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अशोक का धम्म

Nilesh Vaidh
nileshvaidh149@gmail.com
Sunday, April 7, 2019, 04:00 PM
 Ashoka's Dhamma

अशोक के धम्म के बारे में जानकारी के प्राथमिक स्रोत उसके द्वारा उत्कीर्ण कराए गए अभिलेख हैं जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न लिपियों और भाषाओं में प्रतिवेदित किए गए हैं।
उसके स्तम्भ लेख संख्या 6 से ज्ञात होता है कि राज्याभिषेक के 12 वर्षों के उपरांत उसने धम्मलिपि उत्कीर्ण करवाने का कार्य प्रारम्भ किया। इसके पश्चात के वर्षों में हम उसे धम्म के बारे लगातार सम्प्रेषण करते हुए पाते हैं।
रोमिला थापर का मानना है कि अशोक के धम्म को एक व्यापक पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए। उसके समय के समाज मे विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संस्तर थे। किसान, व्यापारी, आदिवासी थे तो आदिम पंथों के उपासक भी थे। विभिन्न आस्तिक और नास्तिक सम्प्रदाय थे। नगर जीवन एवं वन्य जीवन के अभ्यस्त लोगों में एक व्यापक सांस्कृतिक खाई भी थी। धम्म के अंतर्गत लाकर इस वैविध्य को एक सुदृढ़ राज्य की अवधारणा से जोड़ा जा सकता था। इसके अतिरिक्त शांति एवं भाईचारे पर आधारित एक राष्ट्रीय जीवन प्रणाली भी धम्म के द्वारा संभव दीख पड़ रही थी। इस प्रकार अशोक ने साम्राज्य को एक विचार से जोड़ने का प्रयास किया।
अशोक ने विभिन्न धर्मों को मानने वाली अपनी प्रजा को परामर्श दिया कि वे अपने धर्म को बड़ा दिखाने के लिए दूसरे धर्म की निंदा न करें। बारहवें दीर्घ शिलालेख में वह सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों को सम्मान देने एवं वाक्संयम की बात करता है। सभी धर्मों में सहअस्तित्व अशोक के धम्म की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है अशोक ने ‘धम्म’ को विशिष्ट बनाने के लिए अन्य प्रचलित धर्मों को सारहीन बनाने का प्रयास नहीं किया है।
कलिंग में अशोक के हृदय परिवर्तन की घटना को बहुत बढ़ा चढ़ाकर देखा जाता रहा है। उसका अहिंसावादी हो जाना अब समय की माँग बन चुका था। यही कारण है कि अशोक ने अपने धम्म में अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया है। उसके दीर्घ शिलालेख संख्या 1 व 5 में उन पशुओं की सूची मिलती है जिन्हें नहीं मारा जाना चाहिए। दीर्घ शिलालेख 13 में वह भेरीघोष को धम्मघोष में बदल देने की बात करता है। यह संभव जान पड़ता है कि राजकीय स्तर पर पशुओं का वध समाप्त हो गया हो लेकिन जंगलों में रहने वाले समुदायों ने अपनी जीवन प्रणाली मुश्किल से बदली हो जिसमें मांस भक्षण भी शामिल था।
धम्म के दायरे में बहुत ही सावधानी से लोगों के नित्यप्रति जीवन को भी ले आया गया था। सदाचारण और सामाजिक जिम्मेदारी धम्म के अंतर्गत आ रहे थे। इसके अतिरिक्त रूढि़वाद को मिटाकर धम्माचरण अपनाने पर बल दिया जा रहा था। अपने दूसरे स्तम्भ लेख में वह अपनी प्रजा को सम्बोधित करता है कि धम्म क्या है? फिर स्वयं ही उत्तर देता है कि दोष से दूर रहना, बहुत से लोगों का कल्याण करना, दया, दान सत्य और पवित्रता ही धम्म है -अपासिनवे बहुकयाने दया दाने सचे सोचवे। तीसरे स्तम्भ लेख में वह यह कहना नहीं भूलता कि ये गुण अवनति की ओर जाते हैं- चाण्ड्य, नैष्ठुर्य, क्रोध, मान, ईष्र्या । इस प्रकार धम्म को एक विवकेशील मनोदशा के रूप में उसके अभिलेखों में पाते हैं जहाँ कुछ करणीय और अकरणीय कार्याें को प्रजा के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। यहाँ अशोक का धम्म एक नैतिक जीवन प्रणाली के रूप में उभरता है।
इस नैतिक जीवन प्रणाली के अंदर दास, भृत्य भी शामिल थे। यह अपेक्षा की जाती थी कि लोग दासों और भृत्यों के साथ उचित व्यवहार करेंगे। बड़ों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना भी इसी के अंतर्गत आता था। ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति आदरसूचक व्यवहार की अपेक्षा की गयी थी।
अशोक के धम्म से उसका पितृवादी शासन भी गहरे ढंग से जुड़ा है। अपनी प्रजा की भलाई के लिए उसने हर संभव प्रयास किए। दूसरे दीर्घ शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालयों और औषधियों का प्रबन्ध किया। सड़कों के किनारे कुएं खुदवाए और छायादार वृक्ष लगवाए। अपनी प्रजा के नित्यप्रति दुःख-दर्द को जानने के लिए उसने प्रतिवेदक नियुक्त किए जो उसे अंतःपुर, पशुशाला या व्यायामशाला- कहीं भी समाचार दे सकते थे। इसीलिए वह अपनी प्रजा को अपनी संतान भी कह रहा था। धम्मयात्राओं के बहाने वह अपनी प्रजा का हाल स्वयं देखता था। धम्म महामात्रों की नियुक्ति धम्म को बढ़ावा देने के लिए की गयी थी।
धम्म के प्रसार के लिए अशोक का व्यक्तित्व भी एक प्रमुख कारक है। उसने धम्म यात्राएं की, भिक्षुओं और श्रमणों को दान दिए और सबसे बढ़कर एक अहिंसापूर्ण जीवन अपनाया। सबसे बढ़कर अशोक अपने स्तम्भ लेख संख्या 1 में कहता है कि उसका उद्देश्य धम्म की संरक्षा करना, लोगों पर धम्म के अनुसार शासन करना, लोगों को धम्म के अनुसार सुखी रखना और उनकी धम्म के अनुसार रक्षा करना है।
अशोक के व्यक्तित्व और उसके बौद्ध धर्म से सम्बन्ध पर जो लेखन हुआ है उसमें आरम्भ में उसे ‘राजर्षि‘ और ‘बौद्ध शासक‘ के विशेषण से अभिहित किया जाता रहा है। उसके कलिंग युद्ध के बाद की घटनाओं को बौद्ध धर्म के आलोक में देखने का प्रयास किया गया। यह भी कहा गया है कि अशोक ने बौद्ध धर्म को राष्ट्रीय धर्म की प्रतिष्ठा दी। हमें अशोक के धम्म और महात्मा बुद्ध के धर्म में अंतर्सम्बन्धों को एक संतुलित दृष्टिकोण से देखना चाहिए।
अशोक का धम्म बौद्ध धर्म की अनुकृति नहीं था। उसके अपने नवाचार थे जो मौर्यकालीन समाज, संस्कृति और राज्य की आवश्यकताओं से उपजे थे। अशोक की धम्म सम्बन्धी विश्वदृष्टि में महात्मा बुद्ध का धर्म उतना ही शामिल था जितना वह उसे मानवीय और सर्वग्राह्य बनाए।
अशोक के भब्रू-बैराट शिलालेख से उसके बौद्ध धर्म सम्बन्धी जुड़ाव स्पष्ट होते हैं। इसका प्रारम्भ मगध के राजा पियदस्सी के संघ के अभिवादन से होता है। वह बुद्ध, धम्म और संघ में आस्था व्यक्त करता है। इसमें बौद्ध धर्म से सम्बन्धित ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। इसे उपासक एवं उपासिकाओं के सुनने और जानने के लिए उत्कीर्ण कराया गया था।
ऽ विनयसमुकस
ऽ अलियवसान
ऽ अनागतभय
ऽ मुनिगाथा
ऽ मौनेयसुत्त
ऽ उपतिसपसन
ऽ लाहुलोवाद
ऽ मृषावाद
बुद्ध के शारीरिक अवशेषों पर एक पीठिका स्थापित करने के बाद वह वह धम्मयात्रा पर भी निकला था। उसने 256 रातें इस परिभ्रमण में व्यतीत की थीं। उसने बौद्ध संघ में विभाजन रोकने के प्रयास किए। रूम्मिनदेई लेख से ज्ञात होता है कि बौद्ध कम सबसे पवित्रतम स्थल लुम्बिनी की यात्रा पर गया और वहां प्रचलित राजस्व की दर को आठवें भाग तक कम कर दिया।
इसके अतिरिक्त प्रतीक भी महत्वपूर्ण हैं। सिंह, वृषम, अश्व और गज इन सबका सम्बन्ध महात्मा बुद्ध से जुड़े कथानकों से है। चक्र की एक प्रतीक के रूप में अभिव्यक्ति को इसी प्रकार देखा जा सकता है। गिरनार, धौली और कलसी के हस्ति मूर्ति भी उसकीे बौद्ध धर्म में आस्था को व्यक्त करते हैं। बराबर की पहाडि़यों में उसने आजीविकों के लिए गुफाएं भी खुदावायी थीं।
इस प्रकार अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिया और राजकीय नीति के रूप में धम्म की समावेशी विचारधारा को आगे बढ़ाया।





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