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बुध्द धर्म हिन्दू धर्म

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Tuesday, April 30, 2019, 08:18 AM
Alag Dharm

बुध्द धर्म हिन्दू धर्म की शाखा है - यह दुष्प्रचार हैं
(दिनांक 25 नवम्बर 1956, को प्रातः बजे बाबासाहेब डाॅ. आम्बेडकर ने काशी विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का उद्घाटन किया)
इस अवसर पर बाबासाहेब डाॅ.आम्बेडकर ने कहा - ‘‘बौध्द धम्म के उद्गम के बारे में अभी सही संज्ञान नहीं लिया गया। प्राचीन भारत के इतिहास का तटस्थ रूप से अध्ययन करने वाले अध्येता को बुध्द पूर्व काल में दो संघर्ष दिखाई देते हैं। प्रथम संघर्ष आर्य और नागा लोगों के मध्य हुआ। दूसरा ब्राहम्ण और क्षत्रियों में।
वर्तमान में हिंदू माने गए काफी लोग नागवंशी थें। इन नामों ने आर्य पूर्व भारत में बसाहट की थी। वे आर्यो से ज्यादा सुसंस्कृत थे। आर्यो ने उन पर विजय प्राप्त की थी। इस कारण नाग संस्कृति श्रेष्ठ थी, ऐसा नहीं कह सकते। आर्यो की जीत का करण था उनके वाहन। आर्य घोड़े पर सवार होकर  युध्द करते थे और नाग पैदल। आर्य-नागों में घनघोर युध्द हुआ। महाभारत के खांडव वन और सर्पसूक्त में वर्णित कपोल कल्पना को त्याग कर, बाकी वर्णन आर्य-नाग युध्द के समान है, ऐसा दिखाई देता हैं। आर्यो ने खांडव वन जैस कृत्य कर वनों को आग लगाई और नागों को विनाश से बचने के लिए कोई विकल्प नहीं रहा। इस विध्वंश से एक नाग बचाया गया अगस्त मुनि द्वारा। इस कहानी में अतिश्योक्ति है, फिर भी आर्याे ने नागों की बसाहट(आबादी)को संपूर्ण नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पराजय का प्रण लेने वाल तक्षक कोई नाग नहीं था बल्कि नागवंशीय नेता था। नागो के विषय में आर्यो के प्रति द्वेष भावना उतपन्न हुई। परिक्षित का प्रण देने वाला तक्षक कोई नाग नहीं था बल्कि नागवंशीय नेता था। नागों के विषय में आर्यो के मन में जो द्वेष था उसका एक उदाहरण कर्ण और अनंत का संवाद है। कर्णाजुर्न युध्द के पूर्व अनंत नामक नागवंशी योध्दा ने कर्ण से मिलकर अर्जुन के विरूध्द मदद कने का आश्वासन दिया। कर्ण ने यह सहायता लेने से इंकार कर दिया क्योंकि कर्ण आर्य था और अनंत नाग था। आर्याे द्वारा आपसी युध्द में नागों से सहायता लेना निषिध्द माना गया था।
बौध्द पूर्व काल में दूसरा संघर्ष है- ब्राहम्ण -क्षत्रियों में। इस संघर्ष की कथाएं पूराणों में है। वे तथा मनु ने अपने ‘ स्मृति ‘ में ब्राहम्णो को क्षत्रियों ने आदर -सम्मान देना चाहिए क्योकि पूर्व मे भी ब्राहम्ण-क्षत्रियों में संग्राम हुए और ब्राहम्ण को आदर प्रदान किया गया ऐस मनू ने लिखा है।
आर्य और नाग, ब्राहम्ण और क्षत्रिय के बीज जब संघर्ष होने लगा, तो ब्राहम्णों ने ऋग्वेद मंे 
‘पुरूष सुक्त‘ को अंतर्भूत किया। पुरूष सुक्त के पूर्व चातुर्वण्र्य में चारों ही वर्ण का एक समान दर्जा था। पुरूष सुक्त ने ऊंच-नीच के सिध्दांत को पैदा किया। उसी समय भगवान बुध्द का भारतीय जीवन में प्रवेश हुआ। जिस शाक्य कुल में भगवान बुध्द का जन्म हुआ उन (शाक्यों) का गणराज्य लोकतांत्रिक परंपरा मे गौतम बुध्द पले-बड़े थे। उन्होंने चातुर्वण्य व्यवस्था को सिरे से अस्वीकार कर दिया। वर्तमान बौध्द धम्म अनेक विविध सिध्दांतो का महासागर है किंतु बौध्द धम्म का केंद्र बिंदु या बुध्द मत की नींव समता पर ही आधारित है। बौध्द धम्म को स्वींकार करने वाले लोग अधिकांश नागवंशीय लोग या चातुर्वण्र्य व्यवस्था में हीन माने गए वर्ग के थे। नागवंशीय अग्निहोत्री कश्यप से बैर था किंतु कश्यप के पास विश्राम करने के लिए बुध्द आए थे, पर वे बुध्द के शिष्य बन गए। बौध्द धम्म का विस्तार होने का कारण है, शुद्रादिशुद्र का भारी संख्या में बुध्द धम्म को स्वीकार करना। बौध्द वांगमय और विशेषतः थेरगाथा और थेरीगाथा के आधार से यह तथ्य स्पष्टतः सिध्द किया जा सकता हैं।
बौध्द धम्म हिंदू धर्म की एक शाखा है, इस मत का प्रचार भी व्यापक पैमाने पर किया जा रहा है। बुध्द प्राणी धम्म समकालीन था, पर वह वैदिक या ब्राहम्णी धर्म से भिन्न था। वैदिकों का ग्रंथ प्रामाण्य पर विश्वास था और बुध्द इसका विरोध करते थे। कालामसुत्त में बुध्द ने कहा है,‘‘ प्रत्येक मनुष्य को विचार-स्वातंत्रय चाहिए। वेदों में मनुष्य के लिए चिरंतन विचार नहीं हैं। वेद प्रामाण्य पर बुध्द के प्रहार का प्रभाव आगे चलकर भगवद् गीता पर भी पड़ा । वेद पाठकों को गीता ने एक स्थान पर मेंढक कहा है। बुध्द ने वेदो को रेत का प्रदेश (रेगिस्तान)कहा हैं। वेदों में इंद्रादिक देवताओं, घोड़ो (अश्व) तेजस्वी शस्त्रों, शत्रु पर विजय, ऐहिक सुख आदि के लिए प्रार्थनाए उपलब्ध हैं। उसमें उदात्त नीति सिध्दांत नहीं है। इसलिए बुध्द ने उनका धिक्कार किया है।
बुध्द ने समकालीन धर्म पर द्वितीय आघात यज्ञसंस्था पर किया था। उन्होेेंने याज्ञिकों से प्रश्न किया है कि पशु-बलि देने से आपको कौन -सा उच्च पद मिलने वाला है। बुध्द की इस आलोचना से हिंदुओं को इंद्र-वरूण आदि आद्य देवताओं का त्याग करना पड़ा। विषयांतर कर मैं आपसे पूछता हॅू ,‘‘हिंदू धर्म में ‘ईश्वर‘ मान ले, तो वह विवाह करता है, पत्नी के साथ नृत्य भी करता है। ब्रम्हा -विष्णु की भी यही कहानी हैं। क्या इन्हें देवता कहें? मनुष्य को लज्जित करने वाले कृत्य उनके द्वारा की गई बातें पुराणों में लिखी हुई हैं। जिसका चरित्र निष्कंलक है, जो आदर्शवान है, अनुकरणीय है, ऐसा कोई ‘देवता‘ हो तो बताओ? हिंदुओ के देव राजाओं के कुलदेवता है। राज्य के पौरोहित्य प्राप्त करने के लिए ब्राहम्णांे द्वारा उनके पराक्रम की कहानियों की रचना की गई हैं। इंद्र, कृष्ण क्या ये देव थे? ऋग्वेद के अंतिम भाग में इंद्र की पत्नी ने उन्हें अपशब्दों की माला पहनाई है, पढ़ो इसे। दुर्याेधन को वज्रदेही नहीं बनना चाहिए और गदायुध्द में भीम को विजय प्राप्त होनी चाहिए, इसलिए कृष्ण ने कपट नाटक रचा था, देखो इसे। आपका पड़ोसी यदि आपके साथ ऐसा व्यवहार करे, तो आप क्या करोंगे? रहने दो । बुध्द ने पशु-बलि की भत्र्सना की थी और यज्ञ की विफलता से जनता को अवगत कराया था, इसलिए ब्राहम्णो को प्राचीन याज्ञिक आचारों का त्याग करना पड़ा।
आश्रम व्यवस्था के बारे में बुध्द का मत प्रचलित वैदिक धर्म से अलग था। ब्राहम्णों के  अनुसार ब्रहाम्चर्य आश्रम के बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश लेना चाहिए लेकिन बुध्द ने ब्रम्हाचर्य शब्द का अर्ध अविवाहित अवस्था हो गया। ब्रम्हाचर्य के बाद संन्यास लेने (प्रव्रज्या) का ब्राम्हणों ने विरोध किया। 
बुध्द ने वैदिक धर्म पर चैथा प्रहार (आघात)किया, उसकी चार्तुवण्र्य व्यवस्था पर। बुध्द की शिष्य मंडली में उच्च-निम्न वर्ग के सभी जातियों के शिष्य शामिल थे। अपने शिष्यों में उन्होंने कभी भी ऊंच-नीच भाव पनपने नहीं दिया। अपने चचेरे भाई के साथ आने वाले ‘उपालि‘ को सर्वप्रथम दीक्षित किया, क्यांेकि कोई यह न समझे कि क्षत्रियों को ही अग्रणीय स्थान दिया गया। जिसे पहले दीक्षा  मिली वह बाद में दीक्षा लेने वाले के लिए वंदनीय हो जाता हैं। उपालि नापित(नाई) था, फिर भी क्षत्रिय शाक्य उन्हें अभिवादन करते थे। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में बुध्द ने चुंद नामक निम्न लोहार जाति के व्यक्ति के यहां, स्वास्थ्य के लिए अन्न ठीक नहीं हैं यह जानने के बाद भी, ग्रहण किया और सामाजिक समता के लिए प्राणों की आहूति दे दी। ऐसे चातूर्वण्र्य विरोधी प्रसंग भगवान बुध्द के जीवन में अनेक हैं। वे अपने संघ को सागर की उपमा देते थे। जैसे सागर में नदी मिलती है, तो नदी का अस्तित्व पृथकता समाप्त हो जाता है।  सब जल एक हो जाता है। वैसे ही संघ में सम्मिलित होने वाले भिन्न वर्णीय भिक्खुओं की वर्ण विशेषता समाप्त हो जाती है। जैन धर्म में भी चातुर्वण्र्य का विरोध किया गया है। किंतु इस सिध्दांत के लिए वे वाद-विवाद नहीं कर सके। बुध्द ने इस सिध्दांत पर कभी मौन धारण नहीं किया। वे अपने   धम्म के लिए किसी भी वीर से कम नहीं थे। इस धम्म की स्थापना के लिए उन्हें अज्ञान से संघर्ष करना पड़ा। बुध्द की यह चातुर्वण्य विरोध तीव्रता ब्राहम्णों के मन को डसने लगी थी। इसलिए ब्राहम्णो ने चातुर्वण्र्य के बारे में मौन करने वाले अनीश्वरवादी सांख्याचार्य कपिलमुनी को तो अपनाया लेकिन बुध्द को अपना दुश्मन माना।
बुध्द ने पांचवा प्रहार वैदिक धर्म के ‘देव-आत्मा‘ की अवधारणा पर किया है। बुध्द के मतानुसार सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, न्यायी, प्रेमी ऐसे ईश्वर का अस्तित्व पंचेद्रिय और तर्क, जो कि ज्ञान के साधन माने जाते हैं, के द्वारा सिध्द नहीं कर सकते। तथा धम्म का उद्देश्य हैे दुख निवारण। देव कल्पना स्वीकार करने से मनुष्य का दुख कम नहीं होगा। एक व्यक्ति अन्य दूसरे व्यक्ति से कैसा आचरण करे जिससे सभी व्यक्ति सुखी बनेंगे, ऐसा उपदेश देना ही धर्म का मुख्य कार्य हैं। इसलिए ईश्वर का धर्म से कोई संबंध नही है। ईश्वर का अस्तित्व केवल आधारहीन तर्क पर आधारित है। ऐसे अस्तित्व की श्रध्दा से पूजा, प्रार्थना पुरोहित जैसे  अंधश्रध्दा को बढ़ावा मिलता है जो कि आष्टांगिक मार्ग के सम्मादिट्ठी के लिए बहुत घातक है। मनुष्य के आपसी संबंध प्रज्ञा, शील, करूणा, मैत्री से नियंत्रित नहीं होते बल्कि पवित्रता, उच्चता जैसे भ्रम पैदा करने वाली मान्यताओं से नियंत्रित होते है। ईश्वर के अस्तित्व के बारें में बुध्द के आक्षेप केवल व्यावहारिक दृष्टिकोण के थे, ऐसा नहीं है। प्रतीत्यसमुत्पाद सिध्दांत के द्वारा बुध्द ने देव के अस्तित्व पर तार्किक (तर्कशुध्द) आक्षेप किए द्वारा निर्मित हैं या नहीं, यह भी मुख्य प्रश्न नहीं है,। मुख्य प्रश्न यह है कि ईश्वर ने यह संसार कैसे बनाया? ईश्वर को ही अस्तित्व का मंडन या खंडन इस प्रश्न के उत्तर से संभव हैं। इस दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब कुछ नहीं था, उसकी सहायता से बनाया ? शून्य से धरती बनाई गई, इस पर कोई भी बुध्दिवादी विश्वास नहीं कर सकता। यदि कुछ चीजें अस्तित्व में थी, यह सिध्द है। धरती के पूर्व जो था, उसका निर्माणकर्ता ईश्वर नहीं है, कोई और ही है, यह सिध्द होता है। यदि किसी और ने आदि चीचें बनाई हैं, तो फिर ईश्वर आद्य-निर्माता कैसे हो सकता है? कार्य कारणभाव, की दृष्टि से अस्तित्व के बारे में विचार प्रणाली तर्कशुध्द नहीं है। (तर्कदुष्ट है) इसलिए ईश्वर के प्रति श्रध्दा, बुध्द के सम्मादिट्ठी प्रधान धम्म को अमान्य हैं।
वेदों में मोक्ष-सिध्दांत है, जिसे आत्मा का परमात्मा में (ब्रम्हा में)विलीन होना कहा जाता हैं। बुध्द ने इसका विरोध किया है, क्योंकि यह सिध्दांत भी तर्कहीन है। मानवी जीवन की सुखी करने में अनुपयुक्त है। इस विषय पर वशिष्ठ और भारद्वाज नामक दो ब्राहम्णों के साथ बुध्द ने चर्चा की थी, जिसमें ब्रम्हा के बारे मेें बुध्द ने अपने विचार व्यक्त किए थे। जैसे देव कल्पना पर बुध्द ने आक्षेप किया वैसे ही आत्मा पर भी व्यावहारिक दृष्टि से आक्षेप किए है। बुध्द ने नामरूप सिध्दांतो के द्वारा वे सभी कार्य बताए है, जो कि आत्मा के द्वारा किए जाते है। काया उत्पन्न होती है तब चेतना पैदा होती है। इच्छात्मक, भावनात्मक, विचारात्मक कार्य चेतना द्वारा ही होते हैं। इसलिए आत्मा को एक अलग स्वतंत्र तत्व सिध्दांत मान लेने की आवश्यकता नहीं हैं।
इस तरह से बुध्द ने वैदिक धर्म का दार्शनिक दृष्टि से विरोध किया था। इसलिए ब्राहम्णो ने बौध्द धम्म के पतन के लिए येन-केन प्रकारेन प्रयास किए। बौध्द धम्म जिन कारणों से लोकप्रिय हुआ, वे धम्म, धर्म से मेल नही खाते थे, फिर भी उन्होेंने अपनाए। इसी प्रचार पध्दति के अनुसार एलोरा गुफाओं का निर्माण किया। वैसे ब्राहम्ण गृहस्थाश्रम में जीवन व्यतीत करता है। अग्निहोत्र उसका नित्यव्रत है। उसे प्रव्रज्यायुक्त बौध्द भिक्खु के समान गुफओ में रहने की क्या जरूरत थी ? बुध्द का भिक्खुओं के लिए स्पष्ट आदेश था कि वे वर्षा ऋतु में तीन माह तक कही निवास करे। इसलिए वे गुफाओ में निवास करते थें ब्राहम्ण गृहस्थाश्रमी के लिए इसकी आवश्यकता नहीं थी। किंतु बौध्द उपासकों का समूह ऐसी बौध्द गुफाओं मे निवास करते थें। ब्राहम्ण गृहस्थाश्रमी के लिए इसकी आवश्यकता नहीं थी। किंतु बौध्द उपासकों का समूह ऐसी बौध्द गुफाओं के देखने के लिए आकर्षित होता हैं, इसलिए उन्हें अपनीं और आकर्षित करने के लिए बौध्द गुफाओं के पास हिंदू गुफाए बनाई गई। हिंदू पंडितो ने बौध्द धम्म के पतन का कारण बताया है कि कुमारिल, शंकराचार्य आदि ने वाग्युध्द(शास्त्रार्थ)में बौध्द मत को पराजित किया, यह सही नहीं है। क्योंकि दोनों ने बुध्द की शिक्षा के मूल सिध्दांत जैसे सामाजिकसमता, विश्व में व्याप्त दुख के निवारण के मनः परिवर्तन, नीति तत्वों को सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठापना, बुध्दिवाद आदि पर कभी आघात नहीं किया। इन दोनों पंडितो के बाद अनेक वर्षाे तक बौध्द धम्म समृध्दावस्था में था। बौध्द धम्म के पतन का मुख्य कारण है जिन भिन्न संस्कृति और भिन्न सांस्कृतिक स्तर के लोगों में इस धर्म का प्रचार हुआ, उनके आचार और मान्यताएं बौध्द धम्म के लिए प्रतिक्रियावादी रही। भारत में बौध्द धम्म पहले बौध्द धर्मीय लोग मिले। उनकी भाषा मंे मुर्ति को ‘बुत‘ कहते हैं। बुतशिकन यानी मूर्तिभंजक। मेरी दृष्टि से वे गाँधीवादी थे। हिंदुओ से ज्यादा, बौध्द पर क्रुरता से, विनाशकारी आक्रमण उन्होंने किया था। उन्होंने 11 से 13वी सदी तक बौध्द भिक्खुओं का वध किया था। इतिहास में इसके साक्ष्य विद्यमान है। नालंदा जैसे विश्वविख्यात बौध्द भिक्खुओं का वध किया था। इतिहास में इसके साक्ष्य विद्यमान हैं। नालंदा जैसे विश्वविख्यात बौध्द विश्वविद्यालय को उन्होंने विध्वंस किया था। हिंदुओ की तरह बौध्दो में कुल परंपरानुसार धम्म प्रचार करने वाले ब्राहम्ण नहीं थे। सत्य भी कभी पराजित होता हैं, इसका यह उदाहरण है। किंतु आज उसके छः सौ वर्षाे के बाद भारत को बुध्द का स्मरण हो रहा हैं और आज यदि उसने बुध्द की तत्वप्रणाली को स्वीकार नहीं किया, तो उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं हैं। भाषण के बाद छात्र और प्राध्यापकों ने प्रश्न पूछे जिनके सम्यक उत्तर बाबासाहेब डाॅ.आबेडकर ने दिए।
साभार - बाबासाहेब डाॅ. आंबेडकर के धम्म प्रवचन
संग्रहक - टीपीएसजी

 





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