विद्या, प्रज्ञा, करूणा, शील और मैत्री TPSG Wednesday, May 1, 2019, 07:47 AM विद्या, प्रज्ञा, करूणा, शील और मैत्री इन पांच तत्वों के अनुसार छात्र अपना चरित्र निर्माण करें (दिनांक 12 दिसम्बर 1955, मिलिंद काॅलेज, औरंगाबाद में दिया गया भाषण) औरंगाबाद स्थित मिलिंद महाविद्यालय के बोधि-मंडल के तत्वाधान में दिनांक 12 दिसंबर, 1955 को एक सभा का आयोजन किया गया था। इस सभा को सम्बोधित करने के लिए बाबा साहेब को निमंत्रित किया गया था। उन्होंने अपने भाषन में माननिय शंकरराव देव के 7 सितम्बर को दिए गए भाषन में व्यक्त की गई टिप्पनी पर अपना मत व्यक्त किया। माननिय देव ने कहा था कि महाविद्यालय को ‘मिलिंद’ नाम से कुछ नहीं होता। क्रोध पर अक्रोध से विजय प्राप्त करने की शिक्षा देने वाले बुद्ध उपदेश का यहा सम्मान हुआ तो यह नाम सार्थक होगा। बाबा साहेब ने शंकरराव देव के कथन पर अपना मत प्यक्त करते हुए कहा- ‘‘मिलिंद यह एक ग्रीक राजा था। उसे अपनी विद्धता पर बहुत घमण्ड था। ग्रीक में जितने विद्धान हैं, उतने विश्व में कही नहीं है, ऐसी उनकी गर्वोशक्ति थी। उसने शास्त्रार्थ के लिए आहृान किया था। उसने सोचा की किसी बौद्ध भिक्खु से धम्म चिकित्सा करें, किंतु उससे वाद-विवाद के लिए कोई तैयार नहीं था। मिलिंद एक साधारण व्यक्ति था वह कोई दार्शनिक नहीं था ज्ञानी पंड़ित भी नहीं था। वह केवल राजकाल के काम में ही प्रविण था। लेकिन ऐसे मिलिंद से कोई भी वाद-विवाद नहीं करना चाहता था। बहुत प्रयास से इस कार्य के लिए भिक्खु नागसेन तैयार हो गए। मिलिंद की चुनौती स्वीकार कर वे शास्त्रार्थ के लिए सहमत हुए। उन्हें यश या उपयश की कोई चिन्ता नहीं थी। नागसेन ब्राम्हण थे। उम्र के सात वर्ष के थे, तब ही उन्होंने माता-पिता का घर छोड़ दिया था। ऐसे नागसेन ने भिक्खओं का आग्रह स्वीकार किया। फिर मिलिंद और नागसेन में वाद-विवाद हुआ, और मिलिंद को पराजित होना पड़ा। इस शास्त्रार्थ की जानकारीयों से युक्त पर पुस्तक प्रकाशित की गई है। इसका नाम पालि भाषा ‘‘मिलिंद-पन्ह’’ नाम है। इस पुस्तक को शिक्षकगण और छात्रगण अवश्य ही पढ़ना चाहिए। उसमें शिक्षकों के कौन-कौन से गुण होने चाहिए, यह विस्तार से लिखा हुआ है। इसलिए मैने और मेरी सोसायटी ने इस काॅलेज को मिलिंद महाविद्यालय, नाम दिया हैं। और परिसर को ‘नागसेन वन’ नाम दिया है। मिलिंद को नागसेन के साथ शास्त्रार्थ में परास्त होना पड़ा और वह बौद्ध धर्मी हो गया, इसलिए मैंने यह नाम नहीं दिया। मैंने जो नाम इस काॅलेज को दिया है, वह आदर्शयुक्त है, ऐसा मेरा मत है। इस शिक्षा संस्थान का नाम किसी दानवीर, धनी-अमिर, व्यापारी के नाम पर रखना अत्यधिक अनुचित होता। बौद्ध धम्म धारण करने वाले मिलिंद का नाम इस महाविद्यालय को देने का एक दूसरा कारण भी है। वह यह है कि भोजन की तरह विद्या भी मनुष्य के लिए आवश्यक है। विद्या का लाभ हर एक को मिलना चाहिए। उह उदार विचार सर्वप्रथम भगवान बुद्ध ने ही व्यक्त (उद्घोषित) किए है। इसलिए जिन असंख्य लोगों को अनेक शताब्दियों तक अज्ञानी रखा गया था, उन्हें ज्ञानवान बनाने में बुद्ध या उनके शिष्यों के नाम का स्मरण करना स्वभाविक ही है। मुंबई के सिद्धार्थ काॅलेज में 2900 और यहां 600 छात्र अध्ययनरत है। मैंने इस काॅलेज के लिए बहुत ही आर्थिक भार वहन किया गया है। माननीय शंकरराव देव ने इस काॅलेज को मिलिंद यह नाम देने के संदर्भ में हमारे धम्मपद के ‘अक्रोधन जेयत क्रोध’ इस श्लोक का जिक्र किया है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य के क्रोध पर अक्रोध से विजय प्राप्त करना चाहीए। क्योंकि मैं क्रोधी हूँ, यह पूरा विश्व जानता है। माननीय देव कहते है कि मनुष्य को क्रोधी नहीं होना चाहिए। मन पर नियंत्रन रखना चाहिए। मुझे लगता है कि देव ने पूरी तरह से पढ़ा नहीं। उन्होंने ठीक से अध्ययन नहीं किया है। (तालियां) भगवान बुद्ध ने क्रोध (Anger) पर प्रवचन दिया है। यह प्रवचन यदि देव पढ़ लेते तो वे ऐसा नहीं कहते। मनुष्य यदि क्रोधी है, तो उस पर टीका (आलोचना) नहीं करनी चाहिए। क्रोध दो प्रकार के होते हैं- 01. द्धेषमूलक और 02. प्रेममूलक है। जो कसाई होता है, वह कुल्हाडी (छुरा) लेकर जाता है, उसका क्रोध द्धेषमूलक है। मां अपने बच्चों के गाल पर तमाचा जड़ देती है, तो उसे क्या कहेगें ? वह भी क्रोध ही है किंतु प्रेममूलक है। बच्चा सदाचारी होना चाहिए, इसलिए मां बच्चे की पिटाई करती है। मेरा क्रोध भी प्रेममूलक है। तुम समता का पालन करो इसलिए मैं राजनीति में गालियां देता हूँ। मैं, अपने आलोचकों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता हूँ। जो भी मैंने किया है संघर्ष करके किया है। पहले ब्राम्हण जाति के लोग ही विद्या ग्रहण करते थे। इसलिए हमें विद्या प्राप्त नहीं हुई। हमारी विद्या ग्रहण करने की इच्छा थी लेकिन ब्राम्हणों ने विद्या नहीं लेने दी। किंतु भगवान बुद्ध ने यह नियम तोड़ दिया था। एक बार भगवान बुद्ध से लोहित नामक ब्राम्हण ने प्रश्न किया था कि आप सबको विद्या ग्रहण करने का समान अवसर दे रहें हो। इस पर भगवान बुद्ध ने कहा कि जिस प्रकार मनुष्य को भोजन की आवश्यकता है वैसे उसे विद्या की जरूरत है। यह विचार सर्व प्रथम बुद्ध ने ही इस संसार में प्रस्तुत किया। विद्या एक तरह की तलवार है, यह दो धारवाली है, उससे दुष्टों का संहार भी कर सकते है, और दुष्टों से स्वयं की रक्षा भी। कहा जाता है कि- स्वदेशे पूज्यते राजा। विद्धान सर्वत्र पूज्यते।। आप सब ज्ञान प्राप्तकरने आए हो, किंतु मेरी सोच है कि केवल विद्या ही पवित्र नहीं हैं। विद्या के साथ भगवान बुद्ध द्वारा बताई गई प्रज्ञा यानि ज्ञानी बनना। शील यानि सदाचार युक्त आचरण। करूणा यानि संपूर्ण मानव समाज से प्रेम करना और मैत्री यानि सभी प्राणीमात्र के प्रति अपनत्व की भावना रखना। ये चार पारमिताएं होना चाहिए। तो ही विद्या का उपयोग। विद्या के साथ करूणा नहीं है, तो वह इन्सान कसाई कहलाएगा, ऐसा मै मानता हूँ। करूणा का अर्थ मानव का मानव के प्रति प्रेम! ठसके आगे जाकर उसे मैत्री संपादित (प्राप्त) करना चाहिए।यह विचार भी बुद्ध ने ही बताए हैं। मैं अपने जैसा विद्धान भारत वर्ष में देखना चाहता हूँ। सभी धर्मों में कोई श्रेष्ठ धम्म है, तो वह भगवान बुद्ध का धर्म है बाकी धर्म निरर्थक है। मेरे धम्म में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। क्योंकि लोग कहते है कि ईश्वर ने दुनिया बनाई है। उसने नाकार से साकार और साकार से नाकर बनाया। किंतु विश्व में साकार वस्तुएँ पहले से ही थीं। ईश्वर होता तो उसने इन साकार वस्तुओं को अनदेखा नहीं किया होता। इसलिए ईश्वर है, यह कल्पना झूठी है। यदि ईश्वर है तो, सामान्य जीवन में उसका खूंटा क्यों ? मेरे धम्म में आत्मा का कोई स्थान नहीं हैं। बौद्ध धम्म का मूल उद्देश्य दुःख दूर करना है। यही धम्म ही मेरी दृष्टि से श्रेष्ठ है। अन्य धम्म मनुष्य और ईश्वर के काल्पनिक संबंधो पर आश्रित है। संसार में कुछ लोग डरपोक होते है। इंसान में अकेले प्रस्थान करने की हिम्मत होनी चाहिए। मैं अकेला प्रस्थान करता हूँ (तालियां) हजारों लोग मेरे पीछे नहीं आ रहें है, फिर भी उसकी परवाह नहीं करता, मुझे बुरा नहीं लगता। एक ड़ाॅ. पिक्विक थे। उनके दो सेवक थे। उसने सेवकों से कहा, चलो मैं तुम्हें मेला दिखाता हूँ। वह अपने सेवकों के साथ एक गांव में गया। वहा उसने रहने के लिए दो-तीन कमरे लिए। उस गांव में चुनाव हो रहा था। ड़ाॅ. पिक्विक के कम्पनी में सैम वेलर नाम का एक लड़का उसके पास सेवा के लिए था। वह कमरे के बाहर जाने के लिए प्रयास करने लगा। वह दरवाजा खोलने बंद करने लगा। डरपोक ड़ाॅ. पिक्विक ने कहा, ‘तू वहां क्या कर रहा है ?’ उसने कहा, ‘सर! वहा बहुत भिड़ है। सैम वेलर बाहर जाने का प्रयास करने लगा। तब ड़ाॅ. ने कहा, जाना तो बड़े समूह के साथ जाना, छोटे समूह के साथ मत जाना। उसने एक बार फिर कहा कि, जहां ज्यादा लोग होगें वहा जाना, जहां कम होगें वहा मत जाना। मैं अपको बताना चाहता हूँ कि आपको ऐसे ज्यादा भिड़ के साथ नहीं जाना। विद्या, प्रज्ञा, करूणा, शील और मैत्री इन पांच तत्वों के अनुसार महाविद्यालय के हरेक छात्र को अपना चरित्र निर्माण करना चाहिए। इस मार्ग से अकेले ही जाना हो तो ऊंचे मनोधैर्य और निष्ठा से जाना चाहिए। ‘महाजनों येन गतःस्तंथः’ इस परप्रत्ययनेय बुद्धि’ का त्यागकर विवेक से, जो मार्ग अच्छा लगे, उसी मार्ग पर जाना चाहिए, आगे बढ़ना चाहिए। साभार - बाबासाहेब डाॅ. आंबेडकर के धम्म प्रवचन संग्रहक - टीपीएसजी Tags : friendship devotion compassion wisdom Knowledge