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अन्धविश्वास पाखण्ड से दूर

TPSG

Thursday, December 9, 2021, 11:16 AM
bediya

दुर्गा शादी शुदा है, या कुंआरी ?
यदि शादी शुदा है और लोग इन्हें माता कहते हैं तो इनके पति का नाम क्या है ?
माता तो कह दिया पिता जी किसको कहेंगे  ?
यदि ये कुमारी है तो सोलह श्रंगार इनपे क्यों चढ़ता है ?
क्योंकि हिंदु धर्म में कोई कुंवारी लड़की श्रंगार नहीं करती है।
आखिर पंडे पुजारी क्या छुपा रहे हैं ?
यदि किसी की माँ हो और बाप का पता ही न हो तो ऐसी संतानों को आप क्या कहेंगे !
दुर्गा के ग्रंथ "दुर्गा सप्तशती " के अनुसार तो दुर्गा की उत्पत्ति में तो दुर्गा के माँ और बाप दोनों के नाम का ही पता नहीं चलता !!
इस ग्रंथ में बताया गया है कि जब ........
महिसासुर को इंद्र ,ब्रह्मा ,विष्णु, महेश अन्य कोई देवता या सारे देवता एक साथ मिलकर भी नहीं हरा पाए तो ...........
उन्होंने महिसासुर पर विजय प्राप्त करने के लिए ........
सब देवताओं ने मिलकर अपने-अपने तेज को सम्मिलित किया, उस विशाल तेज से एक स्त्री उत्पन्न हुई । जिसकी हजारों भुजाएं थीं ।
उस स्त्री से सभी देवताओं ने महिसासुर को मारने की विनती करते हुए अपने -अपने अस्त्र शस्त्र दिए । और उसे दुर्गा के नाम से संबोधित किया ।
अब यहां सवाल उठता है ........
1-जिस महिसासुर को मारने  के लिए इंद्र का वज्र, विष्णु का सुदर्शन चक्र, शंकर का त्रिशूल, काम नहीं कर पाए,
देवताओं, ऋषियों के श्राप उसे भस्म नहीं कर सके, या उसकी शक्ति को क्षीण नहीं कर सके,
सभी देवताओं की शारीरिक /बौद्धिक शक्ति उसे नहीं हरा पाई,
तो देवताओं को यह कैसे भरोसा हो गया कि एक स्त्री उस महिसासुर को हरा देगी ?
अरे भाई ! तुम्हें तो कोई खली, या दारा सिंह जैसा शक्तिशाली, बलशाली पट्ठा, पहलवान पैदा करना चाहिए था महिसासुर को हराने के लिए !
शारीरिक रूप से, मनुष्य से कमजोर स्त्री ही क्यों चुनी ?
ये तुम्हारी शातिर बुद्धि के विचार तुम्हारी जुबान पर कभी नहीं आएंगे ।
2- दूसरा दुर्गा को उत्पन्न करने के लिए कोई गांव, शहर, राम व कृष्ण की तरह राजघराना, क्यों नहीं ?
दुर्गा के माँ बाप का नाम छुपाने का कारण ?
क्या दस-बीस , पचास, सौ, या अधिक देवों की शक्ति से सीधे एक जवान स्त्री पैदा कर दी !
कोई बचपन नहीं, कोई मां नहीं, कोइ बाप नहीं, क्या ऐसा आविष्कार भारत में ही हुआ है ?  या फिर
विश्व की किसी अन्य सभ्यता में भी ?
क्या भारत को विश्वगुरु बनाने की वकालत कर, दुर्गा की पूजा करने वाले, विश्व जगत के विद्वानों के सामने इस बात को गर्व से कह पाएंगे कि हम एक ऐसी स्त्री की पूजा करते हैं .......
जिसकी मां नहीं है, जिसका बाप नहीं है, जिसके बचपन का कोई उल्लेख नहीं है,
जिसको कई सारे लोगों ने ( देवताओं ने) अपनी शक्ति से डायरेक्ट जवान पैदा किया,
उस स्त्री को पैदा करने का उद्देश्य .........
एक महिसासुर नामक असुर जिसे ...... जगत के सर्जनहार ब्रह्मा, जगत के पालनहार विष्णु, जगत के संहार कर्ता शिव , सभी देवताओं का राजा इंद्र ,  और सभी देवता एक साथ मिलकर भी परास्त न कर पाए उसे मारना था .........।
उस स्त्री के हजारों हाथ थे ।
वह कुंवारी है किंतु हम उसे मां बोलते हैं ! उसकी पूजा में विवाहित स्त्री के श्रृंगार के सामान का प्रयोग करते हैं ।
हम दुर्गा को कुंवारी बताते हैं , किन्तु मां बोलते हैं , और हमारी कुंवारी बेटी को कोई माँ की संज्ञा दे दे तो उससे झगड़े पर उतारू हो जाएंगे ।
सबसे मजेदार बात अब आगे ........उस स्त्री ने महिसासुर के एक ऐसे सेनापति के साथ युद्ध किया जो पांच अरब रथियों की सेना लेकर दुर्गा से लड़ने आया ( दुर्गा सप्तशती अध्याय- पृष्ठ- ) ।
अब आप जानते ही होंगे रथी मिस प्रकार के योद्धा होते हैं .....?
उत्तर जो रथ पर चढ़कर युध्द करते हैं । उनके रथ को चलाने वाला सारथी अलग होता है ।

आइये अब जरा इसका  एक हिसाब लगाएं  ..........
इस ग्रंथ के हिसाब से उस समय ......
पांच अरब रथी ,
रथों को चलाने वाले पांच अरब सारथी , = 10 अरब ।
अब युध्द में कोई बच्चे या बूढ़े तो जाते नहीं थे जवान ही जाते थे ,अर्थात इन 10 अरब लोगों को विवाहित माना जाए तो इनकी 10 अरब पत्नियां हो गईं तो कुल = 20 अरब ।
अब उन दस अरब (रथी +सारथी ) के माँ बाप तो होंगे ही तो ....सारथी और रथी  के 20 अरब माँ बाप हो गए ।
तो कुल = 20 +20 = 40 अरब ।
अब उन रथी+सारथी के मात्र एक-एक बच्चा भी मान लिया जाए तो बच्चे हो गए ......... 10 अरब ।
कुल = 40+10 = "50 अरब"  जनसंख्या दुर्गा के सामने आए एक सेनापति के हिसाब से ही हो रही है । इसके अलावा लाखों करोड़ों सैनिक इस ग्रंथ में इसके अलावा भी बताए हैं ।
और ये जनसंख्या तो मात्र उस हिसाब से है .....
जो दुर्गा से लड़ने आये ।
आप जानते हैं आज विश्व की जनसंख्या कितनी है ?
उत्तर --लगभग सात अरब

और उस समय कितनी बता दी केवल भारत में जहां दुर्गा से युद्ध हो रहा होगा कम से कम 50 अरब ।......
आज हरित क्रांति में अनाज का प्रचूर मात्रा में  उत्पादन होने के बावजूद सरकार 130 करोड़ लोगों के खाने - पीने, रहने को लेकर चिंतित है ।
उस समय वो 50 अरब से अधिक लोग क्या खाते होंगे ? कहां रहते होंगे ?
। अन्धविश्वास पाखण्ड से दूर रहो ।
जो पढ लिखकर भी अन्धविश्वास में लीन है, तो पुरे संसार मे उससे बड़ा पागल कोई नहींं है।
          सम्भल जाओ वैज्ञानिक युग, बुध्द।
          युग, अम्बेडकर युग शुरू हो गया है ।

 

कहाँ लिखा हुआ है कि ब्राह्मण विदेशी है ?

यदि आप जानना चाहते हो तो पढिए निम्नलिखित पुस्तकें:-

1) मनुस्मृति

  श्लोक नं.२४

2) बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित

वैदिक आर्या का मुलस्थान (Arctic home in the Vedas)

३) मोहनदास करमचंद गांधीं द्वारा दि.२७ दिसंबर १९२४ का काँग्रेस अधिवेशन मे दिया हुआ अध्यक्षीय भाषण।

४) पंडीत जवाहर लाल नेहरु का 

"पिता की ओर से पुत्री के नाम खत"

५) लाला लजतपराय द्वारा लिखित

 भारत वर्ष का इतिहास पृष्ठ २१-२२

६) बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित

 भारत वर्ष का इतिहास   पृष्ठ ६३  ओर ८७

७) पंडित श्यामबिहारी मिश्रा और सुखदेव बिहारी मिश्रा द्वारा लिखित भारत वर्ष का इतिहास,भाग १ पृष्ठ ६२ ओर ६३

८) पं.जनार्दन भट्ट एम.ए द्वारा लिखित

 -माधुरी मासिक - भारतीय पुरातत्व की नयी खोज १९२५ - पृष्ठ २७ ओर २९

९) पंडित गंगाप्रसाद द्वारा लिखित

जाति भेदी  पृष्ठ १० और २७

१०) रविँद्र दर्शन - सुख सनपात्री भंडारी पृष्ठ २१ ओर २२

११) भारतीय लिपीतत्व - नागेँद्रनाथ बसू. पृष्ठ ४७ ओर ५१

१२) प्राचीन भारत वर्ष की सभ्यता का इतिहास - रमेश चंद्र दत्त, भाग -१ पृष्ठ १७ ओर २९

१३) हिँदी भाषा की उत्पति - आचार्य महावीर द्विवेदी

१४) हिंदी भाषेचा विकास - बाबू श्यामसुंदर पृ. ३ ओर ७

१५) हिँदुत्व - पं.लक्ष्मीनारायण गर्दे, पृष्ठ - ८,९ ओर २९

१६) आर्योँ का आदिम निवास -पं.जगन्नाथ पांचोली.

१७) महाभारत मीमांसा - राय बहादूर चिंतामणी विनायक वैद्य.

१८) जाति शिक्षा - स्वामी सत्यदेव परिभ्राजक,पृष्ठ ८ ओर ९

१९) २९ वा अखिल भारतीय हिंदू महासमेलन रामानंद चॅटर्जी, मॉडर्न रिव्ह्यू का भाषण

२०) २९ नवंबर १९२६ के दिन आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का आज या नियतकालिन लेख

२१) देशभक्त सामाजिक का संपादकीय  लेख. पृष्ठ २९ फरवरी १९२४

२२) प्रेमा का वृंदावन मासिक - योगेशचंद्र पाल १९२७ पृष्ठ १३६ ओर १४३

२३) काका कालेलकर रिपोर्ट

२४) धर्मशास्राचा इतिहास - पा.वा.काणे करना

 २५) हिंदू सभ्यता - राधाकृष्ण मुखर्जी, पृष्ठ ४१,४७ ओर ५९

२६) डी.डी.कोसंबी - प्राचीन भारत की संस्कृती और सभ्यता

२७) वोल्गा से गंगा - राहुल सांस्कृत्यायन

२८) ग्रीक ओरिजन्स ऑफ कोकणस्थ चित्पावन -प्रताप जोशी

२९) ना.गो.चाफेकर चित्पावन - पृष्ठ २९५

३०) वि.का.राजवाडे के मतानुसार ब्राम्हण विदेशी है

३१) स्वामी दयानंद सरस्वती -सत्यप्काश ग्रंथ

३२) टाईम्स ऑफ इंडिया का 2001 का DNA रिपोर्ट

३३) ऋग्वेद मे लिखा है की ब्राह्मण विदेशी है:-

34)आर्यां का मूळ वस्तीस्थान उत्तर धृव.

-(आर्टीक्ट होम ईन द वेदाज)

35)हम ब्राह्मण लोग मध्य एशिया से भारत आये है- (डीस्कव्हरी अॉफ इंडीया- पंडित जवाहरलाल नेहरु) 

ए सब पढ के बोलो ब्राह्मण भारत के नही है।

(हिन्दी अनुवाद  मुल मराठी मेसेज)

 

गीता क्यों रची गई? और रचयिता कौन? अब इस पर बहस और इसकी समीक्षा होनी ही चाहिए।
      अभी हाल में जाने माने साहित्यकार और लेखक रामजी यादव जी ने एक बहुत ही रोचक रहस्योद्घाटन किया है। उनका रिसर्च कहता है कि *अछूत की शिकायत  कविता संग्रह लेखक *हीरा डोम  की कविताओं को पढ़ते समय, यह आभास होता है कि यह वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने के उद्देश्य से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के द्वारा लिखा गया होगा। यादव जी ने उत्तर प्रदेश और बिहार की उन सभी जगहों को खगाला, जहां डोम जाति के लोग पाए जाते है, ऐसा कोई पढा़-लिखा लेखक नहीं मिला! सबसे मुख्य बात यह है कि, कवि अपने समाज के उपर हो रहे अमानवीय हिन्दू वर्ण व्यवस्था के अत्याचारों का, अपनी नीयत समझकर दिल को झकझोर देने वाले वर्णन तो जरूर करता है। लेकिन उस दुःख से निकलने की छटपटाहट कविता में कहीं नजर नहीं आती है।
      ब्राह्मणवाद को जिंदा रखने का खणयंत्रकारी साहित्य ही  सबसे बड़ा हथियार है। इसी तरह से बाल्मीकी रामायण और गीता के रचयिता पर भी सवाल उठते रहते हैं।
     आइए! गीता के रचयिता और उसमें कहे गए कुछ संदर्भों का जायजा लेते हैं और सीरियस होकर, विषय पर मंथन करते हैं कि----
   1)- ऐसे श्लोक धर्म पुस्तक में क्यों लिखे गए,? लिखने वाले का मकसद क्या था?, इससे किसको फायदा पहुंचने वाला था,? स्वाभाविक है, किसको नुकसान पहुंचाने का इरादा था? फिर अंतिम सवाल लिखने वाला कौन हो सकता है? यही नहीं जिस समय लिखा गया, क्या उस समय कलम- दवात, पेपर- पन्ना, किसी की बात को सुनकर लिखने वाला (Stenographer) या आडियो रिकॉर्डर की सुविधा थी? क्या कोई ऐसा भी इन्सान लिख सकता है,? जो पढ़ने लिखने की उम्र में शिक्षा के लिए स्कूल न जाकर, गाय चराने जाता हो।
    भोर भयो गैयन के पीछे मधुवन मोहि पठायो, शाम भयो घर आयो। मैं कब माखन खायो।
      प्रमाण के लिए, यहां मैं सिर्फ 4-5 दोहों का उद्धरण कर रहा हूं, निष्कर्ष आप को करना है। हां एक बात और है, ज्यादा पढ़े-लिखे, स्वघोषित धार्मिक विद्वान अंधभक्तों से क्षमा चाहता हूं, मुझे गाली दे देना, मंजूर है, लेकिन अपने बच्चों के भविष्य के लिए, एक बार धार्मिक भावनाओं से मुक्त होकर, दिलो-दिमाग से तर्क जरूर कर लेना। धन्यवाद!
1)- चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
    तस्य कर्तामपि मां विध्ययकतारमन्ययम।।
                     गीता श्लोक क्र, 4(13)
 भावार्थ-
     मैंने स्वयं उस व्यवस्था की रचना की है, जिसे चातुर्वर्ण कहा जाता है, (यानि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्णों में चौगुना विभाजन और उसके साथ ही और उसकी भौतिक कार्य क्षमता के अनुसार उनके व्यवसाय भी निश्चित किए हैं। चतुर्वर्ण का रचयिता जो है, वह मैं ही हूं।
2)- श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितातत्।
    स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:
                      गीता श्लोक क्र,3(35)
भावार्थ-
    भाइयों, दूसरे वर्ण का व्यवसाय करना आसान हो, फिर भी अपने स्वयं के व्यवसाय का अनुसरण करना उचित है, चाहे कोई व्यक्ति उसको कुशलतापूर्वक न कर सके तब भी। स्वयं के व्यवसाय करने में सुख है, चाहे उसे करते समय मृत्यु भी क्यो न हो जाए। परंतु दूसरे वर्ण का व्यवसाय करने से धर्म पर खतरा हो सकता है।
 3)- न बुद्धि भेदं जनपदेज्ञानां कर्मसहंगिनाम्।
   जोसयेत्सर्वक माणिक विद्यान्युक्त: समाचरने।।
                      गीता श्लोक क्र,3(26)
4)- प्रकृतेगुणसम्पदा: सज्जन्ते गुणकर्मशु।
   तानकृत्स्नविदो मंदाकृत्स्मविन्न विचालयेत्।।
                     गीता श्लोक क्र, 3(29)
भावार्थ-
    शिक्षित लोगों को, उन अशिक्षित लोगों के विश्वास को भंग नहीं करना चाहिए। अपने स्वयं के व्यवसाय का अनुसरण करना उचित है। वह भी स्वयं अपने व्यवसाय का पालन करें और तदनुसार दूसरों को भी अपने वर्णो के व्यवसाय का पालन करने के लिए बाध्य करे। शायद, शिक्षित मनुष्य अपने व्यवसाय के साथ जुड़े न रह सके, लेकिन ध्यान रहे, जो अशिक्षित तथा मंदबुद्धि के लोग, जो अपने व्यवसाय के साथ जुड़े हैं, उन्हें शिक्षित मनुष्य, उनका व्यवसाय लांघकर गलत रास्ते पर चलने के लिए धर्मभ्रष्ट नहीं करना चाहिए।
5)- यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
  अभ्युत्थानम्धर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम।।
  परित्राणाय साधुनां बिनाशाप च दुष्कृताम्।
   धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
                     गीता श्लोक क्र,4(7-8)
भावार्थ-
     हे अर्जुन, जब जब कर्त्तव्य तथा व्यवसाय के इस धर्म की हानि (चतुर्वर्ण के धर्म का पतन) होगा, तब तब मैं स्वयं जन्म धारण करूंगा और उन लोगों को, जो इस पतन के जिम्मेदार हैं, उन पर शासन करूंगा और इस धर्म की पुनः पूर्ण स्थापना करूंगा।
     साथियों, गौर करने से पता चलता है कि, मनुस्मृति के श्लोक साफ दिखाई देने वाला एक तीखा दिमागी जहर है, लेकिन वहीं गीता के कुछ श्लोक, न दिखाई देने वाला मीठा जहर है। मनुस्मृति का असर तो अब समाज पर कम दिखाई देता है, लेकिन गीता का असर सब जगह दिखाई देता है।
    यदि ऐसा नहीं है तो, क्या कारण है कि, संविधान लागू होने के 70 सालों बाद भी, पंडित का लड़का पंडिताई, चमार का मोची, लोहार का लोहारी, कोहार का कोहारी, धोबी का धोबियाइन और अहीर का अधिकतर, दूध या खोवा बेचेगा, रोजगार और नौकरी भी दुग्ध उत्पादन में ही करेगा। मैंने खुद सर्वे किया है, मुम्बई में 90% अहीर लोग ही भैंस के तबेलों में, नींचे भैंस ऊपर मचान पर, बिना ढंग के कपड़े, चौबीसों घंटे, परिवार से दूर, अपमानित, गोबर भरी नारकीय जिन्दगी जीने को मजबूर हैं।
      मैंने एक बार 1988 में कान्दिवली में यादव संघ मुम्बई के मंच से यहां तक कह दिया था कि, यदि तबेला मालिक, आप के और आप के परिवार के खुशहाली के बारे में नहीं सोचता है तो, ऐसी नारकीय और अपमानित जिन्दगी जीने से बेहतर है, दे दो जहर इन भैंसों को, न रहेगी बांस न बजेगी बांसुरी। वहां मौजूद कुछ तबेला मालिकों ने हंगामा खड़ी कर दिया था। पक्ष और विपक्ष में गरमी गरमा के बाद मामला शांत हुआ। तबेला के हालात  आज भी वैसे ही बदतर है।
     शूद्रों को गुमराह करने के लिए गीता का आधार थोड़ा व्यापक और भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकला हुआ धर्म ग्रंथ बताते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी गीता को श्रीकृष्ण के बंशजों को ही पढ़ने की बात दूर रही, छूने तक का अधिकार नहीं था।
    आज भी यह षणयंत्र चालू है, संसद में, यदि कोई विषय मुसलमानों के अहित की बात होगी तो, उस विषय को, चमचे मुसलमान से ही वक्तव्य दिलाया जाता है, इसी तरह, शूद्रो के अहित की बात, चमचे शूद्रो से ही वक्तव्य दिलाई जाती है।
   शूद्र साथियों, इस मनुवादी षणयंत्र को समझने की कोशिश करो, कल्पना कीजिए, इसी विश्व में कुछ ऐसे भी इंसान हैं जो, मानवता और इंसानियत को बरकरार रखने के लिए 18वीं सदी से ही अंधे और बहरे-गूगें लोगों को शिक्षा देने की छटपटाहट में  एक नई तकनीक के साथ, भाषा की खोज तक कर डाली। वहीं यहां के तथाकथित कुछ ब्रह्मज्ञानी विद्वान, एक अच्छे इंसान को शिक्षित करना भी अधर्म और पाप समझते हैं।
    क्या आप, आज ऐसे अमानवीय दोहों का समर्थन करने वाले लोगों को इन्सान समझते हैं? कत्तई नहीं, ऐसे लोग मानवता के लिए कलंक हैं। 

 

क्यों सम्राट अशोक के वंश को ही रावण बना दिया*?

*ब्राह्मण बैरी ने सम्राट अशोक को ही रावण बना कर पेश किया है,  बचपन से एक प्रश्न मन में था कि श्रीलंका में बनी अशोक वाटिका में क्या कभी सम्राट अशोक रहते थे? या यह वाटिका अशोक ने बनवाई थी*?

 

*सीता जिसमें रह रही थी उस वाटिका को हनुमान ने क्यों नष्ट कर दिया? खैर ये बच्चे के मन में उठे छोटे-छोटे बेकार प्रश्न हो सकते हैं। सोशल मीडिया पर एक प्रकरण पढ़ा जिसमें तार्किक दृष्टि से मुझे एक नई बात का पता चला, इसमें बड़ा प्रश्न निहित है कि* *'रामायण’ (जिसे इतिहास से भी पहले का अतिप्राचीन ग्रंथ कहा जाता है) पहले लिखी गई या इतिहास में लिखे बुद्ध पहले हुए*।

 

*इस बारे में रामायण में से ही एक उदाहरण दिया है जो इस प्रकार है*-

 

*"यथा हि चोरः स तथा ही बुद्ध स्तथागतं नास्तीक मंत्र विद्धि तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तीके नाभि मुखो बुद्धः स्यातम्"*

 

*अयोध्याकांड सर्ग 110 श्लोक 34*

 

*अर्थात.*..

             *जैसे चोर दंडनीय होता है इसी प्रकार बुद्ध भी दंडनीय है, तथागत और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए, इसलिए नास्तिक को दंड दिलाया जा सके तो उसे चोर के समान ही दंड दिलाया जाय, परन्तु जो वश के बाहर हो उस नास्तिक से ब्राह्मण कभी वार्तालाप न करे*.।.

 

 *"श्लोक 34, सर्ग 110, वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड*” 

 

*इस श्लोक में बुद्ध-तथागत का उल्लेख होना हैरान करता है और इसके आधार पर मैं इस तर्क को अकाट्य मानता हूँ कि बुद्ध पहले हुए और रामायण की रचना बाद में की गई*। 

 

        *इस बात का ध्यान रखना होगा कि पुरानी कथा-कहानियाँ कई तरीके से सुनी-सुनाई जाती रही हैं, अतः लिखी बात का अर्थ भी हर व्यक्ति को अलग तरीके से संप्रेषित होता है*।

 

*हालाँकि तथागत बुद्ध की यह पोस्ट रामायण की कथा में खोज-खुदाई करती है और अशोक के संदर्भ में कुछ समानताओं और विसंगतियों को ढूँढ लाती है, लेकिन इस पोस्ट में अपनी भी कुछ विसंगतियाँ हो सकती हैं*।

 

         *ब्लॉग की दृष्टि से इसका थोड़ा सा संपादन मैंने किया है, कि रावण के कार्यकाल में अशोक वाटिका कहाँ से आती है ? कहीं साहित्यकारों ने चक्रवर्ती सम्राट अशोक को रावण के रूप में प्रदर्शित तो नहीं किया*? 

 

      *क्योंकि, रावण की कुछ विशेषताएँ थीं जो कि सम्राट अशोक से मिलती जुलती हैं, महान विद्वान, वीर योद्धा, शूर सिपाही, बहुत बड़ा संत, अपने संबंधियों व प्रजा का दयालुता पूर्वक पालनकर्ता, शक्तिशाली पुरुष, वरदानी पुरुष, इतना ही नहीं बल्कि रावण एक बौद्ध राजा था ऐसा श्रीलंका स्थित कुछ विद्वान भिख्खुओं का कहना है,आज भी रावण को श्रीलंका में पूजनीय माना जाता है* । 

 

        *श्रीलंका में रावण के विहारों में कुछ मूर्तियाँ और कुछ शिल्पकलाएँ पाई जाती हैं जिनमें रावण धम्म का प्रचार करते हुए स्पष्ट नजर आते हैं । इतिहास को एक बार देखा जाए तो श्रीलंका में बौद्ध धम्म को फैलाने वाले और कोई नहीं वे सम्राट अशोक ही थे*।

          *रावण ऋषियों से घृणा  क्यों करते थे? क्योंकि वे यज्ञ के नाम पर छल-कपट पूर्ण स्वधर्म नियमानुसार गूँगे पशुओं को आग में बलि दे कर हृदय विदारक अपराध करते थे, तो! इसी से यह साफ होता है कि रामायण एक काल्पनिक एवं ब्राह्मणों द्वारा रची हुई नकली कथा है*।

 

         *अगर रावण यज्ञ में चल रहे पशुओं की बलि सह नहीं सकते थे, तो! क्या वे जटायु नामक पशु को मार सकते हैं*?

 

       *रामायण में एक और कथा कही गयी है कि रावण ने सभी देवी-देवताओं को बंदी किया था। यह कथा भी सम्राट अशोक की कथा से मिलती जुलती है, क्योंकि सम्राट अशोक ने भी धम्म में घुसे हुए कुछ नकली लोगों को बंदी बनाकर उन्हें धम्म से हटा दिया था। अगर आप एक बार रामायण पढ़ें, तो उसमें आपको दिखाई देगा कि इस नकली एवं काल्पनिक ग्रंथ के लेखक ने खुद रावण की प्रशंसा की है । वह लिखता है कि रावण एक सज्जन पुरुष था,  वह सुंदर और उत्साही था,  किंतु जब रावण ब्राह्मणों को यज्ञ करते हुए और सोमरस पीते हुए देखते थे, तो उन्हें कड़ा दंड देते थे*।

 

       *इसलिए मुझे तो लगता है कि सम्राट अशोक का विद्रूपीकरण करके ही पाखंडियों ने रावण को ऐसा प्रदर्शित किया है, क्योंकि इतिहास तो यही कहता है कि धर्मांध लोगों द्वारा दशहरा मनाया जाता है । दशहरा का और दस पारमिता का कही कोई संबंध तो नहीं*? 

 

       *क्योंकि इसी दिन सम्राट अशोक ने शस्त्र का त्याग कर बुद्ध का धम्म अपनाया था, जिसे आज हम धम्मचक्र प्रवर्तन दिन या अशोक विजयादशमी कहते हैं*।

 *नमो बुद्धाय, जय भीम*

    *धम्माकांक्षी*

    *करन बौद्ध*

  *जनपद, इटावा,उत्तर प्रदेश*

 *सम्पर्क*:   मो0 - 9410045781

एक गहरा ष्डयंत्र 

बाल गंगाधर तिलक ने अपने द्वारा लिखित सन् 1895 के "संविधान " में और उनकी पत्रिका -केसरी और मराठा पत्रिका के लेख में लिखा है     कि, "शुद्र वर्ण (पिछड़ा वर्ग) और अछूतों को " भारत की नागरिकता "  नही दी जा सकती क्योंकि वर्ण व्यवस्था के अनुसार 'शुद्र वर्ण' का एकमात्र कर्तव्य तीनों उच्च वर्णों  {ब्राह्मण, छत्रिय (ठाकुर), वैश्य (बनिया)} की सेवा करना है और   धर्म शास्त्रों के अनुसार वे किसी भी "अधिकार" को धारण करने के अधिकारी नही हैं।
     
  (2). मोहन दास कर्मचंद गांधी ने 1925 में लिखी अपनी पुस्तक "भारत का वर्णाश्रम धर्म और जाती व्यवस्था"  में साफ साफ लिखा है कि, " शुद्र वर्ण (पिछड़ा वर्ग) और हरिजनों को "भारत की नागरिकता" की मांग करनी ही नही चाहिए क्योकि इससे "वर्णाश्रम धर्म" नष्ट हो जायेगा।"      

(3).  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दूसरे सरसंघ संचालक -गुरु गोलवरकर अपनी पुस्तक "बंच ऑफ़ थॉट्स"   में लिखते हैं कि "शुद्र वर्ण को देश की नागरिकता किसी भी हालत में नही दी जानी चाहिये क्योंकि वेदों के अनुसार हमारे पूर्वजों ने शुद्रों के पूर्वजों को हराकर शुद्रों को उच्च तीनों वर्णों की सेवा का काम सौंपा हैं।"        
 
इसी परिप्रेक्ष्य में आरएसएस की राजनैतिक शाखा "बीजेपी"  सरकार का CAA, NRC और NPR का मामला साफ साफ हो जाता है।

 विशेष - " सन् 1932 में गोलमेज कांफ्रेंस (लन्दन, इंग्लैंड) में आयोजित की गयी थी जिसमें  कांग्रेस की तरफ से महात्मा गांधी और हिन्दू महासभा की और से मदन मोहन मालवीय ने प्रतिनिधित्व किया था। जिसमें इन दोनों ने "शुद्र वर्ण" की "नागरिकता "और "वयस्क मताधिकार" का जबरदस्त विरोध किया था।  लेकिन बाबा साहेब डा.भीमराव अम्बेडकर ,भास्कर राव जाधव (कुनबी) और प्रो. जयकर (माली ) के अकाट्य तर्कों और मजबूत आधार के कारण  शुद्र वर्ण (पिछड़ा वर्ग) और दलित समाज को ये अधिकार अंग्रेजी सरकार को देने पड़े। *जिसके समस्त रिकॉर्ड आज भी लंदन में सुरक्षित हैं *

 कृपया इस जानकारी को सभी शुद्र भाईयों तक पहुँचाने का कष्ट करें। ध्यान रहे जो ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया नहीं है वह विशुद्ध रूप से शतप्रतिशत शूद्र है। इसलिए कायस्थ, अहीर, जाट, गुर्जर, कुर्मी, पटेल, कामा, सेट्टी, माली, नाई, तेली, सुनार, लुहार, कुम्हार, आदि सभी शूद्र हैं।पाखण्ड और आडम्बर शूद्रों पर थोप दिया गया है,सबसे बड़ा पाखण्ड को ढोने वाला आज वही शूद्र है, जो सदियों से इन पाखण्डियों से पिटता दबता आ रहा है।

1) हिन्दू धर्म स्थल (ब्राह्मण धर्म स्थल)
(2 हिन्दू धर्म गुरू (ब्राह्मण धर्म गुरू)
(3) हिन्दू धर्म ग्रंथ (ब्राह्मण धर्म ग्रंथ)
(4) हिन्दू संस्कार (ब्राह्मण संस्कार)
(5) हिन्दू महासभा (ब्राह्मणमहासभा)
(6) हिन्दू त्योहार (ब्राह्मण त्योहार)
(7) हिन्दू रीतिरिवाज (ब्राह्मण रीतिरिवाज)
(8) हिन्दू कर्मकाण्ड (ब्राह्मण कर्मकाण्ड)
(9) हिन्दू धर्मग्रंथ (ब्राह्मण धर्म ग्रंथ)
(10) हिन्दुओं के भगवान (ब्राह्मणों के भगवान)
(11) हिन्दू ऋषि मुनि (ब्राह्मणों के ऋषि मुनि)
(12) हिन्दू देवी देवता (ब्राह्मणों के देवी देवता)
     यदि ओबीसी, एससी-एसटी के लोग हिन्दू धर्म/ हिन्दुत्व के स्थान पर ब्राह्मण धर्म/ ब्राह्मणत्व का इस्तेमाल करना शुरू कर दें, तो आधी लड़ाई तो वैसे ही इन मानवता के दुश्मनों के विरुद्ध जीती जा सकती है।

अनुसूचित जातियों का आरक्षण कम्यूनल अवॉर्ड के तहत दिया गया है उनके हिन्दू धर्मी होंनें के कारण नहीं !

       अछूत ! क्यूंकि देवी-देवताओं की पुजा करते हैं सिर्फ इस आधार पर उन्हें जबरदस्ती हिन्दू धर्म के साथ जोड़ा गया है । वास्तव में 14 अक्टूबर 1956, परम पूज्य पिता बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर जी से बौद्ध धम्म दिक्षा लेनें के बाद अनुसूचित जाति के लोग हिन्दू धर्म, मनूवाद को अपने मन से त्याग कर चूके हैं । इतना हीं नहीं पंचशील-नीला झंडा और जयभीम- नमोबुद्धाय की आवाज बुलंद कर दुनिया को अपने बुध्दिस्ट होने का परिचय भी देते हैं । लेकिन, जब भी उन्हें धर्म लिखनें का मौका मिलता है, हिन्दू धर्म लिख देते हैं । हमारे लोग ऐसा क्यूं करते हैं ? क्या कारण है कि हमारे लोग हिन्दू धर्म लिखनें के लिए मजबूर हैं ?
      इस मजबूरी का कारण है जातिगत आरक्षण । क्यूंकि, आम तौर पर यह मान्यता है कि, हिन्दू धर्म में जाति होती है और हिन्दू होनें के कारण ही जातिगत आरक्षण मिलता है । बौद्ध धर्म में जाति नहीं होती और बौद्ध धर्म लिखेंगे तो आरक्षण खत्म हो जाएगा । यही डर हमारे लोगों को हिन्दू लिखनें के लिए मजबूर करता है । लेकिन सच्च तो यह है की, सन 1932 में जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैक्डोनल्ड नें हिन्दू धर्मियों से अलग, मुस्लिम, सिख, जैन आदि.. जैसा हीं अनूसुचित जातियों को भी *अल्पसंख्यांक मानते हुए उनके लिए कम्यूनल अवार्ड की घोषणा की थी । लेकिन गांधी ने अनुसूचित जातियों के पृथक निर्वाचन प्रणाली का विरोध किया और गांधी-आंबेडकर के बीच पूना पैक्ट के तहत पृथक निर्वाचन प्रणाली को छोड़ने के बदले में अनुसूचित जातियों (SC) को सन 1932 में हीं आरक्षण दिया गया है । और हिन्दू धर्मियों जिन्हें OBC/ ST आदि.. के नाम पर जो आरक्षण दिया गया है, वह उनके हिन्दू बैकवर्ड क्लास होनें के कारण सन् 1950 के बाद दिया गया है ।
        कहनें का तात्पर्य यह है कि, अनुसूचित जातियों का आरक्षण कम्यूनल अवार्ड के तहत दिया गया है उनके हिन्दू धर्मी होनें के कारण नहीं । यही कारण है की, आरक्षण प्राप्त करनें के लिए अनुसूचित जातियों को किसी धर्म विशेष का सदस्य होनें की आवश्यकता नहीं है सिर्फ अनुसूचित जाति लिखकर भी हम लोग जाति-प्रमाणपत्र प्राप्त कर सकते हैं । इतना हीं नहीं अनुसूचित जाति के लोग अपने आपको यदि हिन्दू, बौद्ध या सिख धर्मी के रुप में पेश करतें है तो भी उन्हें अपनी जो भी अनुसूचित जाति है को ही सिद्ध करना आवश्यक होता है, धर्म नहीं । अर्थात जाति सिद्ध करना है तो धर्म के साथ जाति लिखकर ही सिद्ध किया जा सकता है । मतलब बौद्ध धर्म के साथ जाति लिखने मात्र से ही आपका आरक्षण सुरक्षित हो जाता है।
     यह सब जानते हुए भी अपने आपको बुध्दिस्ट की हैसियत से दुनियां के सामने पेश करनें वाले अनुसूचित जाति के लगभग 99% लोग आज भी हिन्दू धर्म लिखकर के हिन्दूओं की संख्या बढ़ा रहे हैं और हमारे हीं संख्या बल पर मनुवादी हिन्दूराष्ट्र बनानें जा रहे हैं । क्या हिन्दूराष्ट्र का मतलब आप जानते हैं ? हिन्दूराष्ट्र का मतलब है, सवर्ण हिन्दूओं की शरण में, अपनीं जाति और औकात में रहना ।
   आरक्षण खो देनें के डर से हिन्दू धर्म लिखने वालों से हम कुछ सवाल पूछना चाहते हैं ।
1) भारत का संविधान किसनें लिखा है ?
2) हमारे लिए आरक्षण, संरक्षण की व्यवस्था किसनें की है ?
3) हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्मान्तरण करनें के लिए किसनें कहा है ?
 जवाब है बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर
      जरा सोचिए ! जब आरक्षण, संरक्षण देनेवाला हीं कहता है की धर्म बदल करो ! तो फिर इस विषय पर हमें और आधिक सोचना चाहिए या बाबासाहब के निर्देश को आदेश मान करके सीधे बौद्ध धर्म लिखना आरम्भ करना चाहिए ?
      अपनी औलाद से भी ज्यादा अछूत चमारों की चिन्ता करनें वाले बाबासाहब नें पहले से हीं आवश्यक सभी संवैधानिक प्रावधान करके हमारे लिए बौद्ध धर्मान्तरण का रास्ता सरल, सुरक्षित एवं आसान करके रखा है । हमें केवल, जैसे हिन्दू धर्म के साथ शेड्यूल्ड कास्ट को लेकर चलते थे,वैसे हीं बौद्ध धर्म के साथ भी शेड्यूल्ड कास्ट को लेकर चलना है । हिन्दू धर्म में जिस तरीके से  जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त किया करते थे, बौद्ध धर्म में भी वही तौर तरीका अपना कर जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त करना है ।
       देखें - संविधान (अनुसूचित जाति)आदेश 1950 के आलोक में भारत सरकार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी आदेश /12016/28/90-SCD(R.L.Cell) 20-11-90. अर्थात बौद्ध बनने के बाद भी तहसील(ब्लाक) से अनुसूचित जाति का प्रमाण-पत्र यदि आपको मिल रहा है तो आप का आरक्षण भला कौन बंद कर सकता है ? मतलब बौद्ध बननें के बाद भी आपको आरक्षण तो मिलेगा हीं साथ-साथ बुध्दिस्ट अल्पसंख्यांक का लाभ भी मिलेगा, यानि की डबल फायदा !
    भारतीय जनगणना सन 2011 के मुताबीक लगभग 97 करोड हिन्दू जनसंख्या की धौंस दिखाकर जो लोग हिन्दूराष्ट्र की बातें कर रहें हैं, आप बौद्ध धर्म लिखकर उनका संख्याबल लगभग 22 करोड़ से घटा सकते हैं, उन्हें कमजोर कर सकते हैं ।  इसके लिए हमें सिर्फ धर्म बदलना  है मतलब हिन्दू के बजाए बौद्ध धर्म लिखना है इसके आलावा कुछ भी नहीं  ।
      धर्म बदल करना हमारा मौलिक अधिकार है । पिता का धर्म हीं विरासत से आगे जाता है इसलिए पिता के धर्म बदल करनें के बाद परिवार के अन्य सदस्यों को धर्म बदल करनें की आवश्यकता नहीं  है । एक परिवार में एक मुख्य व्यक्ती और सिर्फ एक बार सुधार के लिए केवल एक आवेदन भेज करके अपको धर्म बदल करना है । धर्म बदल करने के लिए ना किसी धर्मगुरू से दीक्षा लेनें की आवश्यकता है और न हीं किसी भिक्षु के पैर छूनें की जरुरत । बुध्दिस्ट, एक मुक्त मानव के भांती, मात्र एक आवेदन करके आप भारत/प्रदेश सरकार के राजपत्र (गजट अंक) में धर्म बदल करनें की सार्वजनिक सूचना एवं विज्ञापन प्रकाशित करके कानूनी तौर पर अपना धर्म बदल सकते हैं ।
       आवेदन करने के बाद गजट अंक मे नोटिफिकेशन होनें तक इन्तजार करने की भी आवश्यकता नहीं है । आप केन्द्र/प्रदेश सरकार को आवेदन भेज करके आपके धर्म बदलनें की सूचना सरकार के संज्ञान में ला करके आवेदन तिथि से हीं अपनें बच्चों के स्कूलों में या निजी, सरकारी दस्तावेजों में, भारतीय जनगणना अथवा अन्यत्र उल्लिखित धर्म कालम में बौद्ध धर्म लिख सकतें हैं तथा जाति के कालम में अपनी जो भी जाति है को लिखकर डबल बेनेफिट के हकदार बन सकते हैं ।

पहली बात :- आज से 55-65 वर्ष पहले गांव देहात के अपनी तरफ़ के लोग अक्सर 'ल' को 'र' बोलते थे. जैसे चावल को चाऊर, काजल को काजर, बादल को बादर. गीत में यहीं प्रचलन था - तनी बदरवा से कजरवा तनी लगा ले गोरिया... 

दूसरी बात:- यह शोध का विषय है कि कहीं कहीं सम्राट असोक महान को पियदस्सी राजिन को पियदस्सी  लाजिन लिखा गया है. वाराणसी के पश्चिमी छोर जिसे अब संत रविदास  नगर भदोही ज़िले का नाम दिया गया है और जौनपुर ज़िले में ' देवी '  के स्थान पर 'देई' बोला जाता था. जैसे - राज देई, गुलाब देई, जुगुना देई. 

तीसरी बात:- बुद्ध को देव अदेव दोनों का शास्ता कहा गया: सत्था देव - मनुस्सानं. बुद्ध का एक पर्याय देवदेव ( देव + अदेव) भी है. इसी का नक़ल करने शिव को देवादि देव किया गया है.  ये कोई ज़रूरी नहीं कि देव का अर्थ केवल बुद्ध ही होता है. देव का अर्थ चार महाभूत भी हो सकते हैं. पालि तिपिटक 'देव वस्सन्ते' जिसका वहीं अर्थ है  जिसमें दउवा बरसत हव = पानी बरस रहा है.  

राहुल सांकृत्यायन ने देवों को एक अलग योनि योनि के अन्तर्गत माना है जो तिब्बत के भी उत्तर में रहती थी. 

बाबा साहेब ने देवों की अलग अलग तीन योनि माना है जिसे ब्राह्मण अपनी कन्या देते एक कर के रूप में देते थे. कन्या मासिक धर्म के शुरू होने से पहले तीनों देवों को शारीरिक सेवा देती थी. इसीलिए ब्राह्मण विवाह पद्धति से विवाह में ब्राह्मण पुरोहित पहले सप्तपदी में तीन देवों से कन्या को मुक्त कराते हैं तब उसका विवाह वर से किया जाता है. इसके लिए जब कन्या और वर जब सात फेरे लेते हैं तो कन्या का भाई लावा ( धान का लावा) उन तीन देवों को अर्पित करता है. जब तीनों देव कन्या को मुक्त करते हैं तभी कन्या का विवाह पूर्ण माना जाता है. 

जहां तक मेरी समझ कहती है कि ये तीन देव कोई और नहीं बल्कि बुद्ध, धम्म और संघ ही हैं. कन्या को तीन देवों से मुक्त कराने का मतलब बौद्ध संस्कृति की कन्या का अपहरण उसका हिन्दू धर्म ( ब्राह्मण धर्म) में ज़बरन धर्म परिवर्तन करके विवाह करना है. क्योंकि बाबा साहेब ने भारत के इतिहास को श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति के संघर्ष का इतिहास माना है.  

- R D Kushwah

क्या श्रंगी ऋषि हिरनी से पैदा हो सकते है?

क्या द्रोणाचार्य दोने से पैदा हो सकते हैं?

क्या पारा ऋषि पारे से पैदा हो सकते हैं?

क्या हनुमान अंजनी के कान से पैदा हो सकते हैं?

क्या कर्ण सूर्य से पैदा हो सकते हैं?

क्या गणेश मैल से पैदा हो सकते हैं?

क्या जनक अपने मरे पिता की जॉघ से पैदा हो सकते हैं?

क्या राम खीर खाने से पैदा हो सकते हैं?

क्या सीता घड़े से पैदा हो सकती है?

क्या लव कुश को बाल्मीक जी घास से पैदा कर सकते हैं?

क्या मनु की छींक से इछ्वाकु पैदा हो सकते हैं?

क्या जालन्धर जल से पैदा हो सकता हैं?

क्या मकरध्वज मछली से पैदा हो सकता हैं?

क्या सोने की लंका राख हो सकती है?

क्या हनुमान सूर्य को निगल सकते हैं?

क्या पत्थर पानी पर तैर सकते हैं?

क्या जुआ खेल कर द्रोपदी स्त्री को जुए में हारने वाले युधिष्ठिर धर्मराज हो सकते है?

जो चीज मुख से खाई जाती है, वह आंत मे जाती है और बच्चा गर्भाशय से पैदा होता है,तो दशरथ की रानियों ने खीर खाई तो कैसे खाई जो गर्भाशय में प्रवेश कर गई,और राम, लक्ष्मण,भरत,शत्रुध्न पैदा हुए।

 

जागो बहुजन मूलनिवासी जागो।

बता दो उन ढोंगियों को जो

धर्म के नाम पर तुम्हारा शोषण करते हैं।

 

और तुम्हें आंखों के होते हुए भी अंन्धा बना रहे हैं।

 

मिट्टी की देवी,पत्थर के महादेव,

गोबर के गणेश बनाकर तुमसे  सब पुजवा रहे हैं।

 

लोग कहते हैं कि ब्रम्हा जी ने श्रष्टि बनाई।उनके मुख से ब्राह्मण पैदा हुए,हांथों से क्षत्रिय पैदा हुए,पेट से वैश्य पैदा हुए, पैरों से शूद्र पैदा हुए।

लेकिन मुस्लमान,सिक्ख,जैन, इसाई,पशु पक्षी,कीड़े मकोड़े ये ब्रम्हा जी के किस अंग से पैदा हुए क्या ये श्रष्टि में नही आते हैं 

अगर आते हैं,तो ये ब्रम्हा जी के किस अंग से पैदा हुए।

भारत एक ऐसा देश है जहां आस्था की बात करें तो हैलीकॉप्टर से फूल बरसाए जाते है और शिक्षा की बात करें तो सिर पे लाठी बरसाई जाती है।*
दूध नाले में और मूत प्याले में
इसीलिए  मेरा देश उजाले में
नहीं जा रहा है।

"नालंदा विश्वविद्यालय को खत्म करने वाले, आज JNU को खत्म कर रहें हैं।"
 चाल वही बस सोच नई!!

SC/ST/OBC के लोग राम मंदिर ट्रस्ट में पुजारी के लिये आवेदन करके देखे,
हिन्दू होने का भ्रम दूर हो जायेगा!

भारत में अंबेडकर के बारे में इसलिए नहीं पढ़ाया जाता हैं क्योंकि लोग कानून सीख जाएंगे तो हमारी गुलामी कौंन करेगा?

गंगा हमारे लिए  पवित्र है,
गंगाजल सिर्फ हमारे लिए पवित्र है!! फिर भी मैंने बनारस में बिसलेरी की बोतल बिकते देखी है!!

अंधविश्वास खतरे में हैं, इसलिए शिक्षा को ओर महँगा किया जा रहा है, ताकि अक्ल के बैलो को अंधविश्वास के हल मे जोता जा सके!

शिक्षा,रोजगार के लिए आन्दोलन करना पड़े और मंदिरो के लिए बिना मांगे धन बरसे तो, देश विश्वगुरू नही पाखण्डगुरू ही बन सकता है।

एक बात ओर अगर न्यूटन भारत में पैदा होता, तो ऊपर से गिरे सेब को दैवीय फल मानकर अपनी #बीवी को खिला देता और वो #गर्भवती हो जाती नियम वगैरह नही बनते ओर न नोबल मिलता बस रोजगार शुरू हो जाता।

संविधान को पढोगे तो हक और अधिकार मांगोगे और अगर धार्मिक ग्रंथ पढोगे तो पत्थर की मूर्ति के सामने केवल भीख मांगोगे तय आपको करना है कि आप किस दिशा में अपना प्रयास करते हो बाकी आपके ऊपर।*

देश के लोगों का मान सम्मान स्वाभिमान छीनने वाले दुश्मनों का सत्यानाश होगा।
जब शेर जागेगा तो लुटेरा गीदड़ दुम दबाकर भागेगा।।

 

एक दीवार पर लिखा था,
"गाय के हत्यारों को फाँसी दो,
गाय हमारी माता है."दूसरी
दीवार पर लिखा था,
"बैल के हत्यारों को फाँसी दो, बैल शंकरजी
का वाहन है.
"तीसरी दीवार पर लिखा था,
"भैंसा के हत्यारों को फाँसी दो, भैंसा यमराज
की सवारी है.
"चौथी दीवार पर यह लिखा था, "चूहे के
हत्यारों को फाँसी दो, चूहा गणेशजी
की सवारी है.
"पाँचवीं दीवार पर लिखा था,
"शेर के हत्यारों को फाँसी दो,
शेर माँ दुर्गा का वाहन है."छठी दीवार पर
लिखा था,
"बन्दर के हत्यारों को फाँसी दो, बन्दर हमारे
बजरंगवली का अवतार हैं"
मै काफी देर सोचता रहा कि ये कहीं
नहीं लिखा है
कि .....
मनुवादियों को फाँसी दो, ये इन्सानियत के हत्यारे
हैं ।

 

नाम मे सिंह लगाने का रहस्य

क्षत्रिय अपने नाम के अंत में सिंह क्यों लिखते हैं ?_

यदि हिन्दुओं में नामकरण की पद्धति को देखा जाए तो इसके संबंध में उल्लेख मनु स्मृति में मिलता है जिसके अध्याय १ श्लोक ३३ में वर्णित है कि__

मांगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलांवितम्  ।
वैश्यस्य धन संयुक्तम्    शूद्रस्तु   जुगुप्सितम्   ।।

इस श्लोक के अर्थानुसार देखा जाए तो तो ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक क्षत्रिय का नाम बल सूचक और वैश्य का नाम धन सूचक तथा शूद्र का नाम घृणा सूचक होना चाहिए।
यदि हम पुराने इतिहास में जाकर अध्ययन करते हैं तो बड़े से बड़े बलंकारी क्षत्रिय हुए हैं जिनके नाम के अंत में "सिंह" नहीं है जैसे_ अर्जुन ,भीम,नकुल, भीष्म, दुर्योधन, कर्ण, कृष्ण, बलदाऊ ,राम लक्ष्मण, सुग्रीव, बाली  इत्यादि।
और यदि हम पृथ्वीराज चौहान के समकालीन क्षत्रियों के नामों का अध्ययन करते हैं तो भी हमें सिंह शब्द का प्रचलन दिखाई नहीं देता है,जैसे_पृथ्वीराज,जयचंद ,मलखान, ब्रह्मा इत्यादि,
यदि इसके बाद के इतिहास का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि क्षत्रिय अपने नाम के अंत में वीरता सूचक शब्द जैसे मल या पाल जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगे थे । हम पूर्ण दावे के साथ कह सकते हैं कि लगभग पंद्रहवी/सोलहवीं शताब्दी तक यानी जब तक भारत पर अकबर का शासन नहीं था तब तक क्षत्रियों में "सिंह" शब्द का प्रचलन दिखाई नहीं देता है, क्योंकि कि उस समय के क्षत्रिय महाराणा प्रताप, राणा  सांगां ,शक्ति प्रताप, भारमल  इत्यादि एेसे क्षत्रियों के नामों को देखा जा सकता है जिनके अंत में सिंह शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था।
ऐतिहासिक अध्ययन से पता चलता है कि सम्राट अकबर ने सबसे पहले "सिंह" शब्द की उपाधि उस गद्दार को दी जिसने अकबर की मदद अपने सगे भाई महाराणा प्रताप के खिलाफ मुगलों की तरफ से लड़ा जिसका नाम है , शक्ति प्रताप  तो अकबर ने शक्ति प्रताप को सिंह की उपाधि अपने वतन के गद्दार को देकर शक्ति सिंह बना दिया, जिस तरह से अंग्रेजों ने अपने वफादारों को हिज हाईनेस की उपाधि प्रदान की ठीक उसी तरह से मुगलों ने अपने वफादारों को "सिंह"की उपाधि देकर सम्मानित किया।
मुगल सम्राट  की वफादारी क्षत्रियों ने दूसरे क्षत्रियों के विरुद्ध युद्ध लड़कर और लड़ाई जीत कर सिद्ध की, तो कई क्षत्रियों ने  अपने राज्य को सुरक्षित रखने की दृष्टि से मुगलों के सम्राट अकबर के साथ रोटी बेटी का संबंध स्थापित करके अपनी वफादारी सिद्ध की और "सिंह" की उपाधि प्राप्त कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस किया।
इस क्रम को देखा जाए तो सबसे पहले आंबेर के कछवाह राजा भारमल ने अपनी बेटी जोधा बाई का निकाह अपने राज्य को बचाने की दृष्टि से अकबर के साथ सन् 1562 करके "सिंह" की उपाधि प्राप्त की , तो वहीं दूसरी ओर राजा भगवंत दास के पुत्र मानदास ने अकबर की तरफ से लड़कर कई राज्य जीते और सिंह की उपाधि प्राप्त करके मानदास से मानसिंह बन गया,
15नवम्बर 1570को बीकानेर के राजा राय कल्याण राठौर ने अपनी भतीजी अकबर को निकाह कर सिंह की उपाधि प्राप्त करके कल्याण सिंह बन गया और अपना राज्य सुरक्षित कर लिया।
सन् 1570 में ही जोधपुर के राठौर राजा मालदेव ने अपनी बेटी रुक्मावती का निकाह अकबर के साथ करके सिंह की उपाधि प्राप्त की और अपने राज्य को बचा लिया।
सन् 1573 में नगर कोट का राजा जयचंद ने अपनी बेटी का निकाह अकबर के साथ करके सिंह की उपाधि प्राप्त की और अपने राज्य को बचा लिया।
इसी प्रकार सन् 1577 में डुंगूर पुर के गहलौत राजा रावल ने अपना राज्य बचाने के चक्कर में अपनी बेटी का निकाह अकबर के साथ किया और "सिंह" की उपाधि प्राप्त करके रावल सिंह बन गया ।
ठीक इसी प्रकार सन् 1581में मोरता के राठौर राजा केशवदास ने अपने राज्य को बचाने के चक्कर में अपनी बेटी का निकाह अकबर के साथ करके सिंह की उपाधि प्राप्त की।
इसी प्रकार बलशाली क्षत्रियों ने अपनी बेटियाँ मुगलों को यानी अकबर, जहाँगीर,औरंगजेब एवं उनके उत्तराधिकारियों को भेंट की और गौरवशाली "सिंह "की उपाधि प्राप्त की और अपने राज्य को बचाने में कामयाब हुए मुगल काल समाप्त होते होते सभी क्षत्रियों में अपने नाम के अंत में सिंह शब्द का प्रयोग प्रचलन में आ गया था  ।भारत की आजादी के बाद तक सिंह की उपाधि पर केवल क्षत्रियों का एकाधिकार था,
जैसे ही भारत आजाद हुआ तो शूद्र भी आजाद हुए और उन्होंने भी क्षत्रियों की देखा देखी अपने नाम के अंत में सिंह शब्द का प्रयोग शुरू कर दिया है ,जिस पर वर्तमान में भी क्षत्रिय एतराज जताते हैं और कहते है कि अब तो चमार चूहड़े भी सिंह लिखने लगे हैं जबकि वे बेचारे सच्चाई से रूबरू नहीं है मैं तो खासकर शूद्रों से गुजारिस करता हूँ कि सिंह शब्द पर केवल क्षत्रियों का एकाधिकार है जो उन्होंने अपनी बेटियाँ मुगलों को भेंट करके प्राप्त किया है
य़ह उपाधि उनके लिए ही सुरक्षित रहना चाहिए और हमें ऐसी कायरता भरी  उपाधि सिंह का प्रयोग कतई नहीं करना चाहिए,
इसे तो केवल क्षत्रियों के लिए छोड़ दो जो कम से कम उन्हें उनके गौरवशाली अतीत की यादें ताजा करती रहेगी.
और क्षत्रिय गर्व से कह सकेंगे कि सिंह शब्द की उपाधि उन्होंने मुगलों से वीरता भरे कारनामे  करके प्राप्त की है..

गणपति विसर्जन पर डॉक्टर नरेंद्र दाभलोकर

दलित अपमान का प्रतीक है गणपति-विसर्जन
जानिए विसर्जन की सच्चाई...........
डॉ नरेंद्र दाभोलकर ने एक लेख में लिखा है | गणपति उत्सव को सर्वप्रथम शुरू करने वाले बालकि गंगाधर तिलक ने पुणे में गणपति बिठाया | दस दिन तक सभा और सम्मेलनों को संबोधित किया | बिठाए गए गणपति की दसवें दिन फेरी निकाली |
गणपति का दर्शन सभी के लिए खुला रखा गया था | एक अछूत ने मूर्ति का दर्शन करने के क्रम में उसे छू दिया | इस तरह उनका गणपति अपवित्र हो गया |
ब्राह्मणों में खलबली मच गई | सभी तिलक को गरियाते हुये कहने लगे कि देखा, गणपति को सार्वजनिक किया, तो धर्म डूब गया !! अब कौन ब्राह्मण इस मूर्ति को अपने घर में रखेगा ?
तब तक फेरी पुणे के बाहर और मुला-मुठा नदी तक आ चुकी थी | तभी तिलक ने कहा, अरे चिल्लाते क्यों हो ? शांत रहो... मैं धर्म को डूबने कैसे दूंगा ? धर्म को डुबोने की अपेक्षा हम इस अपवित्र मूर्ति को ही डुबो देते हैं |
...और इस प्रकार गणपति को डुबो दिया गया | तभी से प्रत्येक वर्ष दस दिन तक तमाम अछूतों द्वारा अपवित्र हुये गणपति को डुबा दिया जाता है |  जिसे गणपति-विसर्जन कहते हैं |
_____ डॉ नरेंद्र दाभोलकर
यह “ब्राह्मणी-धर्म” का एक प्रमुख उत्सव है | यदि हिन्दू कंधे से कंधा मिलाकर दलितों  के लिए लड़ाई नहीं लड़ सकते , तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि गणेश उत्सव कमेटियों को चंदा देने से दृड़तापूर्वक इंकार कर दें | कह दें कि, “हम दलित अपमान के किसी भी प्रतीक उत्सव में किसी भी तरह की भागीदारी नहीं निभा सकते |”





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