वास्तविकता Siddharth Bagde tpsg2011@gmail.com Friday, June 20, 2025, 06:03 PM वास्तविकता धर्म में जब आडंबर, अंधविश्वास, पाखंड और हानिकारक परंपराएं घर कर जाएं, तब उनका विरोध करना धर्म-विरोध नहीं, बल्कि समाज और प्रकृति के संरक्षण तथा रक्षा की नैतिक जिम्मेदारी है। आश्चर्य इस बात का है कि जो इन कुप्रथाओं को रोकता है, उसकी भावना आहत नहीं मानी जाती, लेकिन जो इनका समर्थन करता है, उसकी भावना को विशेषाधिकार प्राप्त होता है। क्या केवल वही भावना ‘धार्मिक’ है जो ईश्वर की मूर्तियों को पूजती है? और जो भावना जीवन, प्रकृति, और मानवता की रक्षा करना चाहती है, क्या वह भावना अ-धार्मिक है? पत्थर, जो वर्षों से निर्जीव पड़ा था, उसे भगवान बनाने का निर्णय भी तो इंसान ने ही लिया। जब पूजा शुरू हुई, तब वही पत्थर इंसान की जान से भी मूल्यवान हो गया। लेकिन उस पत्थर ने कभी किसी मासूम बच्ची की रक्षा नहीं की, जिसकी चीखें मंदिर की दीवारों से टकरा कर रह गईं। कहते हैं, मंदिर पवित्र होता है। लेकिन मंदिर के पुजारी कितने पवित्र हैं, यह रहस्य नहीं—एक खुली सच्चाई है। यदि पुजारी पवित्र नहीं, तो क्या मंदिर पवित्र रह सकता है? इंसान ईश्वर से मांगता है — हमेशा कुछ न कुछ। और जो कुछ भी वह मांगता है, वह स्वयं के लिए, अपने परिवार के लिए होता है। यह स्वार्थ नहीं तो और क्या है? फिर क्या वह ईश्वर, जो केवल चुनी हुई प्रार्थनाएं सुनता है, पक्षपाती नहीं है? इंसान परिस्थितियों में ढलने की कला सीख गया है — चाहे वे सही हों या गलत। वह जिस समाज और संस्कृति में पले-बढ़े, उसी के ढांचे में खुद को ढाल लेता है। लेकिन कभी-कभी यही ढलना, आने वाली पीढ़ियों पर बोझ बन जाता है। गलत परंपराएं विरासत बन जाएं, तो पीढ़ियां उनके भार तले दम तोड़ती हैं। धरती पर केवल इंसान नहीं, और भी जीव-जन्तु हैं। अगर आत्मा इंसान की होती है, तो पशु-पक्षियों की भी आत्मा होती होगी। लेकिन इंसान के मरने पर संस्कार हैं, क्रियाएं हैं, शोक हैं — और जानवरों के लिए कुछ नहीं। क्यों? क्या केवल मानव ही मोक्ष का अधिकारी है? धर्म, जाति, संस्कार — ये सब इंसान की बनाई हुई व्यवस्थाएं हैं। एक बच्चा जब जन्म लेता है, वह केवल ‘जीव’ होता है। हम ही उसे धर्म सिखाते हैं, जाति बताते हैं, आस्था का बीज बोते हैं। और एक दिन वही बीज वटवृक्ष बनकर उसके जीवन को नियंत्रित करता है — यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी उसी बीज की छाया में होती है। गणेश और दुर्गा की मूर्तियों को प्रकृति की गोद में स्थापित किया जाता है। ब्राह्मणों से शक्ति जागरण कराया जाता है, ताकि वह शक्ति नौ या दस दिन तक भक्तों का कल्याण करे। लेकिन क्या वाकई कल्याण होता है? अगर देवी-देवता उस क्षेत्र में विराजमान हैं, तो उनके प्रभाव की परिधि में कुछ चमत्कारिक होना चाहिए — किसी भूखे को भोजन मिले, किसी बीमार को राहत मिले, किसी अपाहिज को सहारा मिले। लेकिन ऐसा होता नहीं। कई बार देखा गया है कि जिनके घरों में साल-दर-साल देवी-देवताओं को विराजमान किया जाता है, उन्हीं घरों में कलह, अशांति और दुःख का डेरा होता है। तब क्या वह शक्ति केवल मूर्ति तक सीमित है? सवाल सिर्फ इतना है — क्या यह सब दिखावे के लिए है? अगर हाँ, तो क्या यह दिखावा वाकई किसी शक्ति को प्रमाणित करता है? क्यों हम नदी-तालाब में मूर्तियाँ विसर्जित करते हैं और उसी प्रक्रिया में जल को प्रदूषित कर देते हैं? उस प्रदूषण से मछलियाँ मर जाती हैं, जीव-जन्तु दम तोड़ देते हैं। क्या यही शक्ति है — जो हत्या में सहभागी है? तालाब जो प्यास बुझाते हैं, धीरे-धीरे मूर्तियों की मिट्टी से पटते जा रहे हैं। एक दिन वे तालाब केवल नाम के रह जाएंगे। अगर यही शक्ति है, तो ऐसी शक्ति नहीं चाहिए। अगर यह कार्य इंसान का है, तो वह दंड का अधिकारी है। हमारी पीढ़ियाँ इसी आस्था में मरती रहीं, जीती रहीं — लेकिन क्या हमने कुछ अमर किया? क्या हमने कोई धन, कोई नाम, कोई मोक्ष अर्जित किया? नहीं। हमने कुछ नहीं पाया, बस एक परंपरा का बोझ ढोया। अंत में, यह सत्य अपरिवर्तनीय है कि जो धरती, आकाश, पाताल, और सजीव-निर्जीव सभी कुछ नष्ट होने वाले हैं — वह आस्था भी नष्ट हो जाएगी। फिर क्यों हम ऐसी आस्थाओं से चिपके हुए हैं जो आने वाली पीढ़ियों को केवल नुकसान देंगी? Tags : responsibility anti-religion religion hypocrisy superstition ostentation