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बोलने की आज़ादी भ्रम भय और बंदिशें

Siddharth Bagde
tpsg2011@gmail.com
Friday, June 20, 2025, 04:06 PM
azadi

बोलने की आज़ादी: भ्रम, भय और बंदिशें

"हमारे देश में बोलने की आज़ादी है!" — यह कथन सुनने में जितना सरल लगता है, उतना ही जटिल हो चुका है इसका अर्थ और व्यवहार। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) हमें “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का अधिकार देता है। परंतु जब एक नागरिक इस अधिकार का प्रयोग करता है, तो उसके सामने मुकदमे, ट्रोलिंग, बहिष्कार, गिरफ्तारी और यहां तक कि राजनीतिक अयोग्यता जैसी घटनाएं घटने लगती हैं।

क्या है बोलने की कीमत?

आज के समय में बोलने का अर्थ है – सत्ता से प्रश्न पूछना, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना, या फिर सामाजिक सच्चाई को उजागर करना। परंतु ऐसे में जो सबसे पहले होता है, वह है:

मुकदमा – बोलने वाले पर राजद्रोह, धार्मिक भावनाएं भड़काने या आईटी एक्ट की धाराओं में केस ठोक दिया जाता है। ट्रोलिंग और गालियाँ – सोशल मीडिया पर संगठित ‘ट्रोल आर्मी’ उनके पीछे पड़ जाती है। नौकरी से निष्कासन – सरकारी हो या निजी, सच बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है। फिल्मों, पुस्तकों, विचारों का बहिष्कार – जब कलाकार या लेखक सवाल उठाते हैं, तो उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध या बहिष्कार की मांग होने लगती है।

राजनीति और कानून: अभिव्यक्ति पर फंदा

एक समय था जब संसद में तेज़ आवाज़ में सच बोलने वाले नेता लोकतंत्र के प्रहरी माने जाते थे। परंतु अब...अगर किसी ने संसद या सरकार की आलोचना की, तो लोकसभा या विधानसभा की सदस्यता भी जा सकती है। अदालतें कभी-कभी कड़ी टिप्पणियों या आलोचनात्मक वक्तव्यों पर सजा तक दे देती हैं। और यही नहीं, कोई यदि "आपत्तिजनक" बोल दे, तो भविष्य में चुनाव लड़ने से भी वंचित किया जा सकता है। तो फिर प्रश्न यह है – क्या सचमुच बोलने की आज़ादी है?

स्वतंत्रता नहीं, नियंत्रित अभिव्यक्ति

वर्तमान परिस्थिति हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या हम "संविधान द्वारा मिली आज़ादी" का सही अर्थ भूलते जा रहे हैं? क्या हम आज एक ऐसे युग में पहुंच गए हैं जहां "बोलने की आज़ादी" केवल वॉलपेपर की तरह टंगी हुई एक पंक्ति भर रह गई है? अगर अभिव्यक्ति की हर कोशिश दंडनीय बनती जा रही है, यदि हर असहमति राष्ट्रविरोध बन जाती है, और अगर हर आलोचना अपराध मानी जाने लगे, तो यह "लोकतंत्र" किस दिशा में जा रहा है?

समाधान: साहस, संवाद और संवैधानिक समझ

समाज को डर की संस्कृति से निकालकर संवाद की ओर ले जाना होगा। इसके लिए ज़रूरी है:

1. संविधान की समझ को जन-जन तक ले जाना।

2. विचारों से असहमत हों, तो उनका उत्तर विचारों से दें – मुकदमों से नहीं।

3. मीडिया और सोशल मीडिया का प्रयोग संवाद और सहिष्णुता बढ़ाने के लिए हो, न कि डर फैलाने के लिए।

4. साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षकों और नेताओं को सच बोलने का साहस देना।

"बोलने पर मुक़दमा होगा, गालियाँ मिलेंगी, नौकरी जाएगी... पर बोलने की आज़ादी है!"

यह वाक्य जितना व्यंग्यात्मक है, उतना ही यथार्थपरक भी। लोकतंत्र की रक्षा केवल वोट से नहीं होती, विचार की स्वतंत्रता और बोलने की हिम्मत से होती है।

यदि हम आज नहीं बोले, तो कल हमें बोलने का अवसर ही नहीं मिलेगा — क्योंकि तब बोलना ही अपराध होगा।





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