मानव विवेक बुद्धि को बुद्ध ने ही आह्वान किया है TPSG Saturday, April 27, 2019, 02:41 PM मानव विवेक बुद्धि को बुद्ध ने ही आह्वान किया है (दिनांक 6 मई, 1955, सोपारा, थाना, महाराष्ट्र) वैशाख पूर्णिमा को भगवान बुद्ध का जन्म, बुद्धत्व-प्राप्ति एवं महापरिनिर्माण, यह तीनों महत्वपूर्ण घटनाएं हुई। इसलिए यह दिवस विशेष रूप से मनाया जाता है। 6 मई, 1955 के दिन वैशाख पूर्णिमा थी। सोपारा में भगवान बुद्ध के अवशेष प्राप्त हुए थे, ऐसे स्थान पर बुद्ध जयंती मनाने के लिए बाबासाहेब डाॅ. आंबेडकर का आगमन हुआ। सोपारा एक प्राचीन स्थान है। प्राचीन काल में भारत के पश्चिम किनारे पर एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था। अरब देश से आने वाले यात्रियों द्वारा हजारों वर्ष पहले लिखे गए यात्रा वर्णन में ‘सोपारक’ को ‘कुबरे नगरी’ कहा गया है। शोधकर्ताओं को सोपारक के पास सम्राट अशोक के शिलालेख प्राप्त हुए है। सोपारक के कारण ही बोरीवली (मुंबई) के कान्हेरी में गुफाओं में बुद्ध विहार निर्माण किए गए थे। उल्खनन में वहां भगवान बुद्ध का दांत प्राप्त हुआ था। ऐसे पवित्र स्थान पर बुद्ध जयंती मनाने के लिए कुछ अनुयायियों के साथ बाबासाहेब डाॅ. आंबेडकर का आगमन हुआ। वहां आम्रवृक्ष के नीचे चबूतरे पर एक सासन (कुर्सी) रखकर वे बैठ गए। वहां उन्होंने बुद्ध धम्म पर सारगर्भित प्रवचन दिया। उन्होंने कहा-‘‘आज मैं आपको भगवान के धम्म का सार संक्षेप में निरूपित करूंगा। बुद्ध धम्म के अलावा जो अन्य धर्म हैं, उनकी नींव देवता एवं आत्मा जैसे द्वंद्वों पर आधारित है। भक्ति से कथित पुण्यकार्य क कारण जीव-शीव का मिलन होता है, आत्मा का ईश्वर में विलय हो जाता है, ऐसी कल्पना-कथा देव और आत्मा का विचार रखने वाले बताते हैं। कच्ची नींव पर आधारित देव और आत्मा की यह खोखली इमारत खड़ी है। आपको भक्ति के प्रकार तो मालूम ही हैं। पूजा-अर्चना, धूप-दीप, मंत्र-तंत्र, जप-तप, कर्म-कांड आदि मार्ग से ईश्वर भक्ति की जाती है। इसके अलावा जीव हिंसा, नरबलि आदि अघोरी क्रियाएं भी की जाती हैं। भूत-डाकन को प्रसन्न करने के लिए भी बेवकूफी भरी क्रियाएं (तंत्र-मंत्र) भी यहां की जाती हैं। इन सबके मूल में एक ही कल्पना है। जीव पापी है, इसलिए जन्म ले रहा है। इस पाप को धोने के लिए जीव के द्वारा देह को कष्ट देकर तप-त्याग करने से ईश्वर का दर्शन होता है। इस तरह से जन्म का सार्थक होकर जन्म-मृत्यु के फेरे से मुक्ति मिल जाती है। इसी तरह की झूठी-भ्रम पैदा करने वाली कल्पना आत्मा और परमात्मा का संबंध प्रस्थापित करने के लिए फैलाई गई है। और उसका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए बौद्ध धम्म में ईश्वर का स्थान नहीं है। बल्कि ईश्वर को जड़ से नकार दिया गया है। बौद्ध धम्म के अलावा, विश्व के अन्य किसी भी धर्म को लीजिए। प्रत्येक धर्मानुयायी कहेंगे कि धर्म और उनके प्रमाण गं्रथ तो भगवान ने ही बताया है। जिनके माध्यम से ईश्वर ने धर्म बताया, वे धर्म प्रवर्तक ईश्वर के प्रेषित या दूत कहलाते हैं। ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह यहूदी धर्म के प्रणेता मोझेस, इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मोहम्मद पैगंबर, ये सभी ईश्वर द्वारा प्रेषित अर्थात ईश्वर का संदेश मानव को देने वाले दूत हैं, ऐसा बताया हैं। पैगंबर की भूमिका ईश्वर-मानव संबंधों में एक पोस्टमैने से ज्यादा कुछ नहीं है। यद्यपि द्वारा व्यक्त किए गए विचार, उसके मुख से निकले शब्द और वचन संशय से परे माने गए हैं। इस तरह से पैगंबर द्वारा बताए गए ईश्वर के संदेशों-वचनों की समीक्षा करने का मार्ग ही बंद कर दिया गया है। जिज्ञासा पूर्ति या सत्य-असत्य खोज कर उन वचनों का कसौटी पर कसने के साध नही समाप्त कर दिए गए हैं। भगवान (बुद्ध) ने, ‘मैं धम्म बता रहा हॅू, इसलिए इसको स्वीकार करो, ऐसा कभी नहीं कहा। बल्कि आपके विवके को स्वीकार हो तो ही मानों, ऐसा कहकर हमारे विवके बुद्धि का आहृान किया है। बौद्ध धम्म विवेचना (ब्तपजपबंस ैजनकल) करने के बाद बताया गया धम्म है। रोग के निदान के बाद इलाज स्वरूप दी गई औषध (दवाई) है। भगवान ने सर्वप्रथम मानव जाति के रोग का निदान किया। संसार मंे दुख, गरीबी बड़ी भयानक बीमारी है, यह चिकित्सा के बाद बताया गया उपचार है। इसे बौद्ध धम्म का अधिष्ठान कहा जाता है। अब प्रश्न यह है कि दुख और गरीबी रोग किस धर्म से समाप्त हो सकते हैं? जो धर्म यह दुख और गरीबी समाप्त करने का प्रभावकारी, परिणामकारी मार्ग दिखा नहीं सकता, वह धम्म कहलाने के योग्य ही नहीं है, कयोंकि धम्य ही समाज की धारणा के लिए है। अन्य धर्मो के सिद्धांतो में मृत्यु के पश्चात् क्या होगा, यही विचार किया जाता है। वे इसी बात का चिंतन करने लगे कि मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग मिलेगा या नरक। यह एक डर मनुष्य के मन में पैदा कर दिया गया, सिंदबाद पीठ पर बैठे हुए बूढ़े के समान! बिना काम किए, बड़े तोंद वाले, धूर्त लोगों के लिए धर्म एक चरागाह बन गया। मृत्यु के बाद बहुत बुरा हाल होगा, ऐसा काल्पनिक चित्र दिखाकर मन में भय पैदा करके लोगों को ठगना, मेरे वंश को भी धन कमाने का अवसर मिलना चाहिए, चैन की जिंदगी बिताने को झूठी दिलासा देना धूर्त लोगों को धंधा बन गया। मृत्यु के पश्चात् जो होना है, वह होगा किंतु जीवित अवस्था में व्यक्ति कष्ट भोग रहा है, उसे सुखकर बनाने के प्रश्नों पर और मृत्युपरांत काल्पनिक प्रश्नों पर विचार करने से क्या लाभ प्राप्त हो सकता है? इस दृष्टि से देखा जाए, तो अकेले भगवान बुद्ध ही वास्तववादी (यथार्थवादी) थे। उन्होंने दुखों के कारण ढूंढ कर निकाले, यह कारण तीन प्रकार के हैं- आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। आध्यात्मिक यानी व्यक्तिगत। व्यक्ति द्वारा स्वयं के आचरण से उत्पन्न दुख। अपने कर्मो से उत्पन्न दुख। शराबी शराब पीकर अपने परिवार को बर्बाद कर देता है। अपने स्वयं के जीवन को समाप्त कर देता है। इसे कहते हैं आध्यात्मिक दुख। आधिभौतिक यानी सामुदायिक दुख विषय व्यवहार और अन्याय से आने वाले संकट। जैसे-अस्पृश्यों को सामुदायिक दुख प्राप्त होते हैं। उन्हें समान अवसर नहीं दिया जाता है, तो दुख होता है। आधिदैविक यानी प्राकृतिक। रेलवे, विमान, जहाज, मोटर की दुर्घटना से, भूकंप, तूफान बाढ़ से होने वाली हानि से होने वाला दुख। व्यक्तिगत आचरण से होने वाले दुखों को समाप्त करने के लिए पंचशील को साधन बताया गया है। प्राणी हिंसा नहीं करना, चोरी नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, व्यभिचार नहीं करना, मद्य या नशीली वस्तुओं का सेवन नहीं करना। इन पांच नियमों का पालन करने से दुख उत्पन्न नहीं होगा। आधिभौतिक दुख समाप्त करने के लिए श्रेष्ठ आष्टांगिक मार्ग का पालन करना चाहिए-1. सम्यक दृष्टि, 2. सम्यक संकल्प, 3. सम्यक वाचा (चुगली नहीं करना), 4. सम्यक कर्म, 5. सम्यक आजीव (बुरे मार्ग से धन नहीं कमाना), 6. सम्यक व्यायाम (सुविचार मन में लाना, बुरे विचारों का त्याग करना), 7. सम्यक स्मृति (देह मे सुख-दुख की वेदना का बार-बार अवलोकन करना), 8. सम्यक समाधि (किसी भी दुष्ट प्रवृत्ति से मन को अलग रखना, चित्त को प्रसन्न, शांत रखना)। इसमें सम्यक दृष्टि को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हम जो भी कार्य कर रहे हैं, उसका स्वयं को लाभ हो रहा है या नहीं, यह देखने के बजाय मेरा हित होने के समय दूसरांे को हानि या नुकसान तो नहीं हो रहा है, यह देखना। ऐसा करने से संसार के आधिभौतिक दुख समाप्त हो जाएंगे। इसके साथ दस पारमिताएं भी बताई गई हैं। पारमिता यानी हम जितना पूर्ण कर सकते हैं, उतना! इस पारमिता में प्रज्ञा श्रेष्ठ है। हरेक पारमिता को प्रज्ञा की कसौटी पर करकर देखना पड़ता है। प्रज्ञा जिसे अंग्रेजी में ॅपेकवउ कहते हैं, इस प्रज्ञा का उपयोग नहीं करने से मनुष्य मूर्ख जैसा बर्ताव करता है। मैं इसका एक उदाहरण आप को बताता हॅू। एक छोटे से गांव में एक पादरी रहता था। उसे इतना ही ज्ञान था कि संकट आने पर घुटने टेक कर प्रार्थना करनी चाहिए (बाईबल का संदेश/वचन)। एक बार उस गांव की झोपड़ियों में आग लग गई। पादरी वहां जा पहुंचा। सब लोगों को इकठ्ठा किया और प्रार्थना करने लगा। इतनी देर में सब झोपड़ियां जलकर राख हो गई। उसने प्रज्ञा का उपयोग किया होता, तो आग बुझाने के लिए बाल्टी लाकर पानी डाल देता। सभी को प्रार्थना में सम्मिलित न कर आग बुझाने का काम करता, तो काफी झोपड़ियां आग में जलने से बच जातीं। शील और नैष्कर्म का भी परस्पर संबंध हैं। संकट में फंसे लोगों को बचाने का कार्य ‘दान’ कहलाता है। जनकल्याण के कार्यो को उत्साह और पत्परता से करने को ‘वीर्य’ कहते है। क्रोध अपने आप आता है किंतु ‘क्षमा’ का गुण प्रयासों के बाद प्राप्त होता है। ‘सत्य’ नहीं होने से लाचारी और चाटूकारिता वृत्ति पैदा होती है। अधिष्ठान का अर्थ हैं, दृढ़निश्चय! वह छोटे और बड़े कामों में भी होना चाहिए। सब पर प्रेम करने को ‘मैत्री’ कहते हैं, शुभ कार्य में रूकावट नहीं डालने को ‘उपेक्षा’ कहते है। पंचशील, आर्य आष्टांगिक मार्ग और इन दस पारमिताओं से दुख निरोध, दुख नाश हो सकता है। संसार में दुख निवारण होना चाहिए यही बुद्ध धम्म का सार है। हम भारतीय अपने दर्शन पर बहुत ही गर्व करते हंै। किंतु विगत हजारों वर्षो में एक भी तत्वज्ञ या दार्शनिक पैदा नहीं हुआ। तात्विक विचार-सोच समझकर किसी सिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए जो मनोभूमिका विद्धानों में चाहिए, वह नहीं है, इसलिएविद्धान विचार-विनिमय और आदान-प्रदान नहीं कर पाते। इसलिए विद्धानों की बुद्धि छोटी-छोटी कोठरियों (ब्वउचंतजउमदज) में बंद होकर उनकी मति कुंठित हो गई है। इसके कारण सत्यशोधन और सत्यग्रहण करने के कार्य नहीं हो सके और पंडितों के स्थान पर किताब पढ़ाकू वर्ग उत्पन्न हो गया है। ‘ज्ञान की कुंजी। एक ही बात बताऊंगा यह कल्पना समाप्त हो गई है। ढेर सारे ग्रंथ पढ़ने से क्या लाभ? गधे की पीठ पर ग्रंथ रखने से गधे को जितना लाभ मिल सकता है, उतना ऐसे गं्रथ पढ़ने से मिल सकेगा। गं्रथ पढ़ने के बाद उसका सार ग्रहण करने की शक्ति चाहिए। नए-नए विचार (मूल्यांकन) आने चाहिए। सिद्धांतों पर अमल करना आना चाहिए। आज कोई भी विषय या शास्त्र लीजिए-साहित्य, दर्शन, अर्थशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, विज्ञानशास्त्र, राजनीति, युद्धनीति आदि ज्ञान की शाखा लीजिए जो भारतीय है, वह पूर्ण नहीं है, वैसे कभी ज्ञान पूर्ण नही हो सकता। आज हमेें लगता है कि आज का ज्ञानशास्त्र हमारे लिए पूर्ण है। वह भविष्य मेें अपूर्ण ही कहलाएगा। क्योंकि दिन-ब-दिन इसमें वृद्धि होती जाती है। मेरे कथन का आशय यह है कि इस देश के विद्धानों ने नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, उज्जयनी, अवन्ती जैसे विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में उस जमाने के आचार्यों ने जो ज्ञानसंचय किया है, उसमें सैंकड़ों वर्ष से अकिंचित वृद्धि नहीं हुई बल्कि जो हमें ज्ञान है, उसे अन्यों को देना है। इस कथन के विरूद्व जाने से मूलतः ज्ञान का लोप हो चुका है। गुरू ने शिष्य को ज्ञान दिया, किंतु महत्वपूर्ण बातें गुप्त रखी। गुरू को सौ उपचार मालूम थे लेकिन निन्यानवे बातें बताई और एक गुरू कुंजी (मुख्य चाभी) अपने पास रखी। ऐसी प्रथा के कारण ज्ञान का हृास हुआ और उसका विकृत रूप शेष रह गया है। मनुष्य को निर्माण पद प्राप्त करना आना चाहिए। धम्मपद में ‘निब्बान परम सुख’ कहा गया है। अत्यधिक धन होने से सुख नहीं मिलता। केवल पांडित्य होने से सुख नही मिलता। वह दुखी नहीं किंतु असुखी होता है क्योंकि अतिलोभ, खून, चोरी, परनारीगमन आदि विकार जन्म से ही जाते हैं, उन विकारों पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है। भगवान कहते है कि मानव एक ज्वलंत अग्नि के समान है। इस आग में विकारों को पानी के समान उबाल आता है। आग जलाई जाती है तथा बुझाई भी जाती है। विकार समाप्त किए जा सकते हैं किंतु मूल से नष्ट नहीं किए जा सकते। आग का सदुपयोग करना है तो कम आंच पर खाना पकाया जा सकता है। वैसे ही मानव का उपयोग समाज के लिए होना चाहिए, इसके लिए जो माध्यम मार्ग है वह निर्माण है। इसलिए दस विकारों के आधीन मानव नहीं जाता और तर्कबुद्धि विचार रखकर समाज के लिए उपयुक्त कार्य कर सकता है। जिन्होंने धम्म-तत्व पर चर्चा की थी उन्होंने इस चर्चा को इतना गुप्त रखा कि भगवान को बताना पड़ा। नारी, झूठे धम्म-सिद्धांत और भरट भिक्खुओं की पोथियां, ये तीनों ही गुप्तता रखते हैं। फिर भी, श्रुतिविभिन्तः स्मृतिविभिन्ताः धर्मस्व तत्वं नि हितं गुहायां महाजनो येन गतस्य पंथः ‘पीछे से आई आगे चलाई’ ऐसी स्थिति अब धर्म सिद्धांतों की हो गई है। श्रुति कुछ और कहती है, स्मृति कुछ और उपदेश करती है। धम्म सिद्धांत तो बहुत गहन और गूढ़ है। फिर हमें क्या करना चाहिए, चार वरिष्ठ जन जिस मार्ग को अपनाते हैं, उसी पंथ को स्वीकार करों, भगवान ने कहा है कि मैं कहता हॅू, इसलिए नहीं बल्कि तुम्हारी बुद्धि को, विवके को मान्य हो तो ही यह धम्म मार्ग अपनाओं। एक ओर अंधों की भंाति चार लोगों के मार्ग से चलो ऐसा आदेश है और दूसरी ओर बुद्धि को चुनौती है। कितना बड़ा अंतर है, दोनों विचारप्रणालियों में। किसी ने प्रश्न पूछ लिया तो जेष्ठ ऋषियों ने कानों पर हाथ रख लिए। याज्ञवल्क्य ऋषि से पूछा गया कि आप कहते है, बताओं तो सही कि आत्मा है वह आत्मा कहां है? उन्होंने उत्तर दिया, नेति.....नेति’। आत्मा का मृत्यु के उपरांत क्या होता है? फिर उत्तर मिला-नेति....नेति। यानी मुझे मालूम नहीं। ये मालूम नहीं, कोई बात नहीं। चलो! आत्मा कितनी बड़ी है? क्या आत्मा खजूर के पेड़ जितनी बड़ी है? फिर उत्तर मिला, नेति....नेति! यानी नहीं मालूम। आत्मा का स्थान कौन-सा है? उसका आकार क्या है? फिर आत्मा का क्या होता है? इन पर भी कोई उत्तर नहीं। आत्मा का व्यर्थ ही प्रचार किया गया है। काल्पनिक वस्तु के अस्तित्व का कितनी मजबूती से प्रचार किया गया। प्रियतमा का नाम मालूम नहीं, गांव मालूम नहीं, रंग-रूप, उम्र का पता नहीं लेकिन उससे मैं प्रेेम करता हॅू, ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करने वाले पागल प्रेमी व्यक्ति की तरह आत्मा के अस्तित्व को मानने वालों की स्थिति है। सही मायने में, आत्मा है ही नहीं, यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा है, जो लोग ऐसा कहते हैं, वे इसे सिद्ध करें। ये उनका उत्तरदायित्व है। आत्मा नहीं है, यह सत्य है। आत्मा है, यह भ्रम उत्पन्न करने वाला प्रचार है। आत्मा है, यह सिद्ध करने के लिए पुनर्जन्म की बातें बताई जाती है। शरीर नाशवान है।एक देह से आत्मा दूसरे देह मेें प्रवेश करती है, यह झूठी कहानियां बताई जाती हैं। यदि पोस्टमार्टम में पूरे शरीर का एक-एक अंग दिखाई देता है, तो फिर आत्मा क्यों नहीं निकालकर दिखाई जाती? अच्छे-अच्छे कुशल सर्जन हैं? उनसे जाकर पूछो? आत्मा कहां है? निकालकर दिखाओ देह से। बुद्ध दर्शन में पुनर्जन्म को मान्यता प्राप्त है, ऐसा कोई भी कह सकता है। लेकिन उस सिद्धांत का आत्मा से कोई संबंध नही है। बौद्ध पुनर्जन्म सिद्धांत यानी पुनर्निमित। प्रकृति की पुनरावृत्ति। पिता के रूप-आकार के समान पुत्र पैदा होता है लेकिन वह पूर्ण पिता नहीं है। इसे बौद्ध दर्शन में पिता पुत्र के रूप में पैदा होता है, ऐसा कहा गया है। किंतु पिता के सभी गुण पुत्र में नहीं पाए जाते क्योंकि उसमें कुछ गुण माता के भी आ जाते हैं। एक आम से दूसरा आम पैदा होता है। इसी तरह से विश्व में पैदाइश होती है, इसे पुनर्निर्मित कहते हैं। किंतु जमीन, पानी, वायु, खाद परिणामस्वरूप मूल आम के पेड़ को जैसे मीठा फल लगेगा, वैसा ही दूसरे आम के वृक्ष को लगेगा, ऐसा नहीं है। शायद अच्छा परिणाम हो तो अच्छा फल मिलेगा। बुरा हो, तो बुरा फल मिलेगा। शुद्ध बीज से फल भी मीठे होते हैं। इसीलिए एक प्रांत में फल-फूल, वृक्ष पनपते हैं किंतु अन्य स्थान पर मुरझा जाते हैं। जैसे चाय-काफी आसाम, नीलगिरी में होती है। समुद्र के किनारे पर नारियल होते है। मध्यप्रदेश, नागपुर में ही संतरे होते हैं। मसाले के लिए ‘जावा’ द्वीप प्रसिद्ध है। ‘हापूस आम’ रत्नागिरी में पैदा होता है जिसमें स्वाद, रस होता है। ऐसे पुननिर्मित कार्य को पुनर्जन्म कहा गया है। किंतु पुनर्जन्म शब्द के आधार पर आत्मा शब्द बौद्ध दर्शन में मान्य है, ऐसा दुष्प्रचार किया जा रहा है। यह गलत है। ‘कर्म’ शब्द का अर्थ भी ब्राह्मण धर्म और बौद्ध धम्म में अलग-अलग है। कर्म बहुत ही महत्वपूर्ण बात है। इस संसार का व्यवहार कैसे चल रहा है? ब्राह्मण गं्रथ कहते है कि संसार को चलाने वाला नियंता है। इसे ब्रह्मा कहते हैं। अन्य धर्म भी ईश्वर, अल्ला, गाॅड का नाम देकर इस कल्पना की पुष्टि करते हैं। बौद्ध धम्म में ईश्वर नहीं है। बौद्ध धम्मी के अनुसार संसार के व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के कर्म के अनुसार होते है। इसलिए बौद्ध धम्म ने मनुष्य पर ही जबावदारी सौंप दी गई है। जैसा कर्म करोगे, वैसा ही फल भोगना पड़ेगा, ऐसा कहा गया है। इसे कर्म विपाक कहते हैं। कर्म विपाक यानी हमारे कर्मो से, क्रियाओं से मिलने वाला फल। कर्म यानी पूर्वसंचित। पूर्वजन्म में किया गया पाप-पुण्य का संचय, ऐसा बुद्ध दर्शन में अर्थ नहीं है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल तुरंत नहीं मिलता। उस क्रिया का, कर्म का परिणाम काफी दिनों के बाद मिलता है किंतु जन्म-जन्मांतर से नहीं, क्योंकि पुनर्जन्म नहीं है। इस कारण बौद्ध धम्म ने मानव को उसके सदगुणों में वृद्धि करने का अवसर प्रदान किया है। मानव को स्वयं की प्रगति के लिए, उन्नति के लिए प्रयासरत होना पड़ेगा, ऐसा आदेश दिया गया है। ‘मेरे भाग्य में यह लिखा गया है।’ यह विधि लिखित है। ब्रह्म की लकीर है, ऐसा कहकर निराश, हताश न होकर स्वयं के उद्धार का राजमार्ग दिखाया गया है। भाग्य मनुष्य को निष्क्रिय करने और धीरज को कम करने वाला बहाना है। पूर्व जन्म की कल्पना से पापकर्म करने वालों को प्रोत्साहन मिलता है। पिछले जन्म में बहुत पुण्य कमाया, अब पाप करने मेें कौन सी बाधा है, ऐसा विचार सुखी व्यक्ति करता है। किंतु ऐसा व्यक्ति मानव जाति को हानि पहुंचाता है। पतित दो प्रकार के होते हैं। एक पतित वह है जिसे इस बात का अहसास है कि वह पतित है। उसका मन कुंठाग्रस्त रहता है। दूसरा पतित वह है जो पापकर्म को बुरा नहीं मानता, जैसे कोई मार खाकर भी मुस्तंड रहता है। जिस पतित को अपनी स्थिति का अहसास रहता है, चुभन होती है वह अपनी पतित अवस्था से उभरकर ऊपर आने का प्रयास करता है। इस चेतना से वह स्वयं का उद्धार कर सकता है। किंतु दूसरे प्रकार का प्रतित स्वयं को सुधार नहीं सकता क्योंकि उसकी मानसिक स्थिति वैसी ही हो जाती है। इस तरह से अपने अधःपतन का दर्द व्यक्त करने वालों को मार्ग दिखाने का कार्य करन के लिए समाजसेवियां की आवश्यकता होती है। गरीब समाज को उसके परिश्रम का मानदेय नहीं दे सकते, पर उनकी रोजी-रोटी का प्रबंध तो कर सकते हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं को स्वार्थी (बिना कुछ कमाए, खाने वाले) नहीं कह सकते, क्योंकि एक समाजसेवी हजारों आकर्षण छोड़कर ही समाजसेवा करता है। बौद्ध भिक्खुओं का संगठन (संघ) भगवान ने इसीलिए बनाया है। यह कठिन कार्य है। इसे स्वीकार कर भगवान बुद्ध द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने से ही विश्व का कल्याण होगा। मानव का हित होगा।’’ साभार - बाबासाहेब डाॅ. आंबेडकर के धम्म प्रवचन संग्रहक - टीपीएसजी Tags : country travelers India times place Sopara