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मध्यप्रांत में दलित आंदोलन का इतिहास

Munsi N. L. Khobragade

Sunday, June 30, 2019, 02:40 PM
Andolan

मध्यप्रांत में दलित आंदोलन का इतिहास
1. इतिहास के संदर्भ में
    मध्यप्रदेश जो अंग्रेजों के शासन काल में 22 जिलों का सी. पी. एण्ड बरार के नाम से जाना जाता था।। इस पुरानें मध्यप्रदेश में दलित जातियों के आंदोलन का इतिहास किन परिस्थिति में डाॅ0 बाबा साहब अम्बेडकर के पूर्व, उनके जीवन काल में, तथा उनके निधन के पश्चात आरंभ हुआ, लिखा जाना आज की महती आवश्यकता है। सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक आंदोलन का स्पष्ट चित्रण होना चाहिये। इस प्रदेश के सीमावर्ती प्रांतों में हुये दलित आंदोलनों का कितना प्रभाव इस प्रांत की दलित जातियों पर पड़ा वह किस प्रकार? इन आंदोलनों में वर्तमान दलितों के पूर्वजों का कितना योगदान रहा है, आदि प्रश्नों का विचार किये जानें की आवश्यकता है। वर्तमान समय में दलित समाज आज जिस मुकाम तक पहुँच पाया है, क्या वह इतनी सरलता से पहुँच सका है, यहाँ तक पहुंचानें में उनके पूर्वजों को कितनी यातनायें झेलनी पड़ी है, कितने अपमान भोगनें पड़े है, कितने कष्ट उठाने पड़े है, वे ही भुक्तभोगी पूर्वज जान पाये होंगें जिन पर बीती है?
    2. अन्याय की शिकार दलित जातियाँ
    आज की वर्तमान अथवा भावी पीढ़ी जो कुछ भी बिना किसी परिश्रम के प्राप्त कर सकी है, वह सब उनके उन पूर्वजों के परिश्रम, त्याग, बलिदान और सतत किये गये संघर्ष का ही परिणाम है, जिसका सुखद फल वर्तमान पीढ़ी भोग रही है। उनमें से न जाने कितने ही उस समय के नौजवान बहादुर दलितों को अपने व समाज के सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा करते हुये शहीद होना पड़ा। कितने ही लोगों के घर जले, कितनी ही माँ बहनों और बहू बेटियों के साथ बलात्कार हुये और कितने ही परिवार उजड़कर तबाह हो गये, बर्बाद हो गये। क्यों लूट लिये गये उन निर्दोष लोगों के घरबार ? क्यों हड़प ली गई उनकी अस्मिता? क्यों मिटा डालने की चेष्टा की गई उन वंचित लोगों के वजूद को? क्यों किये गये अनेकों प्रकार के अन्याय और अत्याचार उन निर्दोष लोगों पर? क्या कसूर था उनका ? इन प्रश्नों के उत्तर मांगना चाहेगा आज का दलित नौजवान उन लोगों से जो अपने को बहादुर कौन होने की डींग हांकते फिरते है। उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर देन ही होंगे? आज का दलित समाज इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिये बेताबी से प्रतीक्षा कर रहा है, जो पाकर रहेगा।
3. बहादुर पूर्वजों का संघर्ष
    आज का दलित सामाजिक न्याय की लड़ाई के साथ-साथ अपनी अस्मिता की लड़ाई भी लड़ रहा है। उसकी जाति को ही सदियों से गालीवाचक बना दिया गया है। आज जब वह लिखेगा तो अवश्य ही वह गाली बनी अपनी जाति की उपेक्षा और घृणा की पीड़ा को आंकेगा ओर उस बर्बरता पर अपना आक्रोश उगलेगा। उसे रोक पाना अब किसी के बस की बात नहीं है। यह परिवर्तन का नियम है। राख ही जानती है जलने का दर्द। उसे नम्रता पूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए। जो भोगा गया है, वही लिखा जायेगा। जब सदियों से मृत प्रायः मूक लोग अब बोलने लगे है लिखने लगे हैं। उन बहादुर पूर्वजों का इतिहास, उनके द्वारा किये गये आंदोलनों का इतिहास, उनके द्वारा की गई समाज सेवा, त्याग और बलिदान का इतिहास जो अपने मुक्तिदाता डाॅ0 बाबा साहब अम्बेडकर के एक-एक शब्द पर, उनके एक-एक आव्हान पर अपनें प्राणों को न्यौछावर कर देने के लिये सदैव तत्पर रहा करते थे। उन बहादुर पूर्वजों का अमर इतिहास भावी पीढ़ी के लिये सुरक्षित रखा जा सके, ताकि अतीत की भावी पीढ़ी उससे कुछ शिक्षा ग्रहण कर सके, लाभ उठाकर अपने जीवन की दिशा में परिवर्तन ला सके।
    4. भावी पीढ़ी के लिये चुनौती
    इतिहास इस बात  का साक्षी है कि पूर्वजों द्वारा निर्धारित मानदंडों को आधार बनाकर भावी पीढ़ी अपना लक्ष्य निर्धारित करती है, यह प्राचीन सिद्धांत है। दलित समाज के पूर्वजों ने समाज पर किये जाने वाले सवर्णों के अन्याय, अत्याचार का प्रतिकार करने और अपने अस्मिता की रक्षा करने के लिए किस प्रकार के आंदोलन चलाये वर्तमान पीढ़ी के लिये चुनौती भरा आव्हान है। इस आव्हान को आज की पीढ़ी ने स्वीकार करना चाहिये। दुनिया में परिवर्तन तभी होगा, जब संघर्ष का इतिहास रचा जावेगा, लिखा जावेगा। स्वयं की स्वतंत्रता के लिये समाज और कौम की स्वतंत्रता के लिये नई चेतना का सृजन करना होगा। मनुष्य की तरह अभिव्यक्ति की ताकत हासिल करना होगा। हमनें और हमारे पूर्वजों ने सदियों से, जिनमें हीनता, तुच्छता, आत्मनिरादर और पत्थर सा सब्र भर लिया था, उन्हें मुक्त होने दीजिये इन ग्रन्थियों से। उन्हें आत्म सम्मान निर्मित करने दीजिए ताकि वे समाज को बदलने में समक्ष हो सकें। दलितों का इतिहास दलित और जन की समस्या से जुड़ा है। जन की भाषा में रचा जा रहा है, लिखा जा रहा है। 
5. दलितों के संबंध में
    जब हम दलित जाति के आंदोलन पर विचार करते है, तब हमें तीन बातों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। पहला यह कि, क्या दलित जाति है, वर्ग है, या समाज है? दूसरी है उसकी इतिहास में भागीदारी क्या रही है? और तीसरा है उनके द्वारा चलाया गया आंदोलन। ‘‘दलित, शब्द से अनेकों प्रकार का बोध होता है।’’ दलित, बहुआयामी शब्द है, जिससे जाति का बोध नहीं होता। उसका सही अर्थ होना चाहिये, जिसका दमन किया गया हो, व्यक्ति के लिये किया जाता है और आम तौर पर दलित शब्द का प्रयोग अनुसूचित जाति के लिये किये जाने की परंपरा ही चल पड़ी है।
    6. दलित जाति की पहचान
    दलित शब्द व्यक्ति को अपने गौरवशाली अतीत की ओर झांकने की प्रेरणा देता है। यह अपनी अवनति, वर्तमान स्थिति और अपने तिरस्कृत जीवन के विषय में सोचने को विवश करता है। हम क्या थे, कौन थे, क्या हो गये और क्यों हो गये? आदि। दलित शब्द किसी जाति या वर्ग का परिचायक नहीं है। इससे किसी जाति या वर्ग का बोध भी नहीं होता है। इसका अर्थ होना चाहिए पीड़ित, शोषित, वंचित, उपेक्षित व्यक्ति या समाज। दलित व्यक्ति ही अछूत, शोषित, पीड़ित, वंचित या उपेक्षित कई रूपों में भारत की धरती पर फैला हुआ है, जाना जाता है। दलित जातियों में कुछ जातियाँ ऐसी भी है, जो आज भी इक्कीसवीं सदी के प्रतीक्षाकाल में भी अपनी पुरानी स्थिति से जरा भी ऊपर नहीं उठ सकी है। आज भी उसकी स्थिति वहीं है, जो सौ दो सौ साल पहले थी।
7. दलित जातियों की वास्तविकता
    भारत के विभिन्न अंचलों में यही दलित जातियाँ अलग-अलग नाम रूप धारण किये हुये कई प्रकार के घटिया से घटिया किस्म के काम करते हुये बड़े-बड़े शहरों के गंदे नालों किनारे झुग्गी झोपड़ियों में कीड़े मकोड़ों की तरह जीवन यापन करते हुये कुत्ते बिल्लियों की तरह दम तोड़ते हुये मरते हुये देखे जा सकते है। उनके प्रति घृणा का भाव, सामाजिक बहिष्कार का भाव, आज भी वैसा ही है, जैसा पहले था। ये अपनी इस स्थिति से संतुष्ट दिखाई देते है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, भले ही उनसे कैसे भी काम क्यों न करवाये जाते हों? यदि उन्हें भूखा और फटेहाल भी रहना पड़े तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके जीवन का एक निश्चित ढर्रा है, जिस पर वे सदियों से चल रहे हैं। और अपनी भावी पीढ़ी को भी उसी ढर्रे पर चलाने के लिये निश्चित है। ऐसी स्वाभिमान से रहित जातियँ या समाज जो अपने स्वयं के प्रति जागृत नहीं है, जो अज्ञान की घोर निद्रा में डुबा हुआ, अपनों के प्रति सदैव द्वेष भाव रखता है, तथा शत्रुओं को मित्र समझता है, ऐसा समाज या ऐसी जातियाँ आज के समय में दलित कहलाने के भी योग्य नहीं है।
    8. दलित चेतना के संदर्भ में
    मैं ऐसे समाज या जातियों को आगाह कर देना चाहता हूँ कि वह अब भी जाग जाये तो उसके लिये सबेरा निकट है और उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसी दलित जातियों से किसी प्रकार के आंदोलन की अपेक्षा करना व्यर्थ है। आज अनेकों लोग दलित समाज की बात करते है। हम उनसे हटकर उन लोगों को देख रहे है, जो दलितों की श्रेणी में नहीं आते। ऐसे लोगों को भी दलित आंदोलन की बात करते देखा जा सकता है। क्या ऐसे लोग सचमुच दलितों के हितैषी है ? या दलितों के नाम पर किसी प्रकार का लाभ उठाना चाहते है ? अब ऐसे लोगों को भी पहचाना जाने लगा है। उन्नीसवीं सदी तक दलित वह व्यक्ति था, जो स्वर्ण हिन्दूओं द्वारा शोषित पीड़ित था, सताया हुआ था। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आकर दलित शब्द की परिभाषा ही बदल गई है, और अपने अधिकारों को पाने के लिये सचेत हो गया है। आज वह संगठित होकर लगातार आगे बढ़ने के लिए अपनी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति में परिवर्तन के लिए अपने अस्तित्व के लिये, अपनी अस्मिता के लिये लड़ रहा है, संघर्ष कर रहा है।
9. संघर्षशील दलित साहित्यकार
    संघर्षशील दलित साहित्यकारों द्वारा दलितों का शक्तिशाली साहित्य लिखा जा रहा है। वह दलितों का साहित्य जिसने वेदकाल से चली आ रही मान्यताओं, नियमों और विश्वासों को समूल हिलाकर रख दिया है। अब उसने हर पुराण पंथी बात को नकार दिया है और अपनी नीतियों, अपने विश्वासों आदि कि स्थापना करना आरंभ कर दिया है। अब दलित समाज पुराने अर्थो में ‘‘दलित’’, बनाकर नहीं रखा जा सकता है। आज के दलित समाज को अगर सौ साल पुरानी सभी स्थितियाँ लौटकर पुनः वापस आ जावे, तब भी उसे अपनी पुरानी स्थिति में नहीं रखा जा सकता है। आज का दलित समाज जागृत हो चुका है। दलितों के मार्गदाता डाॅ0 बाबा साहब अम्बेडकर ने इन दलितों को जीना सीखा दिया है और अपने अधिकारों के लिये लड़ना सिखा दिया है। अब यह समाज सिर झुकाकर चुप नहीं बैठ सकता और किसी भी प्रकार का अत्याचार सहन नहीं कर सकता। अब वह अपने प्रति पूरी तरह सचेत है, जागृत है। सदियों के संताप की भट्टी ने उसे शोला बना दिया है। उसमें आग है, जलन है और प्रकाश भी है। आज के दलित समाज का यही सच्चा स्वरूप है। वह धीरे-धीरे अपना तेजपूर्ण अस्तित्व ग्रहण करता जा रहा है।
10. इतिहास द्वारा की गई हेराफेरी
    आज तक इस देश के स्वर्ण जातियों ने जितने भी लेखक साहित्यकार और इतिहासकार हुये है, किसी ने भी दलितों का वास्तविक और सच्चा इतिहास नहीं लिखा है। भारतीय इतिहास के लेखकों ने इतिहास की आधारभूत घटनाओं की ओर ध्यान ही नहीं दिया है। बल्कि सदैव दलितों की वास्तविक स्थिति के विपरीत लिखकर उन्हें जितना जलील किया जा सकता है, किया गया है। उसकी उपलब्धियों को नकारा गया है और सच्चाई को छुपाया गया है। वर्तमान समय में दलितों का जो भी वास्तविक साहित्य उपलब्ध हैं, वह सब दलित लेखकों और साहित्यकारों द्वारा लिखा गया साहित्य है। यदि डाॅ0 बाबा साहब अम्बेडकर प्राचीन धर्मग्रंथों, पाश्चात्य साहित्य और भारतीय इतिहास आदि का अध्ययन कर शोध नहीं किये होते और वास्तविक तथा सच्चा इतिहास उपलब्ध नहीं करा दिये होते, तो आज दलितों का इतिहास अंधकार के गर्त में डूबा हुआ होता। आज भी स्वतंत्र भारत में दलित समाज शोषित, पीड़ित, उपेक्षित और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अन्याय अत्याचार का शिकार हैं। यह सच है कि आज भी स्वतंत्र भारत में कितने ही दलितों की हत्याएं हो रही है, उनके घर जलाये जा रहें है, उनकी माँ बहनों और बहू बेटियों के साथ बलात्कार किये जा रहे है। आखिर क्यों ? किसी ने गंभीरता से इस बात पर कभी विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी।
    11. इतिहास में दलितों की उपेक्षा
    क्या यह सच नहीं है, कि भारतीय इतिहास में दलितों (महारों) द्वारा राष्ट्रीय हित में मुसलमान बादशाहाओं, मराठों, पेशवाओं और अंग्रेजों की सेनाओं में ऐतिहासिक लड़ाईयाँ लड़कर विजय हासिल करवाई किन्तु उनका भारतीय इतिहास नें कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, आखिर क्यों ? क्या यह सच नहीं है, कि तपस्या कर रहे तपस्वी शंबूक शूद्र की राम ने इसलिये हत्या कर दी थी, क्योंकि वह शूद्र होकर तपस्या कर रहा था? इतिहास ने इसका उल्लेख क्यों नहीं किया? क्या इतिहास को और भारतीय साहित्य को राज दरबारों में ले जाकर और सिजदा करवा कर श्रृंगारिक साहित्य के नाम से विभूषित नहीं किया जाता रहा है? क्या धर्म के आगे नत मस्तक होकर साष्टांग मुद्रा में, धरती पर लेटकर, धर्म के नाम पर पोंगा पंथियों के निर्देशानुसार मनुस्मृति जैसा विकृत ग्रंथ तैयार नहीं किया गया, जिसने एक छोटे से वर्ग के हित में दूसरी विशाल वर्ग को अधिकार-विहीन बनाकर पशुतुल्य जीवन जीने को मजबूर करने की व्यवस्था दी? क्या महाभारत के पृष्ठ पोषक साहित्यकार अथवा इतिहासकारों ने एकलव्य का अंगूठा कटवा दिये जाने पर उसे ऐसा गौरवान्वित करने का प्रपंच नहीं रचा कि जिसका अंगूठा कटा था वहीं इतना अभिभूत हो गया कि इतिहास से द्रोणाचार्य का छल गायब हो गया और हर गया गुरू दक्षिणा के लिये किया गया एकलव्य का त्याग?
    12. इतिहास कैसा होना चाहिये
    इतिहास तथ्यों का उजाकर करने वाला सत्य पर आधारित दस्तावेज होता है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी समाज को प्रेरणा प्रदान करता है तथा भावी पीढ़ी को दिशा निर्देशित करता है। देश और समाज में जितनी भी महत्वपूर्ण घटनायें घटित होती है, उसका विस्तृत विवरण इतिहास के पन्नों में संजोकर सुरक्षित रखा जाता है। भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में इतिहासकारों ने गलत प्रचार किया है, क्योंकि यह इतिहासकार या तो ब्राम्हण थे या ब्राम्हणवाद के पृष्ठ पोषक तत्व थे। यह एक खुला रहत्य है कि भारत का इतिहास विदेशी आक्रमणकारियों का इतिहास बनकर रह गया है। आर्य, ग्रीक, ईरानी, कुशान, शक, हूण, मुस्लिम और अंग्रेज आदि के विजय और पराजय का इतिहास। यद्यपि मूल भारतवासियों की जनसंख्या सर्वाधिक है, मगर उनके इतिहास का कहीं नामों निशान तक नहीं है। आखिर क्यों? उत्तर स्पष्ट है। या तो उनके इतिहास को मिटा दिया गया अथवा तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर बदल दिया गया।
    13. क्रमवार सिलसिलेवार इतिहास
    स्वर्ण इतिहासकारों ने जो कुछ भी लिखा है, उन्होंने दलित जातियों को हिंदुओं से अलग केवल अछूत या अस्पृश्य ही लिखा है। दलित जातियाँ भी अपने को हिंदू समाज से अलग समझते रही है। यही कारण है कि हिंदू समाज में नैतिक दृष्टि से दलितों के प्रति कोई चिंता या ममत्व का भाव नहीं पाया जाता। इसलिये ही भारतीय इतिहास ने दलितों की स्थिति पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। दलितों का एक क्रमबद्ध सिलसिलेवार इतिहास का अभाव है जिसे दलित लेखकों द्वारा पूर्ण किया जाना चाहिये।
    14. राष्ट्रीय समाज और दलित जांतियाँ
    दलित समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इस तथ्य से परिचित हो जाना चाहिये कि कोई भी व्यक्ति समाज से अलग रह कर अपने मानवीय अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकता। यद्यपि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, बिना समाज के उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। अतः हम कह सकते हैं, कि मनुष्य एक दूसरे से संपर्क स्थापित करने के लिये ही समाज का निर्माण करते हैं। दुनियाँ का प्रत्येक मनुष्य समाज में सम्मान से जीना चाहता है और उसे स्वाभिमानपूर्वक सम्मान से जीने का मौलिक अधिकार भी प्राप्त है। तब क्या कारण है कि इस देश में दलित जातियों को उनके इस मौलिक अधिकार से वंचित रखा गया है, उस प्रकार का राष्ट्रीय समाज भारत में देखने को नहीं मिलेगा। इस देश में हिन्दू समाज व्यवस्था के अनुसार भारतीय समाज चार वर्णो और चार हजार जाति उपजातियों के छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित कर राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया गया है। उसी व्यवस्थ के अंतर्गत ऊंच-नीच, ब्राह्मण-अछूत, आदि विषमता मूलक समाज व्यवस्था जो विश्व में कहीं पर भी देखने को नहीं मिलेगी, भारत में विद्यमान है।
    15. समाज व्यवस्था कैसी हो
    इस समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने व समतावादी नई समाज व्यवस्था लाने में प्रयत्नशील नये और पुराने मध्यप्रांत में डाॅ0 बाबा साहेब अम्बेडकर के पहिले आरंभ किया गया सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक, दलित जातियों का आंदोलन और बाबा साहब अम्बेडकर के निधन के पश्चात चलाये गये आंदोलन का क्रमवार विवरण देकर इतिहास लिखना आवश्यक हो गया है। समाज को भौगोलिक क्रियाओं द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता, और न ही उसे भौगोलिक सीमाओं में बांधा जा सकता है। समाज की एक निश्चित सीमा होती है, जिसके भीतर रहना प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्तव्य समझा जाता है। समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं होते। पशु पक्षियों के भी समाज होते है, जिनकी विशेषताएं मनुष्य समाज जैसी ही होती है। पशु पक्षियों के समाज में भी नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता है। तब क्या कारण है, कि दलित जातियों को समाज नहीं समझा गया और उन्हें भारतीय समाज में पुशओं से भी निम्न कोटि में रखा गया ?
    16. दलित आंदोलन का स्वरूप
    दलित जातियों पर होने वाले अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध भगवान बुद्ध के पश्चात और डाॅ0 बाबा साहब अम्बेडकर के पूर्व महाराष्ट्र और पुराने मध्यप्रदेश की उर्वरा धरती पर सर्वप्रथम महात्मा ज्योतिबा फुले ने सशक्त आंदोलन की बुनियाद (नींव) डालकर क्रांतिकारी आंदोलन जातिवाद, ब्राह्मणवाद और अंधविश्वास के विरूद्ध आरंभ किया था, जिसका क्रांतिकारी प्रभाव किसी न किसी रूप में महाराष्ट्र और पुराने मध्यप्रदेश की धरती पर जीवित था। महाराष्ट्र और पुराने मध्यप्रांत का भू-भाग उस क्रांति के बीज को अपने आप में संजोये हुये उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था, जिससे वह बीज सशक्त पौधा बनकर वृक्ष का रूप धारण कर सके। डाॅ0 बाबा साहब अम्बेडकर के प्रभावशाली नेतृत्व में आरंभ दलित आंदोलन को प्रचंड समर्थन प्राप्त होने लगा था। मध्यप्रांत और बरार (विदर्भ) के आवंटन में महार जाति के लोगों की अपने-अपने क्षेत्रों में सभाएं होने लगी थी। नागपूर शहर महार जाति का गढ़ था और मध्यप्रांत तथा बरार की राजधानी होने के कारण यहां विशेष हलचल आरंभ हो गई थी। यहाँ की महार जाति के लोग जान की बाजी लगाकर दलित आंदोलन में कूद पड़े थे। उसमें नागपूर की महार जनता का उल्लेखनीय योगदान था। यहाँ के दलित नेता विठोबा रावजी मून, किसन फागू, बन्सोड़े पाटिल, एल. एन. हरदास, दशरथ पाटिल, रेवाराम कवाड़े आदि प्रमुख थे।
डाॅ. बाबा साहब अम्बेडकर के पूर्व प्रारंभ दलित आंदोलन
1. गैर दलित समाचार पत्रों की भूमिका
    डाॅ. बाबा साहब अम्बेडकर के द्वारा समाज सुधार के दिशा में दलित समाज के सामाजिक आंदोलन आरंभ करने के पूर्व महार समाज के कुछ लब्ध प्रतिष्ठित समाज सुधारकों द्वारा सामाजिक आंदोलन किया गया। प्रथम आंदोलन कर्ता और दलित नेता थे, गोपाल नाक विट्ठलनाक बलंगकर जिन्हें लोग गोपाल बाबा बलंगकर भी कहा करते थे। कुछ पिछड़े वर्ग के गैर दलित लोगों ने महात्मा ज्योतिबा फुले के सामाजिक क्रांति के आंदोलन से प्रभावित होकर ब्राहम्णों के वर्चस्व को समाप्त करने की दृष्टि से मुम्बई प्रांत में कुछ समाचार पत्र मराठी भाषा में आरंभ किये थे। जनवरी 1877 में कृष्णराव भालेकर ने ‘‘दीनबंधु’’ 1910 में मुकुंदराव पाटिल ने ‘‘दीनमित्र’’ बालचंद कोठारी ने 19 जुलाई 1917 को ‘‘जागरूक’’ 25 अक्टूबर 1917 को ही श्रीपतराव शिंदे ने ‘‘जागृति’’ और दिसम्बर 1919 में ‘‘विजयी मराठा’’ समाचार पत्र प्रकाशित किये गये थे। इन समाचार पत्रों के संपादक, व्यवस्थापक और प्रकाशक मराठा जाति के लोग थे। उन्होंने अपने समाचार पत्रों में केवल पिछड़े वर्ग की समस्याओं, समाज सुधार और इस समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति जागृति लाने का ही प्रयत्न किया। ये गैर दलित समाचार पत्र महात्मा ज्योतिबा फुले के आंदोलन से प्रभावित ‘‘सत्यशोधक समाज’’ के नेतृत्व में कार्य कर रहे थे, किन्तु उन्होंने दलित समाज के हितों की अनदेखी तथा उनकी ज्वलंत समस्याओं की उपेक्षा की थी। तब गोपाल नाक विट्ठल नाक बलंगकर ने विचार किया कि दलित समाज को अपने पैरों पर खड़े होकर अपना आंदोलन और अपने समाचार पत्र स्वयं चलाना चाहिये। उन्होंने अपना समाचार पत्र आरंभ किया जिसके प्रथम पत्र सम्पादक वे स्वयं थे।
    2. गोपाल नाक बलंगकर का कृतित्य
    गोपाल नाक विट्ठलनाक बलंगकर का जन्म कोंकण में महाड़ जिले के रावदक गांव में एक महार (अछूत) जाति में हुआ था। वे ब्रिटिश सेना में नौकरी करते थे। वे सन् 1886 में सेना से निवृत्त होने के पश्चात उन्होंने दलितोद्धार का काम अपने हाथ में लिया और दलित समाज का काम अपने जीवन के अंत तक पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी के साथ किया। गोपाल नाक विट्ठल नाक बलंगकर को महात्मा ज्योतिबा फुले का सानिध्य प्राप्त था। वे अपने लेख फुले प्रेरित ‘‘दीनबन्धु’’, ‘‘सुधारक’’, ‘‘दीन मित्र’’, और ‘‘शेतकरयांचा कैवारी’’ इत्यादि समाचार पत्रों में लिखते थे और अपना समाचार पत्र भी चलाते थे। वे दलितों की दयनीय स्थिति और उन पर होने वाले अत्याचारों पर लिखा करते थे। दलितों में सामाजिक सुधार लानें के लिये और उन्हें संगठित करनें का प्रयत्न किया। 
3. दलित समाज के प्रथम लेखक
    गोपाल नाक विट्ठल नाक बलंगकर ने सन् 1888 में ‘‘बिटाल विधवंसक नामक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक के द्वारा उन्होंने हिन्दू धर्म की समीक्षा की थी। उन्होंने जो पुस्तक लिखी थी इसके उदाहरण उन्हीं के हिन्दू धर्म ग्रन्थ वेद, पुराण, गीता, स्मृति, महाभारत आदि से ही दिये थे। उन्होंने हिन्दू समाज से छब्बीस प्रश्न पूछे थे। इन प्रश्नों के द्वारा हिन्दू धर्म की दुहाई देने वाले लोग कितने स्वार्थी हैं, इस बात की जानकारी उन्होनें दलित समाज के लोगों को विस्तार पूर्वक दी थी। हिन्दू धर्म ही दलितों की दयनीय दशा के लिये जिम्मेदार है, इस बात का दलित समाज को ज्ञान कराया था। वे अपने लेख संयत भाषा में लिखते थे। भारत में अंग्रेजों ने महारों (दलितों) की सेना में भर्ती बंद कर दिया था। तब गोपाल नाक विट्ठल नाक बलंगकर ने अंग्रेज सरकार को पत्र लिखकर भेजा था कि दलित (महार) समाज के लोगों ने सेना में रहकर अंग्रेजों और अंग्रेज सरकार की बहुत सहायता की थी। इस पर भी उन्हें सेना से निकाल दिया गया है। जो अनुचित है। अतः उन्हें पुनः सेना में भर्ती करने के लिये सरकार को पुर्नविचार करना चाहिये। 1895 में अंग्रेज सरकार ने उन्हें महाड़ जिले के लोकर बोर्ड में नियुक्त किया था। गोपाल नाक विटठ्ल नाक बलंगकर ने जीवन भर दलित समाज के उद्वार के लिये संघर्ष किया था किंतु अनेकों कठिनाइयों के बावजूद जरा भी विचलित नहीं हुये थे। दलित समाज के इस प्रथम समाज सुधारक, पत्रकार और लेखक का सन् 1940 में निधन हो गया।
4. शिवराम जानबाजी कामड़े दूसरे समाज सुधारक
    दलित समाज के दूसरे संपादक, लेखक और समाज सुधारक थे, शिवराम जानबाजी कामड़े। वे पुरानी पीढ़ि के दलित समाज के प्रखर समाज सुधारक हुये हैं। उनका जन्म सन् 1875 में पुणें के एक गरीब महार परिवार में हुआ था। उनके पिता अंग्रेजों के यहाँ बटलर का काम करते थे। शिवराम कामड़े को अंग्रेजों के घर के वातावरण में पढ़ने-लिखने की रूचि पैदा हुई और वे अंग्रेज परिवार के सानिध्य में पढ़ना लिखना सिख गये। वे दीनबन्धु जैसे समाचार पत्र नियमित रूप से पढ़ते थे। वे अंग्रेजों के संपर्क में रहने के कारण क्रांतिकारी विचारों के अनुगामी हो गये। उन्होंने समाज के उद्वार के लिये काम करने का फैसला किया और सन् 1903 में उन्होंने आसपास के गाँवों के दलित समाज के लोगों को संगठित करने का काम आरंभ किया। दलितों को सेना और पुलिस में भर्ती करने के लिये सरकार को आवेदन पत्र भेजा। सन् 1904 में उन्होंने ‘‘सोमवंशीय हितचिंतक मित्र समाज’’ नाम की संस्था स्थापित की। साथ ही वाचनालय भी खोला। यह भारत में दलित जातियों को संगठित करने की दूसरी संस्था थी।
5. समाज सुधार के कार्य
    शिवराम जानबा जी कामले इस संस्था के द्वारा दलित समाज में चेतना जगाना चाहते थे। दलित समाज को समाजोद्वार के लिये प्रेरित करना, उन्हें उचितन्याय दिलाना, और अपने अधिकार के लिये उनका मार्गदर्शन करना उनका मुख्य उद्देश्य था। स्वर्ण समाज को अपना दृष्टिकोण बदलकर दलित जातियों के साथ सहानुभूतिपूर्वक सोचने के लिये प्रवृत्त करना भी उनका ध्येय था। अस्पृश्य समाज में व्याप्त कुछ गलत रीति-रिवाजों जैसे अपने देवताओं को भैंस, बैल, बकरा, सुअर आदि की बलि देना, मृत पशु के मांस का सेवन करना, अस्वच्छ रहना ऐसे अनेकों गंदे काम करना जैसे गलत काम नहीं करने के लिये प्रेरित करने के उद्देश्य तथा अनेकों सामाजिक कार्यो के पालन करने के लिये उन्होंने ‘‘सोमवंशीय मित्र’’ नाम का समाचार पत्र आरंभ किया। इस समाचार पत्र के द्वारा दलितों को सम्माननीय व्यक्ति घोषित करना चाहते थे।
6. देवदासी प्रथा की समाप्ति के लिये कार्य
    दलित जातियों में देवदासी बनने की प्रथा को समाप्त करने के लिये वे अपने समाचार पत्र में इस प्रथा की बुराई पर लेख लिखते थे। दलित जाति के लोगों को वे उपदेश देते थे और प्रार्थना करते थे। वे अपने लड़कियों को देवदासी, जोगतीनी, मुरली आदि न बनावें। उसके लिये ‘‘सोमवंशीय मित्र’’ में शिबू बाई लक्ष्मण जाधव का पत्र छपा था। शिबू बाई दलित जाति की देवदासी थी। शिबूबाई ने अपने पत्र में लिखा था, कि देवदासी बनने के लिये उनके माॅ बाप दोषी हैं, जो अपनी लड़कियों को देवदासी बनाते है। सभी देवदासियाँ बुरी नहीं होती, उन्हें स्वर्ण समाज के लोगों द्वारा बुरी बनने के लिये गलत रास्ते पर चलने को बाध्य किया जाता है। शिबू बाई जाधव का ‘‘सोमवंशीय मित्र’’ में छपा पत्र पढ़कर गनपत राव हनमंत गायकवाड़ नामक दलित युवक ने शिबूबाई से विवाह कर लिया था। अनेकों देवदासियों के विवाह शिवराम जी कामले ने समाज के युवकों से करवाये थे। देवदासी प्रथा समाप्त करने के लिये कामले जी ने समाज के लोगों को योगदान देने की अपील की थी।
7. पहिली दलित महिला कार्यकर्ता
    किसन फागू बन्सोडे पाटील की पत्नी तुलसा बाई बन्सोडे पाटील दलित समाज की पहली महिला कार्यकर्ता थी। तुलसा बाई अपने पति के साथ उनके कंधे से कंधा मिलाकर समाज सुधार अथवा दलित महिला जागृति के कार्यक्रमों में भरपूर सहयोग करती थी। अपने विचार दलित जनता तक पहुंचाने के लिये उन्होंने अपना निजी छापाखाना खड़ा किया था। उन्होंने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिये सन् 1910 में ‘‘निराश्रित हिन्द नागरिक’’, 1913 में ‘‘बीटाल विध्वंसक’’, सन् 1918 में ‘‘मजदूर पत्रिका’’, नामक समाचार पत्र निकाले थे। ये समाचार पत्र भी आर्थिक कठिनाईयों के कारण अधिक दिनों तक नहीं चल सके। किसन जी बन्सोडे़ पाटील ‘‘सुबोध’’, ‘‘केशरी’’, ‘‘मुम्बई वैभव’’, ‘‘ज्ञान प्रकाश’’ आदि समाचार पत्रों में दलितों संबंधी लेख लिखते थे। किसन फागू जी बन्सोड़े पाटील की पत्नी तुलसा बाई भी उनके साथ सामाजिक कार्य करने में अग्रणी भूमिका निभाया करती थी। छापाखाने का संचालन वह बड़े ही जिम्मेदारी के साथ सम्भालती थी। किसन बन्सोड़े पाटील दलित समाज में व्याप्त दोषों को समाज के सामने लाते थे और कभी कभी उनके उन दोषों के लिये उन्हें फटकारते थे। डाॅ. बाबा साहेब अम्बेडकर के पूर्व दलित समाचार पत्रों ने मुख्यतः सामाजिक प्रश्नों पर ही समाज को जागृत करने का काम किया था।
8. समाचार पत्रों की भूमिका
    उस समय दलित समाचार पत्रों ने सामाजिक समानता प्राप्त करने की दिशा में ही जोर दिया क्योंकि उस समय राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिये संघर्ष करने का दलित समाज में वातावरण का निर्माण ही नहीं हुआ था, फिर भी दलितों के उन अल्पकालीन समाचार पत्रों ने दलितों पर होने वाले अन्याय, अत्याचारों के विरूद्ध उन्हें आवाज उठाने की हिम्मत दी, वाणी दी, और आज तक मार्गदर्शन कर रहे है। और आगे भी करते रहेंगे, क्योंकि डाॅ0 बाबा साहब अम्बेडकर के कार्यकाल में तथा उनके पश्चात आज तक अनेकों  दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, और त्रैमासिक समाचार पत्र दलितों के द्वारा संपादन, लेखन और व्यवस्थापन किये जा रहे है।
9. समाज सुधारक विठोबा राव जी मून
    प्रथम समाज सुधारक गोपाल नाक विट्ठल नाक बलंगकर, दूसरे, शिवराम जानबा जी काभडे, और तीसरे किशन फागू बन्सोडे पाटील दलित समाज में डाॅ. बाबा साहब अम्बेडकर के पूर्व हुये है। इन्हीं की कोटि के एक प्रसिद्ध समाज सुधारक विठोबा राव जी मून थे, जिन्होंने समाज के हित में अनेको कार्य किये है। जिनमें महार समाज द्वारा मृत पशु का मांस खाने का काम बंद करवाने के लिये उन्होंने बहुत बड़ा आंदोलन चलाया। और गांव गांव में घूम घूमकर लोगों को जागृत किया।
    गोपाल नाक विट्ठल नाक बलंगकर ने समाज सुधार की पहली संस्था बनाई थी उसका नाम, ‘‘अनार्य दोष परिहार मंडल’’ जो सन् 1890 में बनी थी। शिवराम जानबा जी कामले ने सन् 1904 में ‘‘सोमवंशीय हितचिंतक मित्र समाज’’ संस्था की स्थापना की थी। किसन फागू बन्सोड़े पाटील ने सन् 1901 में ‘‘सन्मार्ग निराश्रित समाज’’ नामक सामाजिक संस्था स्थापित की थी। उसी प्रकार विनोबा राव जी मून संत पेडें ने सन् 1906 में दलित समाज की ‘‘अत्यंत समाज कमेटी’’ नाम की संस्था की स्थापना की थी। ये सभी समाज सुधारक महार जाति के थे। 20 जुलाई 1924 को ‘‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’’ ‘‘समता सैनिक दल’’ मार्च 1927 में ‘‘स्वतंत्र मजदूर पार्टी’’ 15 अगस्त 1936 को ‘‘अखिल भारतीय शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन’’ 19 जुलाई 1942 को, ‘‘रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया’’ 3 अक्टूबर 1957 को इसी प्रकार और सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक संस्थाएं दलितों की कार्यरत है।
बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर का जन्म शिक्षा और संक्षेप में जीवन वृतांत
1. सौभाग्यशाली मध्यप्रदेश 
    किसी कुएं की गहराई उसकी डोरी की लंबाई से नापी जाती है, उसी प्रकार किसी महापुरूष की उंचाई मापने के कई मापंदड है। पहला मापदंड है, कौन महापुरूष कैसी प्रतिकूल परिस्थिती में उत्पन्न होकर अपना विकास किस प्रकार करता है। जितनी प्रतिकूल परिस्थिति में जन्म लेकर बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर ने जितना विकास किया, उसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। बाबा साहब डाॅ. अम्बेडकर भारत के महान सपूत थे, जिनका बहुआयामी व्यक्तित्व अथवा कृतित्व अमूल्य था। ऐसे महापुरूष हजारो वर्षो के बाद जन्म लेते है। जिस स्थान और जिस परिवार अथवा समाज मे जन्म लेते है, वह स्थान, परिवार और समाज धन्य हो जाता है। इस दृष्टि से मध्यप्रदेश कितना सौभाग्यशाली प्रदेश रहा है, जहाॅ बाबा साहब डाॅ. अम्बेडकर का जन्म हुआ। सदियों से शोषित, पीडित और प्रताड़ित दलित समाज के उद्धार के लिये इस समाज में जन्म हुआ। इस बात के लिये मध्यप्रदेश की दलित जनता को प्रकृति का धन्यवाद करना चाहिए। जहाॅ बाबा साहब डाॅ. अम्बेडकर का मध्यप्रदेश में जन्म हुआ है।
2 भीमराव अम्बंेडकर का जन्म 
    महार जाति अपनी बहादुरी के लिये विख्यात हैं। इस महार जाति के रामजी मालो जी सकपाल अग्रेज सरकार के सेना में मध्यप्रदेश के इंदौर रियासत के निकट महू नामक फौजी छावनी में सूबेदार मेजर थे। बालक भीमराव का जन्म 14 अप्रैल 1891 को माता भीमबाई की कोख से रामजी सकपाल के घर महार जाति मे हुआ था। महार जाति हिन्दू धर्म की व्यवस्था के अनुसार अछूत जातियों में गिनी जाती थी। यद्यपि रामजी सूबेदार का गोत्र (सरनेम) सकपाल था, इसलिये बालक भीमराव का गोत्र भी सकपाल होना चाहिये था, किन्तु उनके पैतृक ग्राम का नाम अम्बाबडे़ था, जो रत्नागिरी जिले के साथ अम्बावड़ेकर लगाया करते थे। सातारा स्कूल के शिक्षिक ने उन्हे अम्बेडकर लिखने की सलाह दी। तब से बाबा साहब डाॅ. अम्बेडकर अपने नाम के साथ अम्बेडकर लिखा करते थे। 
3 भीमराव अम्बेडकर की शिक्षा 
    रामजी सकपाल 25 वर्ष नौकरी करके सन् 1894 में सेना से निवृत्त हो चुके थें। 1892 के बाद महारो की सेना भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नियम था, कि जो लोग सेना में नौकरी करते थे, चाहे वे कर्मचारी हो या अधिकारी हो उनकेे बच्चो को अनिवार्य रूप से सैनिक स्कूल में शिक्षा दी जाती थी। प्रत्येक सैनिक टुकडी के लिये स्वतंत्र स्कूल थे। इन सैनिक स्कूलो के लिये योग्य शिक्षक तैयार करने के लिये सेना की ओर से पुणे में एक नार्मल स्कूल था। रामजी सकपाल के पिता मालोजी सकपाल सेना में थे इसलिये उन्हे शिक्षा प्राप्ति के साधन सुलभ थे। रामजी सकपाल ने इसी नार्मल स्कूल से मास्टर का डिप्लोमा प्राप्त किया था। एक सैनिक स्कूल मे रामजी सकपाल 14 वर्षांे तक हेडमास्टर रहे और बाद मे तरक्की करते हुये सूबेदार मेजर की पदवी प्राप्त की। सेना में अनिवार्य शिक्षा के नियम से बहुत से महार सैनिको के बच्चो को पढने लिखने का अवसर प्राप्त हुआं। सेना के बाहर सभी स्कूलो के महार बच्चो को लिये बंद थें। किंतु अम्बेडकर एक सैनिक के बालक थे, इसलिये स्कूल में उन्हे भर्ती होने का सौभाग्य प्राप्त हो सका था।
4. अम्बेकडकर की प्रारम्भिक शिक्षा 
    बाबा साहब डाॅ. अम्बेडकर  अपनी प्रारंभिक शिक्षा के अध्ययन के बाद स्वंय कहते है कि लिये मै गरीबी के कारण लंगोटी लगाकर स्कूल जाता था। स्कूल में मुझे पीने के लिये पानी, अछूत होने के कारण नही मिलता था। मैने पानी के बिना कई दिन बिताये थे। मेरे स्कूल में एक मराठा औरत थी। जो स्वयं अनपढ थी जो मुझे छूती नही थी। स्कूल में एक दिन मुझे प्यास लगी, इसलिये मैने अपने मास्टर से कहा, चपरासी ने नल खोला और मैने बिना नल को छुये दूर से पानी पिया। चपरासी के नही रहने पर मुझे स्कूल में प्यासा ही रहना पडता था। मुझे क्लास में सब विद्यार्थियों के पीछे अलग-सलग अपना टाट का टुकडा बिछाकर बैठना पडना था।
बालक भीमराव अम्बेडकर का बचपन ही नही, डाॅ. अम्बंेडकर का सारा जीवन ही उसी वेदना की आग में जलते-जलते बीता। जब सूबेदार रामजी सकपाल सेना से नितृत्त हो गये थे, उस समय बालक भीमराव मुश्किल से दो वर्ष के रहे होगे। रामजी सकपाल परिवार के सदस्यों को लेकर सेना से निवृत्त होने पर दापोली आ गये थे। दापोली का वातावरण भीमाबाई को पसंद नही आया। इसलिये वे दापोली से सातारा आ गये जहां पी डब्यू. डी.कें दफ्तर में स्टोर कीपर की नौकरी प्राप्त हो गई थी। 
5. भीमाबाई की आकस्मिक मृत्यु 
    सातारा आते ही परिवार में दुःख घटना घटी। एक ओर रामजी की सातारा से गोरेगांव बदली हो गई वही दूसरी ओर भीमाबाई बीमार पड़ गई। उनकी हालत बहुत खराब हो गई थी। तब रामजी को गोरेगांव से शीघ्र बुलवाया गया। दवा दारू का अच्छा प्रबंध किया गया, किन्तु कोई लाभ नही हुआ और भीमबाई का देहांत हो गया। उस समय भीमराव केवल छः वर्ष के थें। उस समय अछूत कहे जाने वाली जातियाॅ समानता के मानवीय अधिकारो से सर्वदा वंचित थी। इस जाति के लोगो को स्पर्श तो दूर की बात थी, उनकी छाया से भी ऊँची जाति के लोग परहेज करते थे। अछूतों का रास्तों पर चलने का समय अलग से निर्धारित रहता था। इतने पर भी उनकी कमर में लटकता हुआ झाडू बंधा होता था। जिससे सड़क पर अंकित अछूतो के पद चिन्ह मिटते चले जाए और धोखे से भी किसी सवर्ण हिन्दू का पैर उन पद-चिन्हो पर न पडनंे पावे। बालक भीम को उन सभी अत्याचारो को सहन करना पडता था, जो दलित जातियों पर किये जाते है। उस समय शुद्रो व स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नही था। ऐसी भी व्यवस्था थी, कि वेद मंत्र किसी शूद्र के कानो पर पड़ जाने पर उसके कानो में पिघला हुआ गरम शीशा डाल दिया जाता था। उन्हे पशुओ से भी बदतर जीवन जीनेे को बाध्य किया जाता था।
6. भोगा हुआ कटु यथार्थ 
    एक दिन बालक ‘‘भीम’’ अपने बाल कटवाने के लिये नाई की दूकान पर गया। नाई ने छूटते ही कहां कि तुम अछूत हो तुम्हारे बाल मै नही काट सकता। तुम्हारे बाल काटकर क्या मै अपवित्र हो जाउं और इस लोक तथा परलोग में पाप का भागी बन जाउं। मै ऐसा नही कर सकता। एक बार भीमराव अम्बेडकर अपने भतीजे के साथ अपने पिता के गाॅव गोरगावं गये रेल्वे स्टेशन पर अपने पिताजी को लेने आया न देखकर वे घबराये तब स्टेशन मास्टर ने इन पर दया करके एक बैलगाडी में बैठा दिया। रास्ते में गाड़ीवान को इनके अछूत होने का पता चल गया और उसने निर्दयता पूर्वक खीचकर उन्हे बैलगाडी से नीचे उतार दिया। गरमी के दिन थे, भूखे प्यासे पैदल चलकर रात के ग्यारहं बजे घर पहुॅचे। रास्ते मे पानी पाने का बहुत प्रयास किया किंतु अछूत होने के कारण किसी ने उन्हे पानी नही पिलाया। एक दिन भीमराव ने सार्वजनिक प्याऊ पर पानी पी लिया, यह जानकर की यह अछूत बालक है तथा कथित सवर्ण हिन्दू लोगो ने इस अबोध बालक को बुरी तरह पीटा। उनके शरीर की खरोंचें अथवा चोटें तो मिट गई, किन्तु उनके मन पर लगी चोटें स्थाई बनकर रह गई। उन्होनें स्कूल तथा सार्वजनिक प्याऊ से पानी पीना बंद कर दिया। 
7 इन प्रश्नो के उत्तर की खोज  
    बालक भीमराव अम्बेडकर के जीवन में प्रतिदिन घटने वाली इन घटनाओं ने उन्हे सोचने के लिए विवश कर दिया। लोग मुझसेे घृणा क्यो करते है ? जिस तालाब से कुत्ते, बिल्ली पानी पी सकते है, मनुष्य होकर दलित जाति का व्यक्ति क्यों नही पी सकता? यदि ईश्वर एक है, तो यह भेदभाव ईश्वर निर्मित है या मनुष्य निर्मित? मै अछूत कैसे हुआ? बालक भीमराव अम्बेडकर के मन में जागे इन प्रश्नो के उत्तर पाने का एक ही मार्ग था - वह था विद्या अध्ययन। इस मार्ग पर वह चलता ही गया, चलता ही गया। जीवन के अंतिम क्षण तक भी यह क्रम रूका नही। इस क्रम में एक अछूत बालक आधुनिक युग का मनु बना दिया गया-सच्चा और न्यायी मनु। 
8 प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक 
    बालक भीमराव अम्बेडकर की प्राथमिक शिक्षा सातारा के स्कूल में बडे़ ही विषम वातावरण मे हुई। उन्होने प्रायमरी सन् 1897 में पास की। सन् 1902 में मिडिल स्कूल कि परीक्षा सातारा में पास की। बम्बई के एल्फिस्टन स्कूल में उन्होने सन् 1907 मे मेट्रिक पास किया, क्योकि उनके पिता रामजी सकपाल गोरेगांव की स्टोर कीपर की नौकरी छूट जाने के कारण काम की तलाश में पूरे परिवार को लेकर बम्बई आ गये थे। जिस समय भीमराव अम्बेडकर सातारा मिडिल स्कूल में पढतें थे, गरीबी और स्वावलंबन की भावना से सातारा के रेल्वे स्टेशन पर कुली काम किया करते थे। उनका यह आदर्श आज के दलित युवको के लिये प्रेरणादायक हो सकता है। उस समय किसी महार विद्यार्थी को मैट्रिक पास करना बहुत बडी उपलब्धि समझी जाती थी। इसलिये बम्बई की सत्यशोधक समाज में उनका सार्वजनिक सत्कार किया था। भीमराव अम्बेडकर ने सन् 1913 में बी. ए. पास कर लिया। उनके ग्रेजुएट हो जाने पर बम्बई के दलित समाज में लोगों ने खूब जश्न मनाया था। सन् 1915 में भीमराव अम्बेडकर ने एम. ए. की डिग्री प्राप्त कर ली और बडौदा के महाराजा साहूजी राव गायकवाड द्वारा दी गई छात्रवृत्ति की मदद से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् धन के अभाव में वे भारत आ गयंे। अब वे भीमराव अम्बेडकर की जगह डाॅ. भीमराव अम्बेडकर हो गये थे। सन् 1918 में बम्बई स्डिनेहम कालेज मे प्राध्यापक हो गयें। एक डेढ वर्ष नौकरी करने के पश्चात् नौकरी को तिलांजली देकर दलित समाज की दिन-हीन दशा से द्रवित होकर सन् 1920 में सामाजिक आदोलन में कूद पडे़। 
 9 डाॅ. बाबा साहब अम्बेडकर की दलित आदोलन में सक्रिय भूमिका
    डाॅ. बाबा साहेब अम्बेडकर दलित समाज के सामाजिक और राजनैतिक आदोलन के दैदिप्यमान सूर्य की भांति, प्रथम बार उनके आदोलन का नेतृत्व करने के लिये सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन में कूद पडे। डाॅ. बाबा साहेब अम्बेडकर के सुझाव पर 30, 31 मई और 1 जून 1920 को कोल्हापूर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज की अध्यक्षता में नागपूर में एक परिषद आयोजित की गई थी। इस परिषद में ‘‘भारतीय बहिष्कृत परिषद’’ का गठन किया गया था। इसी परिषद से डाॅ. बाबा साहेब अम्बेडकर सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन के गणमान्य नेता प्रसिद्ध हुये। इस परिषद की अध्यक्षता करते हुये अध्यक्षीय भाषण में छत्रपति साहूजी महाराज ने कहा था, कि दलित समाज को डाॅ. अम्बेडकर जैसा पढा लिखा योग्य नेता प्राप्त हो गया है। उनके द्वारा दलित समाज के सभी प्रश्न हल किये जा सकते है। उन्ही दिनो  डाॅ. बाबा  साहेब  अम्बेडकर अपनी अधुरी पढाई पूरी करने के लिये पुनः इंग्लैण्ड एवं इसके तत्पश्चात् अमेरिका चले गये।
    उन्होने सन् 1921 में एक शोधा प्रबंध लिखकर एम. एस. सी. की डिग्री प्राप्त की सन् 1922 में बार.  एट-लाॅ, और सन् 1923 में डी. एस. सी. कि डिग्रीयां प्राप्त कर ली। डी. एस. सी. की डिग्री लेकर वे उन्ही दिनों भारत आ गये और सक्रिय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते हुये, सन् 1927 में दो क्रांतिकारी और ऐतिहासिक कार्यो का श्रीगणेश किया।
 महाड़ के चैदार तालाब के पानी का सत्याग्रह और मनुस्मृति का दहन उनका महत्वपूर्ण कदम था। सन् 1952 में एल. एल. डी. और सन् 1953 में डी. लिट. की डिग्रीयाॅ प्राप्त की। इस प्रकार डाॅ. अम्बेड़कर का राजनैतिक जीवन आरंभ हुआ।
- मुंशी एन. एल. खोब्रागडे





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