बौद्ध संस्कृति क्या हैं Nilesh Vaidh nileshvaidh149@gmail.com Tuesday, April 30, 2019, 08:23 PM बौद्ध संस्कृति क्या हैं ? बौद्ध संस्कृति भारत की आदर्श संस्कृति रहीं हैं। इस संस्कृति की अमुल्य निधि भारत के कण-कण में व्याप्त हैं। बौद्ध संस्कृति की मुर्ति कला,शिल्पकला, वास्तुकला, शिलालेख, स्तुप, बुद्ध विहार आदि के भाग्रवशेष देश विदेशों में अपनी महानता व भव्यता की कहानी चिख-चिख कर बता रहें हैं। पुरातात्विक सामग्री से समृध्द बौद्ध संस्कृति अपने भारतीय गौरव को दुनिया के कोने-कोने में गौरावंान्ति कराने मे, आदर व श्रद्धा प्राप्त कराने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। बौद्ध संस्कृति में दुनिया की मानवता को, भारतीय साहित्य, भारतीय सभ्यता, भारतीय कला तथागत का भारतीय बौद्ध दर्शन और भारतीय विचार धारा, की सौगात देकर माला-माल कर दिया हैं। बौद्ध संस्कृति में दुनिया की मानव जाति को करूणा, मैत्रि, सद्भाव, विश्व बन्धुत्व और विश्व शांति का संदेश देकर भारतीय एकता के सुत्र में पिराने का महत्वपूर्ण कार्य किया हैं। संसार की समस्त मानव जाति तथागत की महान बौद्ध संस्कृति के उपचार के लिए सदेव उसकि श्रणि रहेगी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम बौद्ध संस्कृति को प्राचीन और अर्वाचीन, दो विभागों में विभक्त कर उसका अध्ययन कर सकते हैं। प्राचीन बौद्ध संस्कृति: महापंडित राहुल साकृत्ययायन के अनुसार प्राचीन बौद्ध संस्कृति भारत की जिस संस्कृति का अभिन्न अंग रही हैं, उसका एक दिर्घ काल व्यापी जीवन रहा हैं। भारत में सर्वप्रथम द्रविड़ों के पूर्वज इस देश में आये। वे अपनक साथ कुछ ऐसी संस्कृति लेकर आये जो सिंधु से लेकर मेसापोटामिया ही नही ंतो उत्तर में मध्य एशिया तक फैली हुई थी। वे एैसे नगरों में रहते थे जिसमें पक्की इटों से बनी उँची इमारते, चैड़ी और पक्की सड़के, स्नानागार कोसागार आदि अनेक सुख सुविधा के साधन उपलब्ध थे उनकी नृत्य मुद्रायें, मूर्ति कलाएँ आदि से आज हम जिस प्रकार परिचित हुए हैं उसी प्रकार उनकी वास्तु कला और नगर निर्माण कला से भी परिचित हुए है। वस्तुतः उन्होंने अपनी संस्कृति को बहुत विस्तृत और विकसित कर दिया हैं। वर्तमान भारतिय संस्कृति की आधारशिला वहीं (द्रविड़) संस्कृति रहीं हैं। वही संस्कृति विकसित होते-होते उसे आज की वर्तमान संस्कृति का स्वरूप प्राप्त हुआ हैं। वह द्रविड़ संस्कृति अथवा सिंधु संस्कृति ही पांच हजार वर्ष पहले मोहनजोदड़ो द्वारा हड़प्पा जैसे नगरो में विस्तृत रूप से फैलि हुई ताम्रयुगिन संस्कृति अथवा सभ्यता थी ईसा वर्ष दुसरी सताब्दी मंे(भगवान बुद्ध के लगभग ड़ेढ हजार वर्ष पहले) एक दुसरा घुमन्तु कबिला भारत में प्रविष्ट हुआ। वह कबिला यहां के द्रविड़ों को कनिष्ट ओर अपने आप को उनमें श्रेष्ट समझता हैं इसलिए वह कबिला स्वयं को आर्य सम्बोधित करता था (आर्य-श्रेष्ठ) सिन्धु घाटी में पहँुचने से पूर्व ही मध्य एशिया में वक्षु एवं सिर नदी के किनारे द्रविड़ सभ्यता के साथ आर्यो का सम्बन्ध प्रतिस्थापित हुआ। सवातः एवं सिंधु घाटी में पहुँचने के पूर्व ही द्रविड़ों के साथ संघर्ष करके आर्य संन्तुष्ट ही नहीं हुए तो वे द्रविडों की संस्कृति से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह सकें। तत्पश्चात वे द्रविड़ों की अति विकसित संस्कृति के प्रभाव में आकर उनसे धीरे-धीरे समरत होते चले गये। ताम्रयुगिन सिंधु (द्रविड़) संस्कृति के साथ कबिलाई आर्य संस्कृति का सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद उसका एक नया और परिवर्तित रूप सामने आया जो परिव्राजक के रूप में जाना जाने लगा। इस प्रकार इन दो- ढाई हजार वर्षा में भारत में पहुची विभीन्न प्रजातियों का यहाँ की मुल द्रविड़ संस्कृति में विलय हसेकर एक नई श्रमण संस्कृति का निमार्ण हुआ। और इसी श्रमण संस्कृति में सिधार्थ गौतम का जन्म हुआ इसी संस्कृति में पोषित होकर सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए। इस प्रकार आज से ढाई हजार वषों पूर्व और सिन्धु संस्कृति के आरम्भ से ढाई हजार वर्षो के बाद तथागत बुद्ध ने अपने शिष्यों (भिक्खुओें) को बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के लिए समग्र जन कल्याण की भावना से समस्त संसार में विचरण का आदेश दिया। बौद्ध संस्कृति का मुल उद्म स्थल यही संस्कृति रही हैं। अपनी ढाई हजार वर्षो कि विकास यात्रा के बाद इसा पूर्व छटी शताब्दी तक यह संस्कृति भारतिय संस्कृति अथवा बौैद्ध संरूकृति के रूप में प्रचलित रहीऔर निरन्तर गतिमान संस्कृति रही हैं। भारत के बाहर विभीन्न देशों में पहुँचकर, वहां की देश, काल, परिस्थिती के अनुरूप उसमें घुल मिल कर वहां भी सतत गतिमान और वर्धमान होकर उत्कर्ष की चरम सिमा तकबड़ती ही चली गई। इसकी विशेषता यह रही हैं की बौद्ध संस्कृति हमेशा दुसरों को देने के लिए ही नही ंतो समय-समय पर दुसरों से कुछ अच्छी बातें, तर्क संगत, न्याय संगत, बुद्धी संगत औ विज्ञान संगत बाते सिखने के लिए भी नम्र और उदार भाव से तत्पर रही है। और इसकी इसी एक महत्वपूर्ण विशेषता के परिणाम स्वरूप इस संस्कृति के बिना किसी प्रकार के रक्त पात या बल प्रयोग और लाभ-लाचल के, संसार के अधिकांस भु-भाग पर अपना विस्तार किया। समस्त संसार में बौद्ध संस्कृति का भव्य स्थागत एवं सम्मान किया गया। अपनी समरसता की विशेषता के फलस्वरूप ही बौद्ध देंशो में कही भी यह स्वदेशी व विदेशी इस प्रकार संस्कृतियों में संघर्ष की कहानिया भी नही। सुनी जाती । इतिहास में आज तक एक भी इस प्रकार का उदाहरण देखने में नही आया हैं। इसके अलावा बौद्ध संस्कृति ने कभी भी किसी भी देंश में धर्म के नाम पर न तो जातियाँ बनाई और न ही श्रेष्ट-कनिष्ट जैसा व्यवहार किया। और ना ही कभी उसमें छोटे-बड़े वर्ग या समुह पैदा करके मानवता को विभाजित करने का कर्म किया हैं। आधुनिक बौद्ध संस्कृतिः बाबा साहेब ड़ा. अम्बेडकर भी लिखते हैं ‘‘सबसे पहले तो हमे यह स्विकार कर लेना चाहिए की एक समान भारतीय संस्कृति जैसी कोई चीज कभी नहीं रही है। और भारत भी तीन प्रकार हैं - ब्राम्हण (वैदिक) भारत, बौद्ध भारत और हिन्दु भारत इनकी अपनी-अपनी संस्कृतियाँ रही हैं, भारत का इतिहास ब्राम्हण वाद और बौद्ध धम्म के अनुयायियों के बिच में परस्पर संघर्ष का इतिहास रहा हैं।’’ 14 अक्टुम्बर 1956 को डां. बाबासाहेब द्वारा नागपुर में चलाये गये ऐतिहासीक सामुहिक धर्म परिवर्तन एवं बौद्ध संस्कृति का इतिहास बताने वाले महापंडित राहूल सांकृत्यायनजी के वह अमर शब्द ‘‘ड़ंा अम्बेड़कर ने भारत भूमि बौद्ध धम्म का वह स्तभ गाड़ दिया जिसे कोई उखाडं नहीं सकता’’, तथा बुद्ध और उनका धम्म ग्रन्थ में प. पू. बाबा साहेब द्वारा बौद्ध उपासको के एक आदर्श पृथक समाज की आवश्यकता पर जोर दिये जाने जैसे तथ्य हमें आव्हान करते हैं की आज के भारत में हमारी प्रत्येक बौद्ध उपासक, धम्मचारी, धार्मिक-सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कारकर्ता, साहित्यकार, बौद्धाचार्य, भिक्खु गण आदि सभी कि नैतिक जिम्मेदारी बनती हैं की अब हम अपनी आधुनिक बौद्ध संस्कृति के निमार्ण का बिड़ा उठायें। हम जानते है की तथागत बुद्ध की जय बोलने और उनकी प्रतिमा की पूजा करने मात्र से हमारा कल्याण कदापी सम्भव नहीं हैं। हम यह भी जानते हैं की हमें चाहिए की हम उनके धम्म संदेश का लेबल लेकर चलने की बजाय उसे उपने जीवन में उतारकर अभ्यास करें तथा जीवन और जगत के गुणधर्म और स्वभाव को उसके यथार्थ रूप में स्वानुभूति के स्तर पर जाने और समझें तभी हमारा कल्याण संभव है। परंतु वर्तमान देश काल परिस्थिति के अनुसार विशुद्ध धम्माचारण के साथ-साथ हमें अपने विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान बनाना भी आवश्यक है। हमे आधुनिक बौद्ध संस्क1ति का निमार्ण करना भी आवश्यक हो गया हैं। तथागत बुद्ध ने अपने जीवन और आचरण के आदर्श के बल पर ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व ‘ब्राम्हण भारत’ को ‘बौद्ध भारत’ में परिवर्तित कर दिखाया था। अर्थात उन दिनों वैदिक कर्म काण्ड़ों को त्यागकर सम्पूर्ण भारत बौद्धमय हो गया था। ब्राम्हणो ने प्रतिक्रांति करके ‘बौद्ध भारत’ को हिन्दु भारत’ में बदल दिया। बीसवी सदी में गथागत के ही पद चिन्हों पर चलकर बोधिसत्व बाबा साहेब ने पुनः ‘हिन्दु भारत’ को ‘गणतंत्रीय बहुजन(बौद्धमय) भारत’ में तब्दील कर बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के नारे को बुलन्द करने का प्रयास किया है। अर्थात वे हम जैसे अभागे लोगो को नर्क की दलदल से बाीर निकालकर सद्धम्म की प्रसान्त झिल में ले आये हैं। क्या हमें उनके उस सम्यक प्रयास का हिस्सा नही बनना चाहीए ? क्या हमें उनका अधुरा संस्कारित व संघठित (पृथक) बौद्ध समाज बनाने का सपना पूरा नहीं करना चाहिए ? - संग्रहक - निलेश वैद्य Tags : India particles fundamental India culture culture Buddhist