एक पेड़ एक ज़िंदगी Siddharth Bagde tpsg2011@gmail.com Friday, June 20, 2025, 05:39 PM एक पेड़ एक ज़िंदगी हर वर्ष 5 जून को हम विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं, लेकिन क्या यह दिन केवल भाषणों और औपचारिकताओं तक सीमित रह जाना चाहिए? आज जब वायुमंडल विषैला हो चुका है, जलवायु परिवर्तन मानवता को संकट में डाल रहा है और पृथ्वी की हरियाली समाप्त हो रही है – तब "एक पेड़, एक जिंदगी" केवल एक नारा नहीं, जीवन का सूत्र बन जाना चाहिए। पेड़ क्यों ज़रूरी है? एक वर्ष में लगभग 100 किलो ऑक्सीजन उत्पन्न करता है। 10–15 लोगों को एक दिन की ऑक्सीजन दे सकता है। भूमि का कटाव रोकता है। वर्षा के जल को संचित करता है। पक्षियों, जीव-जंतुओं का आश्रय होता है और सबसे महत्वपूर्ण – धरती को जीवित रखता है। प्रकृति की अद्भुत रचनाओं में से एक है — वृक्ष। जब हम गहरी साँस लेते हैं, जब हम हरियाली देखकर सुकून पाते हैं, जब बारिश की बूँदें धरती को भिगोती हैं—तो इसके पीछे एक मौन, निस्वार्थ संरक्षक होता है। एक औसतन विकसित पेड़ एक वर्ष में लगभग 100 किलो ऑक्सीजन उत्पन्न करता है, जो 10–15 लोगों के लिए एक दिन की ऑक्सीजन के बराबर होती है। जिस वायु को हम हर पल निःशुल्क ग्रहण करते हैं, वह इन्हीं वृक्षों की देन है। यह तथ्य अकेले ही उनके महत्व को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। पेड़ न केवल वर्षा आकर्षित करते हैं, बल्कि जल को संचित भी करते हैं। उनकी जड़ें मिट्टी को थामे रखती हैं, जिससे वर्षा का पानी धरती में समा जाता है और भूजल स्तर संतुलित रहता है। जहां पेड़ होते हैं, वहां जल संकट कम होता है। यही कारण है कि जंगलों के कटाव से सूखा और बाढ़ दोनों की समस्याएं बढ़ती हैं। पेड़ भूमि के कटाव को रोकते हैं। उनकी जड़ें मिट्टी को बांधकर रखती हैं जिससे वह बहने नहीं पाती। इसके अतिरिक्त, गिरे हुए पत्ते और जैविक पदार्थ मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं। खेतों के आसपास पेड़ होने से न केवल पर्यावरण बेहतर रहता है, बल्कि कृषि उत्पादन भी अधिक होता है। पेड़ केवल मानव के लिए नहीं, बल्कि पक्षियों, कीटों, पशुओं और सूक्ष्मजीवों के लिए भी एक आश्रय हैं। एक विकसित पेड़ पर सैकड़ों जीव-जंतु आश्रय लेते हैं। जब हम एक पेड़ काटते हैं, तो हम केवल लकड़ी नहीं खोते, बल्कि एक पूरा जैविक संसार समाप्त कर देते हैं। पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर वातावरण को शुद्ध करते हैं। वे ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। वृक्षों की छाया और वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया आसपास के क्षेत्र का तापमान कम करती है, जिससे शहरी ‘हीट आइलैंड’ प्रभाव भी घटता है। शोध बताते हैं कि हरे-भरे वातावरण में रहने वाले लोग मानसिक रूप से अधिक शांत और खुश रहते हैं। अस्पतालों के पास हरियाली हो तो मरीजों के ठीक होने की गति भी तेज होती है। स्कूलों और कॉलोनियों के आसपास वृक्ष हों तो बच्चे अधिक स्वस्थ और सृजनशील होते हैं। वृक्षों की घटती संख्या: चिंता की घड़ी आज का मानव समाज विकास की दौड़ में जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है, उसमें प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन गहराई से प्रभावित हो रहा है। विशेष रूप से वृक्षों की घटती संख्या एक गंभीर समस्या बन चुकी है। वनों की अंधाधुंध कटाई, निरंतर फैलते शहरीकरण, सड़क निर्माण और व्यावसायिक गतिविधियों की असीमित वृद्धि के कारण पेड़ तेजी से समाप्त हो रहे हैं। यह स्थिति केवल पर्यावरणीय दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि मानव जीवन के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न कर रही है। वृक्ष न केवल हमें शुद्ध ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, बल्कि पृथ्वी के तापमान को संतुलित करने, वर्षा को आकर्षित करने, जल स्रोतों को संचित करने और मृदा संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके बिना नदियाँ सूखने लगती हैं, भूजल स्तर गिरता है और प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति बढ़ जाती है। आज हम जलवायु परिवर्तन के जो गंभीर दुष्परिणाम देख रहे हैं – जैसे असमय वर्षा, लू, बर्फबारी में कमी, और बाढ़ या सूखे की तीव्रता – इन सबका मूल कारण वृक्षों की घटती संख्या है। वृक्षों की कटाई का एक बड़ा कारण अंधाधुंध शहरीकरण है। नए मकानों, कॉलोनियों और औद्योगिक क्षेत्रों के लिए जमीन की आवश्यकता वृक्षों की बलि ले रही है। सड़कें चौड़ी की जा रही हैं, पुल बनाए जा रहे हैं, और इन सबके लिए वनभूमि को समाप्त किया जा रहा है। दुर्भाग्यवश, इस नुकसान की भरपाई के लिए वृक्षारोपण के कार्य या तो होते नहीं या होते भी हैं तो केवल औपचारिकता बनकर रह जाते हैं। जैव विविधता पर भी इसका गंभीर असर पड़ा है। पेड़-पौधों की घटती संख्या के कारण पक्षियों, जानवरों और कीट-पतंगों का प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहा है। कई प्रजातियाँ या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं। जैव विविधता में असंतुलन का प्रभाव हमारी खाद्य श्रृंखला, औषधीय संसाधनों और पारिस्थितिक संतुलन पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। इसके अतिरिक्त, वृक्षों की अनुपस्थिति से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। शहरों में वायु में कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और अन्य विषैली गैसों की मात्रा में लगातार वृद्धि हो रही है। यदि पर्याप्त वृक्ष न हों, तो यह गैसें वायुमंडल में जमा होकर मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं – सांस की बीमारियां, त्वचा रोग, और यहां तक कि कैंसर जैसी गंभीर स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। इस संकट का समाधान केवल सरकारी योजनाओं पर निर्भर नहीं हो सकता। हमें व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर वृक्षारोपण, संरक्षण और पुनरुद्धार के प्रयास करने होंगे। हर नागरिक को यह समझना होगा कि एक वृक्ष केवल लकड़ी का टुकड़ा नहीं है, बल्कि वह धरती की जीवनरेखा है। स्कूलों, कार्यालयों और सार्वजनिक स्थानों पर वृक्ष लगाने और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी सामूहिक रूप से ली जानी चाहिए। यदि आज हमने इस संकट की गंभीरता को नहीं समझा, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए हम एक ऐसा भविष्य छोड़ जाएंगे जहाँ न शुद्ध हवा होगी, न जल, और न ही जीवन का संचार। अतः यह समय केवल चिंता करने का नहीं, बल्कि जागरूक होकर ठोस कदम उठाने का है। वृक्षों की सुरक्षा का संकल्प लेना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है – यही हमारी धरती को बचाने का मार्ग है। भारत को फिर से हरा-भरा बनाने का सूत्र यदि हर नागरिक एक पेड़ लगाए और उसकी नियमित देखभाल करे, तो भारत को फिर से हरा-भरा बनाना संभव है। यह केवल पर्यावरण का प्रश्न नहीं, बल्कि पृथ्वी के अस्तित्व, स्वच्छ वायु, शुद्ध जल और जैव विविधता के संरक्षण का संकल्प है। इस दिशा में समाज के प्रत्येक वर्ग की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। विद्यालय और छात्र: बचपन से हरियाली की सीख प्रत्येक विद्यालय में यह नियम बनना चाहिए कि हर छात्र एक पौधा गोद ले और वर्षभर उसकी देखभाल करे। इस प्रक्रिया में न केवल छात्रों का पर्यावरण के प्रति लगाव बढ़ेगा, बल्कि उन्हें जिम्मेदारी का भी अनुभव होगा। "मेरा पौधा, मेरी ज़िम्मेदारी" जैसे अभियानों से बच्चों में प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता जागेगी। विवाह, जन्मदिन और उत्सवों में वृक्षारोपण जहाँ पहले शादी या उत्सवों पर केवल भोज और सजावट पर ध्यान दिया जाता था, वहीं अब पेड़ लगाना एक नई परंपरा बननी चाहिए। हर विवाह समारोह में दूल्हा-दुल्हन द्वारा एक पेड़ लगाना, जन्मदिन पर बच्चों द्वारा पौधा रोपण और धार्मिक आयोजनों में वृक्ष दान जैसी गतिविधियाँ हमारे सामाजिक आचरण का हिस्सा बन सकती हैं। यह सांस्कृतिक परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हरियाली की विरासत को आगे बढ़ाएगी। नगर निगम और पंचायतें: सख्त कानून, हरियाली की सुरक्षा स्थानीय प्रशासन – नगर निगम और ग्राम पंचायतों – को वृक्ष सुरक्षा कानूनों को सख्ती से लागू करना चाहिए। पेड़ काटने वालों पर जुर्माना, क्षतिपूर्ति पौधारोपण और पेड़ों की गणना जैसी योजनाएं शुरू की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक स्थलों पर लगाए गए पेड़ों की निगरानी और देखभाल के लिए समुदाय-आधारित समितियाँ गठित की जानी चाहिए। शहरीकरण के साथ-साथ वृक्षारोपण को अनिवार्य किया जाए विकास के नाम पर हो रहे निर्माण कार्यों में यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि जितने पेड़ काटे जाएँ, उससे दुगुने पेड़ लगाए जाएँ। बिल्डरों, सड़क निर्माण एजेंसियों और औद्योगिक परियोजनाओं को यह शर्त दी जानी चाहिए कि वे वृक्षारोपण की ज़िम्मेदारी लें और उसकी सफलता की नियमित रिपोर्ट दें। हर नए निर्माण को ग्रीन बिल्डिंग प्रमाणपत्र तभी मिले जब वह पर्यावरणीय संतुलन का पालन करे। वृक्ष कभी धरती की चुप भाषा थे। वे हवा की सरसराहट में संवाद करते थे, चिड़ियों की चहचहाहट में जीवन की धड़कनें सुनाई देती थीं। पेड़ केवल लकड़ी या ऑक्सीजन देने वाला स्त्रोत नहीं थे, वे समय के साथ पलते एक जीवन थे – अपने भीतर अनगिनत जंतुओं, पक्षियों, कवियों और स्मृतियों को समेटे हुए। किंतु आज, जब हम आधुनिकता की चमकदार गली में आँख मूँदकर दौड़ रहे हैं, तब कहीं पीछे उन वृक्षों की साँसें थम रही हैं, जिन्हें हमने विकास की बलिवेदी पर कुर्बान कर दिया। कभी सुबह-सवेरे खिड़की के बाहर बैठने वाली गौरैया अब हमारे बच्चों को कहानी में ही मिलती है। वह पंछी, जो वर्षों से मनुष्य के आँगन की साथी रही, अब कहीं खो गई है। और यह खो जाना संयोग नहीं, हमारे ही कर्मों का परिणाम है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने न केवल हमारी भूमि की हरियाली छीनी, बल्कि उन हजारों चिड़ियों के घर भी छीन लिए जो अपनी शाखाओं पर जीवन बुनती थीं। एक चिड़िया के लिए घोंसला महज़ एक घर नहीं होता, वह उसकी मातृत्व की भूमि है, उसकी पुकार है, उसका संसार है। और जब पेड़ नहीं रहे, तो उनके घर भी बिखर गए। यह बिखराव केवल चिड़ियों तक सीमित नहीं रहा। यह हवा में घुलती कार्बन डाईऑक्साइड में परिलक्षित होने लगा। एक वृक्ष, जब वह अपने संपूर्ण यौवन पर होता है, तो प्रति वर्ष सैकड़ों किलोग्राम कार्बन को अवशोषित कर लेता है। वह निःशुल्क, निश्छल और निरंतर हमारी साँसों की रक्षा करता है। किंतु जब वह वृक्ष काट दिया जाता है, तब वह कार्बन हमारे श्वसन तंत्र में उतरती है – अस्थमा, फेफड़ों की बीमारियाँ, गर्मी और घुटन के रूप में। इन दिनों मौसम भी कुछ चिढ़ा-चिढ़ा रहता है। जैसे वह हमें हमारे ही कर्मों का उत्तर देने आया हो। बरसात अब अपनी लय में नहीं आती। कभी बहुत कम, तो कभी बहुत ज़्यादा। कभी समय से पहले, तो कभी महीने बीत जाने पर भी एक बूँद नहीं। यह असंतुलन जलचक्र की क्रूर प्रतिक्रिया है। वृक्ष वर्षा के लिए केवल निमंत्रण ही नहीं होते, वे बादलों को थामे रखने वाले स्तंभ हैं। जब पर्वतीय क्षेत्रों की हरियाली छीन ली जाती है, जब पहाड़ों की छाती पर बेतरतीब सड़कें और भवन उगाए जाते हैं, तब वे नंगे पहाड़ न तो नमी रोक पाते हैं, न मिट्टी। यह कटाव केवल धरती की सतह का नहीं, बल्कि हमारे भविष्य का है। विकास की भूख इतनी तेज़ है कि अब खेत भी पेड़ों को निगल रहे हैं। जहाँ पहले खेतों की सीमाओं पर पीपल, नीम, आम, जामुन के पेड़ रोपे जाते थे, वहीं अब “उत्पादन बढ़ाओ” की रट में इन वृक्षों को अनुपयोगी मानकर हटा दिया गया है। ट्रैक्टर चलते हैं, मशीनें फसल काटती हैं, लेकिन पेड़ जो पीढ़ियों तक छाया देते थे, वे अब ‘बाधा’ माने जाते हैं। और इस तथाकथित 'प्रगति' में सबसे बड़ा नुकसान हुआ है जंगलों का। वन जो कभी भारतीय संस्कृति की आत्मा हुआ करते थे – जिनमें तपस्वियों ने साधना की, आदिवासी समाजों ने जीवन रचा – आज वे नक्शों में सिमट गए हैं। हमने विज्ञान को साधन समझा, साध्य नहीं। और यही हमारी भूल रही। सौर ऊर्जा, हाइड्रो पावर, इलेक्ट्रिक वाहन – यह सब जरूरी हैं, लेकिन यह सब वृक्षों का स्थान नहीं ले सकते। क्योंकि केवल वृक्ष ही जीवन के इतने अंगों से एक साथ जुड़ते हैं – जल, वायु, मिट्टी, जीव-जंतु, मनुष्य, पक्षी, भावनाएँ और स्मृतियाँ। वृक्षहीन पृथ्वी – सूखती साँसों की कथा हमारे बचपन में एक कहानी कही जाती थी — कि वृक्षों में देवता वास करते हैं। कोई तुलसी के आगे दीप जलाता था, तो कोई पीपल के नीचे सूत बाँधकर व्रत करता था। लेकिन इन धार्मिक प्रतीकों के पीछे एक वैज्ञानिक सच्चाई छिपी थी — वृक्षों का संरक्षण। जब तक समाज ने इन वृक्षों को आदर दिया, तब तक पर्यावरण ने भी हमें आशीर्वाद ही दिया। लेकिन अब, जब पेड़ कटने लगे और कंक्रीट की दीवारें उगने लगीं, तब प्रकृति ने चुप रहना बंद कर दिया। कभी बारिश की एक बूँद ज़मीन पर गिरने से पहले कई पत्तों पर ठहरती थी, रुकती थी, टपकती थी। वह रास्ता बनाती थी और मिट्टी में समा जाती थी। अब वह बारिश सीधे छतों से बहकर नालों में चली जाती है — एक झटके में, बिना ज़मीन को छुए। यही कारण है कि पानी अब जमीन में नहीं उतरता, बाढ़ बनकर शहरों को डुबो देता है और फिर लम्बे सूखे में धरती दरारों से भर जाती है। यह जल संतुलन का टूटना है — जो सीधे वृक्षों की अनुपस्थिति से जुड़ा है। गांवों से शहरों तक, जहाँ पहले पेड़ खड़े रहते थे, अब वहाँ गाड़ियों की कतारें हैं। इन गाड़ियों से निकलता धुआँ वायुमंडल में घुलता है, और कोई वृक्ष नहीं जो उसे सोख सके। परिणामस्वरूप, कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ती है, और ग्लोबल वॉर्मिंग का एक नया अध्याय शुरू होता है। पहले जो गर्मी जून में आती थी, अब वह अप्रैल से ही शरीर झुलसाने लगती है। छाँव की तलाश में लोग इधर-उधर भागते हैं, लेकिन छाँव देने वाले वृक्ष अब बहुत कम बचे हैं। और यह गर्मी सिर्फ शरीर को नहीं, मस्तिष्क और समाज को भी झुलसा रही है। जब वातावरण शीतल होता है, तो मनुष्य भी संयमित होता है। लेकिन जब हवाएँ भी गरम और भारी हो जाएँ, तो मनुष्य का स्वभाव भी चिड़चिड़ा और आक्रामक हो जाता है। वृक्षों की अनुपस्थिति में केवल पर्यावरण ही नहीं, मानव सभ्यता का मानसिक संतुलन भी बिगड़ता है। याद कीजिए पुराने गांवों की वो परंपरा, जब प्रत्येक घर के सामने एक नीम, एक आम और एक तुलसी हुआ करती थी। वो पेड़ केवल फल या दवा नहीं देते थे, वे रिश्ते बनाते थे। बच्चों की झूले की रस्सियाँ उन्हीं से बँधती थीं, दादी की कहानियाँ उन्हीं की छाया में बुनी जाती थीं। विवाह, मृत्यु, उत्सव — हर जीवन क्षण किसी न किसी वृक्ष की छाया में होता था। अब क्या है? बच्चों को पेड़ की छाया नहीं, मोबाइल स्क्रीन की चमक मिलती है। और दादी की कहानियाँ तो शायद अब Google में कहीं दबी पड़ी हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की हरियाली एक समय में मानसून के स्थायी सन्देशवाहक हुआ करती थी। हिमालय की तलहटी, सह्याद्रि के पर्वत, सतपुड़ा और विन्ध्य की पहाड़ियों में हर मौसम अपनी संतुलित धुन में आता-जाता था। अब इन पहाड़ियों को भी बेरहमी से काटा जा रहा है — कभी खनन के नाम पर, तो कभी सड़कों और होटलों के नाम पर। नतीजा यह हुआ कि न तो वहाँ के स्थानीय पक्षी बचे, न वह पुराना शीतलपन, और न ही वर्षा का समय पर आना। इन सबके मूल में है — विकास की हमारी विकृत परिभाषा। हमने विकास को केवल ऊँची इमारतों, चौड़ी सड़कों और चमकती रोशनी से जोड़ लिया है। हमने यह नहीं सोचा कि यदि हवा में साँस लेने योग्य कुछ नहीं बचा, तो उन इमारतों में किसका जीवन होगा? वनों की कटाई केवल पारिस्थितिकीय संकट नहीं है, यह एक सांस्कृतिक विनाश भी है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में हजारों वर्षों से वनवासी समाज पेड़-पौधों के साथ जीते आए हैं। उनके गीतों, कहानियों और पूजा में पेड़ों की आत्मा है। जब जंगल खत्म होते हैं, तो केवल वृक्ष नहीं कटते, एक सभ्यता की जड़ें कटती हैं। आज खेतों की सीमा तक भी मशीनें पहुँच गई हैं। किसान अब पेड़ों को "बेकार छाया" समझता है, जिससे "फसल पर असर" पड़ता है। लेकिन उसे यह नहीं बताया गया कि वह पेड़ भूमि की नमी को बनाए रखता है, कीटों को संतुलित करता है, और भूजल को संचित करने में मदद करता है। यदि एक खेत के चारों ओर वृक्ष हों, तो वह खेत वर्षों तक उपजाऊ बना रह सकता है, परंतु यदि वहाँ सिर्फ उर्वरक हैं और वृक्ष नहीं, तो वह भूमि कुछ ही वर्षों में बंजर हो जाती है। इतिहास गवाह है — जब-जब किसी सभ्यता ने वृक्षों की उपेक्षा की, वहाँ विनाश तय हुआ। सिंधु घाटी की सभ्यता हो या माया सभ्यता, उनके पतन का कारण सिर्फ बाहरी आक्रमण नहीं था, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग और पुनर्वनीकरण की उपेक्षा भी था। जैसे-जैसे पेड़ों की संख्या कम होती गई, वैसी-वैसी प्रकृति की विविधता भी संकुचित होती चली गई। पेड़ न केवल हमारे जीवन के साथी हैं, बल्कि वे असंख्य जीवों, पक्षियों और कीटों के आवास भी हैं। हर पेड़ अपने आप में एक छोटा-सा इकोसिस्टम होता है। उसकी शाखाओं पर पक्षी घोंसला बनाते हैं, उसकी छाया में छोटे जानवर पलते हैं, उसकी जड़ों के आसपास अनेक सूक्ष्म जीव रहते हैं। जब हम वृक्षों को काटते हैं, तो हम न केवल पेड़ों को नष्ट करते हैं, बल्कि उन जीवों के जीवन को भी समाप्त कर देते हैं। इस वनस्पति और जीव-जंतु के आपसी संबंध को समझना बहुत ज़रूरी है। कई पक्षी और कीट पेड़ों के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते। जब पेड़ कटते हैं, तो उनके घोंसले और आश्रय भी समाप्त हो जाते हैं। चिड़ियाँ अपने घोंसलों को बनाने के लिए शाखाएँ और पत्ते जुटाती हैं, उनकी सुरक्षा के लिए पेड़ों की जरूरत होती है। परन्तु जब पेड़ नहीं होते, तो वे घोंसले बनाना छोड़ देती हैं या मजबूरन शहरी क्षेत्रों में पनपती हैं, जो उनके लिए अनुकूल नहीं होता। इससे पक्षियों की संख्या कम होती है, जैव विविधता घटती है और पारिस्थितिक तंत्र असंतुलित हो जाता है। वृक्षों की कमी के साथ वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है। पेड़ हमारे वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोख कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जो मानव जीवन के लिए आवश्यक है। जब पेड़ कम हो जाते हैं, तो वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ जाता है, जो धरती के तापमान में वृद्धि का प्रमुख कारण है। इस वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण ग्लोबल वार्मिंग होती है, जिसके अनेक प्रतिकूल प्रभाव सामने आते हैं — हिमनदों का पिघलना, समुद्र के स्तर में वृद्धि, और मौसम के पैटर्न का बिगड़ना। बारिश का समय से न होना और अनियमित होना भी इसी ग्लोबल वार्मिंग और पेड़ों की कटाई का नतीजा है। पेड़ जलवायु संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं, वे नमी को बनाए रखते हैं और बारिश के चक्र को नियंत्रित करते हैं। जब पेड़ कट जाते हैं, तो जलचक्र प्रभावित होता है, जिससे बारिश असामयिक होती है, कभी बहुत अधिक तो कभी बहुत कम। यह असंतुलन खेती को भी प्रभावित करता है और अनाज की पैदावार घटने लगती है, जिससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों में भी हरियाली तेजी से घट रही है। यह क्षेत्र प्राकृतिक जल स्रोतों का स्रोत होते हैं। पेड़ों की कटाई से पहाड़ों की मिट्टी कट जाती है, जिससे भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती हैं और नदी-नालों का प्रवाह असंतुलित हो जाता है। इसके साथ ही, नदियों में पानी का प्रवाह भी प्रभावित होता है जिससे जल संकट गहरा जाता है। खेती के विस्तार के नाम पर पेड़ों की कटाई कर जंगलों को नष्ट किया जा रहा है। यह दीर्घकालीन दृष्टि से गलत है क्योंकि जंगल जैव विविधता का केंद्र हैं और वे पर्यावरण संतुलन बनाए रखते हैं। बिना जंगलों के, हमारी पृथ्वी एक शुष्क और वीरान ग्रह बन सकती है, जहाँ जीवन का अस्तित्व कठिन होगा। इस पूरे संकट में मानव की भूमिका नकारात्मक है, लेकिन समाधान भी हमारे ही हाथ में है। पुनर्वनीकरण और वृक्षारोपण ही इस परिस्थिति से उबरने का मार्ग है। हमें समझना होगा कि वृक्ष लगाना केवल पर्यावरण के लिए नहीं, बल्कि अपने भविष्य और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आवश्यक है। वृक्षों को बचाने और बढ़ाने के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग को जिम्मेदारी उठानी होगी। सरकारों को कठोर कानून बनाकर उनकी रक्षा करनी होगी। साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति को भी अपने स्तर पर पेड़ लगाने और उनकी देखभाल करने का संकल्प लेना होगा। इस प्रकृति के उपहार को संरक्षित करना न केवल हमारी जिम्मेदारी है, बल्कि एक अनिवार्य कर्म भी है। तभी जाकर हम धरती को फिर से हरा-भरा और जीवन से भरपूर बना पाएंगे। याद रखिए, एक पेड़ लगाना और बचाना, एक ज़िंदगी बचाने के समान है। वृक्षों की कटाई से उत्पन्न पर्यावरणीय संकट का समाधान केवल तकनीकी उपायों या सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं हो सकता। यह एक सामाजिक और मानसिक परिवर्तन का भी विषय है। हमें अपने जीवनशैली, सोच और मूल्यों को बदलना होगा। जब तक हम पेड़ों को सिर्फ “सजावट” या “सुविधा” समझेंगे, तब तक उनके प्रति हमारी लापरवाही बनी रहेगी। हमें पेड़ को जीवन का अविभाज्य हिस्सा समझना होगा। आजकल बहुत से अभियान और संगठन वृक्षारोपण को बढ़ावा दे रहे हैं। “हरियाली बचाओ” से लेकर “वन महोत्सव” तक कई प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ तकनीकी नवाचार भी पेड़ लगाने और उनकी देखभाल को आसान बना रहे हैं, जैसे ड्रिप इरिगेशन से पानी बचाना, ड्रोन से बड़े क्षेत्र में बीज बोना आदि। लेकिन यह सब तभी सफल होगा जब आम नागरिक भी इसमें सक्रिय भागीदारी करें। वृक्षारोपण केवल खेतों या जंगलों तक सीमित नहीं होना चाहिए। हर घर, हर मोहल्ले, हर स्कूल और कॉलेज के मैदान में पेड़ लगाने की व्यवस्था होनी चाहिए। शहरी इलाकों में छतों, बालकनी और सड़क किनारे पेड़ लगाने पर जोर दिया जाना चाहिए। इससे न केवल पर्यावरण स्वच्छ होगा, बल्कि मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। हमारे छोटे-छोटे प्रयास भी बड़े बदलाव ला सकते हैं। किसी बच्चे को पेड़ लगाने की प्रेरणा देना, किसी संस्थान में पौधे लगाने की पहल करना, या फिर प्लास्टिक के उपयोग को कम करके पर्यावरण को सहयोग देना, ये सब कदम प्रकृति को बचाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण हैं। पृथ्वी पर जीवन के लिए पेड़ एक अनिवार्य आधार हैं। वे हमें ऑक्सीजन देते हैं, जल संरक्षण करते हैं, जलवायु नियंत्रित करते हैं, और जीवन के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं। पेड़ों की कटाई का मतलब है जीवन की कटाई। इसलिए हमें यह समझना होगा कि पेड़ों के बिना हमारा अस्तित्व असंभव है। “एक पेड़, एक जिंदगी” यह नारा केवल एक शब्द नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की सुरक्षा का मूल मंत्र है। यदि हम आज पेड़ लगाने और बचाने के लिए कदम नहीं उठाएंगे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें दोष देंगी कि हमने उनकी सांसें छीनीं। इसलिए आइए, इस पर्यावरण दिवस पर हम संकल्प लें कि हम अपने आसपास के हर खाली स्थान पर एक नया पौधा लगाएंगे और उसे बचाएंगे। छोटे-छोटे प्रयास मिलकर एक बड़ा बदलाव लाते हैं। पर्यावरण की रक्षा हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। जब पेड़ बचेंगे, तो धरती हरे भरे रहेंगे, और हम सबका जीवन खुशहाल रहेगा। Tags : One Life" "One Tree greenery climate change become toxic Today