हणों को प्रदत्त अन्य विशेषाधिकार इस प्रकार है- भिक्षाटन के उद्देश्य से अन्य लोगों के घरों में बेरोक-टोक आना-जाना, ईंधन, फूल, जल और अन्य सामग्री एकत्र करने का अधिकार, और इसे चोरी नहीं समझा जाएगा, दूसरों की पत्नियों से बात चीत का अधिकार, और कोई भी व्यक्ति उन्हें बात करने से नही रोकेगा, बिना भाडा दिए, नाव से नदी पार करने का अधिकार, और दूसरों से पहले दूसरे तट पर पहुंचने का अधिकार। व्यापार करते और नाव का प्रयोग करते समय उन्हें कोई चुंगी नही देनी होगी। यात्रा के दौरान कोई ब्राम्हण थक जाए और उसके पास खाने का कुछ न हो, तो दो गन्ने या दो कंदमूल ले लेने को उसकी गलती नही माना जाएगा। निस्संदेह, समय बीतने के साथ इन विशेषाधिकारों में बढोत्तरी हुइ है, और यह कहना कठिन है कि जब ये टकराव चल रहे थे तो इनमें से कौन कौन से विशेषाध्किार निहित अधिकारों का रूप ले चुके थे। किन्तु इसमें संदेह नही कि 1, 2, 3, 8 और 9 जैसे कुछ सर्वाधिक अरूचिकार विशेषाधिकार तब अस्तित्व में आ चुके थे। ये किसी भी शालीन और स्वाभिमानी व्यक्ति समूह का गुस्सा भडकाने के लिए काफी थे। क्षत्रिय राजाओं की बात करे, तो उनसे यह अपेक्षा नही की जा सकती थी कि वे इन स्थितियों को चुपचाप सह लेंगे। कैसे सह सकते थे वे? यह नही भूलना चाहिए कि ब्राम्हणों से टकराने वाले अधिकांश क्षत्रिय राजा सूर्यवंशी थे। ज्ञान, अभिमान और युद्ध भावना के मामले में वे चंद्रवंशी क्षत्रियों से भिन्न थे। सूर्यवंशी क्षत्रिय बहादुर लोग थे, जबकि चंद्रवंशी क्षत्रियों में शौर्य और स्वाभिमान का अभाव था। जहां सूर्यवंशी क्षत्रियों ने ब्राम्हणों को चुनौती दी, वहीं चंद्रवंशियों ने उनके आगे समर्पण कर दिया और उनके गुलाम बन गए। हुआ वैसा ही जैसा होना चाहिए था। क्योंकि जहां चंद्रवंशी क्षत्रियों में ज्ञान का अभाव था, वहीं सूर्यवंशी क्षत्रिय ज्ञान के मामले में न केवल ब्राम्हणों के बराबर थे, बल्कि उनसे भी आगे थे। उनमें से कई तो वैदिक मंत्रों के रचनाकार थे और राजर्षि के रूप में विख्यात थे। यह बात उन क्षत्रियों के बारे में और भी सच थी जिनका टकराव ब्राम्हणों से हुआ। वैदिक मंत्रों के रचनाकारों की सूची में केवल अनेक क्षत्रियों के नाम ही नही है, ऐसे अनेक क्षत्रियों के नाम भी है जिनका टकराव ब्राम्हणों से हुआ था। क्षत्रिय तो वैदिक मंत्र लिखने वालों में सबसे आगे थे। सर्वाधिक प्रसिद्ध वैदिक मंत्र, अर्थात गायत्री मंत्र, विश्वामित्र की रचना है जो एक क्षत्रिय थे। ऐसे समर्थ क्षत्रियों के लिए यह असंभव था कि वे ब्राम्हणों की यह चुनौती स्वीकार नही करते। उनका अभिमान उनके शौर्य और उनके ज्ञान की देन थी, और उनका यह अभिमान ब्राम्हणों के दावों से अवश्य ही इतना अधिक आहत हुआ होगा कि जब उन्होनें ब्राम्हणों की चुनौती को स्वीकारा तो फिर उसे अदम्य भावना से ही लिया। उन्होनें ब्राम्हणों का कचूमर निकाल दिया। वेण ने उन्हें विवश कर दिया कि वे उसके सिवाय किसी और देवता की पूजा न करे, और पुरूरवा गण ने उनका पैसा लूट लिया। नहुष ने उन्हें अपने रथ में जोता और उसे पूरे नगर में खिंचवाया। निमि ने कुल पुरोहित के इस अनन्य और पुश्तैनी अधिकार का ही उल्लंघन कर दिया कि कुल (परिवार) के सारे अनुष्ठान संस्कार वही करेगा, और सुदास तो इस हद तक चला गया कि उसने अपने पूर्व कुल पुरोहित वसिष्ठ के पुत्र को जिंदा जला दिया। निश्चय ही, ब्राम्हणों को भडकाने का इससे बडा कारण और क्या हो सकता था, जिसके चलते उन्होनें शूद्रों से बदला लेने की ठानी। ब्राम्हणों और शूद्रों के बीच संभावित समझौते की बात करें, तो निस्संदेह कुछ साक्ष्य है जिन पर कुछ लोग निर्भर हो सकते है। इस साक्ष्य के महत्व पर अपने विचार व्यक्त करने से पहले, इस ओर ध्यान आकर्षित करना वांछनीय होता। ये साक्ष्य उन कहानियों के रूप में है जो महाभारत और पुराणोंमें बिखरी पडी है। समझौते की पहली कहानी दो जनजातियों भरत और तृत्सु की है जिनसे क्रमशः विश्वामित्र और वसिष्ठ संबंधित थे। भरत जनजाति के लोग वसिष्ठ अथवा तृत्सु जनजाति के शत्रु थे, वह ो ऋग्वेद से ही स्पष्ट है जिसमें कहा गया है- 3, 53.24- हे इंद्र! ये भरतवंशी तो वसिष्ठ से दूर होना चाहते है, उससे मिलना नही चाहते। उनके समझौते की कहानी महाभारत के आदि पर्व में मिलती है और यह इस प्रकार है- और उनके शत्रुओं की सेनाओं ने भरतवंशियों को भी मारा। चतुरंगी सेना से पृथ्वी को कांपते हुए, पांचाल्य प्रमुख ने तेजी से पृथ्वी को जीत लिया और उस पर धावा बोल पूरी दस सेनाओं की सहायता से उसे पराजित कर दिया। तब राजा संवरण अपनी पत्नियों, मंत्रियों, पुत्रों और मित्रों के साथ भाग खडा हुआ और सिंधु नदी के तट पर एक पर्वत के निकट एक देश में रहने लगा। वहां भरतवंशियों ने एक गढ में शरण ली और लंबे समय तक वहां निवास किया। जब वे वहां एक हजार वर्षो से रह रहे थे, तो पूज्य वसिष्ठ ऋषि उनके पास आए। भरतवंशियों ने बाहर आकर उनसे भेंट की और उन्हें दंडवत प्रणाम किया, और उन्होनें ऋषि के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए अध्र्य अर्पित किया। जब ऋषिवर बैठ गए, तो स्वयं राजा ने उनसे कहा, आप हमारे पुरोहित बने, हम प्रयास करे कि मेरा राज्य मुझे वापस मिल जाए। वशिष्ट ने भरत का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया, और जैसा कि हमने सुना है, पुरू के वंशज को पूरी क्षत्रिय जाति का सम्राट बना दिया और उसे पूरी पृथ्वी पर आधिपत्य दे दिया। उसने उस भव्य नगर पर आधिपत्य जमा लिया जहां पहले भरत रहते थे, और सभी राजाओं को उसके अधीन कर दिया। दूसरा उदाहरण महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है- उस समय इक्ष्वाकु वंश में जन्म राजा सौदास ने अपने कुल पुरोहित, शाश्वत संत, ऋषि प्रवर, संपूर्ण विश्व का भ्रमण करने में समर्थ, पवित्र ज्ञान के भंडार, वसिष्ठ को प्रणाम करने के पश्चात उससे पूछा, हे पूजनीय और निष्पाप ऋषि, तीनों लोकों में सर्वाधिक पवित्र वस्तु किसे कहा गया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति सर्वोच्च पुण्य प्राप्त कर सकता है? उत्तर में वसिष्ठ ने गाय के अदभुत गुणों का बखान किया और उसे सर्वलोक व्यापी और भूत तथा भविष्य की माता बताया। महान राजा ने ऋषि के इन शब्दों को अति श्रेष्ठ मानते हुए, ब्राम्हणों को गायों का महादान किया और लोकों की प्राप्ति की। इस प्रकार यहां हम एक संत के रूप में सौदास के पुत्र की प्रशंसा होते देखते है। तीसरा उदाहरण समझौते से संबंध्णित है जिसमें सौदास के वंशजों का उल्लेख है। महाभारत के शांति पर्व में यह उदाहरण मिलता है- धारती पर आधिपत्य कर लेने के पश्चात, कश्यप ने इसे ब्राम्हणों का निवास बना दिया और स्वयं वन में चला गया। तब शूद्रों और वैश्यो ने ब्राम्हणों की पत्नियों के साथ दुव्र्यवहार शुरू कर दिया, और शासन न होने के कारण शक्तिशाली लोग निर्बलों का दमन करने लगे, और कोई भी व्यक्ति संपत्ति का स्वामी नही रहा। इस अव्यवस्था के फलस्वरूप धरती दुष्टों से त्रस्त हो गई, और क्षत्रियों के संरक्षण से वंचित न्याय के रक्षक अधोलोक में चले गए। उसे आतंक में इधर उधर डोलते देख, कश्यप ने उसे अपनी जांघ (उरू) का सहारा दिया। इससे उसका नाम उर्वि पडा। तब धरती देवी ने कश्यप को प्रसन्न किया और उससे संरक्षण और एक राजा के लिए निवेदन किया। उसने कहा, मैने स्त्रियों में अनेक क्षत्रियों को संरक्षित किया है, जिनका जन्म हैडय वंश में हुआ है, वे मेरी रक्षा करें। उनमें पुरूवंशी विदूरथ का पुत्र भी है, जिसे पाला रिक्षवत पर्व पर रीक्षों ने पाला है, वह मेरी रक्षा करे। सौदास का उत्तराधिकारी भी है, जिसे सुहृदय और गौरवशाली पुरोहित पराशर ने संरक्षण दिया है, जिसने एक ब्राम्हण होते हुए भी उसके लिए एक शूद्र के समान सभी निम्न कार्य किए। इसीलिए, इस राजकुमार का नाम सर्वकर्मण पडा। जिन अन्य राजाओं को बचाया गया, उन्हें गिनाते हुए, पृथ्वी ने आगे कहा, इन सभी क्षत्रिय वंशजों को विभिन्न स्थानों में सुरक्षित कर दिया गया है, और वे लगातार धोकार और सुनार वर्णो में रह रहे है। यदि वे मेरी रक्षा करे, तो मै अकंपित बनी रहूंगी। उनके पिताओं और पितामहों को राम ने मेरे कारण मार डाला था। इसलिए यह मेरा दायित्व है कि मै उनका बदला लूं। क्योंकि मै नही चाहती कि मेरी रक्षा सदा (कश्यप जैसा) एक असाधारण व्यक्ति करे, अपितु मै तो एक साधारण शासक से ही संतुष्ट रहूंगी। (मेरी) इस (इच्छा) को तुरंत पूरा किया जाए। तब कश्यप ने इन क्षत्रियों को बुलवा भेजा जिनके विषय में पृथ्वी ने कहा था, और उन्हें राजत्व पद पर आसीन किया। दूसरी बात यह कि ब्राम्हणों और शूद्रों के बीच कोई भी समझौता न होने के समर्थन में सबसे पक्का प्रमाण शूद्रों के विरूद्ध ब्राम्हणों के विधान में मिलता है। शूद्रों के विरूद्ध बनाए गए नियमों का उल्लेख हम कर ही चुके है। उनकी बढोत्तरी और उनकी असाधारण प्रकृति के बारे में भी बताया जा चुका है। करने को बस यह रह गया है कि यह कहा जाए कि काले कानूनों की इस पृष्ठभूमि में समझौते की कोई भी बात पूरे तौर पर अमान्य ही दिखाई देगी। ब्राम्हणों ने शूद्रों को क्षमा करना तो दूर उनकी संतानों को भी बदले की उसी क्रूर भावना से त्रस्त किया। बहुत से लोगों को क्योंकि इसकी कोई जानकारी ही नही है, इसलिए चांडाल प्रतिलोम। अनुलोमों को उपनयन का अधिकार है। किंतु यह एक विलक्षण तथ्य है कि इसका भी अपवाद है। ब्राम्हण पिता और शूद्र माता की संतान निषाद को अनुलोम होते हुए भी उपनयन का अधिकार नही है। यह अपवाद क्यों रखा गया, यह जानना भी रोचक है। इसका एकमात्र उत्तर यही दिखाई देता है कि यह मनमाना कृत्य दर असल अपने शत्रु के बच्चों से बदला लेने की कार्रवाई है। निम्नलिखित तालिका के अनुसार अनुलोम छह है- पिता माता संतान ब्राम्हण क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त ब्राम्हण वैश्य अंबष्ट ब्राम्हण शूद्र निषाद क्षत्रिय वैश्य महिष्य क्षत्रिय शूद्र उग्र वैश्य शूद्र करण अयोगव के संबंध में मनुस्मृति केवल यह कहती है- चांडालो और श्वपचों का निवास गांव के बाहर होना चाहिए, उन्हें बर्तन नही रखने चाहिए, उनकी संपत्ति कुत्ते और गधे हो- 10, 51 ब्राम्हण का वध करने वाला कुत्तो, सुअरों, गधो, ऊंटों, गायों, बकरों, भेडो, (वन्य) पशुओं, पक्षियों, चांडालों और पुक्कसों की योनि में जन्म लेता है- 12, 55 अंतिम बात पर आये तो, ऐसा लगता है कि इस सबके पीछे यह विचार काम कर रहा है कि शूद्र तो भारतीय आर्य समाज का एक बहुत बडा हिस्सा ही रहे होंगे। इस तरह का विचार होते हुए यह कुछ अतीब सा ही लगता है कि शूद्रों ने उपनयन से वंचित रखे जाने जैसे कृत्य को चुपचाप सह लिया। इस तरह का विचार केवल इस प्रकार की बातों पर आधारित हो सकता है कि क्योंकि हिंदू समाज में शूद्रों की संख्या इतनी विशाल है, इसलिए भारतीय आर्य समाज के शूद्रों की जनसंख्या भी बहुत अधिक रही होगी। इस तरह का अनुमान निराधार है, क्योंकि भारतीय आर्यो के समाज के शूद्र प्रजातिगत संदर्भ में हिंदू समाज के शूद्रों से बिलकुल भिन्न है। हिंदू समाज के शूद्र भारतीय आर्यो के समाज के शूद्रों के प्रजातीय वंशज नही है। यह भ्रम यह न समझ पाने के कारण उत्पन्न हुआ है कि भारतीय आर्यो के समाज में शूद्र का जो अर्थ था वह हिंदू समाज में शूद्र के अर्थ से सर्वथा भिन्न है। भारतीय आर्यो में शूद्र शब्द एक ही जन का व्यक्तिवाचक नाम था। यह उस कौम का नाम था जो एक विशिष्ट प्रजाति के थे। हिंदू समाज में प्रयुक्त शूद्र शब्द एक व्यक्तिवाचक नाम तो बिलकुल ही नही है। यह तो एक निम्न असंस्कृत लोगो के वर्ग के लिए प्रयुक्त होने वाला विशेषण है। यह जनजातियों और समूहों के एक विविध और विषमजातीय समुच्चय का एक आम गोत्रनाम है, जिनमें एक मात्र समानता यह है कि वे संयोग वंश संस्कृति के सोपान की निचली पायदान पर अवस्थित है। उन्हें शूद्र नाम से संबोधित करना गलत है। आर्यो के समाज के अपने हमनामों (शूद्रों) से उनका कुछ लेना देना नही है, जिन्होनें ब्राम्हणों को नाराज किया था। यह अत्यंत खेद का विषय है कि बाद के समय के इन निर्दोष और पिछडे लोगों को मूल शूद्रों के साथ लपेट दिया गया है और उन्हें उन अपराधों के लिए दंडित किया जा रहा है जो उन्होनें किए ही नही। यह बिलकुल स्पष्ट है कि कभी यह तथ्य धर्मसूत्रकारों के दिमाग में था कि भारतीय आर्य समाज के शूद्र और हिंदू समाज के शूद्र अलग अलग है और उनमें स्पष्ट भेद है। उन्होने जो सच्छूद्र तथा असच्छूद्र और अनिर्वासित और निर्वासित शूद्रों में अंतर किया है, उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है। सच्छूद्र का अर्थ है एक सुसंस्कृत शूद्र और असच्छुद्र का अर्थ है एक असंस्कृत शूद्र। निर्वासित शूद्र का अर्थ है ग्राम समुदाय में रहने वाला शूद्र और अनिर्वासित शूद्र का अर्थ है ग्राम समुदाय से बाहर रहने वाला शूद्र। कुछ लोगों का यह कहना बिलकुल गलत है कि इस विभाजन से यह इंगित होता है कि सूत्रकारों की दृष्टि में शूद्रों की स्थिति सुधर रही थी, क्योंकि वहां पहले एक शूद्र सामाजिक धारा में नही था वहीं अब कुछ को उसमें शामिल कर लिया गया था। इसकी सही व्याख्या तो यह है कि सच्छूद्र और निर्वासित शूद्र का संबंध आर्यो के समाज के शूद्र से है और असच्छूद्र और अनिर्वासित शूद्र उन शूद्रों के लिए प्रयुक्त होने वाले विशेषण है जो हिंदू समाज का हिस्सा बन चले थे। हमारा सरोकार आर्यो के समाज के शूद्र से है। बाद के समय के हिंदू समाज के शूद्रों से उनका कोई संबंध नही है। इस स्थिति में, हिंदू समाज में शूद्रों की विशाल संख्या होने को इस तर्क का आधार नही बनाया जा सकता कि भारतीय आर्यो के समाज में भी शूद्र बहुत बडी संख्या में रहे होंगे। हमें यह ठीक ठीक ज्ञात नही है कि शूद्र एक जनजाति थी, एक गोत्र अथवा अर्धांश था, अथवा एक परिवार समूह था। किंतु यदि वे जनजाति (कबीले) जितने बडे थे, तब भी वे कुछ हजार से अधिक तो नही हो सकते। भरतवंशियों के बारे में ऋग्वेद 7, 33.6 में स्पष्ट कहा गया है कि उनकी संख्या कम थी। पांचाल राजा सोन सत्रसाह द्वारा संपन्न एक अश्वमेघ अरू के संदर्भ में शतपथ ब्राम्हण में कहा गया है- जब सत्रसाह ने अश्वमेघ यज्ञ किया, जो छह हजार दह सौ तीस कवचधारी तुर्वस उठ खडे हुए। यदि इससे यह संकेत मिलता है कि तुर्वस जनजाति में छह हजार लोग थे, तो फिर शूद्रों की संख्या की बहुत अधिक नही रही होगी। संख्या के सवाल को छोड दे तो, शूद्रों ने इस संकट को रोकने के लिए क्या किया होगा? यदि उनकी ओर से कुपित कुछ ब्राम्हणों द्वारा उपनयन के लिए मना कर दिया गया था, तो क्या वे उन दूसरे ब्राम्हणों की सेवाएं नही ले सके होंगे जिनहें उन्हाने अप्रसन्न नही किया था? ऐसी संभावना निश्चय ही अनेक परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। पहली बात तो यह कि हमें नही पता कि क्या सारे ब्राम्हणों ने एक साझा मोर्चा बनाया हुआ था और क्या उस मोर्चे को तोडना संभव था। हमें नही पता कि जिस समय यह मुद्दा एक ज्वलंत मुद्दा बन रहा था, तब ब्राम्हण क्या एक जाति का रूप ले चुके थे। किंतु यह तो स्पष्ट है कि ऋग्वेद के समय में भी, ब्राम्हण एक वर्ग का रूप ले चुके थे और उनमें वर्ग चेतना विकसित हो चुकी थी, और वे वर्गीय हितों को बनाए रखने के लिए तत्पर थे। उस स्थिति में शूद्रों के लिए बाम्हणों के षडयंत्रों को तोडना कठिन रहा होगा। दूसरे, यह भी हो सकता है कि उपनयन संस्कार करना कुल पुरोहित का अनन्य अधिकार बन चुका था। राजा निमि की कथा से पता चलता है कि यज्ञ संपन्न कराना कुल पुरोहित का अनन्य अधिकार बन चुका था। यदि इन बातों में दम है, तो स्पष्ट है कि शूद्र अपने खिलाफ काम कर रहे ब्राम्हणों के साझा मोर्चे को रोकने के लिए अधिक कुछ नही कर पाए होंगे। दूसरी संभावना थी सभी क्षत्रियों का एक साझा मोर्चा बनाने की, जो ब्राम्हणों के विरोध की गुरूता को कम कर सकता था। इस तरह की बात संभव थी या नही, इस विषय में बस समझा कि उपनयन से वंचित होने का उनकी भावी प्रस्थिति (दर्जे=हैसियत) पर क्या प्रभाव पडने वाला था? मै निश्चयपूर्व कह सकता हूू कि उन्होनें इसे नही समझा था। दूसरे, क्या क्षत्रिय लोग एक जुट अथवा संगठित थे? शायद नही। तीसरे, कया अन्य क्षत्रिय राजाओं में शूद्रों के प्रति कोई सहानुभूति थी? यदि ऋग्वेद में वर्णित दाशराज्ञ युद्ध की कथा सच्ची है, तो यह अत्यंत स्पष्ट है कि शूद्रों और अन्य गैर शूद्र क्षत्रियों के बीच आपसी घृणा का भाव था। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए, इसमें कुछ भी अजीब नही है कि शूद्रों ने ब्राम्हणों द्वारा उपनयन के अधिकार से वंचित किए जाने को स्वीकार कर लिया। इस निबंध का उद्देश्य शूद्रों की उत्पत्ति का पता लगाना और उनकी अवनति के कारणों को खोजना था। ऐतिहासिक सामग्री और विभिन्न पुरातनपंथी तथा आधुनिक लेखकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतो की जांच के बाद मैने एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया है। पिछले अध्यायों में इस सिद्धांत को भागों में प्रस्तुत किया गया है। जिससे प्रत्येक भाग की आधारभूमि को अलग से तैयार करने में सुविधा हो। अब वह क्षण आ गया है कि उन भागों को जोडकर पूरे तौर पर यह समझा जा सके कि यह सिद्धांत है क्या। सारांश में इसे इस प्रकार रखा जा सकता है- 1. शूद्र लोग सूर्यवंशी आर्य समुदायों में से एक थे। 2. भारतीय आर्यो के समाज में शूद्रों को क्षत्रिय वर्ण का दर्जा हासिल था। 3. एक समय था जब आर्यो के समाज में केवल तीन वर्णो, अर्थात ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य ही मान्य थे। शूद्र एक अलग वर्ण न होकर क्षत्रिय वर्ण का ही हिस्सा थे। 4. शूद्र राजाओं और ब्राम्हणों के बीच लगातार झगडा रहा, जिसमें बाम्हणों को अनेक अत्याचारों और असम्मानजनक स्थितियों का शिकार होना पडा। 5. शूद्रों के अत्याचारों और दमन के कारण उनके प्रति उपजी घृणा के चलते ब्राम्हणों ने उन्हें यज्ञोपवीत धारण करवाने से मना कर दिया। 6. इस पवित्र सूत्र का अधिकार छिन जाने के कारण शूद्र सामाजिक सोपान में नीचे आ गए, उनका दर्जा वैश्यों से नीचे हो गया, और वे चैथा वर्ण बन गए। अब इस सिद्धांत की उपयुक्तता का आकलन बाकी रह जाता है। लेखक के लिए यह स्वाभाविक है कि वह यह काम औरों पर छोड दे। मै इससे थोडा हटकर चलना चाहता हॅू और अपने सिद्धांत को परखने का काम मै स्वयं करने जा रहा हॅू। मै ऐसा इसलिए कर रहा हॅू क्योंकि इससे मुझे अपने सिद्धांत को सही ठहराने का अवसर मिलेगा। मै बखूबी यह कल्पना कर सकता हूू कि मेरे आलोचक यह आरोप लगाएंगे कि मेरा मत महाभारत के एक अकेले कथन पर टिका है जिसमें पैजवन को एक शूद्र बताया गया है, कि सुदास के रूप में पैजवन की पहचान के प्रमाण संदेह से परे नही है, कि एक शूद्र के रूप में पैजवन का वर्णन महाभारत के एक अकेले स्थल को छोड और कही नही मिलता है। ऐसे कमजोर धरातल पर रचित कोई सिद्धांत कैसे मान्य हो सकता है? वे यही सामान्य तर्क देंगे कि कोई श्रृंखला अपनी दुर्बलमत कडी के मुकाबले अधिक मजबूत नही होती। किंतु मेरा विश्वास है कि मेरे सिद्धांत को इतने आसान तरीके से अमान्य और ध्वस्त नही किया जा सकता। सबसे पहले तो, मै यह नही मानता कि सिद्धांत को एक अकेले साक्ष्य के आधार पर खडा नही किया जा सकता। साक्ष्य के कानून का यह एक सुविदित सिद्धांत है कि साक्ष्य की गुरूता को देखना चाहिए, उसकी संख्या को नही। प्रत्येक प्रमाण अथवा समस्त प्रमाणों के योग की गुरूता का महत्व गवाहों की संख्या से अधिक होता है। इस कथन की सत्यता पर संदेह करने का कोई कारण नही है कि पैजवन एक शूद्र था। ऐसा कोई कारण नही है कि महाभारत के लेखक ने गलत वर्णन किया होगा। इतने लंबे समय के बाद लिखे होने के कारण, उसे किसी गलत इरादे, किसी पक्षपात का दोषी नही माना जा सकता। निष्कर्ष बस यही निकाला जा सकता है कि लेखक एक वास्तविक परंपरा को दर्ज कर रहा था। पैजवन को ऋग्वेद में शूद्र नहीं बताया गया है, यण्ह तथ्य महाभारत के कथन की सत्यता के विरूद्ध नही जाता। ऋग्वेद में पैजवन के वर्णन से शूद्र शब्द की अनुपस्थिति के अनेक स्पष्टीकरण दिए जा सकते है। पहला स्पष्टीकरण तो यही है कि ऋग्वेद में ऐसे किसी वर्णन की अपेक्षा करना गलत है। ऋग्वेद एक धर्म ग्रंथ है। किसी धर्म ग्रंथ में शूद्र जैसे वर्णन की अपेक्षा नही की जा सकती। यह अप्रासंगिक होता। किंतु इस तरह के वर्णन की अपेक्षा महाभारत जैसे ऐतिहासिक ग्रंथ में की जा सकती है, जहां वस्तुतः यह मिलता भी है। मेरे विचार में, सुदास के संबंध में शूद्र शब्द का उल्लेख बार बार न होने का स्पष्टीकरण यह है कि यह अनावश्यक था। कुल, गोत्र, जनजाति आदि के वर्णन वस्तुतः पहचान के चिन्ह होते है। पहचान के चिन्ह निम्नतर लोगों के संदर्भ में तो आवश्यक होते है। किंतु प्रसिद्ध लोगों के संदर्भ में वे अनावश्यक होते है। इसमें कोई संदेह नही कि सुदास अपने समय का सर्वाधिक प्रसिद्ध व्यक्ति था। लोगों को उसकी पहचान बताने के ण्लिए उसे शूद्र के रूप में वर्णित करना अनावश्यक था। कुल मिलाकर यह मात्र अनुमान का मामला नही है। ऐतिहासिक उदाहरण भी दिए जा सकते है। बुद्ध के समय के दो राजाओं बिम्बिसार और प्रसेनजित का ही उदाहरण ले लीजिए। उनके समकालीन और सभी राजाओ का वर्णन उस समय के साहित्य में उनके गोत्र नाम से मिलता है। किंतु इन दोनों का बस व्यक्तिगत नाम ही लिया गया है। इस तथ्य पर ध्यान देने वाले प्रो. ओल्डनबर्ग ने इसकी व्याख्या इस आधार पर की है कि वे प्रख्यात थे और उनका वर्णन उनके गोत्र नाम से करना आवश्यक नही था। किन्तु ऐसा मानना वास्तव में गलत होगा कि मेरा सिद्धांत महाभारत के उस अकेले अंश पर अथवा सुदास के रूप में पैजवन की पहचान पर आधारित है। ऐसा कुछ भी नही है। यह सिद्धांत किसी एक अकेली श्रृंखला पर टिका नही है और इसलिए यहां यह तर्क लागू नही होता कि कोई श्रृंखला अपनी दुर्बलतम कडी से अधिक मजबूत नही होती। यह मत अनेक समांतर श्रृंखलाओं पर टिका है। उनमें से किसी एक की कमजोरी को लेकर यह नही कहा जा सकता कि वह आधार को कमजोर कर देगी। जब एक श्रृंखला की कोई एक कडी कमजोर होती है तो पूरा भार दूसरी श्रृंखलाओं पर आ पडता है। परिणामस्वरूप, इस निष्र्ष पर पहुंचने से पहले कि यह सिद्धांत ध्वस्त हो गया है, यह प्रमाण देना आवश्यक होगा कि अन्य श्रृंखलाएं भार वहन करने योग्य नही है। एक शूद्र के रूप में पैजवन का वर्णन और ऋग्वेद के सुदास के रूप में पैजवन की पहचान इस सिद्धांत को आधार देने वाली एकमात्र श्रृंखला नही है। श्रृंखलाए और भी है। इनमें से एक है शतपथ और तैत्तिरीय ब्राम्हण ग्रंथो में प्राप्य यह स्वीकरण कि वर्ण केवल तीन थे और शूद्र कोई अलग वर्ण नही थे। दूसरी श्रृंखला इस साक्ष्य के रूप में है कि शूद्र लोग राजा और मंत्री थे। तीसरी श्रृंखला इस साक्ष्य के रूप में है कि एक समय शूद्रों को उपनयन का अधिकार था। ये सभी मजबूत श्रृंखलाए है जो पहली श्रृंखला की संभावित टूट से पडने वाले सारे अतिरिक्त भार को वहन करने में समर्थ है। जहां तक साक्ष्य का संबंध है, तो पूर्ण निश्चितता कभी कभी ही होती है और मै अपने मत (सिद्धांत) के लिए पूर्ण निश्चितता का दावा नही करता। किंतु मै यह दावा अवश्य करता हॅू कि इस सिद्धांत की पुष्टि में प्रस्तुत साक्ष्य प्रत्यक्ष भ है और परिस्थितिजन्य भी, और जहां इसमें विवादास्पदता है, वहां इसके पक्ष में प्रबल संभावनाएं इसकी पुष्टि करती है। मैने यह दिखा दिया है कि मैने जो सिद्धांत, जो मत प्रस्तुत किया है, उसमें कितना दम है। अब मै यह दिखाउंगा कि यह सिद्धांत उपयुक्त हैं मेरे विचार में एक कसौटी है जिसे आम तौर पर सही माना जाता है जिसके जरिए किसी सिद्धांत की उपयुक्तता को परखा जा सकता है। इसके अनुसार किसी सिद्धांत को स्वीकार्य होने के लिए केवल समाधान ही नही प्रस्तुत करना चाहिए, बक्लि यह भी दिखाना चाहिए कि जो समाधान इसमें प्रस्तुत किया गया है, उसमें उस समस्या से जुडे प्रश्नों के उत्तर भी होने चाहिए। जिसके समाधान का दावा इसमें किया गया है।मै अपने सिद्धांत को इसी कसौटी पर रखकर देखना चाहता हॅू। प्रारंभ में मै शूद्रों के प्रश्नों उनकी पहेलियों, को एक स्थान पर रखना चाहूंगा। इनमें से निम्नलिखित प्रश्न सर्वाधिक महत्वूपर्ण है- 1. शूद्रों को अनार्य, और आर्यो का शत्रु कहा जाता है। कहा जाता है कि आर्यो ने उन पर विजय प्राप्त की और उन्हें गुलाम बना लिया था। तो फिर ऐसा क्यो है कि यजुर्वेद और अथर्ववेद के ऋषियों ने शूद्रों के गौरव की कामना क्यों की और उनकी कृपा की इच्छा क्यों व्यक्त की? 2. कहा जाता है कि शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नही था। फिर ऐसा क्यो है कि सुदास, एक शूद्र ने ऋग्वेद के मंत्रों की रचना की? 3. कहा जाता है कि शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नही था। फिर सुदास ने अश्वमेघ यज्ञ कैसे किया? शतपथ ब्राम्हण में शूद्र को याजक क्यों माना गया और उसे संबोधित करने का सूत्र कयों दिया गया है? 4. कहा जाता है कि शूद्रों को उपनयन का अधिकार नही है। यदि प्रारंभ से ही ऐसा है, तो फिर इसे लेकर विवाद क्यों है? बदरी और संस्कार गणपति के अनुसार शूद्र को उपनयन का अधिकार क्यों है? 5. शूद्र को संपत्ति रखने का अधिकार नही है। तो फिर मैत्रायणी और काठक संहिता में शूद्रों को धनी और संपन्न कैसे बताया गया है? 6. कहा जाता है कि शूद्र कोई राज्याधिकारी नही हो सकता। फिर महाभारत में शेद्रों को राजाओं का मंत्री कैसे बताया गया है? 7. कहा जाता है कि शूद्र का कर्तव्य है एक अचुतर के रूप में शेष तीनों वर्णो की सेवा करना। फिर ऐसा क्यों है कि शूद्रों में राजा हुए, जिसकी पष्टि सुदास, और सायण द्वारा उल्लिखित अन्य उदाहरणों से होती है? 8. यदि शूद्र को वेदाध्ययन का कोई अधिकार नही था, यदि उसे उपनयन का कोई अधकार नही था, यदि उसे यज्ञ का अधिकार नही था, तो इसे इनका अधिकार क्यों नही दिया गया? 9. शूद्र का उपनयन करने, उसके वेदाध्ययन करने, और उसके यज्ञ संपन्न करने से ब्राम्हणों को निश्चय ही लाभ होना था- भले ही ये शूद्र के किसी काम के होते या नही- क्योंकि यज्ञ करने और वेद पढाने का एकाधिकार ब्राम्हणों के ही पास था। शूद्रों को उपनयन, वेदाध्ययन और यज्ञ का अधिकार देने से ब्राम्हणों को मोटी दक्षिणा ही मिलती। फिर शूद्रों को ये अधिकार नही देने के प्रति ब्राम्हण इतने कृत संकल्प क्यों थे, जबकि शूद्रों को इनकी अनुमति देने से उनकी कोई क्षति नही होनी थी, बल्कि उनकी कमाई ही बढनी थी? 10. यदि शूद्र को उपनयन, या और वेद (पढने) का अधिकार नही भी था, तो ब्राम्हण तो इसके लिए स्वतंत्र थे कि वे शूद्रों को ये अधिकार दे सकते थे। ये प्रश्न एक व्यक्तिके रूप में (अलग-अलग) ब्राम्हण की स्वतंत्र इच्छा पर क्यों नही छोड दिए गए? यह विधान क्यों बनाया गया कि जो ब्राम्हण इन प्रतिबंधित कृत्यों में से कुछ भी करेगा, उसे दंडित किया जाएगा? इन प्रश्नों की व्याख्या कैसे की जा सकती है? इनकी व्याख्या का प्रयास न तो पुरातनपंथी हिंदू ने किया है, न ही आधुनिक विद्वानों ने। सचमुच, उन्हें शायद पता ही नही है कि ऐसे कोई प्रश्न भी है। पुरातनपंथी इनकी चिंता नही करता। वह तो पुरूष सुक्त की इस दैवीय व्याख्या से संतुष्ट है कि शूद्र की उत्पत्ति पुरूष के चरणों से हुई है। आधुनिक विद्वान इस मान्यता से संतुष्ट है कि शूद्र अपनी उत्पत्ति के लिहाज से एक अनार्य आदिवासी है जिसक लिए आर्यो ने, स्वाभाविक तौर पर ही, एक अलग विधि संहिता बनाई थी। खेद का विषय है कि इनमें से किसी भी वर्ग के लोगों ने उन प्रश्नों (पहेलियों) की जानकारी लेने का ष्ट नही किया जो शूद्र की समस्या से जुडे है। और उन्होनें शूद्र की स्थिति की उपत्नत्ति के विषय में कोई सिद्धांत प्रस्तुत करने का तो विचार ही नही किया जिससे इन प्रश्नों का उत्तर मिल सकता। मेरे सिद्धांत के संबंध में यह दृष्टव्य है कि इसमें इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने की सामथ्र्य है। 1 से 4 तक में यह व्याख्या मिलती है कि शूद्र कैसे राजा और मंत्री बन गए और ऋषियों को उनकी स्तुति क्यों करनी चाहिए और उनकी कृपा की आकांक्षा क्यों करनी चाहिए। 5 और 6 में यह स्पष्ट किया गया है कि शूद्र के उपनयन को लेकर विवाद क्यों था, और ऐसा विधान कयों बनाया गया जिसमं केवल शूद्रों को अधिकार से वंचित ही नही रखा गया, बल्कि उल्लंघन करने वाले ब्राम्हण पर दंड भी लगाया गया, जिससे यह प्रभावी हो सके। सचमुच ऐसा कोई प्रश्न नही ै जिसका उत्तर यह सिद्धांत न दे सके। इसलिए, मै कह सकता हॅू कि यह मत, यह सिद्धांत सर्वथा त्रुटिहीन और श्रेष्ठ है। और बहुत कम सिद्धांतों का दस्तावेज इससे बेहतर होगा। - टीपीएसजी संग्रहक Tags : fourth Arya community were Indian people Everyone