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मैं एक नास्तिक क्यों हूँ

TPSG

Tuesday, April 30, 2019, 10:35 PM
Nastik

मैं एक नास्तिक क्यों हूँ ?
अदालत का फैसला पहले ही से अच्छी तरह पता है। एक सप्ताह में घोषित भी हो जायेगा। इस बात के सिवा की मैं अपना जीवन एक उद्देश्य के लिये बलिदान करने वाला हॅू, मेरे लिये और क्या सांत्वना है? एक भगवान ने विश्वास रखने वाला हिन्दू तो दुबारा एक राजा की तरह जन्म लेने, एक मुश्लिम या एक ईसाई स्वर्ग के सुखों के उपभोग का स्वप्न देख सकता है जो कि उसकी यंत्रणाओं तथा बलिदान का पुरस्कार हो सकता है। लेकिन मैं क्या उपेक्षा करू? मैं जानता हॅॅू जिस पल रस्सी मेरे गले के चारों ओर लिपटी होगी और मेरे पैरो के नीचे से तख्ता खीच लिया जायेगा, वही निर्णायक क्षण होगा और वही अंतिम क्षण होगा। मैं सटीक रूप से कहू तो मेरी आत्मा, जैसा की पराभौतिक शब्दावली में कहा जाता है, का अंत हो जायेगा। उसके आगे कुछ भी नही।
एक छोटा सा जीवन बिना किसी भव्य अंत के ही, अपने आप में एक पुरस्कार है यदि मुझमें इसे इस दृष्टि से स्वीकार करने का साहस हो तो। बस यही सब कुछ है। बिना किसी स्वार्थ के या यहा और यहा से जाने के बाद बिना किसी पुरस्कार की आंकाक्षा से, बिना किसी रूचि के क्या मैंने अपने जीवन को स्वतंत्रता के लक्ष्य के प्रति इसलिए अर्पित किया है, क्योंकि इसके अलावा मैं कुछ कर ही नही सका? जिस दिन हम इस मानसिकता के अनेको स्त्रिी और पुरूषो को पायेगें जो अपने आप को मानवता की सेवा में अर्पित कर देगें और घायल मानवता को दासत्व से मुक्त करा सकेगें, वही दिन स्वतंत्रता के युग का प्रारंभ होगा। 
न तो एक राजा बनने के लिये, न ही यहा और किसी पुरस्कार के लिये या अगले जन्म के लिये या मृत्यु के बाद स्वर्ग की आकांक्षा के बिना भी यदि वे दमनकारियों, शोषको तथा गद्दारों को चुनौती देने के लिये प्रेरित रहे वरन मानवता के गले से दासत्व का पट्टा उतार सके और स्वतंत्रता और शांति स्थापित करने के लिये वे अपना और अपने स्वयं का बलिदान कर सकें। इस भव्य काल्पनिक पथ पर स्वयं को इसी प्रकार अग्रसर रखे। क्या उनके इस महान उद्देश्य में जो गर्व की भावना है उसे मिथ्याभिमान कहना क्या एक गलत निष्कर्ष नही है? किसका साहस है जो इस तरह के निकृष्ट विशेषण मुह से निकाले? उसे मैं या तो मुर्ख या कायर कहॅॅूगा। चलिये उसे क्षमा करते है कि ना तो उसे इस गहराई का ज्ञान है, ना ही उसके मन में भावनायें तथा पवित्र अनुभूतियां हिलोरे लेती है। उसका हदय मरा हुआ है जैसे की मांस का एक पिण्ड मात्र, उसकी आॅखे कमजोर है, दूसरी रूचियों की बुराईयो से वह घिरा हुआ है। आत्म निर्भरता को हमेशा मिथ्याभिमान के रूप में निष्कर्षित किया जा सकता है। यह बड़ा ही दुखद और कष्टदायी है परंतु इसके सिवा और कोई चारा भी तो नही। 
तुम जाओं और विरोध करो प्रचलित विश्वास का, तुम जाओं और किसी नायक की आलोचना करों, एक महान व्यक्ति की जो कि सामान्तः आलोचना से परे समझा जाता है, क्योंकि यह सोचा जाता है कि वह सदैव त्रुटि रहित है, तुम्हारे तर्क की शक्ति ही जन समुदाय को मजबूर करेगी की वे तुम्हे वृथाभिमानी न समझे। इसकी वजह मानसिक ठहराव है, आलोचना और स्वतंत्र चिंतन एक कान्तिकारी के अपरिहार्य गुण है। क्योंकि महात्मा जी महान है, इसलिये कोई उनकी आलोचना न करें। क्योंकि वे सबसे उपर उठ चुके है इसलिए वे राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीति शास्त्र पर जो भी वे कहते है वह सही है, चाहे आप उससे सहमत हो या न हो, आपको हमेशा कहना चाहिए, ‘‘हाॅ यही सत्य है।’’ यह मानसिकता प्रगति की और नही ले जाती। यह प्रत्यक्ष रूप से प्रतिक्रियात्मक है। क्योंकि हमारे पूर्वजो को किसी परमात्मा में विश्वास की अवधारणा को कायम किया था, तो अब कोई भी व्यक्ति अगर इस विश्वास की सत्यता को चुनौती देता है या इसके अस्तित्व को नकारता है तो उसे अधर्मी व पाखण्डी कहा जाता रहा है। अगर उसके तर्क उनके वितर्को से नही काटे जा सकते और उसकी आत्मा भगवान के द्वारा बरपाए जाने वाले अमंगल की धमकीयों से विचलित नही होती तो उसे मिथ्याभिमानी और उसकी आत्मा को अहंकारी घोषित कर दिया जाता है। तो फिर इस व्यर्थ के वाद-विवाद समय में बरबाद करने की आवश्यकता ही क्या है। फिर पूरे विषय की चीर-फाड़ क्यों? यह प्रश्न जनता के सामने पहली बार आया है, और इस तरीके से पहली बार परखा गया है, इसलिए यह लम्बा वादविवाद हुआ।
जहां तक पहले प्रश्न का सवाल है मैनें यह साफ कर दिया है कि मिथ्याभिमान की वजह से मैं नास्तिक नही बना। मेरे तर्क से चाहे सभी सहमत हो या नही यह फैसला तो मेरे पाठक ही करेंगे न कि मैं। मैं जानता हॅू कि वर्तमान परिस्थितियों में अगर मेरा ईश्वर में विश्वास होता तो मेरा जीवन आसान, मेरा बोझ हलका हो जाता, परंतु मेरे ईश्वर में अविश्वास ने परिस्थितियों को काफी कठौर और स्थितियों को कोई आकार देने के लिये कठिनतम बना दिया है। जरा सा रहस्यवाद इसे काव्यमय बना सकता है। लेकिन मैं, किसी किस्म के नशे का सहारा लेकर अपनी नियती का सामना नही करना चाहता। मैं वास्तविकतावादी हॅू। मैं अपने अंदर की प्रवत्तियों पर अपनी सोच की सहायता से काबू पाने की कोशिश करता रहा हॅू। पर मैं हमेशा इस पर सफलता नही अर्जित कर सका। लेकिन व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह प्रयत्न करता रहे, सफलता तो हमेशा अवसर और परिवेश पर निर्भर करती है। 
जहां तक दूसरे प्रश्न का सवाल है कि अगर यह मिथ्याभिमान नही था तो अवश्य कोई कारण था कि जिससे मुझे ईश्वर की प्राचीन एवं प्रचलित अवधारणा में अविश्वास था। हाॅ, अब मैं इस पर आता हॅू जो कि इसकी वजह है। मेरे अनुसार कोई भी व्यक्ति जिसमें सोचने समझने की झमता है वह अपने परिवेश को समझने का प्रयास करता है। जहां पर सीधे साक्ष्य नही होते वहा दर्शनशास्त्र महत्वपूर्ण स्थान गृहण कर लेता है। जैसा कि मैनें पहले कहा है कि मेरे एक कान्तिकारी मित्र हमेशा कहते थे कि दर्शनशास्त्र मानवीय कमजोरी का परिणाम है। 
जब हमारे पूर्वजो के पास इस दुनिया भर के गूढ़ रहस्यो के भूत, भविष्य तथा वर्तमान, इसके क्यों और क्या क्या आदि को सुलझााने के लिये काफी खाली समय होता था और सीधे साक्ष्यों की भारी कमी होती थी, तब हरेक ने इस समस्या को अपने अपने ढंग से सुलझाने का प्रयास किया। इसी वजह से हम विभिन्न धार्मिक मतो के मूल में भारी अंतर पाते है, जो कि कभी कभी भारी विरोधाभासी, और वैमनस्यपूर्ण रूप धारण कर लेता है। पूर्वी और पाश्यात्य दर्शनशास्त्र ही अलग अलग नही है वरन् हर गोलार्ध के विभिन्न मतों के अंदर भी भारी विरोधाभास है। पूर्वी धर्मो में मुस्लिम मत हिन्दू मत से कही मेल नही खाता। एक अकेले भारत में ही बौद्ध और जैन धर्मो भी ब्राम्हणवाद से बहुत अलग है, जिसके अंदर फिर विरोधाभासी विश्वास है, जैसे कि आर्य समाज और सनातन धर्म। चार्वाक, प्राचीन समय के एक अलग प्रकार के स्वतंत्र चिन्तक थे। उन्होंने पुराने समय मंे ईश्वर की सत्ता को चुनौती दी। यह सभी समुदाय अपने मूल सिद्वांतो के प्रश्न पर ही एक दूसरे से भिन्न है। और हरेक अपने आप को ही सही समझता है। यही तो दुर्भाग्य है। प्राचीन सावंतो और चिंतको के प्रयोगो और विचारो को हमारी अज्ञानता के विरूद्व भावी संघर्ष में उपयोग करने और रहस्यवादी समस्या का हल निकालने की बजाये हम-बड़े आलस्यपूर्ण तरीके से विश्वास की चिख पुकार मचाते रहे है, अपने विश्वास के संस्करण के बिना विमुख हुए, बिना डगमगाये बने रहते है, इस प्रकार हम मानवीय प्रगति में आये ठहराव के दोषी है। जो भी व्यक्ति प्रगति के लिये स्वयं को खड़ा करता है उसे पुरातन मतो के हर पहलू की आलोचना, अविश्वास करना होता है और चुनौती देनी होती है। पूर्जा दर पूर्जा उसे उस प्रचलित पुरातन पंथ के कोनो और आलोक को खखोर कर सही कारण ढुढने चाहिए। स्वीकार करने योग्य कारण के द्वारा किसी सिद्वांत या दर्शन मंे अगर विश्वास पैदा होता है तो वह मत स्वागत के योग्य है। उसका विवेक गलत भी समझा जा सकता है, गलत भी हो सकता है, भटकाने वाला और कभी कभी भ्रमजनक भी हो सकता है। लेकिन उसे सुधारा भी जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का मार्गदर्शक तारा है। लेकिन केवल विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है, यह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बनाता है। एक व्यक्ति जो कि वास्तिविकतावादी है उसे पुराने विश्वासों चुनौती देनी ही चाहिए। अगर वह विवेक का आक्रमण नही सहन कर पाता है तो भरभराकर गिर पड़ता है। तब उसे चाहिए कि सबसे पहले उसे गिरा दिया जायें और नये दर्शन सिद्वांत के निर्माण के लिये स्थान साफ किया जायें। यह नकारात्मक पहलू है। इसके बाद सकारात्मक कार्य शुरू होता है। जिसमें कि पुराने मतान्वयों का भी प्रयोग करके पुर्ननिर्माण भी किया जा सकता है। जहां तक मेरे प्रश्न है मैं स्वीकार करता हॅू कि अब तक इस पहलू पर मैं ज्यादा नही पढ़ पाया हॅूं। मेरी तीव्र इच्छा थी कि मैं पूर्वी दर्शन शास्त्र का अध्ययन करू, लेकिन मुझे ऐसा कोई  अवसर नही मिल सका। लेकिन अब तक तो इस विषय के नकारात्मक पहलू ही तर्क का विषय रहे है, मैं सोचता हूॅ कि मैं इससे सहमत हूॅ कि मुझे पुराने मत के दृढ होने के आधार पर प्रश्न उठाने का अधिकार है। मैं इस बात से पूर्ण सहमत रहा हॅू कि ऐसे किसी परमात्मा का अस्तित्व नही है जो हमे और प्रकृति को निर्देशित और संचालित करता है। हम प्रकृति विश्वास रखते है और आदमी के सारे विकासशील कदमों की मंजिल प्रकृति को दास बनाने की है। इसके पीछे कोई दिग्दर्शक चेतन शक्ति नही है। यही हमारा दर्शन है। 
जैसा कि इसका नकारात्मक पहलू है, हम ईश्वर में विश्वास रखने वालों से कुछ सवाल करते है-अगर, जैसा कि आपका विश्वास है, कि एक परमात्मा है, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी, सर्वशक्तिमान ईश्वर जिसने धरती या संसार की रचना कि, लेकिन कृपया मुझे यह बताये कि उसने इसकी रचना क्यों कि? जबकि यह संसार शोक और पीडाओं तथा यथार्थ, असंख्य विपदाओं का अनंत संयोजन है। कोई एक आत्मा तक पूरी तरह संतुष्ट नही है। पूजा करो लेकिन यह मत कहो कि यह ईश्वर का नियम हैः अगर वह किसी नियम से बंधा है, तो वह सर्वशक्तिमान नही है। वह भी हमारी तरह एक दास है। यह कदापि न कहे कि इस सब में उसकी कोई खुशी छिपी है। नीरो ने तो सिर्फ एक रोम जलाया था। उसने तो कुछ ही संख्या में लोगों को मारा था। उसने तो बहुत कम संख्या में विपदाओं को जन्म दिया, सिर्फ अपने मनोरंजन के लिये। लेकिन उसका इतिहास में क्या स्थान है? इतिहासकारा उसे किस नाम से सम्बोधित करते है? सारे जहरीले विशेषणों से उसे सुशोभित किया गया। पन्नो पर पन्ने नीरो के काले कारनामों की भत्र्सना से रंगे पड़े है, गद्दार, हदयहीन, दुष्ट। 
एक चंगेजखान है जिसने कुछ हजार जीवनों का बलिदान अपने आमोद प्र्रमोद के लिये किया था और इसलिये हम उस नाम से ही भयंकर घृणा करते है। तब तुम अपने उस परमात्मा को कैसे न्यायोचित ठहराओेगें, अमर नीरो, जो कि हर दिन, हर घंटे, हर मिनट असंख्य विपदाये निर्मित करता रहा है और करता रहेगा? तुम कैसे उस परमात्मा के दुष्कृत्यों का साथ दे सकते हो जो चंगेजखान को भी हर पल पीछे छोड़ रहा है? मैं कहता हॅू कि उसने किसलिये इस संसार का निर्माण किया है-एक वास्तविक नर, लगातार और कडवी अशांति की जगह? किसलिये तुम्हारे परमात्मा ने इसांन को बनाया जबकि उसके पास यह न करने की शक्ति थी? इस सबका क्या औचित्य है? क्या तुम यह कहते हो कि यही निर्दोश पंड़ितो के लिये पुरस्कार और गलत करने वालो के लिये दंड है? ठीक है, ठीक है,कितनी देर तक आप एक व्यक्ति को न्यायोचित ठहरा सकते हो जो आपके शरीर पर घाव करता रहे और बाद में ठंडा और नरम मल्हम लगाये?आप कितनी देर तक भुखे शेर के आगे एक योध्दा को फेंक कर तमाशा बनाने वाले प्रबंधको और समर्थको को न्यायोचित ठहरायेगंे जो कि बाद में योध्दा के जगली जानवर के शिकंजे से बाहर निकल आने पर उसकी अच्छी खातिरदारी करते है। इसलिये तो मैं पूछता हॅू, कि उस परामात्मा ने यह संसार और इसमें इंसान को बनाया? अपने मनोरंजन के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है? 
तुम मुसलमानों और ईसाइयोः हिन्दू दर्शन अब भी एक और तर्क पेश कर सकता है। मैं तुमसे पूछता हॅू कि उपरोक्त प्रश्न का क्या जवाब है? तुम पिछले जन्म मे विश्वास नही रखते। हिन्दूओं की तरह तुम पूर्वजन्म के दुष्कर्मो का परिणाम कहकर निर्दोश पंडितो के लिये तर्क नही पेश कर सकते? मै तुमसे पूछता हॅू कि क्यो उस सर्वशक्तिमान ने छः दिन ही क्यो लगाये यह संसार बनाने में और हर दिन कहता रहा सब कुछ ठीक है। आज उसे बुलाओं। उसे पिछला इतिहास दिखाओं। उसे आज की स्थिति का अध्ययन करने दो। देखते है क्या अब भी उसमेें साहस है यह कहने का की ‘‘सब कुछ ठीक है।’’ जेल की काल कोठरियो से, झुग्गी झोपड़ियों रूपी भूखमरी के गोदामों से लाख दर लाख इंसानों का, शोषित मजदूरों का, पूंजीवादी  दरिंदो द्वारा धैर्य या दया हीनता से खून चूसते हुए देखते  रहना और मानव उर्जा का व्यर्थ होते देखना जो कि कम से कम सामान्य बुद्वि वाले आदमी को भी डर से कंपा दे और अधिक पैदावार को जरूरत मंदो में बाटने की बजाये समुद्रो में फेकने वालो उन राजाओं के महलो में जिसकी नीव में मानव की हड्डिया लगी है उसे यह सब देखने दो और कहने दो कि, ‘‘सब कुछ ठीक है।’’ 
क्यो और किसलिये? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है तो, मैं आगे बढ़ता हॅू। तुम हिन्दूओं, तुम कहते हो कि वर्तमान के सारे दुख पिछले जन्म के पापो का फल है। अच्छा है। आज के दमनकारी पूर्वजन्म के साधु लोग थे इसलिये वे शक्ति का उपभोग कर रहे है। मुझे स्वीकार करने दे की तुम्हारे पूर्वज बड़े चालाक लोग थें। उन्होने ऐसे सिद्वांत खोजने की कोशिश की जिससे की विवेकशील और अविश्वास करने वालो के प्रयासों को वे नैस्तनाबुत कर सके। चलो हम विश्लेषण करते है कि कितनी देर तक यह बहस जारी रहती है। किसी भी प्रसिद्व ज्यूरी द्वारा दिये गये दण्ड की दृष्टि से यह तभी न्यायोचित है जबकि यह तीन या चार सिद्वांतो पर निर्भर हो गलत करने वाले को दोषी ठहराता है। यह है-प्रतिकारात्मक, सुधारात्मक और निवारक। प्रतिकारात्मक सिद्वांत को सभी प्रगतिशील चिंतको द्वारा भत्र्सना की जा रही है। निवारक सिद्वांत का भी यही हर्ष हो रहा है। सुधारात्मक सिद्वांत ही अकेला एक ऐसा सिद्वंात है जो कि मूल भूत है। तथा मानव प्रगति के लिये अपरिहार्य है। यह दोषी को एक समर्थ और शांतिप्रिय नागरिक बनाकर समाज में वापस भेजने का उद्देश्य रखता है। लेकिन भगवान द्वारा इंसान के उपर थोपे गये दण्ड का क्या स्वरूप है, यदि अगर हम मान भी ले कि हम दोषी है। तुम कहते हो कि उन्हे जन्म लेेने के लिये गाय, बिल्ली, पेड़ और वनस्पिति आदि के रूप में भेजा जाता है। तुम कहते हो यह सजाए 84 लाख है। मैं पूछता हॅू कि इसका आदमी के उपर क्या सुधारात्मक असर होता है? आपको ऐसे कितने आदमी मिले जिन्होने बताया कि वे पिछले जन्म में गधे के रूप में पैदा हुए थे क्योंकि उन्होने कोई पाप किया था? कोई भी नही। अब अपने पुराणो का उल्लेख मत करना। तुम्हारे पौराणिक विश्वासो को छूना भी मेरे बस के बाहर की बात है। क्या तुम जानते हो कि दुनिया का सबसे महानतम पाप है गरीब होना। दरिद्रता पाप है, यह एक दण्ड है। मैं पूछता हॅू तुम कितनी दूर तक अपराधविज्ञानी, न्यायशास्त्री, विधायक और एक व्यक्ति जो ऐसे दण्ड के प्रस्ताव पेश करता हो जिससे आदमी और अधिक अपराध करने को विवश हो, कि अनुशंसा करोगें?क्या तुम्हारे भगवान ने यह सब नही सोचा और उसको भी यह सब अनुभव के द्वारा सीखना होगा, वह भी मानवता पर बरपाई गई अनकही पीड़ाओं की कीमत पर? तुम क्या सोचते हो उस व्यक्ति की नियति क्या होगी जो कि एक गरीब और अनपढ़ के घर में जन्मा है उदाहरण के लिये एक चमार या भंगी। वह गरीब है इसलिये पढ़ाई नही कर सकता। उससे घृणा की जाती है, दूसरे व्यक्ति जो कि स्वयं को उससे बेहतर समझते है उसे दूर भगा देते है क्योंकि वे एक उच्च जाति में पैदा हुए है। उसकी अज्ञानता, उसकी गरीबी और उसके साथ किया गया दुव्यवहार क्या उसके हदय को समाज के प्रति सख्त नही बना देगा? अगर वह एक अपराध करेगा तो उसके परिणामों को कौन भोगेगा? भगवान, वह या समाज के विद्वजन? उन लोगांे की सजा के बारे में क्या उन्हें अहंकारी ब्राम्हण जानबूझकर अज्ञानी रहने देते है जिनके की कानो में अगर गलती से भी ज्ञान की पवित्र पुस्तको वेदो के शब्द चले जाये तो दण्ड स्वरूप पिघला सीसा डाल दिया जाता है। अगर वह एक अपराध करे तो उसके परिणामों को कौन भोगेगा और खामियाजा देगा? मेरे प्रिय मित्रो यह सारे सिद्वांत सर्वसम्पन्न लोगों के आविष्कार है। वे इन सिद्वांतो से अपनी शक्ति, धन, महानता को न्यायोचित ठहराते है। हा  शायद ऐसा अपटोन सिन्क्लेयर ने किसी जगह लिखा था कि किसी व्यक्ति के सारे धन और उसकी संपत्ति को आप लूट सकते हो यदि उसे अमर होने का विश्वास दिला दिया जाये। वह आपकी उल्टे इस सब में आपकी बिना किसी वैमनस्य के मदद करेगा। धार्मिक गुरूओं और शक्ति के धारको की मिली जुली साठ गाठ से ही जेले, कालकोठरिया, कोडे और यह सिद्वांत अस्तित्व में आयें। अब मैं पूछता हॅू कि तुम्हारा सर्वशक्तिमान भगवान उस आदमी को क्यो  नही रोकता जो कि कोई पाप और अपराध कर रहा है। वह ऐसा आसानी से कर सकता हैै। वह युद्व के उन्मादियों को क्यों नही मार देता या उनके अंदर जो युद्व की ज्वाला है उसे ही क्यों नष्ट नही कर देता जिसे की जिससे मानवता के सिर से महायुद्व द्वारा उत्पन्न विनाश को रोका जा सके? वह क्यों नही ब्रिटिश लोगो के दिमाग में भारत को स्वतंत्र कर देने की भावना को पैदा कर देता है? 
डसने उन पूंजीवादियों के दिलो  में ऐसी भावना का संचार क्योे नही किया जिससे की वे अपने सारे व्यक्तिक सम्पदाओं के अधिकारो को न्यौछावर कर सारी मजदूर जाति के लिये उपलब्ध कर देते-न की सारी मानव सभ्यता को पूंजीवादीता के बंधन में जकड़ दे। तुम समाज वादी सिद्वांत की प्रायोगिकता की विवेचना करना चाहते हो, यह मैं तुम्हारे भगवान पर लागू करने के लिये छोड़ता हॅू जहां तक समाज कल्याण का प्रश्न है लोग समाजवाद के गुणों को पहचानते है। वे इसका विरोध करते है, इस बहाने के साथ ही यह अव्यवहारिक होगा। चलो ईश्वर को आगे आने देते है और उन्हें यह सब व्यवस्थित करने देते है। अब गोल मोल तर्क मत दो, यह अव्यवस्थित है। मुझे कहने दो, अंग्रेज हम पर शासन कर रहे है इसलिये नही कि ईश्वर की यही मर्जी है, बल्कि इसलिये कि उनके पास सत्ता है और हमारे पास उनका विरोध करने का साहस नही। ना ही ये भगवान की मदद से हमे अपने अधीन रख रहे है बल्कि बंदूको, बमो और गोलियो, पुलिस और फौज और हमारी जडता ही है जिसकी वजह से वे सफलतापूर्वक समाज के प्रति शोचनीय अपराध कर रहे है-एक देश का दूसरे देश के प्रति दूराचारी शोषण। कहा है भगवान? वह क्या कर रहा है? क्या वह मानव प्रजाति पर इस पीड़ा का मजा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, मुर्दाबाद।
तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस संसार के आरंभ और इंसान के मूल के बारे में कैसे समझाऊंॅगा। ठीक है मैं बताता हॅू। चाल्र्स डार्विन ने इस विषय में तथ्यों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। सोहम स्वामी का ‘‘काॅमनसेंस’’ पढ़ो। कुछ हद तक तुम्हारे सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जायेगा। यह प्रकृतिक घटनाचक्र है। अचानक कुछ तत्वों के मिश्रण से बने एक धूंधले घनीभूत पूंज से पृथ्वी का निर्माण हुआ। कब? इसके लिये इतिहास पढ़ो। यही प्रक्रिया बाद में जानवरों और फिर मनुष्य को जन्म देेने में हुई। डार्विन की ओरिजन आॅफ स्पीशीज पढ़ो और इसके बाद का सारा विकास मनुष्य के प्रकृति के साथ निरंतर सघर्षो और उस पर विजय पाने के प्रयत्नों का परिणाम है। इस घटनाचक्र का यही सबसे संक्षिप्त सार हो सकता है। 
तुम्हारी दूसरी दलिले ये भी  हो सकती है कि तुम पूछो कि एक बच्चा अंधा या अपाहिज क्यो पैदा होता है अगर यह उसके पूर्व जन्मों के कर्मो का फल नही है तो? इस समस्या के बारे में जीव विज्ञानियों ने अच्छी तरह समझाया है क्योंकि यह मात्र एक जीव वैज्ञानिक घटनाचक्र है। उनके अनुसार सारा दायित्व उनके माता पिता का है जो कि जाने अंजाने अपने कर्मो के द्वारा अपने बच्चे के जन्म से पूर्व ही अपाहिज होने के उत्तरदायी है। 
सहज ही तुम दूसरा सवाल पूछोगें जो की काफी बचकाना है। यदि कोई भगवान नही है तो लोग कैसे उसमें विश्वास करने लगे? मेरा उत्तर साफ व संक्षिप्त है कि जिस प्रकार कि वे भूतो में, बूरी आत्माओं में विश्वास करते है उसी प्रकार बस फर्क सिर्फ इतना है कि भगवान में विश्वास सर्वत्र है और दर्शनशास्त्र पूर्ण विकसित। कुछ और घटको की तरह मै इसके मूल को दमनकारियों का चातुर्यकौशल नही मानता जिसके अंतर्गत वे एक परमात्मा के बारे में उपदेश देकर लोगों को अपनी गुलामी में रखना चाहते थे, और उसके बलबूते पर अपनी सत्ता के लिये एक अधिकार और मान्यता चाहते थे। जबकि मैं उसने इस आवश्यक बिन्दू पर असहमत नही हूॅॅ कि सभी मत व धर्म और ऐसी सारी संस्थाए बाद में दमनकारीयों और शोषको के सहयोगी मात्र बनकर रह गये। हर धर्म में राजा के प्रति बगावत भी एक पाप माना गया था भगवान के मूल के बारे मंे मेरा अपना विचार यह है कि मानव की सीमाओं, कमजोरियों को विचार करके भगवान को काल्पनिक अस्तित्व मे लाया गया जिससे की मनुष्य हर कठिनतम परिस्थितियों का सामना  कर सके, सभी खतरो से निडरता से जूझ सके और अपने धर्म और मद पर काबू पा सके। 
भगवान अपने वैयक्तिक कानूनों और पैतृक उदारता के तहत कल्पित किया गया और वृहत विस्तार से उसका चित्र खीचा गया। वह निवारक तत्व के रूप में प्रयोग होना था जब उसके क्रोध और वैयक्तिक नियम की चर्चा हुई जिससे की आदमी समाज के लिये खतरा न बन सके। उसे एक पिता, माॅ, बहन, भाई, मित्र तथा सहयोगी के रूप में भी ढाला जाना था जिससे की उसकी पैतृक योग्यताए समझाई जा सके। जिससे की जब व्यक्ति भारी दुख में हो और उसके साथ विश्वासघात किया गया हो तथा उसके सारे मित्र छोड़कर चले गये हो तब वह इस विचार में सांत्वना प्राप्त कर सकता है कि भगवान के रूप में एक अकेला मित्र अब भी उसके साथ है जो कि उसका पक्ष लेगा और वह सर्वशक्तिमान है तथा कुछ भी कर सकता है। पुरातनकाल में वास्तव में यह समाज के लिये बहुत उपयोगी था। भगवान के होने का विचार मुसीबत में फंसे आदमी के लिये बहुत सहायक है।
समाज को इस विश्वास से लड़ना है तथा साथ ही साथ मूर्ति पूजा से भी और इस धार्मिक संर्कीणता से भी। इसी प्रकार जब आदमी अपने पैरो पर खड़े होने का प्रयत्न करता है और एक वास्तविकतावादी बनना चाहता है तो उसे अपना विश्वास उतारकर फैक देना चाहिए तथा उन सारी मुसीबतों, परेशानियों का सामना करना चाहिए जिसमेें परिस्थितियों में उसे धकेल दिया है। बिल्कुल यही मेरा हाल है। यह मेरे सोचने का तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मुझे नही पता की मेरी स्थिति में भगवान में विश्वास और रोज की प्रार्थना जिससे की मैं मनुष्य के लिये बहुत ही स्वार्थपरक तथा गिरा हुआ कार्य मानता हॅू, मेरे लिये सहायक हो सकती थी या ये मेरी स्थिति को और बुरा बना देती। मैनें पढ़ा है कि नास्तिक समास्याआंे का बहुत साहस से मुकाबला करते है, इसलिये मैं कोशिश कर रहा हॅू कि अपने अंत समय तक अपना सिर उचा करके एक आदमी की तरह खड़ा रहू यहा तक की फाॅसी के तख्ते तक भी। 
देखते है कि मैं आगे कैसे बढ़ता हॅूः मेरे एक मित्र ने प्रार्थना करने के लिये कहा। जब उसे बताया गया कि मैं नास्तिक हूॅ तो उसने कहा, ‘‘तुम्हारे आखरी दिनों में तुम विश्वास करने लगोगें।’’ मैनें कहा, ‘‘नही प्रिय श्रीमान ऐसा नही होगा।’’ मैं सोचूगा कि यह एक निम्नस्तर तथा हतोत्साहित करने वाला कृत्य है। स्वार्थी प्रवृति के कारण मैं प्रार्थना नही करने वाला। पाठको और मित्रो,‘‘क्या यह मित्याभिमान है?’’ और अगर है भी तो, मैं इसी में विश्वास करता हॅू ?
भगत सिंह

 





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