भगवान बुद्ध या कार्ल मार्कस् TPSG Monday, April 29, 2019, 03:55 PM भगवान बुद्ध या कार्ल मार्कस् (दिनांक 20 नवम्बर 1956, काठमांडू नेपाल में विश्व बौद्ध-भ्रातृत्व सम्मेलन में दिया गया भाषण) दिनांक 20 नवंबर, 1956, काठमांडू नेपाल में विश्व बौध्द - भ्रातृत्व सम्मेलन के समापन के पूर्व बाबासाहेब डाॅ. आम्बेडकर का विशेष व्याख्यान आयोजित किया गया। व्याख्यान का स्थल था, नेपाल के महाराज का दरबार हाॅल। बौध्द धम्म का भारत में हास होने के बाद भी अनेक वर्ष नेपाल में बौध्द धम्म सुदृढ़ रूप में विद्यमान था। किंतु आज वहा मनुप्रणित विषमता पर आधारित हिंदू धर्म का राजधर्म की मान्यता मिली हुई हैं। ऐसे देश के दरबार में बाबासाहेब ने बौध्द धम्म की महत्ता प्रस्तुत की थी जो कि एक क्रांतिकारी घटना हैं। इस व्याख्यान में बाबासाहेब ने बौध्द धम्म की ओर देखने का बिल्कुल ही नया दृष्टिकोण दिग्दर्शित किया है। दिनांक 20 नवंबर, 1956 को विश्व बौध्द सम्मेलन के अंतिम दिन प्रोफेसर डाॅ. जी.पी. मलालशेखर (सिलोन) जो कि परिषद के संस्थापक अध्यक्ष थे ने बाबासाहेब से अनुरोध किय कि वे बौध्द धम्म में अहिंसा का स्थान इस विषय पर अपने विचार रखे। बाबासाहेब ने यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। किंतु सम्मेलन के अधिकतर प्रतिनिधियों ने उनसे भगवान बुध्द या कार्ल माक्र्स विषय पर भाषण देने का आग्रह किया और बाबासाहेब ने भी इस पर स्वीकृती प्रदान की। दोपहर 3 बजे निर्धारित स्थल पर बाबासाहेब सम्मेलन में पहुंचे। विश्व बौध्द परिषद के पूर्व अध्यक्ष और बर्मा के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीस चाॅन टून और उनकी पत्नि बाबासाहेब को सहारा देकर मंच की आरे ले गए। सभी प्रतिनिधियों ने खड़े होकर बाबासाहेब के प्रति आदर सत्कार प्रदान किया। बाबासाहेब अपने स्थान पर आसीन हुये। नेपाल नरेश (राजा महेंद्र वीर विक्रम सहदेव ) भी सिंहासन पर विराजित हुए। उनके पास पूज्य चंद्रमणि महाथेरो, जी.पी. मललशेखर, पूज्य अमृतानंद महाथेरो, और ऊ चाॅन टून स्थानापन हुए। पूज्य भदंत चंद्रमणि जी ने उपस्थितों को त्रिशरण और पंचशील ग्रहण कराने का कार्य किया। बाद में जी.पी. मलालशेखर का स्वागत उदबोधन, जिसमें उन्होंने कहा‘‘ आज इस विश्व बौध्द सम्मेलन में भगवान बुध्द की भारत भूमि से एक महापुरूष यहां आऐ हैं। उनका नाम है, डाॅ. बी.आर.आंबेडकर! (तालियाॅ) उन्होंने) भारत के नागपुर शहर में पांच लाख पददलितों को बौध्द धम्म की दीक्षा देकर महान धम्मक्रांति की हैं। आज इस बौध्द सम्मेलन में उपस्थित विश्व के सभी प्रतिनिधियों की आरे से मैं उनका हार्दिक स्वागत करता हॅू।‘‘ यह कहकर विभिन्न रंगो की पुष्प मालाएं उन्हें पहनाई गई। तत्पश्चात् बाबासाहेब से धम्मगर्भित भाषण देने के लिए विनती की गई। डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर भाषण देने के लिए खड़े हुए। एक बार फिर तालियों से उनका स्वागत हुआ। सौं. सविता आंबेडकर उनके पीछे खड़ी थी। कैमरे से फोटो लिए गए। बाद मेें बाबासाहेब ने गंभीर वाणी से अपना भाषण प्रारंभ किया। उन्होंने स्वास्थय अनुकूल न होने पर भी शेर की तरह गर्जना करते हएु कहा - ‘‘आदरणीय अध्यक्ष महोदय तथा उपस्थित सज्जनो! मुझे खेद है कि मैं इस सभा के निर्धारित कार्यक्रमोें में उस तरह से भाग नहीं ले पाया, जिस तरह किसी प्रतिभागी को लेना चाहिए, लेकिन मुझे विश्वास है कि यहां पधारे आगंतुको को यह मालूम है कि मैं काफी बीमार चल रहा हॅूं। सभा के कार्यक्रमोें की थकान को सहन करने में, मैं असमर्थ हॅूं बल्कि व्यक्तिगत कारणों से ही मैं सभा के कार्याे में शामिल न हो सका। सभा में अपनी अनुपस्थिति की प्रतिपूर्ति में ही संभवतः आज पूर्वांह में आपको संबोधित करने का अवसर दिया गया हैं। मैंने इसकी अनुमति दी थी, पर यहां भी मुझे कुछ आश्चर्यजनक बातों का सामना करना पड़ा। ठीक से मालुम न था कि मुझे यहाॅ बोलना हैं। जब मुझसे पूछा गया कि मैं किस विषय पर बोलूंगा तो मैंने बुध्द धम्म में अहिंसा विषय को चुना, लेकिन मुझे महसूस हो रहा है कि यहाॅ उपस्थित अधिकांश लोग बुध्द धम्म और साम्यवाद विषय पर सुनना चाहते हैं, जैसा कि मैंने प्रथम सामान्य सभा में बोला था। मैं आपकी राय के मुताबिक विषय बदलने के लिऐ तैयार हूॅ, पर मैं यही कहना चाहूंगा कि इतने बड़े और भारी विषय पर बोलने के लिए स्वयं को इस क्षण आहृादित नहीं कर रहा हॅूं। हा ऐसा विषय हैं, जिसने आधी दुनिया को अपनी मुट्ठी में बंद कर रखा है, यहाॅ तक कि बौध्द देशो के छात्र भी उससे प्रभावित हैं। यह दूसरा पक्ष ज्यादा चिंता का विषय हैं। यदि बौध्द देशों की नई पीढ़ी यह नहीं समझ पाई कि साम्यवादी जीवन शैली की तुलना में बौध्द जीवनशैली बेहतर हैं, तो समझ लो कि बौध्द धम्म का भविष्य अंधकारमय हैं। यह एक दो पीढ़ी से आगे नहीं चल पाएगी। इसलिए यह नितांत आवश्यक हैं कि बौध्द जन नई पीढ़ी को बताएं कि बौध्द दर्शन साम्यवाद से बेहतर विकल्प हैं। तभी बौध्द धम्म के जीवित रहने की आशा की जा सकती है। हमें याद रखना होगा कि यूरोपीय देशों के अधिकांश लोेगो और एशिया की नई पीढ़ी द्वारा कार्ल मार्कस् को एक मसीहा के रूप में पूजा जाता है। वे यह भी मानते हैं कि बौध्द भिक्खु संघ अधिकांश रूप में मात्र पीत-रोग ही बनकर रह गया है। भिक्खुओं को यह समझना और इसे चुनौती की तरह स्वीकारना चाहिए। उन्हें अपने अंदर कुछ ऐसे सुधार करने चाहिए जिससे कि वे कार्ल मार्कस् की तुलना में श्रेष्ठ दिखें और साम्यवाद के बेहतर प्रतियोगी सिध्द हो सकें। इस परिचय के बाद मैं आपको बुध्द धम्म और साम्यवाद के प्रमुख बिंदओ के बारे में बताउंगा, ताकि आप समझ सकें कि उनके सिध्दांतो में क्या समानताएं और असमानताएं हैं। इसके अलावा बौध्द जीवन दर्शन ज्यादा स्थायी है या कम्यूनिस्ट जीवन शैली। मैं इस विषय पर भी बात करना चाहूंगा। यदि कोई राह मंजिल तक नही, तो उस पर चलने का कोई फायदा नहीं। यदि कोई रास्ता जंगल में जाता हो, अव्यवस्था में जाता हो, तो उस पर चलने का भी कोई लाभ नहीं। मैं आप लोगों को भरोसा दिलाना चाहता हॅू कि जिस राह पर मैं आपको चलने के लिए कह रहां हूॅ, वह धीमा है, मुश्किलों से भरा हैं और अतिशय धैर्य की परीक्षा लेने वाला है, पर अंत में आप एक सुरक्षित और मजबूत जमीन पर खड़े होते हैं। जो आदर्श आप ग्रहण करने जा रहे हैं। उससे आपके जीवन में एक स्थायी परिवर्तन आ जाएगा। मेरे विचार से धीमी और मुश्किल राह, शार्टकट की दौड़ से बेहतर हैं। शार्टकट हमेशा खतरनाक होता हैं। अब मैं अपने विषय पर आता हॅू। साम्यवाद का सिध्दांत क्या है? यह कहां से शुरू होता है ? कम्यूनिज्म का सिध्दांत इस विचार पर आधारित है कि दुनिया में शोषण है, अमीर गरीबों का शोषण कर लेतें हैं। और वे जन सामान्य को गुलाम बना लेते हैं। यह गुलामी कष्ट दुख और गरीबी का कारण बनती हैं। कार्ल मार्कस् यहीं से अपना सिध्दांत शुरू करते हैं। उन्होंने शोषण शब्द का इस्तेमाल किया है। कार्ल माक्र्स क्या इलाज बताते हैं? कार्ल मार्कस् ने इसका इलाज यह बताया हैं कि गरीबी और कष्ट को दूर करने के लिए आवश्यक है कि निजी संपत्ति कर दी जाए। किसी के पास भी निजी संपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि निजी संपत्ति का मालिक ही श्रमिकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की सरप्लस वैल्यू को मालिक क्यों हड़प लेता हैं। उनका जवाब है कि एकमात्र मालिक राज्य होना चाहिए। इन्हीं कारणो से मार्कस् ने यह सिध्दांत प्रतिपादित किया कि सर्वहारा की तानाशाही होना चाहिए। सरकार शोषित वर्ग की होनी चाहिए, शोषिक वर्ग की नहीं । सर्वहारा की तानाशाही का यही आशय है। रूसी कम्यूनिज्म कार्ल मार्कस् के इसी मूल सिध्दांत पर आधारित हैं। बेशक माक्र्स के सिध्दांतो का विस्तार हुआा है, पर मूल सिध्दांत यही है। अब आइए, देखे कि कार्ल मार्कस् द्वारा उठाए गए मूल्यों पर बुध्द के क्या विचार हैं? कार्ल मार्कस् गरीबों के शोषण से अपना विचार प्रारंभ करते है। बिल्कुल यही प्रश्न 2500 वर्ष बुध्द ने उठाए थे। उन्होंने कहा था‘‘ दुनिया में दुख ही दु.ख हैं। ‘‘उन्होने शोषण शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, पर अपने धम्म की नींव दुख शब्द का इस्तेमाल नही अनेक प्रकार से की गई है। कुछ लोगों ने इसकी व्याख्या जन्म और मरण के चक्र से की हैं। मै इससे सहमत नहीं हॅू। बौध्द साहित्य में अनेक स्थानों पर ‘दुख‘ शब्द गरीबी के आशय में प्रयुक्त हुआ है। इस तरह हम पाते हैं कि जहां तक नींव का प्रश्न हैं, दोनो समान हैं। इसलिए तह तक जाने के लिए बौध्द लोगों को कार्ल मार्कस् तक जाने की कोई आवश्यकता नहीं। इस नींव को बुध्द ने पहले ही काफी मजबूती से डाल रखा हैं। यहीं से उन्होंने अपना प्रथम उपदेश ‘धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त‘ का प्रारंभ किया। जो कार्ल मार्कस् से आकर्षित हुए हैं वे इस ‘सुत्त‘ का पढ़कर देखे कि बुध्द ने क्या कहा? वे संतुष्ट हो जाएगे बुध्द ने अपने धम्म की नींव ईश्वर, आत्मा या किसी दैवीय आधार पर नहीं रखी हैं। उन्होंने अपनी अंगुली जीवन के वास्ततिक तथ्य पर रखी‘ लोग कष्ट में जीवन जी रहे हैं। जो कुछ कम्यूनिज्म में हैं, वह पर्याप्त मात्रा में बौध्द धम्म में (पहले से ही ) बुध्द मार्कस् के पैदा होने के पहले लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही ये बातें कह गए थे। जहां तक संपत्ति का सवाल हैं, आप पाएंगे कि कार्ल मार्कस् और बुध्द के सिध्दांतो में बहुत समानता हैं। कार्ल मार्कस् ने कहा कि शोषण को रोकने के लिए सारी संपत्ति-जमीन, कारखाने आदि का मालिक ‘राज्य‘ हो, ताकि कोई निजी मालिक बीच में आकर मजदूरों के लाभ को हड़प न ले। अब आइए, भिक्खु संघ को देखें कि बुध्द ने बौध्द भिक्खुओं के लिए क्या नियम बनाए हैं ? बुध्द ने कहा कि कोई भी बौध्द भिक्खु निजी संपत्ति नहीं रखेगा और कुछ अपवादों के अलावा यह देखने में भी आता है कि बौध्द भिक्खुओ के पास कोई निजी संपत्ति नही रखेगा और कुछ अपवादों के अलावा यह देखने में आता हैं कि बौध्द भिक्खुओं के पास कोई निजी संपत्ति नहीं हैं। दरअसल संघ के लिए बुध्द के नियम रूस में कम्यूनिज्म के नियमो से ज्यादा कठिन है। यह विषय अब तक मूक रहा हैं किसी ने इसकी चर्चा कभी नहीं की। संघ बनाने के पीछे बुध्द का उद्देश्य क्या था ? यदि हम इतिहास को देखें तो पता चलता हैं कि जिस समय बुध्द अपने धम्म का प्रसार कर रहे थे, उस समय ‘परिव्राजक‘ हुआ करते थें। वे बुध्द से पहले ही थें। ‘परिव्राजक‘ शब्द का आशय है - ऐसा व्यक्ति, जिसका परिवार (घर) छुट गया हो। संभवतः आर्यो के काल में उनके कबीले आपस में लड़ा करते थे। उनमें से कुछ घर - द्वार विहीन होकर इधर -उधर भटकते थे। उन्हें ‘परिव्राजक‘ कहा जाता था। बुध्द ने इन परिव्राजक को संगठित किया और उनके भले के लिए जीवन नियम समझाए। इसका उल्लेख ‘विनयपिटक‘ में हैं। इन नियमों में भिक्खुओ के लिए संपत्ति बनाए रखना वर्जित हैं। भिक्खुओ को केवल 8 चीजें रखने की इजाजत है- एक उस्तरा, पानी के लिए लोटा, भिक्खा पात्र, 3 चीवर और सिलने के लिए सुई -धागा व अन्तर्वास । यदि साम्यवाद में निजी संपत्ति रखने की मनाही हैं तो बौध्द धम्म मेें विनय पिटक के अनुसार यह कठोर निषेध हैं यदि कोई युवा निजी संपत्ति निषेध अनुचित है, बौध्द धम्म आडे़ नहीं आएगा। जो ऐसा करना चाहे, करे। भिक्खु संघ में इसकी छूट का प्रावधान हैं। अब हम विषय के दूसरे पहलू पर आते हैं। वह यह कि कार्ल मार्कस् कम्यूनिज्म को स्थापित करने के लिऐ कौन सा मार्ग ग्रहण करते है? यह महत्वपूर्ण प्रश्न हैं साम्यवाद से मेरा आशय है कि ‘दुख‘ की कैसे पहचान की जाए की गरीबी कैसे दूर की जाए? इस पर साम्यवादी अपने विरोधियों के प्रति हिंसा, हत्या पर उतारू हो जाते हैं। बुध्द और कार्ल मार्कस् में यही मूल अंतर हैं। बुध्द अपने सिध्दांतो के अनुपालन के लिए समझाने - बुझाने, नैतिक शिक्षा और स्नेह का सहारा लेते हैं। वे अपने विरोधियो को प्रेम से जीतते हैं, शक्ति से नहीं। बुध्द कभी भी हिंसा की अनुमति अतिशीघ्र दिखता हैं, क्योंकि जब वे विरोधियों को ही नष्ट कर डालते हैं, तो उनके सामने कोई बाधा नहीं रह जाती। आप अपने सिध्दांत पर चलिए, आप अपने हिसाब से काम करते, यह बुध्द की बताई हुई राह हैं। लंबी और मुश्किल राह हैं, पर मैं निश्चित हॅू कि यह बिलकुल पक्की राह है। दो-तीन प्रश्न मैं अपने कम्यूनिस्टों मित्रों से पूछता रहा हॅू, लेकिन वे कभी भी इसका जवाब नहीं दे पाए। वे स्वयं को हिंसा द्वारा स्थापित करते हैं और उसे सर्वहारा की तानाशाही कहते हैं वे लोगों को अन्य राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर देते हैं। उनका विधायिका में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। लोगों को वोट का अधिकार नहीं रहता। जनता राज्य की द्वितीय श्रेणी की प्रजा बन जाती है। वह सत्ता की भागीदारी नहीं होती, बल्कि शासित होती हैं। जब मैंने कम्यूनिस्ट मित्रों से पूछा कि जनता को शासित करने के लिए क्या तानाशाही उचित तरीका है? वे बोले, ‘‘नहीं, हम तानाशाही पसंद नहीं करते।‘‘ तब मैंने पूछा‘‘ फिर आप इसकी अनुमति कैसे देते हैं? यह अंतरिम व्यवस्था कुछ समय के लिए होगी। वे कहते हैं, ‘‘यह अंतरिम समय कितना लंबा होगा, 20 वर्ष, 40 वर्ष या 40 वर्ष ? कोई जवाब नहीं। वे केवल यही दुहराते रहते है कि सर्वहारा की तानाशाही किसी तरह स्वतः समाप्त हो जाएगी। बहुत खूब! चलो मान लेते हे कि तानाशाही समाप्त हो जाएगी, पर इसके बाद क्या होगा? इसकी जगह कौन लेगा? लोगों को क्या सरकार की जरूरत नहीं पड़ेगी? उनके पास काई उत्तर नहीं। अब हम देखते हैं कि बौध्द धम्म में इसका क्या मतलब है? सबसे बड़ी चीज,जो बुध्द ने दुनिया को बताई कि हम तब तक लोगों में कोई परिवर्तन नहीं ला सकते, जब तक कि हम लोगों कि मानसिकता का परिवर्तित न कर दें। यदि मानसिक परिवर्तन हो गया, यदि कम्युनिस्ट व्यवस्था को लोंगो ने प्रेमपूर्वक और ईमानदारी से अपना लिया, तो यह एक स्थायी चीज होगी, लोगों को सुव्यस्थित रखने के लिए किसी सिपाही या पुलिस की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसका जवाब बुध्द धम्म हैं। बुध्द आपको और आपके चिंतन को ऐसा ऊर्जावान बना देते है कि आप स्वयं अपने प्रहरी बन जाते हैं। जब मन ही बदल जाता हैं, तो सब चीजें स्थायी हो जाती हैं और कोई समस्या नहीं होती। कम्यूस्टि व्यवस्था का आधार बल - प्रयोग हैं। मान लीजिए, कल रूस में तानाशाही खत्म हो जाए, जैसा कि परिलक्षित भी हो रहा हैं, तो क्या होगा? मुझे दिख रहा हैं कि रूस की जनता राज्य -संपत्ति को हथियाने के लिए खून -खराबे पर उतारू हो जाएगी। इसका परिणाम क्या होगा? लोगों ने कम्यूनिस्ट पध्दति स्वेच्छा से नहीं अपनाई हैं। वे आज्ञापालन महज इस भय से कर रहे हैं कि कही फांसी पर न लटका दिए जाए। ऐसी व्यवस्था की कोई जड़े नहीं होंती, जब तक कम्यूनिस्ट लोग इन सवालों का जवाब नहीं देते, उनकी व्यवस्था का क्या होगा? जब बल -प्रयोग बंद हो जाएगा, कोई भी उनके राज पर नही चलेंगा। जब तक मन नही बदल जाता, हमेशा बल -प्रयोग बंद हो जाएगा, कोई भी उनके राज पर नहीं चलेंगा। जब तक मन नही बदल जाता, हमेशा बल-प्रयोग की आवश्यकता रहेगी। बौध्द धम्म में सबसे बड़ी बात यही हैं कि उसकी व्यवस्था लोकतांत्रिक हैं। जब अजातशत्रु के मंत्री बुध्द को यह बताने गए कि अजातशत्रु वज्जियो को जीतना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा, ‘‘जब तक वज्जी अपनी परंपरागत व्यवस्था के अनुयायी बने रहेंगे, राजा उन पर विजय नहीं पा सकेत। बुध्द ने अज्ञात कारणों से अपने आशय की व्याख्या नहीं की, पर इस तकं कोई संदेश नहीं कि उनका संकेत वज्जियों की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की ओर था। उन्होनें कहाँ, जब तक वज्जी अपनी शासन व्यवस्था के अनुगामी बने रहेंगे, वे अविजित बने रहेंगे। बुध्द सबसे बड़े लोकतांत्रिक थे। इसलिए मैं अध्यक्ष महोदय की अनुमति से कहना चाहूंगा कि मैं राजीतिशास्त्र का विद्यार्थी रहा, मैं अर्थशास्त्र का प्रोफेसर रहा और मैंने कार्ल मार्कस् और बौध्द धम्म के अध्ययन में बहुत समय खर्च किया हैं। दोनो पध्दतियों की तुलना करने पर हमें बौध्द पध्दति ज्यादा सुरक्षित मजबूत दिखी। दुनिया की सबसे बड़ी समस्या, दुख और दुख और दुख का निवारण बौध्द धम्म के माध्यम से ही बेहतर ढंग सेे हो सकता हैं। मैं बौध्द देशो की नई पीढ़ी को यह सलाह देना चाहूंगा कि वह बुध्द के वास्तविक उपदेशो की ओर ध्यान दे। मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि यदि बौध्द देशों में धम्म को कोई क्षति पहुंचती हैं, तो इसकी जिम्मेदारी भिक्खुओ को जाती हैं। मेरे विचार से वे अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन नहीं कर रहे हैं। वे कहां उपदेश देते है? भिक्खु अपने खोल में बंद रहते हैं। एक समय भोजन करते हैं, फिर चुपचान बैठे रहते हैं। संभवतः पढ़ रहे होते हैं या फिर सो रहे होते हैं शाम को थोड़ा संगीत सुन लेते हैं। इस तरह धम्म का प्रसार नहीं होता। मित्रो! मैं किसी की आलोचना नहीं करना चाहता, पर यदि समाज के पुर्ननिर्माण के लिए नैतिक बल चाहिए तो आपको लोगों के कान में अपनी बात लगातार डालनी पड़ेगी कोई छात्र स्कूल में कितने दिन गुजारता है ? ऐसा तो है नहीं कि बच्चे को एक दिन के लिए स्कूल भेजा जाए और वह सब कुछ सीखकर चला आए। उसे रोज स्कूल जाना और 4- 5 घंटे नियमित बैठना होता हैं। केवल तभी वह ज्ञान और शिल्प से पूर्ण हो पाता हैं यहाँ तो बौध्द विहारों में कोई शिक्षा नहीं दी जाती। भिक्खु लोगों को न तो विहारों में बुलाते है, न ही उन्हे उपदेशित करते हैं और न ही उन्हें कोई नैतिक शिक्षा देते हैं। जब मैं श्रीलंका गया था, मैंने लोगों से कहा कि मैं यह देखना चाहता हूं कि उनके पास ‘बाना‘ (उनका आशय वानक से था) उपलब्ध है 11 बजे वे मुझे एक जगह ले गए। एक भिक्खु वहां आया और अनेक स्त्री -पुरूषो ने उसके पैर पानी से धोए। वे एक छोटे चैकोर आसन पर बैठ गए। न जाने, उन्होंने क्या कहा और फिर 2 मिनट में ही चल गए। आप ईसाइयों के चर्च में जाइए। वहां क्या होता हैं? हर सप्ताह वहां लोग इकट्ठा होते हैं। वे प्रार्थना करते हैं, फिर पादरी उन्हें ‘बाइबिल‘ के उपदेश देता हैं। वह उन्हें याद दिलाता हैं कि जीसस ने उन्हें क्या संदेश दिया हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ‘बाइबिल‘ की 90 प्रतिशत से अधिक शिक्षाएं बौध्द धम्म से नकल की गई हैं। रोम के मुख्य चर्च को देखने से हमें बेरूत के ‘विश्वकर्मा मंदिर‘ की याद आती हैं। विशाबिन्ते, जिसने बौध्द धम्म पर पुस्तक लिखी हैं, चीन में धर्म प्रचारक था। उसने आश्चर्य व्यक्त किया है कि बौध्द और ईसाईयत में इतनी समानता कैसे हैं? वह यह तो नहीं कह पाया कि बौध्द ने ईसाईयत की नकल की हैं और न ही यह कि ईसाइयों ने बुध्द धम्म की नकल की है। इस समय तो बौध्द धम्म के प्रसाार के लिए ईसाईयत से कुछ नकल कर लेना चाहिए। लोगो को हर दिन, हर क्षण जागरूक रखना होगा कि बुध्द धम्म एक सुरक्षा प्रहरी की तरह खड़ा है जो उन्हें गलत राह पर जाने नहीं देगा। बिना यह सब किए संभवतः धम्म की क्षति को रोका नहीं जा सकता। मुझे लगता हैं कि बौध्द देशों में इस धर्म का काफी क्षय हुआ हैं, पर इसका प्रभाव व्यापक हैं, इसमें कोई संदेह नही। मैं आपको एक बहुत रूचिकर घटना बताऊंगा। मैं एक सम्मेलन में शामिल होने के लिए बर्मा गया हुआ था। वहां लोग हमें एक गांव दिखाने ले गए, जिसका वे पुननिर्माण कर रहे थे। मैं समिती के साथ वहां गया। वहां गलियां टेढ़ी -मेढ़ी और टूटी -फूटी थीं। समिति ने उन्हें सीधा करने के लिए लौह-खंभो में रस्सियां बाध रखी थीं। मैंने उन लोगो से पूछा, ‘‘आप यह कैसे कर पाएंगे ? जो जमीन आप ले रहे है, क्या उसकी प्रतिपूर्ति (मुआवजे) के लिए आपके पास पर्याप्त धन हैं‘‘ वे लोग बोले, ‘‘किसी को पैसा नहीं चाहिए। लोग कहते हैं कि जो जमीन चाहिए हो, ले लो।‘‘ हमारे देश में बिना प्रतिपूर्ति के यदि कोई-थोड़ी सी जमीन ले ले, तो रक्तपात हो जाएगा, पर वहां ऐसा नहीं था। बर्मा के लोग अपनी संपत्ति के बारे में इतने तटस्थ क्यों हैं? ये उसकी जरा भी परवाह नहीं करते। ऐसा इसलिए है कि उन लोगों पर बौध्द शिक्षाओं का असर हैं। बुध्द ने कहा था ‘अनिच्चा वत संखारा‘। इसका आशय है कि कुछ भी आपको दिखाई देता है, वह सब अनित्य हैं। अनित्य के लिए क्या लड़ना ? जितनी जमीन चाहिए हो, ले लो! देवियो और सज्जनो! अब मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। इसे जारी रखने की अब कोई आवश्यकता नहीं। मैंने आपके सामने अपने विचार रखें कम्यूनिस्टों की सफलता के आकर्षण में न पड़े। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि हम लोगों में बुध्द का दसवां हिस्सा भी स्वतः जाग्रत हो जाए, तो वही परिवर्तन हम प्रेम, न्याय और भाईचारे के साथ ला सकते हैं। आप सबका बहुत - बहुत धन्यवाद! बाबा साहेब के इस भाषण में व्यक्त किए विचार सुनकर सम्मेलन में सम्मिलित प्रतिनिधि प्रसन्न हुए। उन्हें आभास हुआ कि बुध्द धम्म का एक नया दर्शन प्राप्त हो गया हैं। बुध्द के चार आर्य सत्यों में एक आर्य सत्य हैं दुख! इसका मार्कस् के आर्थिक शोषण से उन्होंने साम्य बताया तथा बौध्द धम्म को प्रेरक और जीवंत सामाजिक शक्ति के रूप में निरूपित कर नया दृष्टिकोण और नया आयाम दिया तथा इस विवेचन को बुध्द वचनों से प्रमाणित किया, ऐसे मत कुछ विद्वान भिक्खुओं ने बाबासाहेब के समक्ष व्यक्त किए थे। साभार - बाबासाहेब डाॅ. आंबेडकर के धम्म प्रवचन संग्रहक - टीपीएसजी Tags : organized Babasaheb November Nepal Kathmandu Conference Fraternity Buddhist World