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बौद्ध विधि संस्कार

Siddharth Bagde
tpsg2011@gmail.com
Monday, February 22, 2021, 11:51 AM
Dhamm vidhi

बुद्ध कालिन परम्परा रही हैं कि कोई व्यक्ति अच्छा काम करता हैं या अच्छी बात करता हैं तो उसके अनुमोदन हेतु तीन बार साधू.......साधू.........साधू कहा जाता हैं। इसका अर्थ होता हैं बहुत अच्छा....... बहुत अच्छा......बहुत अच्छा। 

उपोसथ पक्रिया

तथागत बुद्ध ने तत्कालिन अंधविश्वास और अंध रूढ़ि-मान्यताओं पर प्रहार करके अपने भिक्खु संघ को और उपासक - उपासिकाओं को अंधश्रद्धा मुक्त काया, वाचा, मन से बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का उपोसथ मार्ग बतलाया इस ‘उपोसथ’ को हम जितनी ईमानदारी और निष्ठा से निभायेगें उतनी ही हमें व्यक्तिगत स्तर और सामाजिक स्तर पर शारीरिक और मानसिक सुख-शांति का लाभ प्राप्त हो सकता हैं। इसलिए बौद्धों में उपोसथ किया जाता हैं। उपवास नहीं। उपोसथ, उपवास से अत्यंत भिन्न प्रक्रिया हैं।
तथागत बुद्ध ने उपासक/उपासिकाओं के लिए उपोसथ हेतु माह के चार दिन महत्वपूर्ण बताये हैं। वे हैं- 1. अमावस्या (चतुर्दशी), 2. (शुक्ल अष्टमी), 3. पूर्णिमा और 4. वैद्य अष्टमी। बुद्ध ने यह चार दिन ही क्यों निश्चित किये ? इसके पीछे भी कारण हैं। यदि हम ध्यान से देखे तो इन दिनों पर हमारी मानसिक दशा में कुछ विशेष परिवर्तन होते हैं। इन दिनों हमारें स्वभाव में चंचलता, चिडचिडापन, असंमय, कामुकता आदि दुर्भाव बलशाली हो जाते हैं। पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा की रोशनी प्रत्येक प्राणी को प्रभावित करती हैं। पूर्णिमा की पूर्ण रोशनी की खिचाव शक्ति हमें हिला देती हैं। महिलाओं पर विशेष प्रभाव होता हैं। हमारा मन मस्तिष्क सारा का सारा उथल-पुथल हो जाता हैं। कईयों का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता हैं। इन दिन पर हत्याएँ, आत्महत्याएँ, लुट, मारपीट, बलात्कार, धोेखा धड़ी आदि कई तरह से अपराध भी होते हैं। इन दिनों हम अधिकतर साधारण व्यक्तियों का मन अकुशल चित्त प्रवृतियों की ओर झुकता हैं। अर्थात् यह सब पकृतिजन्य हैं। इन घटनाओं से तथाकथित जादु-टोना, देवी-देवता, भूत-प्रेत आदि कल्पनाओं का कोई संबंध नहीं हैं।
इन दिनों अपने मन को और मानसिक भावनाओं को नियंत्रित रखना आवश्यक होता हैं और यह कार्य ‘उपोसथ’ पक्रिया से आसान होता जाता हैं, इसलिए तथागत बुद्ध ने उपरोक्त चार दिनों पर ‘उपोसथ’ करने की शिक्षा दी हैं।
सर्व प्रथम सवेरे जल्दी उठकर नित्यकर्म, घर की साफ-सफाई, स्नानादी के पश्चात शूभ्र वस्त्र परिधान पहनकर तथागत बुद्ध और बाबा साहेब की प्रतिमाओं के समक्ष अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित कर पुष्प अर्पण कर अपने घर का वातावरण मंगलमयी किया जाता हैं। इस प्रकार हमें एकल रूप से अपने घर में अथवा सामहिक रूप से समीप के बुद्ध विहार में उपासक-उपासिकाएँ एकत्रित होकर तथागत एवं बाबा साहेब की प्रतिमाओं के समक्ष अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित व पुष्प् अर्पित कर पंचाग प्रणाम करके शांत चित्त से बैठकर भन्ते जी उपलब्ध हो तो भन्ते जी से और न हो तो किसी भी शीलवान उपासक से अथवा किसी भी उपासक से सामुहिक रूप से स्वयं ही धम्म साहित्य से पढ़कर अष्टशील ग्रहण करना चाहिए।

परित्राण क्या हैं ? उसका औचित्य क्या हैं ? परित्राण कैसे सम्पन्न कराये ?
परित्राण यह शब्द पाली के ‘परि’ और ‘त्राण’ दो शब्दों से मिलकर बना हैं। इसका अर्थ दुःख दूर करना। परि यानि दूर करना और त्राण यानि दुःख। इसका अन्य अर्थ हैं - मानवी दुःखों का परिपूर्ण निवारण (परि-सम्पूर्ण, त्राण-निवारण) अपने दुःखों को दूर करने के लिए परित्राण सत्रों का पाठ करके उसके अथों को जानकर अपने जीवन आचरण में उतारनें के लिए किया जाता हैं। बौद्ध देशों में उपासक भिक्षुओं को बुलाकर परित्राण-देशना करवाते हैं। इसमें विभिन्न सुत्रों का पाठ हम भी कर सकते हैं और किसी भी अवसर पर कर सकते हैं।

माथे पर अष्टगंध नामक टीका लगाया जाता हैं परित्राण का पानी बाँटा जाता हैं यह सब नहीं करना चाहिए। यह सब अंधविश्वास हैं। यह टीका हमारें परित्राण पाठ को ‘कथा पूजन’ अवश्य बना देता हैं। कई उपासक परित्राण के दिन उपोसथ भी रखते हैं उल्लेख हो चुका हैं की उपोसथ के दौरान सातवें शील में माला, गंध आदि धारण नहीं करने का वृत लिया जाता हैं। ‘अष्टगंध’ लगाना हिंदू पूजापाठ की नकल व अंधविश्वास हैं, इसे बंद करना चाहिए। यदि यह टीका हमारें घर पधारें उपासक बंधुओं के स्वागत हेतु लागाया जाता हो तो इसके बदले में उनके हाथों में फुलों की पंखुडिया वितरित करनी चाहिए, ताकि उनका सम्मान भी हो और वे उन्हें बुद्ध रूप व बाबासाहेब की प्रतिमाओं पर अर्पित कर सकें। इस अवसर पर भिक्खओं को उचित दान अवश्य देना चाहिए (उनके लाने-ले जाने की व्यवस्था कर दी जानी चाहिए।)

आजकल तरूण भिक्खु से ही परित्राण पाठ करवाना और एक नहीं तो कम से कम पांच परित्राण पाठ अवश्य कराने का अंधविश्वास चलन बौद्धों में चल पडा़ हैं। यह हमारी पुरानी हिंदू मानसिकता का परिचायक हैं। यदि इस प्रकार के परित्राण पाठ बौद्ध समाज में नई कुरीतियाँ उत्पन्न कर रहें हों, किसी के द्वारा इसे शांति पाठ या देवी-देवताओं द्वारा मनुष्य का भला करने वाला बताया जा रहा हो तो ऐसे परित्राण बंद कर देने चाहिए। ध्यान रहें इसी प्रकार की कुरितियो के कारण ही हमें हजारों वर्षाें वर्षों तक भौतिक और मानसिक गुलामी का जीवन जीना पड़ा। आज हम बाबासाहेब की बदौलत भौतिक गुलामी से मुक्त तो हो गयें हैं। लेकिन मानसिक गुलामी के गुण आज भी हमारें साथ चिपके हुए दिखाई देते हैं। इसलिए उपासको भी जो भिक्खु बिना पुस्तक पढ़ें परित्राण की सारी गाथाओं का हिन्दी मराठी या वंछित क्षेत्रिय भाषाओं में अनुवाद बता सके उसी से परित्राण करवाकर उपरोक्त गाथाओं की सत्यता तर्क विर्तक अवश्य ही करना चाहिए। अन्यथा परित्राण पाठ कि जगह ‘धम्म देशना’ या पारिवारिक धम्म संघोष्टी’ जैसे कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जा सकता हैं।

बुद्ध विहारों की गतिविधियाँ किस प्रकार की होनी चाहिए ?
बुद्ध विहारों में नियमित रूप से पूजा-वंदना तो होनी ही चाहिए। परंतु समय-समय पर विद्वान भिक्खुओं/समाज चिंतको के प्रवचन/व्याख्यान आदि भी आवश्यक रूप से होते रहने चाहिए। वो भी ज्ञानवर्धक, धम्म के गूढ़-ज्ञान सहित समाज हितपयोगी होने साथ-साथ बौद्धों के त्यौहार एवं संस्कारों में कट्टरता लाने वाले तथा बाईस प्रतिज्ञाओं के पालन का महत्व बताने वाले प्रवचन होने चाहिए। मनुष्य का कैसे दुःख दूर हो सकता हैं। वह निर्वाण को, बुद्धत्व को कैसे प्राप्त कर सकता हैं, बुद्ध कैसे बन सकते हैं, इस प्रकार की उच्च विचारों की गंभीर चर्चा के साथ-साथ हमारा आपसी भाईचारा कैसे बढ़ सकता हैं, हम एक दूसरों के दुःख-सुख में कैसे सहभागी हो सकते हैं, हम अपनी मानसिक गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र बौद्ध समाज का अस्तित्व कैसे बनाये रख सकते हैं, आदि विषयों पर भी चर्चा होनी चाहिए।
बुद्ध विहारों में धर्मार्थ अस्पताल, स्कुल, वाचनालय, धम्मवर्ग बच्चों के संस्कार शिविर केन्द्र, महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने हेतू विविध प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि रचनात्मक क्रिया कलाप चलाये जा सकते हैं। विहारों में आगन्तुक भिक्खुओं व धम्म कार्य हेतु बाहर से आये बौद्ध उपासको को आवश्यक जाच पड़ताल के बाद अल्प निवास की सुविधायें अवश्य देनी चाहिए। बौद्ध विहारों में सवच्छता, शांतिपूर्ण वातावरण आदि का भी ध्यान रखना अनिवार्य हैं। बुद्ध विहारों को हमें मानवता के शिक्षा केन्द्र बनाने चाहिए। धार्मिक सामाजिक समानता के बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के नारें को चरितार्थ करने वाले समाज सेवा के केन्द्र बनाने चाहिए।

बौद्धों की क्या पहचान होती हैं ?
बौद्धों को दो वर्गो में बाँटा जा सकता हैं - भिक्खु और उपासक। धम्म में भिक्खु और उपासक दोंनों का समान महत्व है। परंतु बुद्ध ने बौद्धों उपासकों के समक्ष, भिक्खु के रूप में आदर्श बौद्ध अनुयायी का अनुकरनीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक भिक्खु परिवार को त्याग कर उपसम्पदा ग्रहण करता है। वह स्थविर, महास्थविर, अर्हत पद का अनुगामी होता है। धम्म के शील उसके वृत होते है, अनिवार्य होते है। वह समाज का जागरूक मित्र, दार्शनिक एवं शिक्षक होेता है। समाज ही उसका स्वाभाविक अभिभावक होता है।
जबकि उपासक पारिवारिक जीवन जीते है। वह कुछ समय हेतु श्रामणेर या अनागारिक की शिक्षा ले सकतेे है। वह बोधाचार्य, बोधिसत्व आदि पद के लाभी हो सकते है। बौद्ध उपासक अपने आचरण से पहचाने जा सकते हैं। धम्म के शील उनके लिए अनुकरनीय होते है। शील भिक्षु के लिए वृत है, किंतु ग्रहस्थ के लिए व स्वेछा से ग्रहण किये गये ‘शील’ है। बुद्ध धम्म व संघ के सिवाय बौद्धो की कोई अन्य शरण नही होनी चाहिए। वे धम्म चरण के साथ-साथ पुराने संस्कार, त्यौहार छोड़कर बौद्धों के त्यौहार व संस्कार करते है। वे अंधविश्वास और जात-पात का समर्थन नही करते तथा 22 प्रतिज्ञाओं का कट्टरता से पालन करते है।

आचार संहिता

अनुशासनहीन समाज को अनुशासीत रखने व बौद्धों का पृथक अस्तित्व तथा विशेष पहचान बनाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धों की आदर्श आचार संहिता के साथ-साथ बौद्धों के ‘पर्सनल लाॅ’ की अत्यन्त आवश्यकता हैं। इस हेतु सभी बौद्धों को समान त्यौंहार-संस्कार एवं आचार व्यवहार अपनाने चाहिए, यही आचार संहिता का उद्देश्य हैं। आचार संहिता का पालन करते हुए हम पृथक आदर्श बौद्ध समाज का निर्माण कर सकते हैं। तत्पश्चात संगठित होकर शासन से हमारे पृथक पर्सनल लाॅ की मांग करना वर्तमान समय की आवश्यकता है।

‘बुद्ध और उनका धम्म’ ग्रंथ के आधार पर हमें बौद्ध धम्म को कैसा मानना/अपनाना चाहिए ?
    बौद्ध धम्म को बौैद्ध धम्म के रूप में जानने, समझने और मानने के लिए हमें हमारें स्वभाव के समस्त गुणों का उपयोग करना जरूरी है। मनुष्य का स्वभाव भावनीक, बौद्धिक, अंतर्मुखी व बहिर्मुखी आदि गुणों से बना है। यह अंग बौद्ध धम्म के पांच धम्म इन्द्रियों के माध्यम से व्यक्त होते है। वे हैं श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, साधना व प्रज्ञा। इन पंचधर्मेंन्द्रियों में समता बनाई रखनी चाहिए। अर्थात् 
01.    भावनात्क रूप से बौद्ध धम्म में श्रद्धा बहुत जरूरी है, जिसके अंतर्गत पूजा-वंदना, त्यौहार-संस्कार, धम्म देशना, धम्म प्रचार आदि आते है। परंतु श्रद्धा शुद्ध होनी चाहिए, शुद्ध विश्वास होना चाहिए, अंधविश्वास नहीं। ( यह श्रद्धा भावना का अंग हैं। )
02.    बौद्धिक स्तर पर प्रत्येक विचार को तर्क की कसौटी पर कस कर ही धम्म पालन किया जाना चाहिए। (यह स्मृति/जागरूकता/होश का अंग हैं।)
03.    अंतर्भिमुकता यानि शांत चित्त से मन को एकाग्र करके ध्यान भावना के माध्यम से अपने मानसिक संस्कारों, विकारों, दुःख मुक्ति का प्रयास करना। यह (समाधि ध्यान भावना का अंग हैं।)
04.     बहिर्भिमुखता यानि भौतिक रूप से अपना विकास करना अर्थात् अपनी गरीबी दूर कर आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक सभी प्रकार से अपनी प्रगति करना और यह प्रगति धम्म मार्ग पर चलकर ही करनी चाहिए। (यह वीर्य सक्रियता का अंग है।) मानवी मन के इन चारों स्वभाव गुणों में प्रज्ञा से समता बनाये रखकर अपना व अपने समाज का सर्वांगिन विकास करना ही सही मायने में बौद्ध धम्म अपनाना हैं। ‘बुद्ध और उनका धम्म’ ग्रंथ को अपना ग्रंथ मानने वाले बौद्धों को इसी प्रकार की जीवन शैली पर आधारित धम्माचरण करना चाहिए।

भारत में आम्बेड़करवादी बौद्धों की बौद्धों के रूप में पहचान बनाने, व आदर्श बौद्ध समाज के निमार्ण हेतु प्रमुख रूप से हमें क्या करना चाहिए ?
1.    प्रत्येक उपासक उपासिका को त्रिशरण, पंचशील, का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए आर्य अष्टांगिक मार्ग पर आधारित जीवन जीना चाहिए। द्वेष, ईष्या, लोभ, मोह तथा भोगवादी प्रवृत्ति को त्याग कर चरित्र संपन्न व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए।
2.    प्रतिदिन त्रिशरण, पंचशील के साथ-साथ सुविधानुसार थोड़े समय के लिए आनापान मेत्ता ध्यान भावना करनी चाहिए।
3.    बाईस प्रतिज्ञाओं का पूर्ण रूपेण पालन करना चाहिए।
4.    प्रत्येक रविवार और अवकाश के दिन एवं त्यौंहारों के अवसरों पर सम्पूर्ण परिवार सहित अनिवार्य रूप से बुद्ध विहार में जाकर विधिवत पूजा, वंदना, ध्यान साधना, धम्म देशना आदि का लाभ लेना चाहिए।
5.    त्रिगुण पावन पूर्णिमा, विजय दिवस, मुक्ति दिवस, आषाढ़ पूर्णिमा, महाप्रवारणा इन त्यौंहारों के अवसरों पर धुम-धाम से घरों विहारों में साफ-सफाई, रंगाई-पुताई, रोशनाई आदि करनी चाहिए। नये कपड़े पहनें, मिठाईयाँ बाँटे, भिक्खुओं को श्रद्धा भाव से दान दें, गरिबों को करूणा और मैत्री भाव से वस्त्र भोजन आदि दान देना चाहिए।
6.    बहु-बेटियों का लाना-ले जाना बौद्ध त्यौंहारो पर ही करना चाहिए।
7.    आपस में मिलने पर शिष्टाचार के रूप में ‘जय भीम’ या ‘नमो बुद्धाय’ ही करना चाहिए। श्रामणेर अथवा भिक्खु मिलने पर ‘वन्दामी भन्ते’, ‘नमो बुद्धाय भन्ते’ अथवा ‘जय भीम भन्ते जी कहना चाहिए।
8.    गब्भ मंगल संस्कार, नामकरण संस्कार, विज्ञारम्भ संस्कार, परिणय संस्कार, गृह प्रवेश संस्कार, मृतक व पुण्यानुमोदन संस्कार आदि सभी संस्कार तर्क संगत, विज्ञान संगत तारिखो से एवं शुद्ध बौद्ध पद्धति से सम्पन्न करवाने चाहिए। इन संस्कारों में किसी प्रकार के अंधविश्वास अथवा हमारे पुराने दकियानुसी धर्म की रूढ़ी मान्यताओं का कतई समावेश नहीं होना चाहिए। इन संस्कारो पर भिक्खुओं का पुरोहितीकरण नहीं करना चाहिए।
9.    उपोसथ व्रत पूर्णिमा, अमावश्या एवं अष्टमी को ही करनी चाहिए। उपोसथ के दौरान हम शरीर, वाणी और मन से आठों शीलों का ईमानदारी के साथ पालन कर रहे हैं, अथवा नहीं, इसका क्षण-क्षण ध्यान रखा जाना चाहिए। दिन में उपवास और रात में भोजन जैसा कृत्यकर हिंदू जैसा परिचय नहीं देना चाहिए। 
10.    त्यौंहारों पर किसी विहार के उद्घाटन या समर्पण समारोह में अथवा तथागत व बाबासाहेब की प्रतिमाओं के अनावरण समारोंह के अवसरों पर अनिवार्य रूप से शुभ्र वस्त्र पहनकर ही कार्यक्रम में जाना चाहिए।
11.    परिवार सीमित रखा जाए, दो से अधिक संतान न हों। तथा बच्चों को अच्छी एवं ऊँची शिक्षा दिलवाने के प्रयास करना चाहिए।
12.    समाज के सदस्य आपस में मिलजुलकर रहें व एक दूसरें के दुःख दर्द में सहयोग प्रदान करें तथा पूरी तरह शाकाहारी बनने का प्रयास करें।
13.    वृक्षा रोपण की शुरूआत सम्राट अशोक द्वारा की गई थी। बौद्धों को भी, प्रत्येक सदस्यों को प्रतिवर्ष दस पेड़ अवश्य लगाने चाहिए। कम से कम जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसर पर वृक्षा रोपण अवश्य ही करना चाहिए। साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखें, हर हाल में अपने व आसपास का वातावरण स्वच्छ रखें, बुद्ध विहार व बाबासाहेब की सार्वजनिक प्रतिमा के आसपास भी स्वच्छता होनी चाहिए।
14.    प्रत्येक बौद्ध के घर में ‘बुद्ध और उनका धम्म ग्रंथ’, तथागत व बाबा साहेब की मूर्ति अथवा छायाचित्र एवं बौद्ध कैलेण्ड़र अवश्य रूप से होना चाहिए।
15.    सामर्थ्य के अनुसार बौद्ध धम्म एवं बाबा साहेब के मिशन संबंधी पत्र-पत्रिकाएँ एवं साहित्य बौद्धों के घरों में होना चाहिए। अन्यों को भी अपना साहित्य खरीदवाने अथवा पढ़ने हेतु प्रेरित करना चाहिए।
16.    बौद्धों को अपने घरों में परित्राण के बजाय पारिवारिक धम्म संगोष्टियों तथा भिक्खुओं/विद्वजनों की धम्म देशना के कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए।
17.    बौद्ध व्यापारी बंधुओं को अपनी दूकानों/प्रतिष्ठानों पर तथागत व बाबासाहेब की मूर्ति अथवा छायाचित्र अवश्य ही रखना चाहिए।
18.    बौद्ध उपासकों को अपने सामर्थ्य के अनुसार बौद्ध दार्शनीक स्थलों/पर्यटन स्थ्लों की यात्रा यथा संभव अवश्य ही करनी चाहिए।
19.    जन्म से ही कोई बौद्ध नहीं होता इसलिए बौद्ध परिवारों में ‘धम्म दीक्षा’  संस्कार का आयोजन कर 18 वर्ष की प्रत्येक बालक/बालिका को किसी भिक्खु अथवा शीलवान उपासक/उपासिका द्वारा ‘बौद्ध धम्म दीक्षा’ अवश्य ही दिलवानी चाहिए।
20.    बौद्ध उपासक/उपासिका की मृत्यु के समय अंतिम क्षणों में ‘धम्म ग्रंथ’ से अनित्य बोध का पाठ अवश्य करना चाहिए। मृत्यु पर जोर-जोर से रोने बिलखने के बजाय शांति बनाये रखकर शौक व्यक्त करना चाहिए।
21.    बौद्धों में दान का बहुत महत्व हैं, अतः उचित समय पर भिक्खुओं, बुद्ध विहारों, बौद्ध संस्थाओं कों अथवा दान देने योग्य उचित व्यक्तियों को यथा शक्ति, यथा योग्य दान अवश्य देना चाहिए। साथ ही बाबासाहेब के मिशन व हमारे धार्मिक, सामाजिक शैक्षणिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सर्वांगिक विकास के लिए कार्यरत उचित संघटनों को भी समय-समय पर अपनी क्षमतानुसार आर्थिक सहयोग अवश्य ही करना चाहिए।
22.    6 दिसम्बर, बाबासाहेब का परिनिर्वाण दिवस हमारा संकल्प दिवस कहलाता हैं। उस दिन बाबासाहेब के मिशन का कार्य करने का संकल्प लेकर रक्त दान शिविर, निःशुल्क रोग निदान व चिकित्सा शिविर तथा हमारें गरीब व पीड़ित धम्म बंधुओं के सर्वांगिण विकास हेतु चेतना शिविर लगाए जाने चाहिए।

भारत में बौद्धों की विशेष पहचान बने इसलिए बौद्ध होने के नाते आम्बेडकरी उपासकों को प्रमुख रूप से कौन से व्यवहार नहीं करने चाहिए ?
1.    बौद्धों के घरों में तथागत बुद्ध, बोधिसत्व ड़ाॅ. बाबासाहेब आम्बेडकर, क्रांति वीर ज्योतिबा फुले एवं बौद्ध/आम्बेडकरी विद्वानों को छोडकर अन्य किसी भी देवी-देवताओं आदि किसी की भी तस्वीरें/मुर्तियाँ नहीं होनी चाहिए।
2.    किसी भी परिस्थितियों में गाली/अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
3.    किसी भी परिस्थितियों में शराब, गांजा, भांग, अफीम, नशा, तम्बाकू, बिड़ी सिगरेट, ड्रग्स आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना वर्जित हैं।
4.    किसी भी जीव की अकारण हत्या नही करनी चाहिए और न ही इसके लिए किसी को प्रेरित करना चाहिए। सभी के साथ मैत्री पूर्ण संबंध रखें।
5.    शराब, नषीले, पदार्थ, हथियार, जहर आदि व्यापार निषिद्ध हैं।
6.   गले, कमर, बांह में काला, लाल धागा, गंड़ा, ताबिज बांधना तथा अबौद्ध प्रतिकों की व तथाकथित विशेष पत्थरों की अँगूठियाँ आदि पहनना अछूतपन एवं अंधविश्वासी होने का प्रतिक हैं, अतः यह नहीं करना चाहिए।
7.    किसी नदी, तालाब या समुद्र को पवित्र मानकर उसमें पैसा डालना, नहाना, हाथ जोडना गलत ही नहीं तो राष्ट्रीय मुद्रा का दुरूपयोग भी हैं ऐसा न करें।
8.    भूत-प्रेत, गंडा, ताबीज, टोना, टोटका, झाड़फूक, पीर-फकीर, सुर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, अंधेरी-उजारी, आदि मानना, ग्रहशांति हेतु यज्ञ, हवन कराना, संध्या समय बत्ती जलने पर प्रणाम करना, छींक-उबासी आने पर ईश्वर आदि का नाम लेना अंधश्रद्धा के प्रतिक हैं ऐसा न करें।
9.    किन्ही भी धार्मिक-सामाजिक कार्याें में नारियल, सिंदूर, या अष्टगंध का प्रयोग न करें। उपासिकाएँ ‘हल्दी-कुँकू’ जैसे कार्यक्रम न करें।
10.    विवाह के अवसर पर केवल वधु द्वारा वर के पैर छुना व बुजुर्गों द्वारा वर/वधु  पैर धुलवाना धम्म संगत नहीं हैं। इसे बंद करना चाहिए।
11.    किसी महिला के राजस्वला होने पर या बच्चा होने पर छूत न मानें। ये सब प्राकृतिक क्रियाएँ हैं।
12.    विवाह बौद्ध भिक्खु से न लगवाएँ वरना पंडा, पुरोहित और भिक्खु में अंतर नहीं रह पाएगा। बौद्ध भिक्खु मंगलकामनाएं दे सकते हैं, उन्हें निमंत्रित कर उचित दान देना चाहिए। (उनके लाने ले जाने की व्यवस्था अवश्य ही करनी चाहिए।)
13.    विवाह एवं अन्य पारिवारिक कार्यक्रम आयोजन आदि 14 अप्रैल, 14 अक्टूबर, एवं बुद्ध जंयती के दिन न करें। यह हमारे धार्मिक त्यौंहार इनका अपना महत्व हैं। हम अपने व्यक्तिगत आयोजन हेतु इन धार्मिक त्यौंहारों की गरिमा/महत्ता कम न करें। सात दिन बाद या सात दिन पहले कार्यक्रम करें।
14.    विवाह दिन में ही करने चाहिए ताकि फिजूलखर्ची न हो। विवाह में गाना-बजाना, मांसाहार, मदिरापान वर्जित हैं। दहेज लेना या देना सामाजिक अपराध हैं। विवाह के समय त्रिशरण-पंचशील सिर्फ वर/वधु को ही लेना चाहिए आम जन को नहीं/चावल का प्रयोग का प्रयोग अक्षता (टिका) बनाने/फेंकने में न करें। पुष्प भी नहीं फेंकने चाहिए, पर/वधु के हाथों में देकर उन्हें बधाई देनी चाहिए।
15.    विवाह मंडप में जहाँ तथागत बुद्ध व बाबा साहेब की मूर्तियाँ या छायाचित्र से पूजास्थल सजाया गया हो वहाँ नाच-गाना हर्गिज न करें। विवाह में अनावश्यक व हास्यपद ‘सुवशिन’ व ‘आरती’ की परम्परा को बंद करना चाहिए।
16.    पूजा-वंदना के समय उपासक/उपासिकाओं के सिर पर टोपी, पगड़ी, मुकुट या साडी का पल्लु आदि नहीं होना चाहिए। यह सम्मानिय व्यक्ति के प्रति सम्मान प्रकट करने की पुरातन परम्परा हैं। बौद्ध भिक्खु भी वरिष्ठ भिक्खुगणों या बुद्ध के प्रति सम्मान प्रकट करने हेतु अपने दाएँ कंधें को खुला कर देते हैं। अर्थात चीवर हटा देते हैं।
17.    विधुर/विधवा/अंतर्जातिय विवाहों को प्रोत्साहित करें। कोसरे, बावने, लाड़वन, बारके, महार, चमार, वाल्मिकी, कुशवाह, कोरी, लोधी, पारधी, पवार, मरार, ब्राम्हण, अब्राम्हण किसी भी जाति- सममुदाय से बौद्ध बनें बौद्धों को आपस में वैवाहिक संबंध प्रस्थापित कर अपने सच्चें बौद्ध होने का परिचय देना चाहिए। हिंदू से बौद्ध बने बौद्ध उपासकों ने अपने पूरानी जाति में ही बेटी व्यवहार को करने जैसे ब्राम्हणवादी जैसे विचारों को त्यागकर अपने जातिविहीन बौद्ध समाज के सदस्य होने का परिचय देना होगा।
18.    मृतक संस्कार में मृतक के मस्तिष्क पर सिक्का रखना, सद्गति के ख्याल से मृतक के मूँह में गंगाजल, दूध, परित्राण का पानी, सोने का पानी, तुलसी जल, पान बीड़ा आदि ड़ालना अधंविश्वास हैं। यह न करें।
19.    शवयात्रा में खाण्ड़ पूजना यानि अर्थी के चारों कोनो में धान, कौड़ी, पैसा आदि रखना, शव को हल्दी, गुलाल] नील आदि लगाना, लाही, पैसा फेंकना, लाऊड स्पीकर बजाना, बाजा बजाना, शमसान में विसावा के समय अर्थी के पास चावल-दाल आदि रखना बंद करना चहिए।
20.    मृतक संस्कार पर तीसरा दिन, दस क्रिया, तेरहवीं आदि के नाम पर मुंडन संस्कार मृतक भोज अनिवार्य रूप से बंद करना चाहिए। बौद्धों को मृतक संस्कार में अवश्य ही जाना चाहिए परंतु तेरहवीं का खाना खाने का निमंत्रण आने पर खाना खाने नहीं जाना चाहिए। (क्योंकि यह ब्राम्हणवादी परम्परा हैं।)
21.    दान देते समय दान राशी 11, 21, 51, 101, 201, 501 आदि निश्चित आंकड़ों में न दें। यह शुभ-अशुभ व अंधश्रद्धा का प्रतिक है, बौद्धों में इसके लिए कोई स्थान नहीं हैं।
रक्षाबंधन, दिपावली, होली यह चारों वर्ण व्यवस्था के पोशक त्यौंहार हैं। यह उनकी सांस्कृतिक पहचान के आधार स्तंभ हैं। इनके साथ ही राम नवमीं, अखाड़ी, जिवती, कृष्ण जन्माष्टमी, तीजा, हरछठ, पोला, मारबद, गणेश चतुर्थी, गुड़ी पाडवा, नवदुर्गा, जवारा बोना, तील संक्रांति, कलसा भरना, महाशिव रात्री, नागपंचमी, बंसत पंचमी आदि जाति व्यवस्था को जीवित रखने के उद्देश्य से निर्मित किये गये हिंदू त्यौहार हैं। बौद्धों का इनसे कोई संबंध नहीं हैं। बौद्धों को ऐसे कोई त्यौंहार नहीं मानने चाहिए।

आदर्श बौद्ध उपासक के क्या कर्तव्य हैं ?
    आदर्श बौद्ध उपासक वह हैं, जो प्रतिदिन त्रिरत्न वंदना करें, बाईस प्रतिज्ञाओं का पालन करें, पंचशील, आर्य अष्टांगिक मार्ग, दस पारमिताओं का पालन करें, बौद्ध धम्म और आम्बेड़करी मिशन के कार्य में सक्रिय सहयोग कर यथा शक्ति दान दें, बौद्ध संस्कार एवं त्यौंहारों को मानें। प्रत्येक रविवार एवं बौद्ध त्यौहारों पर बुद्ध विहार जायें। अबौद्ध देवी-देवता और उनके संस्कार, त्यौहार, आत्मा-परमात्मा, ईश्वर, परा-प्रकृति, चमत्कार, अंधविश्वास आदि को बिल्कुल न मानें। आम्बेड़करी मिशन को आगे बढ़ाने में अपना सक्रिय सहयोग दें।

भिक्खु के भोजन दान का क्या महत्व हैं ?
धम्म में भिक्खु को दिये गये भोजनदान का बहुत महत्व हैं। भिक्खु का परिवार नहीं होता। उपासक ही भिक्खु के सामाजिक अभिवावक होते हैं। यदि उपासक भिक्खु को भोजनदान देते हैं तो धम्म का जीवन एक दिन बढ़ जाता हैं। भिक्खु को दोपहर 12.00 बजे के पूर्व भोजनदान देना चाहिए। भिक्खु एकाहारी होते हैं वे दिन में सिर्फ एक ही समय भोजन करते हैं।

क्या भिक्खु का सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करना चाहिए ?
धम्म में जागरूक उपासक का बहुत महत्व हैं। अपरिचित भिक्खु से भेंट होने पर उनसे सामान्य परिचय प्राप्त करना चाहिए। जैसे उनके संघ का नाम, पता, उनके पूर्व जीवन का नाम, पता, शिक्षा, व्यवसाय, पूर्व परिवार भिक्षु जीवन की उपसम्पदा का उद्देश्य उनके उपाध्याय का नाम, भिक्षु जीवन के अनुभव, उनके आगमन का उद्देश्य, आगे के प्रस्थान यात्रा का समय विवरण आदि के विषय में विस्तार से जानकारी लेकर सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि इतिहास बताता हैं कि पूर्व काल में तथागत बुद्ध के धम्म को और भिक्खु संघ को बदनाम करने के उद्देश्य से कई धम्म विरोधी लोगों ने बौद्ध भिक्खु बनकर संघ/समाज में घुसपैठ कर कई अनैतिक कार्य किये हैं जिससे बुद्ध का धम्म और संघ बदनाम हुआ जो कि उसके भारत से लुप्त होने के महत्वपूर्ण कारणों में से एक कारण साबित हुआ हैं। आज भी बुद्ध विरोधी लोग उस प्रकार के प्रयासों में संलग्न हैं जिसके प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। इस हेतु किसी अपरिचित भिक्खु से शिष्टाचार व सावधानीवश अपरिचित/आंगतुक भिक्खु का सम्पूर्ण परिचय अवश्य प्राप्त करना चाहिए।
पूज्य भिक्खु संघ से भी विनम्र निवेदन हैं कि यदि कोई उपासक उन्हें परिचय पुछे तो अवश्य बताएँ। कई बार यह देखने मेें आता हैं कि भिक्खु गणों से उनका पूर्व नाम, पता, परिचय आदि पुछे जाने पर या तो वे गुस्सा हो जाते हैं या फिर ‘अब हमारा नया जन्म हो गया हैं, पुराना छोड़िए या बाद मेें बताएँगे’ आदि कह कर टाल देते हैं। बौद्ध समाज भी जानता हैं कि भिक्खु बनने पर प्रत्येक व्यक्ति का नया जन्म होता हैं। परंतु उपासक लोग अपनी सुरक्षा की भावना से अनभिज्ञ भिक्खुओं से उनका पूर्व नाम, ग्राम, परिचय आदि पूछते हैं। तब सच्चे भिक्खुओं ने उन्हे बताना ही चाहिए। उसमें भिक्खु संघ की कोई हानि या शील भंग होने की बात भी नहीं हैं, बल्कि उपासक लोग सच्चे भिक्खुओं का सान्निध्य पाकर स्वयं को व समाज को सुरक्षित ही महसुस करते हैं और यह परस्पर कल्याण मैत्री उनके धम्माचरण में सहायक हो जाती हैं।

सच्चे भिक्खु की क्या पहचान होती हैं ?
भिक्खु सर्दव काषाय वस्त्र (चीवर) धारण करता हैं। उसका सिर मुंड़ा हुआ रहता हैं। उसके पास अंतरवासक, उत्तरासंग, संघटी, कमर का पट्टा, भिक्षा पात्र, उस्तरा या ब्लेड, सुई धागा व पानी छानने का कपड़ा इन आठ आवश्यक वस्तुओं के अलावा धम्म व शील की अमुल्य निधि होती हैं। भिक्षा पात्र सदैव उनके पास रहना चाहिए। भिक्खु गंभीर होते हैं अधिकतर मौन रहते हैं। महिलाओं की उपस्थिति में वें भिक्षु प्रतिमोक्ष संवर शील का पालन करते हैं। ‘ओक्खितं चक्खु’ विशेष तौर पर संयमित होते हैं। सच्चे भिक्खु उनके आठ आवश्यक वस्तुओं के अलावा भोजन दान स्वीकार करते हैं। थेरवादी बौद्ध भिक्खु 227 व भिक्खुनियाँ 311 नियमों का अनिवार्य रूप से पालन करने वाले होते हैं।

सामग्री :-
    तथागत व बाबा साहेब की दो बड़ी प्रतिमाएँ/छायाचित्र, नया कासाय/सफेद वस्त्र (कम से कम तीन मिटर, संस्कार के बाद भंते/संस्कारकर्ता को दान दिया जा सकता है।) मोमबत्ती, अगरबत्ती, एक नया मिट्टी का लाल बर्तन (छोटी मटकी) एक प्लेट (कलस पर रखने हेतु) पीपल या जामुन के पांच पत्ते (बौद्ध देशों मेें बोधिवृक्ष के पत्ते नही तोड़े जाते) तीन सुत्री सफेद धागा, मोमबत्ती हेतु स्टैण्ड या प्लेट, अगरबत्ती स्टैण्ड, अधिक मात्रा में पुष्प/पत्तियाँ। साथ में बुद्ध और उनका धम्म ग्रंथ अवश्य रखें।
पुजा स्थल :-
    पूजा स्थल साधारणतः ऊँचा बनाया जाय। एक टेबिल पर नया कासाय/सफेद वस्त्र बिछाकर तथागत की मूर्ति/छायाचित्र ऊपर रखें। उसके नीचे बाबासाहेब की मूर्ति/छायाचित्र रखें या बायीं ओर बाबासाहेब एवं दाहिनी ओर तथागत की मूर्ति/छायाचित्र रखें। यह बात हमेशा ध्यान रखें कि बाबासाहेब एवं तथागत की मुर्ति/छायाचित्र से ऊँचाई पर किसी का भी आसन नही रहेगा। टेबिल के बीच में तथागत की मूर्ति/छायाचित्र के समक्ष नया मिट्टी का लाल बर्तन रखें, कलश के नीचे चावल न रखे जाय, कलश के सहारे के लिए अन्य किसी वस्तु का उपयोग किया जा सकता है। कलश में शुद्ध जल एवं पीपल/जामुन के पत्तो को डंठलों में तीन तार के धागे (सुत्त) से बांधकर रखें, पत्तों के ऊपर प्लेट रखें, एवं प्लेट में मध्यम आकार की मोमबत्ती लगायें। चाहे तो मोमबत्ती बाजु में भी लगा सकते हैं। सुविधानुसार अगरबत्ती स्टैण्ड सजा दें। भंतेजी की कुर्सी पर कुषन रखें या भंतेजी स्वयं अपना चीवर/वस्त्र रखकर बैठे ताकि भिक्षु का आसन उंचा रहे।
पूजा वंदना-संस्कार विधी
तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके शरीर के विभिन्न धातुओं- अवशेषों पर चैत्य, स्तुप निर्माण कर उन्हें बुद्ध के रूप (प्रतिक) पूजा की जाती रहीं है। लेकिन बौद्ध राजा कनिष्क के कालखण्ड़ ईसा की प्रथम शताब्दी से प्रतिकात्मक बुद्ध मूर्ति बनवाकर महायान पंथियों द्वारा मूर्तिपूजा प्रारम्भ की गई और उसी के अनुरूप पूजा विधि एवं वंदना सुत्तों की रचना की गई। वही परम्परा वर्तमान में शुरू है। मन में धम्म के सुसंस्कार प्रतिबिंबित करने के लिए इस पूजा संस्कार विधि का एक अलग महत्व हैं, इसलिए तथागत व बाबासाहेब के प्रति अपना आदर व कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए-उनका गौरव करने के लिए हम उनकी प्रतिकात्मक मूर्ति/प्रतिमा की नम्रता पूर्वक पूजा-वंदना करते है।
    लेकिन यह पूजा वंदना अन्य धर्मों में उनके ईश्वर, देवी-देवताओं को संतुष्ट करने के लिए की जाने वाली प्रार्थना, याचना अथवा आराधना जैसी बिल्कुल नहीं हैं। दोनों घुटने, दोनों हाथ और माथा भूमि को स्पर्श कर पंचाग प्रणाम की जाने वाली पूजा-वंदना, तथागत व बोधिसत्व बाबासाहेब के प्रति काया द्वारा व्यक्त किया जाने वाला आदर है। सुत्तपाठ और गुणगौरव के साथ की जाने वाली पूजा-वंदना यह वाणी से व्यक्त किया जाने वाला आदर है। तथा समाधि-चिंतन द्वारा की जाने वाली पूजा-वंदना यह मन/चित्त से किया जाने वाला आदर हैं।
    पूजा-वंदना में आर्पित पुष्प ‘‘अनित्यता’’ के प्रतिक होते है, प्रज्वलित दीप/मोमबत्ती ‘‘प्रज्ञा’’ के प्रतिक होते हैं तथा अगरबत्ती व अन्य सुगंधित द्रव तथागत ब बाबासाहेब के गुणों की ‘‘कीर्ति’’ के प्रतिक होते हैं। मिट्टी के बर्तन (कलश) ‘क्षणभंगुरता’ का एवं घड़े के पानी ‘विकाराग्री शांति’ वह ‘शुद्ध निर्मल जीवन’ का प्रतिक होता हैं तो ‘तीन सुत्री धागा’ बुद्ध, धम्म व संघ इन तीन रत्नों का प्रतीक होता है जिसे हाथ में पकड़कर हम त्रिरत्नों के प्रति जीवन भर श्रद्धावान व निष्ठावान रहने का संकल्प लेते हैं।

1.    गब्भमंगल संस्कारः-
 यह बौद्धों का पहला महत्वपूर्ण त्यौंहार है। यह संस्कार गर्भ के तीसरे माह से लेकर सातवें माह तक कभी भी उपासिका के मायके अथवा ससुराल में सुविधानुसार किसी भी बौद्ध भिक्षु/भिक्षुणी/श्रामणेर/श्रामणेरी की उपस्थिति में (अनिवार्य नहीं) किसी भी मान्य संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक/उपासिका के हाथों सम्पन्न करवाया जा सकता है। हम देखते है। कि सामान्यतः इस अवसर पर नवविवाहित महिला के गर्भवती होने पर गर्भ के सातवें माह में गर्भवती के मायकें में बोळवण/बोरवण के नाम पर उसे हल्दी-कुंकम लगाना, हरी साड़ी-हरी चुड़िया पहनाना, गोदी वोटी आदि भरना आदि जैसे अबौद्ध संस्कार किये जाते है, उन्हें बंद करना चाहिए। इस अवसर पर घर का वातावरण धार्मिक और शांतिमय रखना चाहिए। साथ ही घर में इस पुस्तिका में बताएँ अनुसार किसी शीलवान उपासिका द्वारा परित्राण पाठ करवाकर गर्भवती महिला द्वारा उचित दान कराया जा सकता है। उसे विपश्यना ध्यान का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। इन बातों का गर्भस्थ शिशु पर अनुकुल प्रभाव पड़ता हैं।
संस्कार विधि :-
    पूजा स्थल सजाना, गर्भवती महिला और उसके पति द्वारा अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित कर तथागत व बाबासाहेब की प्रतिमा पर पुष्प अर्पण कर पंचाग प्रणाम करवाना, त्रिशरण, पंचशील, त्रिरत्न वंदना, अंगुलीमाल सुत्त का पाठ, महामंगल सुत्त का पाठ, समापन गाथा, पति-पत्नि से उचित दान करवाना एवं भिक्षु/भिक्षुणी/श्रामणेर/श्रामणेरी/मान्य संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक/उपासिका का संक्षिप्त धम्म प्रवचन।
विशेष :-
अधिकतर यह देखने में आता है कि विवाह के बाद आने वाली प्रथम आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन नव वधु को उसके पति के घर नहीं रखा जाता। या तो उसे उसके मायके वाले लेने आते हैं या उसके पति के ही अन्य रिश्तेदारों के घर उसे एक दिन के लिए भेज दिया जाता है। यह बंद करना चाहिए। क्योंकि आषाढ़ी पूर्णिमा के ही दिन सिद्धार्थ गौतम (सुमेध बोधिसत्व) ने महामाया के गर्भ में प्रवेश किया था और इसीलिए बौद्धों के लिए इस पूर्णिमा का बड़ा महत्व है। परंतु ब्राम्हणवादीयों ने जानबूझकर इस आषाढ़ी पूर्णिमा को नव वधु को उसके पति के घर न रहने की कुप्रथा प्रारम्भ की। उन्हें ड़र था की फिर से कोई सिद्धार्थ गौतम बुद्ध की तरह ब्राम्हणवाद का विरोधी न पैदा हो जाए। ब्राम्हणों द्वारा रची गई इस परम्परा के हम आज भी शिकार है, इसे बंद करना चाहिए। आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन नव वधु को उसके पति के घर पर ही रहने देना चाहिए, यह उत्तम मंगल हैं।
2.    नामकरण संस्कार :-
यह संस्कार बच्चे के जन्म से लेकर एक वर्ष तक कभी भी किसी भी भिक्षु/भिक्षुणी/श्रामणेर /श्रामणेेर की उपस्थिति में किसी मान्य संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक/उपासिका के हाथों सम्पन्न करवाया जा सकता है। इस दिन बालक/बालिकाओं को शुभ्रनये/स्वछ वस्त्र पहनाकर इस पुस्तिका में बताए अनुसार परित्राण पाठ या पारिवारिक धम्म संगोष्टि का आयोजन कराया जानना चाहिए एवं उचित दान देना चाहिए। बच्चे के नाम के साथ ‘बौद्ध’ लगाकर नाम घोषित किया जाना चाहिए। (जैसे हर्षवर्धन बौद्ध, सम्यक बौद्ध आदि) स्कूल में भर्ती करने के समय भी इसी प्रकार लिखना चाहिए, इस प्रकार बौद्ध उपनाम होकर यह भी बौद्धों की अलग पहचान बनाने में सहायक हो सकता है।
संस्कार विधि :-
    पूजा स्थल सजाना, माता पिता द्वारा अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित कर तथागत व बाबासाहेब की प्रतिमाओं पर पुष्प अर्पण कर पंचंाग प्रणाम, त्रिषरण, पंचशील वंदना, बुद्ध पूजा, महामंगल सुत्त का पाली-हिंदी पाठ, नामकरण भिक्षु/भिक्षुणी /श्रामणेर/श्रामणेरी/मान्य संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक/उपासिका का संक्षिप्त धम्म, समापन गाथा, तथा माता-पिता से उचित दान करवाना।
विशेष :-
    पूर्व में उल्लेख किया गया है कि हमारे जाति सूचक नाम व उपनाम/सरनेम के कारण भी हमारी बौद्ध होने की पहचान नहीं बन पा रहीं हैं। इसलिए नये पीढ़ी के बच्चों के नामकरण के समय बौद्ध संस्कृति के अनुरूप ही नामकरण हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। वर्तमान में हमने अपने बच्चों के नाम तो अच्छे रखने शुरू भी कर दिए है लेकिन शूद्रों के पहचान वाले जाति सूचक उपनाम आज भी ज्यों के त्यों बने हुए है। बाबासाहेब ने वर्णव्यवस्था की जननी मनुस्मृति की होली जलाई थी और चवरे/चैरे-चोरे, ढ़वरें-ढ़ोरे, नाकतोड़े, कानफाडे, डोईफोड़े, वासे, फुसे, रगड़े झगड़े, झोडापे, झोपे, मडके, भडके, मेश्राम, रामटेके, गजभिये, शेन्डे, खोब्रागड़े, ढोके, जाटव, चहान्दे, अहिरवार, यादव, काछी, कुषवाह, आदि जाति सूचक सरनेम लिखकर मनुवादी वर्णव्यवस्था को ही पोषित कर रहें।
    इसलिए, यदि वाकई हम बौद्ध धम्म को सही अर्थाें में मानना चाहते हैं तो सर्व प्रथम हमें अपने संस्कार, अपने नाम व सरनेम बदल कर बौद्धों के अनुसार लिखने होगें, एवं समस्त सरकारी अभिलेखों (यथा-स्कुल, नौकरी, जनगनणा आदि में) बौद्ध लिखवाना चाहिए, तभी हमारी नवीन संस्कृति बन पाएगी।
    याद रहें प्रत्येक व्यक्ति की यह जिम्मेदारी हैं कि बाबासाहेब का वह सम्यक संकल्प, कि हमें भारत को बौद्धमय करना है, उसे पूरा करना है। अब बौद्धों को भी सभी सुविधाए मिल रहीं हैं, अतः बेधडक होकर बौद्ध बनें, बौद्धों लिखें या बौद्ध लियें। नाम बदलने की विधि के लिए कृपया धम्म दीक्षा संस्कार का अवलोकन करें।
3.    विद्यारंभ संस्कार :-
बालक अथवा बालिका को पाठशाला भेजने के पूर्व पहले ही दिन यह संस्कार नजदीकी बुद्ध विहार अथवा अपने घर में विद्धान बौद्ध भिक्षु/भिक्षुणी/श्रामणेर/श्रामणेरी की उपस्थिती में (अनिवार्य नहीं) मान्य संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक/उपासिका द्वारा सम्पन्न करवाया जाना चाहिए।
संस्कार विधि :-
पूजा स्थल सजाना, माता-पिता द्वारा अगरबत्ती, मोमबत्ती प्रज्वलित कर बच्चे के हाथों तथागत बुद्ध और बाबासाहेब की प्रतिमाओं पर पुष्प अर्पन कर पंचांग प्रणाम करवाना, त्रिशरण, पंचशील, त्रिरत्न वंदना, संकल्प का पाठ करवाना बच्चे का हाथ पकड़कर स्लेट या काॅपी पर ‘‘नमो बुद्धाय’’ अथवा ‘‘जय भीम’’ लिखवाना, महामंगल सत्त का पाली-हिंदी पाठ, ‘बुद्ध और उनका धम्म’ ग्रंथ का पाठ, धम्म प्रवचन, बच्चे के हाथों उचित दान दिलवाना, समापन गाथा और समाप्ति।
4.    विवाह संस्कार :-
विवाह एक सामाजिक आवश्यकता हैं क्योंकि समाज में अपने ग्रहस्थ जीवन को अनुशासनबद्ध तरिके से चलाने के लिए उपासक-उपासिका के आपसी संबंध इसी वैवाहिक संस्कार से निश्चित होते हैं। अतः बौद्ध अनुयायियों को अपने पुत्र-पुत्रियो के विवाह हेतु आपस में संबंध स्थापित करते समय यथा संभव दोनों पक्षों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर यह संस्कार सम्पन्न कराया जाना चाहिए। इसमें अन्तरजातिय-अंतरप्रांतिय, सामुहिक-आदर्श, विधवा-विधुर विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, तथ अपने पुराने दकियानुसी धर्म के सभी पुराने संस्कारों एवं कुप्रथाओं को प्रथाओं का पूरी तरह बहिष्कार करना चाहिए। विवाह पूर्व रिश्ता निश्चित करते समय दोनों पक्ष इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि जिस परिवार से रिश्ता हो रहा हैं। वह परिवार एवं संबंधित वर या वधु किसी न किसी मान्य संघ के सदस्य अवश्य होने चाहिए।
विवाह संस्कार के पूर्व साफ-सफाई तो की ही जाती है वैसे ही विवाह के पूर्व परित्राण पाठ, धम्म देशना अथवा पारिवारिक धम्म संघोष्ठि का आयोजन अवश्य कराया जाना चाहिए। बौद्धों के विवाह संस्कार संभवतः विहार प्रांगणों में या सार्वजनिक स्थानों पर कम से कम खर्चे में सादगी पूर्ण ढ़ग से सम्पन्न किये जाने चाहिए। अंधविश्वास वाले रिवाज जैसे मुहूर्त देखना, राशि मिलाना, उपरी दिखावा, फिजुल खर्ची, आतिशबाजी, बाजा, नाचगाना (ड़ी. जे.), नशापानी तथा शादी पूर्व अथवा बाद में भी मेहमानों के लिए मांस, मटन, शराब का आयोजन नहीं होना चाहिए। उसी प्रकार सामाजिक स्तर पर बहु/दामाद के लाने ले जाने के अवसर पर भी मांस, मटन, शराब का आयोजन नहीं होना चाहिए। यह बौद्धों के संस्कृति के खिलाफ कार्य हैं। किसी भी मांगलिक कार्य में नारियल का इस्तेमाल करना वर्जित रहेगा, क्योंकि नारियल बली प्रथा का प्रतिक हैं। प्राचीन काल में नरबली दी जाती थीं, बाद में पशुबली दी जाने लगी जो आज भी कहीं-कहीं जारी हैं। वर्तमान में नारियल का प्रयोग भी बली प्रथा का ही परिवर्तित रूप हैं, इसलिए नारियल कर प्रयोग मांगलिक कार्य में न करें। भोजन आदि में नारियल का भरपूर सेवन कर सकते है। विवाह के समय वधु को उपहार सामग्री देने के साथ ही वधु के पालकों द्वारा ‘धम्म ग्रंथ’ व ‘तथागत बुद्ध’ एवं ‘बाबासाहेब’ की बड़ी प्रतिमाएँ/छायाचित्र वर-वधु को भेंट करने चाहिए जिनका विवाह के अवसर पर भी उपयोग होगा और बाद में वर-वधु उन्हें अपने घर में भी लगा सकेगें।
विवाह बौद्ध भिक्खु से नहीं लगाने चाहिए वरना पंडा, पादरी, पुरोहित और भिक्खु में कोई फर्क नही रह जाएगा। बौद्ध भिक्खु शील और मंगलाशीश दे सकते है। बौद्ध भिक्खु जो स्वयं ब्रम्हचर्य का पालन कर रहें हो उनसे वैवाहिक कार्यक्रम करवाना कहां तक उचित है ? वास्तव में देखा जाय तो बाबासाहेब ने ‘बुद्ध और उनका धम्म’ (प्रष्ठ 204) पर भिक्खुओं के द्वारा किसी भी प्रकार के संस्कार को सम्पन्न न किये जाने की बात कही हैं। कुछ भिक्खु बाबासाहेब का संदर्भ देकर ‘बाबासाहेब ने ही भिक्षुओं से शादी लगाने के लिए कहां था’ - ऐसा कहते हैं। वे बाबासाहेब का पत्र भी दिखाते हैं। परंतु वह पत्र बाबासाहेब ने किसी उपासक को 1956 के बहुत पहले लिखा था। तब बाबासाहेब हिंदू ही थे। मनुष्य के विचार समय के साथ-साथ परिवर्तित होते है। हमें बाबासाहेब के ‘बुद्ध और उनका धम्म’ में रखें गये उनके विचार पर ही चलना चाहिए।
विवाह संम्पन्न कराने का कार्य एक संस्कारित शीलवान उपासक संस्कारकर्ता द्वारा किया जाना चाहिए। यदि भिक्खु उपलब्ध हो तो उनसे याचना करके केवल वर-वधू को ही त्रिशरण, पंचशील ग्रहण कराया जाना चाहिए।
वर-वधु के पालकों को संस्कारकर्ता का चयन करना अति आवश्यक होना चाहिए। संस्कारकर्ता का सहयोग विवाह की तारीख तय करने, पत्रिका छापने, वर-वधु के कपड़े खरीदने एवं आवश्यक मांगलिक कार्यों में निर्देश लेने में किया जाना उत्तम है। विवाह के अवसर पर उन अवसर पर विवाह का प्रमाण पत्र प्राप्त करना अनिवार्य हैं ताकि बौद्ध होने का प्रमाण बना रहें। यह प्रमाण पत्र संस्कारकर्ता ने उपने संबंधित बौद्ध संस्था से प्राप्त कर लेना चाहिए। विवाह के अवसर पर उन प्रमाण पत्रों पर संस्कारकर्ता के हस्ताक्षर के साथ-साथ संस्था के अध्यक्ष के हस्ताक्षर होने भी अनिवार्य है। ऐसे प्रमाणपत्र संस्कारकर्ता द्वारा वर-वधु को प्रदान किये जाने चाहिए। इस प्रमाण पत्र और विवाह पत्रिका के आधार पर मैरेज रजिस्टेªशन कार्यालय में जो की प्रत्येक प्रदेश के जिले में होता है, नव विवाहितों ने अपने अभिभावकों के साथ जाकर विवाह से एक माह के भीतर, अपने विवाह का पंजीयन अनिवार्य रूप से करा लेना चाहिए।
विवाह के दौरान अध्यक्ष की नियुक्ती कराना हो तो उसका बौद्ध होना आवश्यक है। दरअसल अध्यक्ष की नियुक्ति कार्यक्रम को सुचारू रूप से उम्पन्न कराने के उद्देश्य से की जाती थी परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया जाता है, जो या तो ओहदें में बड़ा व्यक्ति हो या गांव का व्यक्ति या पटेल, सरपंच, मंत्री या नेता मैनेजर, डाॅक्टर, वकील आदि हो, इनमें अधिकांशतः ऐसे व्यक्ति भी होगें जो न तो बौद्ध धम्म को मानते हो और न ही जानते हो तथा न ही बाबासाहेब को ऐसे व्यक्ति को अपने कार्यक्रम में अध्यक्ष बनाना उचित नहीं है। इसलिए गलत परम्परा को समाप्त करने के लिए प्रथमतः अध्यक्ष बनान ही समाप्त किया जाना चाहिए। परंतु आवश्यक ही हो तो वह अनिवार्य रूप से बौद्ध हो, इसका ध्यान रखें। (अध्यक्ष पद की प्रथा ग्रामीण मध्य प्रदेश में देखी जाती है।)
कुछ लोग विवाह के ही दिन विवाह के ठीक पहले, सगाई का कार्यक्रम देखे जाते है परंतु विवाह के दिन सगाई का कोई औचित्य नहीं हैं। इसलिए इस फिजुल खर्ची व औचित्यहीन सगाई के कार्यक्रम को विवाह के दिन संपन्न करना बंद करना चाहिए।
विवाह का समय भी निर्धारित होना चाहिए। जहां तक हो सके विवाह दिन में 11.00 बजे के पूर्व संम्पन्न हो जाना चाहिए। 11.00 बजे विवाह तदुपरान्त भोजन होने से उपोसथ करने वाले उपासकों एवं भंते जी को भी समय पर भोजन दान दिया जा सकता हैं। पत्रिका में लिखे निर्धारित समय पर ही विवाह सम्पन्न होना चाहिए। रात्री के समय के विवाह बंद करने चाहिए। ताकि वर पक्ष और वधु पक्ष एवं आमंत्रित मेहमानों को असुविधा का सामना न करना पड़ें। विवाह हेतु वर-वधु के वस्त्र (सफेद) होने चाहिए। इनका बौद्ध धम्म में बड़ा महत्व हैं। शो के लिए भी रंगीन चुनरी का प्रयोग नहीं करना चाहिए, रंगीन बार्डर वाली भी साड़ी नहीं होनी चाहिए। सुविधानुसार वर के परिधान वधु के पालक एवं वधु के परिधान वर के पालक द्वारा खरिदे जाने चाहिए। मंगल अवसर पर (पूजा-वंदना) के अवसर पर वर अपने सिर पर टोपी, मुकुट, पगड़ी, बासिंग आदि धारण न करें। बौद्धों के विवाह हमेशा सादगीपूर्ण होने चाहिए।
विवाह पत्रिका में मंगल परिणय, समय, स्थान, नाम, दिनांक और सांस्कृतिक पहचान के तौर पर धम्मचक्र या तथागत के हाथ का चित्र (जिसमें कड़ा न हो) छपवाया जा सकता हैं। पत्रिका में गोधुलीबेल, शुभविवाह, पाणिग्रहण, मुहूर्त, कलश का चित्र दोहा, कविता भगवान बुद्ध की कृपा से जैसे शब्द इत्यादी न छपवाएं। धम्म की गाथा छाप सकते हैं। (पत्रिका के उपर तथागत बुद्ध व बाबासाहेब का चित्र भी न हो, क्योंकि पत्रिकाएं बाद में फाड़ कर फेक दी जाती हैं, जिससे पैरों के नीचे आने से अनजाने में बाबासाहेब व तथागत का अपमान हो जाता है।) मृत पिता के नाम के आगे स्वर्गीय या बुद्धवासी लिखना गलत है इसकी जगह दिवगंत, स्मृतिषेष, कालगत, कालातीत लिखना चाहिए। श्री-श्रीमती के स्थान पर उपासक-उपासिका/आवुस-आयुष्मान/आयुष्मती/धम्मानुगामि-धम्मानुगामिनी/माननीय-माननीया/आदरणीय-आदरणीया शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए।
विवाह एवं अन्य पारिवारीक आयोजन 14 अप्रेल, 14 अक्टूबर एवं बुद्ध जंयती के दिन नहीं होने चाहिए, जहाँ त्यौहारों के दिन विवाह रखें हो वहाँ विवाह में नहीं जाना चाहिए। बुद्ध विरोधी लोग षडयंत्रपूर्वक जानबुझकर बुद्ध पूर्णिमा जैसे त्यौंहार पर विवाह रखते हैं ताकि हम अपने त्यौंहार न मना सके, शील वृत का पालन न कर सके, चित्त की शुद्धता-एकाग्रता का विकास न कर सके और दान देने योग्य, सेवा करने योग्य मंगल मैत्री के दिन से वंचित रह जाएँ। इसलिए त्यौंहारों के सात दिन पहले या सत दिन बाद कार्यक्रम करें। अहेर जैसी खर्चिली व गरीबी बढ़ाने वाले औचित्यहीन प्रथा को बंद करना चाहिए। अमीरों की देखा-देखी गरीब लोग भी इसे जारी रखने हेतु विवश हो जाते है। बनियों को अमीर और गरीबों को और गरीब बनाने वाली इस घटिया परम्परा को अवश्य बंद किया जाना चाहिए। आजकल कुछ लोग पत्रिका में ही ‘अहेर प्रथा बंद’ जैसे शब्द लिखने लगे हैं, वे अवश्य ही साधूवाद के पात्र हैै।
विवाह की सम्पूर्ण क्रमबद्ध विधि
विवाह का मंच साधारणतया तखत पर बनाया जावे। मंच पर पूर्व में वर्णित पूजा स्थल के अनुसार पूजा स्थल की सजावट कर तथागत एवं बाबासाहेब की मूर्ति/छायाचित्र जिस टेबल पर सजी हो उसकी बांयी ओर वर-वधु के लिए कुर्सिया (अगर चाहें तो) लगा सकते हैं किंतु उन पर विवाह विधि सम्पन्न होने के बाद ही बैठना चाहिए। इसके पूर्व तथागत व बाबासाहेब की मूर्ति/छायाचित्र के सन्मुख नीचे गद्दे आदि पर ही बैठना चाहिए।
सर्वप्रथम तथागत बुद्ध एवं बाबासाहेब की मूर्ति/छायाचित्र कि सन्मुख वर-वधु द्वारा मोमबत्ती प्रज्वलित की जाए एवं अंजली से पुष्प ही अर्पित किये जावें, फुल मालाएँ नहीं, यही बौद्ध संस्कृति से सुसंगत हैं। (क्योंकि अधिकतर वर-वधु की मालाएँ तथागत व बाबासाहेब की प्रतिमाओं की अधिक आकर्षक होती हैं, ऐसे अनिष्ट व्यवहार से अप्रत्येक्ष रूप से प्रतिमाओं की अवमानना होती है। तथापि, वर-वधु की मालाओं से आकर्षक मालाएँ प्रतिमाओं पर अर्पित की जा सकती है। वर-वधु कुर्सियों की पूजा न करें/हाथ न जोड़ें तथा वधु पक्ष द्वारा वर के या वर पक्ष द्वारा वधु के पैर नहीं धुलवाने चाहिए। यह अंधविश्वास है।) इसके बाद वधु के पालक द्वारा पूज्य भन्ते का (यदि भन्ते को आमंत्रित किया गया हो तो) पुष्प से स्वागत किया जाए। पूज्य भन्ते के मार्गदर्शन में संस्कारकर्ता वैवाहिक कार्यक्रम प्रारंभ करें। संस्कारकर्ता की सहायता से वर-वधु के द्वारा क्षमा याचना करते हुए शील याचना की जावे। तदोपरांत भन्ते जी द्वारा वर-वधु को त्रिशरण, पंचशील दिया जावे अन्य उपस्थित लोगों को त्रिशरण-पंचशील ग्रहण करना अनिवार्य नहीं है। त्रिशरण-पंचशील ग्रहण करने के पश्चात वर-वधु द्वारा भन्ते जी को पंचांग प्रणाम किया जाना चाहिए। अब वर-वधु के हाथों में तीन सुत्री सफेद धागा दिया जावे, जिसका एक छोर पानी में हो। इसके बाद शीलवान उपासक संस्कारकर्ता द्वारा बुद्ध वंदना, धम्म वंदना, संघ वंदना, बुद्ध पूजा संकल्प महामंगल सुत्त एवं जय मंगल अष्ठगाथा कही जावे। महामंगल सुत्त होने पर वर-वधु खड़े हो जावें एवं हाथों में पुष्पहार ले लें, जय मंगल अष्ठगाथा की अंतिम गाथा के बाद साधु-साधु कहा जावेगा। प्रथम साधु में वधु वर के गले में एवं दूसरे साधु में वर वधु के गले में पुष्पहार ड़ालेंगे, (नोट: वधु द्वारा वर के चरण स्पर्श न कराया जावे, संस्कारकर्ता मना करें, फिर भी यदि उपासक न मानें तो वर को भी वधु के चरण स्पर्श कराने के लिए कहा जाना चाहिए।) बौद्ध धम्म समानता का धम्म है या तो दोनों एक दूसरे के चरण स्पर्श कर परस्पर पर सम्मान करें अन्यथा केवल वधु द्वारा वर के चरण स्पर्श करने की पति को परमेश्वर मानने की गुलामी की प्रथा को बंद करें। बौद्ध पत्नि अपने पति की दासी नहीं मित्र होती है। इसके लिए सबसे उपयुक्त यही होगा की वर स्वयं वधु को अपने (वर के) चरण स्पर्श करने से मना कर दे अथवा इस विषय में संस्कारकर्ता वर-वधु को पहले ही सुचित कर दें। (महानाट्य ‘‘तथागत’’की लेखिका किरण बागड़े एवं निर्देशक शैलेन्द्र कृष्णा निश्चय ही साधुवाद के पात्र है जिन्होंने सिद्धार्थ-गोपा के मंगल अवसर पर गोपा को सिद्धार्थ के पैर छुते हुए नहीं दिखाया हैं और न ही सिद्धार्थ गौतम द्वारा गोपा को काली पोत पहनाते हुए दिखाया गया है।) जयमंगल अष्ठगाथाएँ भी हिंदूओं के मंगलाष्ठकों की तरह लगती है, हालाँकि यह भी सत्य है कि हमारी जयमंगल अष्ठगाथाओं की नकल करके ही हिंदूओं ने अपने मंगलष्ठों की निर्मिती की है। इसलिए धीरे-धीरे विवाह के अवसर पर जयमंगल अष्ठगाथाओं का पठन बंद करके महामंगल सुत्त के पठन के संस्कार की शुरूवात करनी चाहिए। तीसरे साधु मेें उपस्थित जन समुदाय साधु-साधु-साधु कहें। तत्पश्चात वर एवं वधु को 5-5 प्रतिज्ञाएँ तथा बाबासाहेब द्वारा दी गई बाईस प्रतिज्ञाएँ पालन करने का संकल्प कराया जावे। वर द्वारा वधु के एवं वधु द्वारा वर के दाएँ हाथ में मंगल सुत्त (तीन सुत्री धागा) बांधा जावे। अंत में भन्ते जी द्वारा मंगलाशीश देने के पूर्व समधी/समधन भेंट करायी जावे। तदोपरान्त सपे्रम भेट दी जा सकती है। सपे्रम भेट देते समय चावल का टीका नहीं लगाना चाहिए। उसके बदले में फुलों की पंखु़िड़याँ वर-वधु के हाथ में देकर उनका अभिवंदन करना चाहिए। इसलिए पूर्व में कहा गया है कि, इस अवसर पर सुवासिन के हाथ में आरती और उसके चावल-कुंकुम की अक्षता रखने की कुप्रथा को बंद करना चाहिए, उसके बदलें में वर-वधु के आजू-बाजू बड़ी टोकरियों में फुलों की पंखड़ियाँ अधिक से अधिक रखनी चाहिए। वर-वधु के पालको द्वारा भंतेजी/संस्कारकर्ता के माध्यम से स्थानीय विहार/संबंधित संस्थाओं को दान अवश्य देना चाहिए। साथ में व्यक्तिगत रूप से ऐसे किसी भी भिक्खु को जो केवल पूजा वंदना करने, शादी लगाने और परित्राण पाठ करने का ही कार्य करते हो उन्हें उचित दान व उनके आने-जाने का खर्च दिया जाना चाहिए। या उपासको को स्वयं उनके लाने-ले जाने की व्यवस्था कर दी जानी चाहिए। आदर्श बौद्ध विवाह किस प्रकार हों इस सदर्भ में 4 दिसंबर 1956 को ड़ाॅ. बाबासाहेब ने व्ही.एस. कर्डक को उनके पूछने पर, यह पत्र लिखा था।
प्रिय महोदय कर्डक
कृपया अपने पत्र दिनांक 12 नवंबर 1956 का संदर्भ लें। बौद्ध मंगल परिणय पद्धती बहुत ही सरल है। उसमे न होम होता है न सप्तपदी। इस पद्धती का सार केवल यह है कि वर-वधु के बीच पानी से भरा हुआ मिट्टी का एक नया मटका स्टुल पर रखा जाएं। वर और वधु उसके दोनों ओर खडे़ हो जाए व दोनों सुती धागा पानी के मटके में रखे तथा उसका एक सिरा अपने हाथ में पकड़ लें। कोई मंगल सुत्त का पाठ कर दें। वर और वधु दोनों को सफेद कपडे़ पहनने चाहिए।
                                                भवदीय
                                                हस्ताक्षर
                                        बी. आर. अम्बेडकर
नोटः- इस पत्र में बाबासाहेब ‘‘कोई मंगलसुत्त का पाठ कर दें’’ लिखते है। ‘‘भिक्खु करें’’ ऐसा नहीं लिखा है।
वर की प्रतिज्ञाएँ
त्रिरत्न की पावन स्मृति व उपस्थित समाज को साक्षी मानकर मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि:
01.    मैं अपनी पत्नी का सम्मान करूंगा। तथा अन्यों से भी समान दिलाऊंगा ।
02.    मैं अपनी पत्नी का अपमान नहीं करूंगा। और अन्यों से भी अपमानित नहीं होने दूँगा।
03.    मैं मिथ्या आचरण, पर स्त्री गमन आदि से विरत रहकर अपनी पत्नी का विश्वासपात्र रहूँगा।
04.    मैं अपनी पत्नी को सम्यक आजिविका द्वारा अर्जित धन से सदा सन्तुष्ट रखूंगा।
05.    मैं डाॅ. बाबासाहेब आम्बेडकर द्वारा दी गई बाईस प्रतिज्ञाओं का पालन करूंगा।

वधु की प्रतिज्ञाएँ
त्रिरत्न की पावन स्मुति व उपस्थित समाज को साक्षी मानकर मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि ....
01.    मैं अपने घर के सभी कामों को भली प्रकार से करूंगी।
02.    मैं अपने परिवार के लोगों की भली भांती देखभाल करूंगी।
03.    मैं मिथ्याचार से विरत रहकर अपने पति की विश्वासपात्र रहूँगी।
04.    मैं अपने पति के उपार्जित धन की रक्षा करूंगी।
05.    मैं घर के सभी कामों को आलस्य रहित हो दक्षता पूर्वक करूंगी।
06.    मैं बाबासाहेब द्वारा दी गई बाईस प्रतिज्ञाओं का पूर्ण रूपेन पालन करूंगी।

मिथ्यादृष्टिपूर्ण
हमारे समाज मे आज भी विवाह के अवसर पर हल्दी लगाना, वधु को काली पोत पहनाना, माँग में सिंदूर भरना जैसे हिन्दू कर्मकाण्ड किए जाते है। परंतु आज कुछ जागरूक उपासकों ने बौद्ध साहित्य, बाबासाहेब का साहित्य आदि का अध्ययन व चिंतन कर एवं तथागत व बाबासाहेब के अतः दीप भव के मार्गदर्शन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि उपरोक्त कर्मकाण्ड न केवल मिथ्यादृष्टिपूर्ण बल्कि धम्म विरोधी भी धीरे-धीरे यह कुप्रथाएँ बन्द हो रहीं है।
01.    मंगल सुत्र को मंगलसुत्त कहा जाय, (जो वर वधु एक दूसरे के हाथों में बाँधेंगे, जो कि तीन सुत्री सफेद धागा होता है।)
02.    मंगल सुत्र (गले का हार) के काले मनियों के जगह सफेद मनी रहेंगे (जिसे शादी के समय दुल्हा नहीं पहनाएगा, दुल्हन चाहे तो शादी के बाद अपने हाथों से अन्य मालोओं की तरह पहन सकता है।),
03.    डोरले का आकार धम्मचक्र अर्थात अशोकचक्र का ही होगा. वह सोने या चांदी का ही होगा. (इसे सफेद मोतियों वाली माला में डोरले की जगह डालकर पहना जा सकता है),
04.    मांग में सिंदूर या गुलाल/कुंकु नहीं डालना है,
05.    बिंदी माथे पर लगा सकते है, अष्टगंध नहीं चलेगा।
06.    माथे पर साडी के रंग संगती के अनुसार बिंदी लगाने की अनुमति रहेगी,
07.    पति के मृत्यु के पश्चात भी हाथ के कंगन नहीं तोडने चाहिए, तथा कुंकु नहीं पोछना चाहिए,
08.    कंगन शादी के समय केवल सफेद रंग के ही पहनने है,
09.    विवाह विधि के समय मुंडावली, बाशींग, फेटा, कठ्यार, चमकी नहीं लगानी चाहिए और,
10.    अत्यविधि के समय मृत व्यक्ति के माथे पर रूपया/सिक्का नहीं लगाना चाहिए। यह भारतीय बौद्ध महासभा के निर्णय है।
    श्रद्धावान उपासकों व पूज्य भिक्खु संघ से हमारा विनम्र है कि हमारे निम्न तर्को के आधार पर यदि वे हमसे सहमत हो तो, कृपया तथागत बुद्ध के जानों, छानों तब मानों सिंद्धांत के अनुसार अपने-अपने क्षेत्रों में भी निम्न अबौद्ध परम्पराओं से बौद्ध समाज को मुक्त करने में अपना सहयोग प्रदान करें।

अन्ध मान्यताएँ/अबौद्ध मान्यताएँ
विवाह के अवसर पर वर-वधु को हल्दी नहीं लगानी चाहिए, यह कोरा अंधविश्वास एवं अबौद्ध परम्परा है, साथ ही, इस अवसर पर होली की तरह फूहड़ता भी की जाती है जो असभ्य आचरण है। यह परम्परा हमारे पुराने धर्म से संबंधित है, जिसका स्वरूप बदल गया है, परंतु परम्परा वही है। अतः यह बंद करना चाहिए। सुन्दरता के लिए आधुनिक सौंन्दर्य साधनों का प्रयोग करना चाहिए। नव वधु के हाथ में हरी या लाल रंग की चूड़ियाँ पहनना, विवाह के समय वर द्वारा वधु को काली पोत (काले मोतियों की माला अथवा सोने की ऐसी माला जिसमें काले मोती भी पिरोये हो।) बंधवाना तथा वधु की मांग में सिंदूर भरने की प्रथा को बंद करनी चाहिए। क्योंकि कांच की चुड़ियों का प्रयोग स्वयं बाबासाहेब ने मना किया था। काले धागे, काले मोतियों की माला यह सब अछुतों एवं शूद्रों की निशानी है तथा अंधविश्वास है। इसका बौद्ध धम्म से कोई संबंध नहीं हैं।
मांग में सिंदूर भरने क संदर्भ में 31 जनवरी 2001 के नवभारत ‘सुरूची’ जबलपुर के अंक में भाई बंसत विश्वकर्मा लिखते है- ‘‘शादी का लाल जोड़ा, लाल चूड़ी, लाल बिन्दी सिंदूर का उपयोग मंगल ग्रह की कृपा गृहस्थ जीवन में बनी रहे इसलिए किया जाता है।’’ इससे स्पष्ट है कि यह अबौद्ध परम्परा है बौद्धो का इससे कोई संबंध नहीं है। और फिर जहाँ तक प्रमाणों की बात है तो इस संदर्भ में ढेरों प्रमाण दिए जा सकते है। परंतु जब मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेष, पंजाब आदि के सैकड़ों बौद्धों ने इन हल्दी, मंगलसुत्र (काली पोत) और सिंदूर जैसे अंधविश्वासू और नारी को गुलाम बनाने वाले बंधन अपनी प्रज्ञा, स्व-प्ररेणा व स्वेछा से त्याग दिए हैं, और नइ्र्र पीढ़ी भी प्रज्ञा की राह पर चल रहीं हैं तो हमारे लोगों को अब प्रमाण देने और न देना का भी क्या औचित्य रह जाता है ?
हम भारतीय बौद्ध बंधन्ओं से अधिकारपूर्ण विनम्र अपील करते है कि आज तक हम अज्ञानता के कारण जो-जो पुरानी परम्परा अपनायें हुए है, उनमें जिस-जिस की सच्चाई का हमें जैसे-जैसे ज्ञान होता जाये वैसे-वैसे हम पुरानी अंध परम्परायें छोडने का प्रयत्न अवश्य करें। ताकि हमारी नईं पीढ़ि को नया वातावरण मिलें।
इस संदर्भ में पूज्य भिक्खुओं से नम्र निवेदन है कि जब तक भिक्खुओं से विवाह संस्कार संपन्न करवाने की परम्परा पुरी तरह से बंद नहीं हो जाती तब तक विवाह के समय बौद्ध भिक्खुओं द्वारा उपासकों को इस विषय में ज्ञान दिया जाना चाहिए। और इस अबौद्ध परम्परा को बंद करवाकर बाबासाहेब के सपनों का बौद्ध समाज बनवाने में प्रज्ञा पूर्वक सहयोग प्रदान कर समस्त बौद्ध समाज को अनुकम्पित करना चाहिए। (अभी तो प्रायः भिक्खु ही ‘मंगलसूत्र लाइये, काली गाठी लाइये, कहते हुए देखे जाते है। उन्होंने कृपया इसे बंद करना चाहिए।) साथ ही हमारे साहित्यकार गीतकार साथियों भी नम्र निवेदन है कि यदि वे हमारे सुझावों से सहमत हो तो ‘‘कुंकु लावीलं रमानं’’ जैसे गीत न लिखकर हिंदू मानसिकता को छोड़ने के लिए प्रेरित करने वाला साहित्य जनता को देने का कष्ट करें।
इस विषय में संबंधित बौद्ध उपासकों के मन में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों के उत्तरों को प्रश्नोत्तर के रूप में देने से पहले हम संगोष्टि के संचालक बंधु-भगिनियों को एक विनम्र अपिल करना चाहते है। तत्पश्चात विषय से संबंधित प्रश्नोत्तर की चर्चा करेंगे।

आईए अब इस विषय में संबंधित हमारे मन में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों को प्रश्नोत्तर के रूप में समझने का प्रयास करें। यह प्रश्न संगोष्ठि के दौरान अक्सर उठते है।
01.    काली पोत, काँच की हरी/लाल चूड़िया, मांग में सिंदूर आदि को यदि श्रृंगार के रूप में अपनाये तो क्या आपत्ती हो सकती है ?
-वास्तव में काली पोत और मांग का सिंदूर श्रृंगार के रूप में नहीं प्रयोग किए जाते, ये तो सुहाग चिन्ह ही है। तभी तो कुआंरी लडकियाँ और विधवाएँ इन्हें धारण नहीं कर सकती। शादी शुदा औरतें शादी के बाद से पति के मरने तक ही इन्हें धारण कर सकती हैं। गहराई में जाकर देखे तो पता चलता है कि ये श्रृगांर के साधन कभी नहीं रहें हैं। यदि ऐसा होता तो सुन्दर लगने के लिए कुआंरी लड़कियों को ये साधन अवश्य ही उपयोग करने चाहिए थे। जिससे उन्हें सुन्दर पति शीघ्र ही मिल सकता था।
सच पूछें तो ये रूढ़िवाद, अंधविश्वास और स्त्री को गुलाम रखने कि लिए उस पर थोपा गया तोहफा है। जिसे वह पति के जीवित रहते तक ढ़ोती रहे, फिर चाहें उसका पति शराबी, जुआरी अथवा व्यभिचारी ही क्यों न हो।
श्रृंगार के रूप में चाहे तो सोने की चैन, उसमें तथागत, बाबासाहेब या धम्म चक्र का लाकेट, सोने के कंगन आदि पहने जा सकते है। किंतु सोने की चैन में काले मोती/मणी, कांच की हरी/लाल चूड़ियाँ मांग में सिन्दूर हर्गिज न पहने।
02.    काली पोत, कांच की चूड़ियाँ एवं मांग में सिन्दूर का धम्म से क्या संबंध है ? इनके प्रयोग से धम्म विरूद्ध आचरण कैसे हो सकता है ?
जिस प्रकार शील सदाचार का आचरण नही करना धम्म के विरूद्ध कहलाता है उसी प्रकार काली पोत बांधना, कांच की चूड़िया पहनना, या मांग में सिंन्दूर भरना भी धम्म के विरूद्ध आचरण कहलाते है। क्योंकि प्रत्येक धर्म (सम्प्रदाय) की कोई न कोई धार्मिक मान्यता होती है। जैसे कोई ईसाई या मुस्लिम महिला अपने पहनावे से पहचानी जा सकती है, उसी प्रकार हिंदू महिला भी अपने पहनावें से पहचानी जा सकती हैं। (उस महिला के पहचान के तौर पर भी उसके बच्चे, पति या सम्पूर्ण परिवार की धार्मिक मान्यताओं का पता चल जाता है।) और उसे धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पति के जीवित रहने तक ही धारण करने होते है। पति के मृत्यु पर सिंन्दूर, चूड़ियाँ काली पोत एवं सिन्दूर चिता को अर्पण कर वह विधवा हो जाती हैं।
मृत पति के शव को सुहाग की निशानियाँ अर्पण करने का मतलब होता है कि ‘‘तुम तो परमात्मा के पास जा रहे हो ये सुहाग चिन्ह भी लेकर जाओं। मैं जब वहाँ आऊँगी तब तुम मुझे फिर ये सुहाग चिन्ह पहना देना’’ ऐसी मान्यता है, और इसके पीछे आत्मा-परमात्मा का विश्वास छिपा है, जबकी आत्मा और परमात्मा में विश्वास अधम्म है, देखें ‘‘बुद्ध और उनका धम्म’’ अर्थात यह धम्म के विरूद्ध आचरण है। क्योंकि जब हम बौद्ध हो चुके है तो हमें बुद्ध (ज्ञान, बुद्ध, तर्क, सत्य) की शरण जाना चाहिए। तभी कहा गया है, नत्थि में सरणं अ´ बुद्धों में सरणं वरं एतेन सच्च वज्जेन हो तु में जय मंगलं।
काली, पोत, चूड़ियाँ एवं सिन्दूर का सीधा संबंध हिंदू धर्म की मान्यताओं से है तभी तो एक विवाहित (सुहागन) महिला बिना काली पोत पहने या बिना मांग में सिन्दूर भरे मंदिर नहीं जा सकती, पूजा नहीं कर सकती क्योंकि पति परमेश्वर का रूप होता हैं। बौद्ध नारियाँ पति को परमेश्वर नहीं बल्कि हमसफर मानती है इसलिए उन्हें सुहाग चिन्हों की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस तरह से काली पोत, चूड़ियाँ या मांग में सिन्दूर आदि का प्रयोग करना धम्म विरूद्ध आचरण ठहरता हैं।
03.    आप शादी विवाह में काली पोत बांधने के लिए मना करते है, जबकि बाबासाहेब की पत्नि रमाबाई ने तो काली पोत बांधी है (उनकी तस्वीर देखी जा सकती है।) ऐसा क्यों ?
सर्व प्रथम यह जान लीजिए की हम (पा. ध. सं. से जुड़े लोग) किसी को काली पोत बांधने के लिए जबरन मना नहीं करते, परंतु यह सही है कि इस दिशा में अपने बौद्ध जनों को इन चिन्हों का संबंध बौद्ध समाज से न होकर हिंदू धर्म से संबंधित होने की जानकारी देकर उन्हें जागृत करने का प्रयास अवश्य करते है।
रमा आई के संदर्भ में कहा जाए तो जब रमा आई का विवाह बाबासाहेब से हुआ था तब बाबासाहेब हिंदू थे, और बाबासाहेब के धर्म बदलने के पुर्व ही रमाआई का देहान्त हो चुका था इस कारण से हम उनको काली पोत बांधे हुए ही फोटो में पाते हैं जबकी माई साहेब अम्बेड़कर (बाबा साहेब की दूसरी पत्नि-सविता कबीर) ने शादी के बाद काली पोत नहीं बांधी थी या बाबासाहेब ने उन्हें काली पोत नहीं पहनाई थी। इससे यही पता चलता है कि बौद्धों में इसका चलन नहीं है।
04.    पति के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए यदि काली पोत, चूड़िया एवं सिन्दूर वापरें तो क्या आपत्ति हो सकती है ?
पति के प्रति सम्मान मन में होना चाहिए दिखावा करने से क्या लाभ ? जैसे की पहले भी बताया जा चुका है, सुहाग चिन्ह धर्मान्धता एवं गुलामी के प्रतिक है। शील, सदाचार के द्वारा ही पति का विश्वास पात्र बना जा सकता है। नारी का सबसे बड़ा गहना उसका चरित्र होता है और वह मात्र सुहाग चिन्हों से सुरक्षित नहीं रहता बल्कि सदाचार से ही संभव है। यही पति के प्रति सच्चा सम्मान होता है।
05.    काली पोत और सिंदूर आदि शादी-शुदा महिलाओं के पहचान चिन्ह बन चुके है। इनसे हमारी सुरक्षा होती है। तब इन्हें धारण करने में क्या आपत्ति है ?
पूर्व में बताया जा चुका है कि शादी-शुदा मुस्लिम महिलायें सिन्दूर नहीं लगाती और ईसाई महिलायें न काली पोत पहनती है और न सिन्दूर लगाती है। तब क्या इन महिलाओं को अविवाहित समझकर ही असामाजिक तत्व इनसे छेड़-छाड़ करते है ? और क्या मंगल सुत्र एवं सिन्दूरधारी वास्तव में इन चिन्हों के कारण ही सुरक्षित रहती है ? क्या उनके साथ दिन दहाडे़ अत्याचार नहीं होते ? और क्या अत्याचारी लोग विवाहित और अविवाहितों का अलग-अलग विचार करके ही अत्याचार करते हैं ? पाठक अपनी तर्क बुद्धी से स्वयं ही इन प्रश्नों के उत्तर खोज सकते है।
    अनाचारी व्यक्ति न विवाहित, न अविवाहित, न हिंदू, न मुस्लिम-सिख-ईसाई-जैन-और न बौद्ध का विचार करता है, वह केवल स्त्री जाति का विचार करके कामान्ध होकर अनाचार, अत्याचार करता है। इसलिए यह कहना है कि ये चिन्ह उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, महान धोखा है।
06.    हर लड़की का सपना होता है कि वह दुल्हन की तरह सजे, जीवन में यह अवसर बार-बार नहीं आता। लेकिन यह कैसा धम्म है कि शौक भी पूरे नहीं करने देता ?
बौद्ध धम्म नारी सौंन्दर्य का विरोधी नहीं है। बौद्ध साहित्य में तो आपको एक से बढ़कर एक सुन्दर नारियों के चरित्र पढ़ने को मिलते है, बेशक दुल्हन को सजना ही चाहिए किंतु गुलामी की जंजिर में बांधना नहीं चाहिए। हमारा उद्देश्य बौद्धों को सिर्फ सुहाग चिन्हों का अर्थ समझाकर उन्हें छोड़ने के लिए प्रवृत करना है। क्योंकि सुहाग चिन्ह कभी भी सौंन्दर्य प्रसाधन नहीं रहें है और ना ही वे बौद्धों के प्रतिक है। काली पोत से सुन्दरता नहीं बढ़ती है। उसकी जगह रंगीन या सफेद या सोने का धम्म चक्र वाला लाॅकेट या सोने की चेन पहनी जा सकती है। वह भी शादी के समय वर इसे वधु के गले में नहीं पहनाएगा, बल्कि विवाह के बाद वह उपासिका इसे पहनना चाहे तो स्वयं ही इसे अन्य मालाओं की तरह धारण कर सकती है। किंतु नवरचूड़ा इत्यादि नहीं पहनना चाहिए। सिन्दूर तो सुन्दरता का प्रतीक हैं ही नहीं, आजकल तो बाल काटने एवं सेट करने का प्रचलन है। सिन्दूर हर्गिज इस्तेमाल न करें। इस तरह से दुल्हन की तरह सजें, यह धम्म सजने सवरने के लिए मना नहीं करता है, किंतु चरित्र की सजावट पर ज्यादा जोर देता है, इसलिए अपने व्यंिक्तत्व को निखारें, शील का पालन करें, समाधि का अभ्यास करें, प्रज्ञा जगने लगेगी और अपने आप चेहरे पर निखार आने लगेगा फिर किसी क्रीम, पाऊड़र या मालाओं की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। जब अन्तर्मन निर्मल होता है तो बाहरी सुन्दरता को बढ़ा ही देता है।
07.     शराब छोड़ना ज्यादा धम्म संगत या कि सिन्दूर एवं चूड़ी-गरसोली ?
दोनों ही महत्पूर्ण है शील पालन करने के लिए शराब छोड़ना आवश्यक है एवं धम्माचरण के लिए 22 प्रतिज्ञाओं का पालन करना अनिवार्य है। सिन्दूर, चूड़ी एंव गरसोली का शब्द प्रयोग किए बिना ही धम्म विरूद्ध आचरण और अंधविश्वास जैसे शब्दों में इनका जिक्र 22 प्रतिज्ञाओं में किया जाता है। इस तरह दोनों 22 प्रतिज्ञााओं के अंतग्रत ही आते है। अतः दोनों का ही पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए।
8. ये पुरानी परम्परा है, इसलिए हमारे ससुराल वाले अर्थात् सास-ससूर, पति, ननद आदि इन्हें छोड़ने की बात नहीं मानते, उनके लिहाज के लिए या उनकी इच्छा के कारण यह सब पहनना पड़ता है, हम क्या करें ?
- यदि आप शिक्षित है, वैज्ञानिक सोच वाली है, बौद्ध धम्म का कट्टरता से पालन करने वाली हैं और स्वयं (खुद) हिन्दू धर्म की किसी भी पहचान को जारी नहीं रखना चाहती है तो आप निश्चित ही विशाखा की तरह (कृपया पढ़ें बुद्ध और उनका धम्म) इसी पुस्तिका में ऊपर दर्शाए गए तर्को के अनुसार अपनी प्रज्ञा से सही-गलत की जांच-पड़ताल करने के बाद अपने ससुराल वालें ही नही ंतो अपने अड़ोस-पडौस और अपने मायके के भी सभी लोगों को संतुष्ट कर इन अबौद्ध बन्धनों से छुटकारा पा सकती है। हमारे पास ऐसे ही सैकड़ों उदाहरण है जिन्होंने उनके परिवार वालों को समझा कर सफलता पाई है। परंतु यदि आप स्वयं ही बदलने के लिए तैयार नहीं है तब क्या किया जा सकता है ?
9. आप शादी में नाच गाना, बैंड बाजा आदि न बजाने का सुझाव देते हैं, ऐसा क्यों ?
    इस संदर्भ में पूज्य भन्ते बोधानन्द महास्थविर द्वारा लिखित व लखनऊ से 1946 में प्रकाशित ‘‘बौद्धचर्या पद्धति’’ नामक पुस्तक में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है जिसमें उन्होंने बौद्धों के मंगल परिणय (शादी-विवाहों) के अवसर पर बैंड बाजा वगैरे नहीं बजाये जाने का उल्लेख किया है।
उल्लेखनीय है कि उक्त पुस्तक में प्रशंसा, प्रस्तावना, भूमिका स्वरूप पूज्य डाॅ. भदन्त आनंद कौसल्यायन, त्रिपिटकाचार्य भदन्त जगदीश काश्यप, आयु. बी. पी. मौर्य आदि विद्वानों ने भी अपने अभिमत व्यक्त किए है।
यहां एक तथ्य का जिक्र करना उचित ही होगा कि आज भी ग्रामीण इलाकों में तथाकथित सवर्णों के शादी ब्याह के अवसरों पर बाजा बजाने का कार्य निचली जाति के लोग (मांग-महार) ही करते देखे जाते है। और आज भी विवाह भोज के समय इन बाजा बजाने वालों को अन्य आमंत्रितों के साथ भोज नहीं दिया जाता। बल्कि वर्षों पुरानी छुआछूत और जातिवादी परंपरा के अनुसार उन्हें कच्चा अनाज (सीधा) बांध कर दिया जाता है। इसलिए मांग, महारों से बौद्ध बनें धम्म बंधुओं को ऐसा अपमानजनक पेशा छोड़कर अन्य सम्मानजनक व्यवसाय अपनाना चाहिए। साथ ही समस्त बौद्धों को अपने घरों में भी विवाह आदि के अवसर पर बाजा-गाजा, नाच-गाना जैसी फुहड़ता और फिजुलखर्ची के कार्य नहीं करने चाहिए। शहरी बन्धुओं को तत्काल ऐसे कृत्य बन्द कर देने चाहिए ताकि उनका अनुकरण गरीब ग्रामीण धम्मबन्धू न कर सकें।

अखिल भारतीय भिक्खु महासंघ, महाराष्ट्र शाखा, नागपुर के एक वरिष्ठ भन्ते द्वारा जनता की ओर से पुछे गये सर्व सामान्य प्रश्न
01.    विवाहित बौद्ध उपासिकाओं के आभूषण, मांग के सिन्दूूर और गले के मंगल सूत्र छोड़ने से क्या वे बौद्ध हो जाऐगी ?

जिस प्रकार यह यह आंशिक रूप से सही है कि किसी विवाहित बौद्ध उपासिका द्वारा आभूषण, मांग के सिन्दूर और गले के मंगल सुत्र छोडने मात्र से वह बौद्ध नहीं बन जाएंगी, उसी प्रकार यह भी पूर्णतः सत्य है कि यही आचरण उसके हिन्दू नहीं होने के पहचान सूत्रों में एक अवश्य बन सकता है। क्योंकि आभूषण के संदर्भ में बाबासाहेब ने गिल्लट के आभूषणों का विरोध किया था, अर्थात नकली आभूषण जिसमें कांच के आभूषण, कांच की चूड़ियाँ आदि भी आती है। ध्यान रहें मंगलसुत्र वाली काली पोत में भी कांच के ही मोती (मणि) होते है। इसलिए कहा जा रहा है कि इनका प्रयोग न ही करें तो अच्छा होगा। फिर कांच की चूड़ि़यो का संबंध विवाहितों के मामले में सीधे सौभाग्य के प्रतिक यानि हिन्दू धर्म की मान्यताओं से जुड़ जाता है। जिन्हें पति के मृत्यु के बाद तोड़ा जाता है। बौद्ध धम्म की दृष्टि से देखा जाए तो यह मिथ्यादृष्टिपूर्ण, अंधविश्वास, तर्कहिन व अबौद्ध मानसिकता की कृति कहलाती है, क्योंकि बौद्ध धर्म में अंधविश्वास रूढ़ीवाद और दकियानुसी विचारधारा के लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए गिल्लट कांच आदि नकली आभूषनों से बचना व मन की सुन्दरता स्वरूप बौद्ध प्रणाली युक्त आचरणों से सम्पन्न जीवन जीना ही सही मायने में अलंकृत होना कहलाता है।
आज सोने की चू़िड़याँ, बिंदी, पायल, कड़े, करधन, बिछिया, अंगूठी, बाली, टाॅप्स, हँसली इत्यादी आभूषण तो श्रंगार स्वरूप धारण किए जाते है, परंतु मांग का सिन्दूर और काली पोत वाला मंगल सूत्र केवल विवाहित महिलाएँ ही धारण करती है। जो श्रंगार स्वरूप न होकर सुहाग की निशानी के रूप में धारण किए जाते है। इनका बौद्ध संस्कृति से दूर-दूर तक कोई संबंध न होकर यह शुद्ध रूप से हिंदू संस्कृति से संबंधित है।
पूज्य भंते नागघोषजी, इन्दोरा बुद्ध विहार नागपुर से ही चर्चा के दौरान पता चला (एवं हमें पूर्व से ज्ञात जानकारी के लिए उनका समर्थन प्राप्त हुआ है।) की मांग में सिन्दूर की प्रथा का संबंध आर्यकालिन इतिहास से संबंधित है। आर्य जब भारत में आये थे तो अपने साथ महिलाओं को नहीं लाए थे, बल्कि उन्होंने यही के मूलनिवासियों को युद्ध में मारकर उनकी बहु, बेटियाँ, पत्नियों को अपनाया था। चूंकि वे अपने आप को आर्य (श्रेष्ठ) और भारत के मूलनिवासियों को अनार्य/शुद्र/तुच्छ समझते थे इसलिए उन दिनों हारने वाले मूलनिवासियों को मारकर उसकी परिवार की महिला को अपनाते समय उसके पति के खुन से उस महिला को नहलाया जाता था। यह एक प्रकार से शुद्र महिला का शुद्धिकरण कहलाता था। धीरे-धीरे मानव रक्त से नहलाने की परम्परा बंद होकर घोड़े के खून से नहलाने की परम्परा शुरू हुई। (यह घोड़ा भारत का प्राणी नहीं है। इसे ब्राम्हण-आर्य अपने साथ इरान से लेकर आये थे।) जब घोड़ो की संख्या कम होने लगी तो घोड़े के शरीर में कही भी खरोंच कर उसके खून का तिलक लगाकर महिला का शुद्धिकरण करके उससे विवाह करने की परम्परा शुरू हुई फिर धीरे-धीरे उसी परम्परा ने सिन्दूर का रूप धारण कर लिया।
इस प्रकार विवाह के समय वधू के मांग में सिन्दूर भरने का सीधा अर्थ आज भी महिलाओं को शुद्ध या तुच्छ समझकर उनका शुद्धिकरण कर उन्हें अपनाना कहलाता है। स्त्री-पुरूष समानता के बौद्ध धर्म में इस प्रकार की महिलाओं को अपमानित करने वाली कुप्रथा को कोई स्थान नहीं देना चाहिए। काली पोत के इतिहास के संदर्भ में पूर्व में ही काफी कुछ लिखा गया है। परंतु जब तक विदुशी बौद्ध उपासिका द्वारा स्वयं जागृत होकर इन कुप्रथाओं का विरोध नहीं किया जाता तब तक उनकी मुक्ति का निदान यहाँ भी संभव नहीं दिखता। बौद्ध पद्धति से विवाह करने बावजूद इन अबौद्ध प्रतिकों को धारण करने के कारण उनकी गिनती आज भी शुद्रों में की जाती है। कृपया हमारी माता-बहनें इस दिशा में जागृत होवें।
वास्तव में देखा जाए तो बौद्ध कहलाने के लिए त्रिशरण पर्याप्त है। बुद्ध, धम्म, और संघ का अनुसरण कर कोई भी महिला या पुरूष बौद्ध कहला सकता है। किंतु बौद्धों के संस्कृति को कायम रखने के लिए संस्कार आवश्यक है, संस्कारों से ही संस्कृति का निर्माण होता है। अतः अपनी पहचान बनाने के लिए तथा बौद्ध संस्कृति का जीवित रखने के लिए ये आवरणनुमा संस्कार जरूरी है। वरणा तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार सिद्ध करने में हम रोक नहीं पायेंगे। क्योंकि विष्णु की पत्नि भी काली पोत पहनती है और मांग में सिन्दूर भरती है तथा किसी धर्मांतरित बौद्ध की पत्नि भी काली पोत और मांग में सिन्दुर भरती है तो दोनों में क्या अंतर रह जायेगा ?
02.    यदि महिलाओं को बौद्ध होने की पहचान आवश्यक है तो पुरूषों के बौद्ध होने के क्या पहचान चिन्ह होने चाहिए ? जबकी विवाहित महिलाओं के यह चिन्ह भारतीय संस्कृति के प्रतिक है।
यहाँ हमें फिर से दोहराना होगा कि यदि बौद्ध महिलाएँ काली पोत व मांग का सिन्दूर छोड़ देती है, तो यह उनकी बौद्ध होने की पहचान नहीं, बल्कि हिंदू न होने का परिचायक हो जाता है और इसी कारण इन चिन्हों को छोड़ने के लिए पारिवारिक धम्म संगोष्टि के माध्यम से नम्रता पुर्वक आग्रह किया जाता है। (क्योंकि पारिवारिक धम्म संगोष्टि से जुड़ी हमारी अधिकतर बहनें किसी भी प्रकार चिन्ह धारण नहीं करती है।) उनके लिए सादगी का जीवन ही बौद्ध होने की असली परिचय है। परंतु सर्वसाधारण मानव स्वभाव के अनुरूप महिला होने के कारण हमारी बहनें सफेद मोती वाली या सोने की ऐसी चैन जिसमें धम्म चक्र की मुद्रा वाला लाॅकेट हो, धारण कर सकती है। जिससे अपने आप यह नया चिन्ह हमारे बिना चाहे ही उनके बौद्ध होने का पहचान बन जाएगा और चूँकि वह महिला बौद्ध है तो उसके बच्चे, उसका पति व उसका समस्त परिवार ही बोद्ध होने की भी अपने आप ही पहचान हो जाएगी। चूँकि पुरूष प्रधान हिंदू समाज ने शादी शुदा बौद्ध पुरूषों के लिए कोई पहचान चिन्ह नहीं बनाया थे, इसलिए हमारे बौद्ध बन जाने के बाद भी शादी शुदा बौद्ध पुरूषों के साथ कोई पहचान चिन्ह नहीं आए। परंतु हमारी महिलाओं के साथ अवश्य आ गए क्योंकि विवाहित महिलाओं के यह चिन्ह भारतीय संस्कृति के नहीं बल्कि हिंदू संस्कृति के परिचायक है। इसलिए उन हिंदू चिन्हों को छोड़ने की बात की जाती है। भारतीय संस्कृति तो एक श्रमण संस्कृति या बौद्ध संस्कृति के कारण गौरवान्वित हुई है। (कृपया पुनः पढ़े इसी पुस्तिका का अध्याय 3.5.1) नये चिन्हों को धारण करने की बात जोर देकर नहीं की जाती परंतु जब तक यह सारी बातें ठीक से समझ में नहीं आ जाती और हमारा मन मस्तिष्क इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर लेता तब तक नये चिन्हों को धारण करने में कोई बुराई नहीं है।
03.     धर्मांतरित बौद्धों के नाम/सरनेम परिवर्तन से क्या लाभ है ? क्या बाबासाहेब ने अपना सरनेम बदला था ?
धर्मांतरित लोग पहले अछूत थे इसी कारण मनुस्मृति के आदेशानुसार उनके नाम व सरनेम घृणास्पद रखे गये थे। परंतु आज जैसे किसी व्यक्ति को बौद्ध बनने के लिए धम्म दीक्षा लेने की व 22 प्रतिज्ञाओं के पालन करने की शपथ लेने की आवश्यकता होती उसी प्रकार उसे पुराना नाम/सरनेम बदलकर नया बौद्धों का नाम/सरनेम अपनाने की आवश्यकता होनी चाहिए। जैसे की एक व्यक्ति श्रामनेर या भिक्खु बनता है तब उसका पुराना नाम बदकर बौद्ध संस्कृति के अनुसार नया नामकरण होता है। क्या इस प्रकार भिक्खुओं का आदर्श उपासकों ने ग्रहण नहीं करना चाहिए ?
बाबासाहेब ने अपना नाम/सरनेम नहीं बदला था यह सही परंतु क्या बाबासाहेब के साथ हमें अपनी तुलना करना सही हो सकता है ? दूसरी बात जब बाबासाहेब के बिना बताये ही हम उनके आदर्शों के विरूद्ध आचरण सकते है जो की अत्यंत शर्मनाक है तब उनके बिना बताए ही कोई सम्यक मार्ग अपनाते है तो क्या आपत्ति हो सकती है ? आज यदि बाबासाहेब होते, तो क्या अपने आप को बौद्ध लिखवाने या तदनुसार प्रचार करने वाले उपासकों का विरोध करते ? शायद नहीं।
04.    यह (नाम/सरनेम बदलना) तो एक प्रकार से अपने आप को (अपनी जाति को) छुपाने का ही प्रयास है।
बौद्धों द्वारा हिंदू जाति के नाम व सरनेम छोड़कर बौद्ध संस्कृति के नामव सरनेम अपनाना किसी भी प्रकार से अपनी पहचान छुपाना नहीं कहलाता। परंतु भातमांगे सरनेम बदलकर सिर्फ मांगे ही लिखना, भौतमांगे, भौतिक या भौतेकर लिखना, रामटेके को रामटेककर लिखना, चोरे से चैरे करना, ढोरे से ढवरे करना, घोडेश्वर करना, ढोक से ढोके या डोक्रस करना, कुत्तरमारे बदलकर कुळकर्णी करना, मेश्राम बदलकर मिश्रा लिखना आदि-आदि अपनी पहचान छुपाने के दायरे में आता है। इसलिए उपरोक्त घृणस्पद सरनेम त्यागकर बौद्ध संस्कृति के नाम व उपनाम धारण करना अपनी पहचान छुपाना नहीं बल्कि अपने बौद्ध होने की पहचान का एक पहलू पुष्ट करना ही होता है। यह भी सही है कि महार जाति के लोगों को अपने सरनेम पर गर्व होता है। क्योंकि यह बहुत शूरवीर जाति रहीं हैं। परंतु बाबासाहेब ने ही हमे बताया है कि आज के महार पूर्व के बौेद्ध रहें है, फिर महारी सरनेम छोडकर बौद्ध सरनेम अपनाने में क्या आपत्ति हो सकती है ? परंतु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि केवल नाम व उपनाम बलदल जाने से ही हम बौद्ध नहीं हो जाते। उसके लिए आवश्यकता है नाम व उपनाम के साथ 22 प्रतिज्ञाओं की कट्टरता से पालन करने की। सही मायने मेें बौद्ध बनने और बौद्ध दिखने के साथ ही बौद्ध लिखने का वास्तविक औचित्य है या नहीं।
संस्कार विधि :- सुसज्जित पूजा स्थल, दीक्षार्थी द्वारा अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलन, तथागत बुद्ध व बाबा साहेब की प्रतिमाओं पर पुष्प अर्पण, पंचांग प्रणाम, भिक्षु/श्रामणेर को पंचांग प्रणाम, याचना, त्रिशरण-पंचशील ग्रहण, बाईस प्रतिज्ञाएँ ग्रहण, दीक्षार्थीयों का अभिनंदन, प्रमाण-पत्र वितरण, संक्षिप्त धम्म प्रवचन, धम्मपालन गाथा एवं समाप्त।
01.    गृह प्रवेश संस्कार :- यह संस्कार नया घर बनाने अथवा पुराना मकान छोड़कर अन्यत्र दूसरे मकान में निवास के लिए जाने पर सम्पन्न किया जा सकता है। यह संस्कार किसी भी विद्धान भिक्षु-श्रामणेर की उपस्थिती में (अनिवार्य नहीं है।) संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है। इस अवसर पर भी पारिवारिक धम्म संगोष्टि के आयोजन के साथ बाईस प्रतिज्ञाओं के पालन का संकल्प अवश्य लेना चाहिए।
संस्कार विधि:- पूजा स्थल सजाना, गृहस्वामी द्वारा अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित कर पंचांग प्रणाम, संस्कारकर्ता द्वारा त्रिशरण-पंचशील ग्रहण करवाना, बुद्ध पूजा, त्रिरत्न वंदना, संकल्प, महामंगल सुत्त गाथाओं का पठन, ‘बुद्ध और उनका धम्म’ पंचाग काण्ड़ का पाँचवा भाग-ग्रहस्थों के जीवन नियम विषय का पाठ, बाईस प्रतिज्ञाओं का संकल्प, संस्कारकर्ता द्वारा संक्षिप्त धम्म प्रवचन, ग्रहस्वामी द्वारा आवश्यक दान दिया जाना, समापन गाथा और समाप्त।
उपसंहार :- पारिवारिक धम्म संगोष्ठि का यह कार्यक्रम वैसा ही है जैसे ईसाई मिशनरी के लोग चर्च के अलावा घर-घर जाकर धर्म प्रचार करते है। वह बौद्धों की ही पुरानी पद्धति रही है जिसे उन्होंने अपनाया और व हमने भुला दिया। आज यदि हम इसे बौद्धों के घर-घर जाकर संगोष्ठियों के माध्यम से प्रारम्भ करें तो संगठित-संस्कारित व आदर्श बौद्ध समाज के निमार्ण में उठाया गया यह कदम अवश्य ही सफल होगा। इस पुस्तक मेें लिखी गई सारी जानकारी की एक ही संगोष्ठि में चर्चा हो यह भी आवश्यक नहीं है। परंतु यह भी ध्यान रहें की पूरे आठों चरणों का क्रियान्वयन होना चाहिए। भले ही चर्चा थोड़ी-थोड़ी हो, परंतु बार-बार होनी चाहिए। निरंतरता अति आवश्यक है।
    संगोष्ठि के प्रारंभिक चरण छह चरणों में उपरोक्त वर्णित विषयों पर चर्चा की जाती है। बच्चों से लेकर महिलाओं, बुजुर्गों, भिक्खुओं आदि सभी विचारों के आदान-प्रदान के स्वरूप ये सारी जानकारी बौद्ध जनता के सन्मुख रखी जाती है। अधिक संख्या में उपस्थित हो तब दो माईकों व आंतरिक स्पीकरों की व्यवस्था की जाए तो बेहतर होता है। एक माईक संचालकों के पास व दूसरा उपासकों तक पहूँचाने के लिए होना चाहिए। लोग कम हो तो माईक व स्पीकर न रखें।
प्रारंभ में बतायें अनुसार सातवें चरण में संगोष्ठि का कार्यक्रम कैसे रहा, उसमें क्या कमी रह गई, उसे और कैसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है, आदि पर सुझाव मांगे जाते है। इसके लिए बेहतर होता है कि एक रजिस्टर में संगोष्ठि किसके घर और किस तारीख को रखी गई, संगोष्ठि में कितने लोग उपस्थित थे, आदि का उल्लेख करके उसी में लोगों के सुझाव इत्यादी लिखवाये जाने चाहिए, ताकि भविष्य में संगोष्ठि समूह के आयोजक गण उस पर आवश्यक विचार-विमर्श कर उचित निर्णय ले सकें। इस संदर्भ में एक आवश्यक चर्चा अवश्य ही करनी होगी कि आज तक अन्य संगठनों की तरह पारिवारिक धम्म संगोष्ठि को भी एक नया संगठन नहीं बनने दिया गया है, क्योंकि अधिकतर जितने हमारे संगठन बनते है उतने ही उनके पदाधिकारी भी बनते है। फिर किसी न किसी कारणवश पदाधिकारयों में उपजे मतभेदों के कारण संगठनों की गतिविधियाँ भी समाप्त हो जाती है। इसलिए पारिवारिक धम्म संगोष्ठि का कार्यक्रम बुद्ध कालिन भिक्खु संघ की तरह चलाया जा रहा है। अर्थात् इस संगठन का न तो कोई नेता है न अध्यक्ष न ही पदाधिकारी। पारिवारिक धम्म संगोष्ठि की विषयवस्तु - बाबासाहेब का बौद्ध मिशन ही इस संगठन का नेता व मार्गदर्शक है। जिस किसी भिक्खु/उपासक/उपासिका/ या बौद्ध संगठनों को धम्म प्रचार का यह तरिका उचित लगता हो वे स्वयं ही इसे इसके महत्वपूर्ण उद्देश्य में परिवर्तन किए बगैर अपने ही स्तर पर संचालित कर सकते है। यह ‘‘धम्मा गाईड’’ उसी उद्देश्य से तैयार की गई है।
संगोष्ठि के आठवें एवं अंतिम चरण में थोड़ी देर के लिए आनापान ध्यान भावना और मंगल मैत्री के बाद संगोष्ठि का समापन किया जाता है। इसी दौरान अगली संगोष्ठि किस के घर व किस तिथि को होगी, आदि के विषय में पूछा जाता है और तत्काल निमंत्रण मिलने पर वहीं उसकी घोषना कर तद्नुसार अगली संगोष्ठि आयोजित की जाती हैं। तथागत सम्यक सम्बुद्ध ने देश की सुरक्षा के लिए वज्जियों के आपस में मिलजुल कर रहने, उठने-बैठने, धम्म चर्चा करने व संघठित रहने की प्रशंसा करते हुए उन्हें आगे भी वैसे ही रहने का उपदेश दिया था। वहीं संदेश हमें अपने (बौद्धों के) अस्तित्व को बनाये रखने के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण हैं। पारिवारिक धम्म संगोष्ठि जैसे आयोजन तथागत बुद्ध व बोधिवसत्व बाबासाहेब के संदेशों का अक्षरशः करने-करवाने के उचित माध्यम है। इस संगोष्ठियों का आयोजन रविवार या किसी भी सार्वजनिक अवकास (अधिकतर अबौद्ध त्यौहारों की छुट्टियों जैसे होली, दिवाली, पोला, राखी, रामनवमी, ईद, क्रिसमस इत्यादी) के दिन किया जाना उचित होता है, क्योंकि छुट्टि का दिन होने कारण अधिक लोग संगोष्ठि में शामिल भी हो सकते है और दूसरा मुख्य लाभ यह है कि उतने समय के लिए हमारे लोग उन अबौद्ध त्यौहारों से दूर हो जाते है। वैसे संकलन ने कई बार किसी उपासक की मृत्यु होने पर शव को रात्री में रखें जाने पर जागरण के उद्देश्य से भजन/गीत आदि के स्थान पर मृतक के परिजनों की अनुमति से धीरे-धीरे संगोष्ठि के विषय शुरू कर उपस्थित जन समूह के बीच शांति पूर्वक रात्रिकालिन संगोष्ठियां सम्पन्न की है। इसमें रात भी कट जाती है व सार्थक धम्म चर्चा के साथ अंतिम संस्कार संबंधी चर्चा भी हो जाती है। अतः प्रबुद्ध पाठकों व मिशन के प्रहरियों से विनम्र निवेदन है कि आप भी इसी प्रकार अपने-अपने स्तर पर बाबासाहेब के मिशन व उनके सपनों के बौद्ध समाज के निर्माण के कार्य को व उससे संबंधित विषयों को इस पारिवारिक धम्म संगोष्ठि मार्गदर्शिका पुस्तक के सहयोग से जन-जन तक पहूँचाने के लिए जीवन का थोड़ा समय अवश्य दान करें।..........साधुवाद।
भारत में आम्बेड़करवादी बौद्धों की बौद्धों के रूप में पहचान बनाने, व आदर्श बौद्ध समाज के निमार्ण हेतु प्रमुख रूप से हमें क्या करना चाहिए ?
23.    प्रत्येक उपासक उपासिका को त्रिशरण, पंचशील, का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए आर्य अष्टांगिक मार्ग पर आधारित जीवन जीना चाहिए। द्वेष, ईष्या, लोभ, मोह तथा भोगवादी प्रवृत्ति को त्याग कर चरित्र संपन्न व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए।
24.    प्रतिदिन त्रिशरण, पंचशील के साथ-साथ सुविधानुसार थोड़े समय के लिए आनापान मेत्ता ध्यान भावना करनी चाहिए।
25.    बाईस प्रतिज्ञाओं का पूर्ण रूपेण पालन करना चाहिए।
26.    प्रत्येक रविवार और अवकास के दिन एवं त्यौंहारों के अवसरों पर सम्पूर्ण परिवार सहित अनिवार्य रूप से बुद्ध विहार में जाकर विधिवत् पूजा, वंदना, ध्यान साधना, धम्म देशना आदि का लाभ लेना चाहिए।
27.    त्रिगुण पावन पूर्णिमा, विजय दिवस, मुक्ति दिवस, आषाढ़ पूर्णिमा, महाप्रवारणा इन त्यौंहारों के अवसरों पर धुम-धाम से घरों विहारों में साफ-सफाई, रंगाई-पुताई, रोशनाई आदि करनी चाहिए। नये कपड़े पहनें, मिठाईयाँ बाँटे, भिक्खुओं को श्रद्धा भाव से दान दें, गरिबों को करूणा और मैत्री भाव से वस्त्र भोजन आदि दान देना चाहिए।
28.    बहु-बेटियों का लाना-ले जाना बौद्ध त्यौंहारो पर ही करना चाहिए।
29.    आपस में मिलने पर शिष्टाचार के रूप में ‘जय भीम’ या ‘नमो बुद्धाय’ ही करना चाहिए। श्रामणेर अथवा भिक्खु मिलने पर ‘वन्दामी भन्ते’, ‘नमो बुद्धाय भन्ते’ अथवा ‘जय भीम भन्ते जी कहना चाहिए।
30.    गब्भ मंगल संस्कार, नामकरण संस्कार, विज्ञारम्भ संस्कार, परिणय संस्कार, गृह प्रवेश संस्कार, मृतक व पूण्यानुमोदन संस्कार आदि सभी संस्कार तर्क संगत, विज्ञान संगत तरीकों से एवं शुद्ध बौद्ध पद्धति से सम्पन्न करवाने चाहिए। इन संस्कारों में किसी प्रकार के अंधविश्वास अथवा हमारे पुराने दकियानुसी धर्म की रूढ़ी मान्यताओं का कतई समावेश नहीं होना चाहिए। इन संस्कारो पर भिक्खुओं का पुरोहितीकरण नहीं करना चाहिए।
31.    उपोसथ व्रत पूर्णिमा, अमावश्या एवं अष्टमी को ही करनी चाहिए। उपोसथ के दौरान हम शरीर, वाणी और मन से आठों शीलों का ईमानदारी के साथ पालन कर रहे हैं, अथवा नहीं, इसका क्षण-क्षण ध्यान रखा जाना चाहिए। दिन में उपवास और रात में भोजन जैसा कृत्यकर हिंदू जैसा परिचय नहीं देना चाहिए। 
32.    त्यौंहारों पर किसी विहार के उद्घाटन या समर्पण समारोह में अथवा तथागत व बाबासाहेब की प्रतिमाओं के अनावरण समारोंह के अवसरों पर अनिवार्य रूप से शूभ्र वस्त्र पहनकर ही कार्यक्रम में जाना चाहिए।
33.    परिवार सीमित रखा जाए, दो से अधिक संतान न हों। तथा बच्चों को अच्छी एवं ऊँची शिक्षा दिलवाने के प्रयास करना चाहिए।
34.    समाज के सदस्य आपस में मिल जुलकर रहें व एक दूसरें के दुःख दर्द में सहयोग प्रदान करें तथा पूरी तरह शाकाहारी बनने का प्रयास करें।
35.    वृक्षा रोपण की शुरूआत सम्राट अशोक द्धारा की गई थी। बौद्धों को भी, प्रत्येक सदस्यों को प्रतिवर्ष दस पेड़ अवश्य लगाने चाहिए। कम से कम जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसर पर वृक्षा रोपण अवश्य ही करना चाहिए। साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखें, हर हाल में अपने व आसपास का वातावरण स्वच्छ रखें, बुद्ध विहार व बाबासाहेब की सार्वजनिक प्रतिमा के आसपास भी स्वच्छता होनी चाहिए।
36.    प्रत्येक बौद्ध के घर में ‘बुद्ध और उनका धम्म ग्रंथ’, तथागत व बाबासाहेब की मूर्ति अथवा छायाचित्र एवं बौद्ध कैलेण्ड़र अवश्य रूप से होना चाहिए।
37.    सामथ्र्य के अनुसार बौद्ध धम्म एवं बाबासाहेब के मिशन संबंधी पत्र-पत्रिकाएँ एवं साहित्य बौद्धों के घरों में होना चाहिए। अन्यों को भी अपना साहित्य खरीदवाने अथवा पढ़ने हेतु पे्ररित करना चाहिए।
38.    बौद्धों को अपने घरों में परित्राण के बजाय पारिवारिक धम्म संगोष्टियों तथा भिक्खुओं/विद्वजनों की धम्म देशना के कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए।
39.    बौद्ध व्यापारी बंधुओं को अपनी दूकानों/प्रतिष्ठानों पर तथागत व बाबासाहेब की मूर्ति अथवा छायात्रिच अवश्य ही रखना चाहिए।
40.    बौद्ध उपासकों को अपने सामर्थ के अनुसार बौद्ध दार्शनीक स्थलों/पर्यटन स्थलों की यात्रा यथा संभव अवश्य ही करनी चाहिए।
41.    जन्म से ही कोई बौद्ध नहीं होता इसलिए बौद्ध परिवारों में ‘धम्म दीक्षा’ संस्कार का आयोजन कर 18 वर्ष की प्रत्येक बालक/बालिका को किसी भिक्खु अथवा शीलवान उपासक/उपासिका द्वारा ‘बौद्ध धम्म दीक्षा’ अवश्य ही दिलवानी चाहिए।
42.    बौद्ध उपासक/उपासिका की मृत्यु के समय अंतिम क्षणों में ‘धम्म ग्रंथ’ से अनित्य बोध का पाठ अवश्य करना चाहिए। मृत्यु पर जोर-जोर से रोने बिलखने के बजाय शांति बनाये रखकर शोक व्यक्त करना चाहिए।
43.    बौद्धों में दान का बहुत महत्व हैं, अतः उचित समय पर भिक्खुओं, बुद्ध विहारों, बौद्ध संस्थाओं कों अथवा दान देने योग्य उचित व्यक्तियों को यथा शक्ति, यथा योग्य दान अवश्य देना चाहिए। साथ ही बाबासाहेब के मिशन व हमारे धार्मिक, सामाजिक शैक्षणिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सर्वांगिक विकास के लिए कार्यरत उचित संघटनों को भी समय-समय पर अपनी क्षमतानुसार आर्थिक सहयोग अवश्य ही करना चाहिए।
44.    6 दिसम्बर, बाबासाहेब का परिनिर्वाण दिवस हमारा संकल्प दिवस कहलाता हैं। उस दिन बाबासाहेब के मिशन का कार्य करने का संकल्प लेकर रक्त दान शिविर, निःशुल्क रोग निदान व चिकित्सा शिविर तथा हमारें गरीब व पीड़ित धम्म बंधुओं के सर्वांगिण विकास हेतु चेतना शिविर लगाए जाने चाहिए।
भारत में बौद्धों की विशेष पहचान बने इसलिए बौद्ध होने के नाते आम्बेडकरी उपासकों को प्रमुख रूप से कौन से व्यवहार नहीं करने चाहिए ?
22.    बौद्धों के घरों में तथागत बुद्ध, बोधिसत्व ड़ाॅ. बाबा साहेब आम्बेडकर, क्रांति वीर ज्योतिबा फुले एवं बौद्ध/आम्बेडकरी विद्वानों को छोडकर अन्य किसी भी देवी-देवताओं आदि किसी की भी तस्वीरें/मूर्तियाँ नहीं होनी चाहिए।
23.    किसी भी परिस्थितियों में गाली/अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
24.    किसी भी परिस्थितियों में शराब, गांजा, भांग, अफिम, नस, तम्बाकू, बिड़ी सिगरेट, ड्रग्स आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना वर्जित हैं।
25.    किसी भी जीव की अकारण हत्या नही करनी चाहिए और न ही इसके लिए किसी को प्रेरित करना चाहिए। सभी के साथ मैत्री पूर्ण संबंध रखें।
26.    शराब, नशीले, पदार्थ, हथियार, जहर आदि व्यापार निषिद्ध हैं।
27.    गले, कमर, बांह में काला, लाल धागा, गंड़ा, ताबिज बांधना तथा अबौद्ध प्रतिकों की व तथाकथित विशेष पत्थरों की अँगूठियाँ आदि पहनना अछूतपन एवं अंधविश्वासी होने का प्रतीक हैं, अतः यह नहीं करना चाहिए।
28.    किसी नदी, तालाब या समुद्र को पवित्र मानकर उसमें पैसा डालना, नहाना, हाथ जोडना गलत ही नही तो राष्ट्रीय मुद्रा का दुरूपयोग भी हैं ऐसा न करें।
29.    भूत-प्रेत, गंडा, ताबीज, टोना, टोटका, झाड़फूक, पीर-फकीर, सुर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, अंधेरी-उजारी, आदि मानना, ग्रहशांति हेतु यज्ञ, हवन कराना, संध्या समय बत्ती जलने पर प्रणाम करना, छींक-उबासी आने पर ईश्वर आदि का नाम लेना अंधश्रद्धा के प्रतीक हैं ऐसा न करें।
30.    किन्ही भी धार्मिक-सामाजिक कार्याें में नारियल, सिंदूर, या अष्टगंध का प्रयोग न करें। उपासिकाएँ ‘हल्दी-कुँकू’ जैसे कार्यक्रम न करें।
31.    विवाह के अवसर पर केवल वधु द्वारा वर के पैर छुना व बुजुर्गों द्वारा वर/वधु के पैर धुलवाना धम्म संगत नहीं हैं। इसे बंद करना चाहिए।
32.    किसी महिला के राजस्वला होने पर या बच्चा होने पर छूत न मानें। ये सब प्राकृतिक क्रियाएँ हैं, इस समय सफाई का पूरा ध्यान रखें और उन्हें आराम करने दें।
33.    विवाह बौद्ध भिक्खु से न लगवाएँ वरना पंडा, पुरोहित और भिक्खु में अंतर नहीं रह पाएगा। बौद्ध भिक्खु मंगलकामनाएं दे सकते हैं, उन्हें निमत्रित कर उचित दान देना चाहिए। (उनके लाने ले जाने की व्यवस्था अवश्य ही करनी चाहिए।)
34.    विवाह एवं अन्य पारिवारिक कार्यक्रम आयोजन आदि 14 अप्रैल, 14 अक्टूबर, एवं बुद्ध जंयती के दिन न करें। यह हमारे धार्मिक त्यौंहार इनका अपना महत्व हैं। हम अपने व्यक्तिगत आयोजन हेतु इन धार्मिक त्यौंहारों की गरिमा/महत्ता कम न करें। सात दिन बाद या सात दिन पहले कार्यक्रम करें।
35.    विवाह दिन में ही करने चाहिए ताकि फिजूलखर्ची न हो। विवाह में गाना-बजाना, मांसाहार, मदिरापान वर्जित हैं। दहेज लेना या देना सामाजिक अपराध हैं। विवाह के समय त्रिशरण-पंचशील सिर्फ वर/वधु को ही लेना चाहिए आम जनमा को नहीं/चावल का प्रयोग का प्रयोग अक्षता (टिका) बनाने/फेंकने में न करें। पुष्प भी नहीं फेंकने चाहिए, पर/वधु के हाथों में देकर उन्हें बधाई देनी चाहिए।
36.    विवाह मंडप में जहाँ तथागत बुद्ध व बाबासाहेब की मूर्तियाँ या छायाचित्र से पूजास्थल सजाया गया हो वहाँ नाच-गाना हर्गिज न करें। विवाह में अनावश्यक व हास्यस्पद ‘सुवशिन’ व ‘आरती’ की परम्परा को बंद करना चाहिए।
37.    पूजा-वंदना के समय उपासक/उपासिकाओं के सिर पर टोपी, पगड़ी, मुकुट या साडी का पल्लु आदि नहीं होना चाहिए। यह सम्मानीय व्यक्ति के प्रतिम सम्मान प्रकट करने की पुरातन परम्परा हैं। बौद्ध भिक्खु भी वरिष्ट भिक्खुगणों या बुद्ध के प्रति सम्मान प्रकट करने हेतु अपने दाएँ कंधें को खुला कर देते हैं। अर्थात चीवर हटा देते हैं।
38.    विधुर/विधवा/अंतर्जातिय विवाहों को प्रोत्साहित करें। कोसरे, बावने, लाड़वन, बारके, महार, चमार, वाल्मिकी, कुशवाह, कोरी, लोधी, पारधी, पवार, मरार, ब्राम्हण, अब्राम्हण किसी भी जाति - सममुदाय से बौद्ध बनें बौद्धों को आपस में वैवाहिक संबंध प्रस्थापित कर अपने सच्चें बौद्ध होने का परिचय देना चाहिए। हिंदू से बौद्ध बने बौद्ध उपासकों ने अपने पुरानी जाति में ही बेटी व्यवहार को करने जैसे ब्राम्हणवादी जैसे विचारों को त्यागकर अपने जातिविहीन बौद्ध समाज के सदस्य होने का परिचय देना होगा।
39.    मृतक संस्कार में मृतक के मस्तष्क पर सिक्का रखना, सद्गति के ख्याल से मृतक के मूँह में गंगाजल, दूध, परित्राण का पानी, सोने का पानी, तुलसी जल, पान बीड़ा आदि ड़ालना अधंविश्वास हैं। यह न करें।
40.    शवयात्रा में खाण्ड़ पूजना यानि अर्थी के चारों कोनो में धान, कौड़ी, पैसा आदि रखना, शव को हल्दी, गुलाल, नील आदि लगाना, लाही, पैसा फेंकना, लाऊडस्पीकर बजाना, बाजा बजाना, शमशान में विसावा के समय अर्थी के पास चावल-दाल आदि रखना बंद करना चाहिए।
41.    मृतक संस्कार पर तीसरा दिन, दस क्रिया, तेरहवीं आदि के नाम पर मुंडन संस्कार मृतक भोज अनिवार्य रूप से बंद करना चाहिए। बौद्धों को मृतक संस्कार में अवश्य ही जाना चाहिए परंतु तेरहवीं या तीसरें दिन का खाना खाने का निमंत्रण आने पर खाना खाने नहीं जाना चाहिए। (क्योंकि यह ब्राम्हणवादी परम्परा हैं।)
42.    दान देते समय दान राशि 11, 21, 51, 101, 201, 501 आदि निश्चित आंकड़ों में न दें। यह शुभ-अशुभ व अंधश्रद्धा का प्रतिक है, बौद्धों में इसके लिए कोई स्थान नहीं हैं।
रक्षाबंधन, दिवाली, होली यह चारों वर्ण व्यवस्था के पोसक त्यौंहार हैं। यह उनकी सांस्कृतिक पहचान के आधार स्तंभ हैं। इनके साथ ही राम नवमीं, अखाड़ी, जिवती, कृष्ण जन्माष्टमी, तीजा, हरछठ, पोला, मारबद, गणेश चतुर्थी, गुड़ी पाडवा, नवदुर्गा, जवारा बोना, तील संक्रांति, कलसा भरना, महाशिवरात्री, नागपंचमी, बंसत पंचमी आदि जाति व्यवस्था को जीवित रखने के उद्देश्य से निर्मित किये गये हिंदू त्यौहार हैं। बौद्धों का इनसे कोई संबंध नहीं हैं। बौद्धों को ऐसे कोई त्यौंहार नहीं मानने चाहिए।

धम्म दीक्षा प्रमाण पत्र
श्रद्धावान उपासक/उपासिका आयुष्यमान:......................................(पुराना नाम, माँ का नाम, पिता का नाम, जैसे गोवर्धन जे. रामटेके, माता गंगुबाई रामटेके, पिता जंगलूजी रामटेके)....................................................................................................आपने पूज्य भंते/धम्मचार्य.........................................................के मार्गदर्शन में..........(स्थान)............में दिनाँक........................से.................................तक  धम्म दीक्षा/साधना शिविर में उपस्थित रहकर शील समाधि और प्रज्ञा इन सिद्धांत जीवन जीने का संकल्प किया है, उसी प्रकार बोधिसत्व ड़ाॅ. बाबासाहेब आंबेड़करजी द्वारा 14 अक्टूबर 1956 को निर्देशित 22 धम्म प्रतिाज्ञाओं को ग्रहण किया है। इसलिए विचारपूर्वक अध्ययन कर पूज्य भदन्त.......................के शुभ हस्ते, पूज्य भदन्त..............................जी की उपस्थिति में आपको बोद्ध धम्म में दीक्षित होने की मान्यता प्रदान की जाती है।
    इस बौद्ध धम्म दीक्षा के पश्चात अपकी सहमती से निम्न पक्षकार का नया नामकरण किया जाता है.....................(नया पूरा नाम, जैसे आयु. अजय रत्नदर्शी माता गंगूबाई रातटेके, पिता जंगलूजी रामटेके )....................
दिनाँकः...........................                        धम्म दीक्षा देने वाले
स्थानः.............................        भिक्षु/धम्माचार्य/संस्था प्रमुख के
            हस्ताक्षर एवं शील (मुहर)
उपरोक्त उदाहरण में गोवर्धन का नाम अजय और सरनेम रत्नदर्शी हो गया है। रत्नदर्षी महासंघीक बौद्धों के नामों में से एक है। परंतु यहाँ उपनाम हो गया है। आने वाले पीढ़ि के जो नाम बदलेंगे वे धम्म परिचायक होगें, उपनाम बदलने की आवश्यकता नहीं पडेगी। इस प्रकार यह नये पीढ़ि के लिए बौद्ध परिचायक नाम व सरनेम बन सकते है।
नाम/सरनेम बदलने की विधि
सर्वप्रथम धम्मान्तर करें एवं प्रमाण पत्र प्राप्त करें, तदुपरान्त एफिडेविट बनवांए। एफिडेविट के आधार पर स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित करवें। समाचार पत्र की एक मूल प्रति एवं चालान की एक प्रति राजपत्र में प्रकाशन हेतु प्रेषित करें। (महाराष्ट्र में हमें व्यक्तिगत रूप से समाचार प्रकाशित कराने की आवश्यकता नहीं है। महाराष्ट्र सरकार स्वयं ही इसकी व्यवस्था कर राजपत्र में भी प्रकाशित करती है।) तदनुसार नाम व धर्म कर शासन से राजपत्र की प्रति हासिल कर संबंधित विभागों में प्रस्तुत करें।

अंतिम संस्कार एवं पुन्यानुमोदन
यह मनुष्य जीवन का अंतिम संस्कार है। मृत्यु कभी भी बताकर नहीं आती। मौत दो तरह से होती है या तो दुर्घटना से होगी में होगी या बीमारी से। दोनों ही स्थितियों में हमें बुद्धिवादी दृष्टिकोण से अंतिम संस्कार करना चाहिए। वैवाहिक संस्कार के समान इस संस्कार में भी बहुत से तर्क विसंगत अबौद्धिक एवं अंधविश्वासी कार्य किए जाते है। चूंकि हमने बौद्ध धम्म की शरण ली है, अतः इस संस्कार के अवसर पर भी जो बातें हमारे पुराने अबौद्धिक धम्म से संबंधित लगती हो, उन सब कार्याे का नम्रता पूर्वक विरोध किया जाना चाहिए। तथा शांतिपुर्वक ढंग से आडंबरविहिन एवं तर्क संगत कार्यों को करते हुए यह संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए। (ऐन समय पर विरोध करने से माहौल बिगडता है इसलिए सम्पूर्ण समाज पारिवारिक धम्म संगोष्टि के माध्यम से पहले ही शिक्षित किया जाना आवश्यक है।) व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर वातावरण शांत व गंभीर बनाये रखें। शव के मस्तष्क पर सिक्का (रूपया) लगाना, मृतक के मुंह में गंगाजल या परित्राण पाठ का पानी डालना अंधश्रद्धा है। मृतक के पत्नि के गले के काली मणी, चूड़ियाँ, बिछीया शव के पास न रखें, शव को गुलाल, बुका, नील आदि न लगाएँ। अंतिम संस्कार के समय मृतक के साथ चाय, पान, बीडी, तम्बाकु, शराब जैसी कोई वस्तु न रखें। पार्थिव शरीर को स्त्री-पुरूष समान रूप से कांधा दें, स्त्री-पुरूष भेद न करें। अर्थी के सामने किसी प्रकार की आरती, पूजा पात्र लेकर न चलें, लाही पैसा न फेकें। शव ले जाते समय बाजा नहीं बजाना चाहिए, लाऊडस्पीकर पर बुद्ध-भीम गीत आदि नहीं बजाना चाहिए, त्रिशरण वगैर नहीं बोलना चाहिए, शांति से ले जाना चाहिए। मृतक शरीर को हर संभव दफनाने का ही प्रयास करना चाहिए। लेकिन किसी क्षेत्र में दफनाने के लिए भूमि उपलब्ध न हो तो दाह संस्कार करें। दाह संस्कार के समय स्त्री-पुरूष भेदभाव न करें, मृतक व्यक्ति का पति, पत्नि, पुत्र, पुत्री, पुत्र वधु या किसी भी करिबी रिश्तेदार के हाथों दाह कर्म करवाएँ। यह संस्कार किसी भी संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक/उपासिका द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है। देहदान/अवयवदान मानवता की दृष्टि से कल्याणकारी है, अतः बौद्धजन ऐसी मानवीय प्रथा का अवलंब करें। शव पर ओढ़े गये नये वस्त्र धोती, नीला कपड़ा आदि शव के साथ नष्ट न करें, और न ही शमशान में फेकें, क्योंकि व्यवसायिक प्रवृत्ति के असामाजिक लोग उन कपड़ों को उठाकर पुनः बेचने वाले दूकानदारों के पास पहूंचा देते है। इस प्रकार एक ही कपड़े को बार-बार बेचा जाता है। यह गरीब बौद्धों के धन की बर्बादी है। इसलिए उसे अपने हाथों किसी को दान करें। बौद्ध संस्थाओं को बैनर आदि के लिए दान दे सकते हैं।
संस्कार विधि:- मृतक को स्नान करवाकर (अनिवार्य नहीं है) शव पर सुगंधित द्रव छिड़ककर सफेद वस्त्र पहनाकर अर्थी सजाना, शीलवान उपासक द्वारा जनसमुदाय को त्रिशरण-पंचशील प्रदान करना, धम्म ग्रंथ से सांत्वना पाठ, अनित्यता बोधक पाठ पढ़ा जाना, उपस्थित जनता को मृतक के अंतिम दर्शन तथा अर्थी पर फूल मालायें आदि चढ़ाकर अर्थी उठाना (रास्ते में शव को उतारकर आगे पीछे करना, खाण्ड पूजना या दिशाओं को महत्व देना, विसावा के नाम पर शव को थोडी देर शमषान के बाहर रखते समय अर्थी के चारों ओर कच्चे अनाज, दाल, चावल आदि रखना बौद्ध परम्परा नहीं है, ऐसा न करें) शमशान में मृतक को चिता पर लिटाकर अथवा गढ्ड़े में उतारकर पुनः एक बार त्रिषरण-पंचशील ग्रहण करने के बाद चिता दहन अथवा कार्य करवाकर मृतक के जीवन पर प्रकाश डालते हुए आदराजंलि स्वरूप दो मिनट का मौन रखना चाहिए।
विशेष :- शव को अगर जलाया गया हो तो अस्थि विसर्जन तथाकथित पवित्र नदियों आदि में नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे कर्मकाण्ड उत्पन्न होते है। यह अक्सर देखने में आता है कि अस्थि विसर्जन के समय राख ठण्डी करने के नाम पर अस्थियों में दूध, दही, भात, मिठाई, अबीर, गुलाल, कपूर आदि चढ़ाकर आटे व घी का दिया बनाकर नदी में छोड़ा जाता है। यह सब हमारे पुराने हिंदू धर्म के कर्म काण्ड है, इन्हें बंद करना चाहिए। इस अवसर पर अपरोक्त अबौद्ध कर्म काण्ड न करके केवल अस्थियों पर हार या फुल चढ़ाकर अगरबत्ती, मोमबत्ती प्रज्वलित कर त्रिशरण-पंचशील ग्रहण करके अस्थियों के अंतिम दर्शन लेकर दाह कर्म के समीप ही भूमि में गड़ा देना चाहिए। (बौद्ध देशों में भिक्खुओं की अस्थियों को नदी-तालाब में विसर्जित नहीं किया जाता उनके दाह कर्म के समय एक बड़ा गढ्डा खोदकर उसमें चिता को अग्नि देकर उनकी अस्थियों सहित राख को उसी गड्ढ़ेे में दफन कर दिया जाता है।) अंतिम संस्कार कर घर लौटने के पश्चात समाज के उपस्थित सदस्यों द्वारा अपनी ओर से अंतिम संस्कार के दिन ही मृतक के परिजनों को अपनी उपस्थिति में भोजन करवाया जाना चाहिए। मृतक के परिजनों द्वारा संभव हो तो उसी दिन या दूसरे दिन पुण्यानुमोदन/परित्राण पाठ का कार्य किया जा सकता है। परंतु इस अवसर पर मृतक के परिजनों द्वारा मृतक भोज नहीं दिया जाना चाहिए। मृतक भोज करना वर्तमान समय की आवश्यकता है। मृत्यु भोज मृतक की आत्मा की शांति एवं उसे स्वर्ग में स्थान मिले इस निमित्त कराया जाता है। बौद्ध धम्म में आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, स्वर्ग-नर्क आदि में विश्वास करना अधम्म माना गया हैं। इसलिए मृत्यु भोज करना धम्म संगत नहीं है। मृत्यु भोज के स्थान पर मृतक के स्मृति में किसी उचित दान देने योग्य धार्मिक/सामाजिक/शैक्षणिक संस्था अथवा भिक्षु संघ को दान दिया जाना चाहिए। अथवा प्रतिभावन छात्र/छात्राओं के लिए छात्रवृति शिल्ड स्वरूप आदि पुरूस्कार स्वरूप दिये जा सकते है, इससे मृतक की याद भी बनी रहेंगी एवं बाबासाहेब का शिक्षित करों, का सिद्धांत भी पुरा किया जा सकता है। तीसरे, दसवें एवं तेरहवें दिन पुण्यानुमोदन/परित्राण पाठ का कार्य नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह अबौद्ध परम्परा है। जहाँ तीसरे दिन, तेरहवीं का खाना रखा गया हो वहाँ खाना खाने नहीं जाना चाहिए। (राजस्थान जैसे कुछ राज्यों में मृतक भोज देना कानूनन अवैध है)

इनके अलावा तीन संस्कार ऐसे है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सुझाव है कि वे भी संम्पन्न किये जाने चाहिए।
01.    प्रव्रज्या संस्कार :- प्रव्रज्या संस्कार बचपन में ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। सामान्यतः यह संस्कार किसी स्थवीर/महास्थवीर भिक्खु द्वारा कराया जाता है। प्रव्रज्या सात दिन से लेकर जीवन पर्यंत हो सकती है। बालक को भिक्खु के सान्निध्य में रहकर धम्म को गहराई से समझने का प्रयास करना होता है। प्र्रव्रज्या संस्कार अनिवार्य होना चाहिए। बेहतर होगा की बर्मा, श्रीलंका के बौद्ध उपासकों की तरह हम भी बचपन में अल्पकालिन प्रव्रज्या संस्कार के बीना वैवाहिक संस्कार प्रतिबंधिक कर दें तो यह भी एक संस्कारित बौद्ध परिवार व बौद्ध समाज के निर्माण में महत्वपुर्ण कदम साबित होगा।
02.    धम्म दीक्षा संस्कार :- हमारे देश में साामान्यतः माता-पिता का धर्म ही संतान का धर्म मान लिया जाता है। परंतु बौद्ध धम्म ऐसी जीवन पद्धति है जिसे हर किसी को स्वयं सोच विचार करके अंगिकार करनी चाहिए।
    तथागत बुद्ध की शिक्षा के अनुसार मनुष्य जब सद्धम्म के रास्ते अपना जीवन निर्वाह करना चाहता हो तो वह त्रिशरण-पंचशील ग्रहण करके, बौद्ध बनकर ही सद्धम्मगामि बन सकता है।
    बर्मा को बौद्ध शासन समिति को भेजे गए स्मरणपत्र में बाबासाहेब ने लिखा, और 4/12/1954 को रंगून के विश्व बौद्ध सम्मेलन में कहा था कि ‘‘जन साधारण के लिए बौद्ध धम्म में परिवर्तन करने की कोई विधि नहीं है। जो कोई विधि है वह भिक्खु संघ में शामिल होने की है। ईसाईयों में दो विधियाँ है। एक बपतिस्मा-ईसाईं धर्म में शामिल होने की और दूसरी पादरी बनने की। बौद्ध धम्म में (उपासकों के लिए बौद्ध धम्म ग्रहण करने की)  बपतिस्मा जैसी कोई विधि नहीं है। यही कारण है कि लोग उसे बौद्ध बनने के बाद छोड़ जाते है। हमें आम आदमी के बौद्ध बनने के लिए बपतिस्मा जैसी विधि चालू करनी चाहिए। केवल पंचशील का ही उच्चारण कर लेना काफी नहीं है। इसमें कुछ अन्य बाते भी जोड़ी जानी चाहिए ताकि वह महसूस करें की अब वह हिंदू नहीं है, बल्कि एक नया आदमी बन गया है’’ अतः बाबासाहेब ने एक आदर्श बौद्ध समाज की रचना के लिए सामान्य जनों की धम्म दीक्षा के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ देने की नई विधि का आविष्कार किया।
बाबासाहेब ने 24/5/1955 को मुम्बई में अपने भाषण में धम्म दीक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहाँ था की ‘‘ईसाईयों के बपतिस्मा की तरह हमारी भी धम्म दीक्षा हानी चाहिए।’’ अतः प्रत्येक प्ररिवार ने अपने 18 वर्ष के अधिक वयस्क पुत्र-पुत्रियों को धम्म दीक्षा देने की व्यवस्था करनी चाहिए। धम्म संस्कार की जड़े मजबूत बनने के लिए यह धम्म दीक्षा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इच्छुक संज्ञान (वयस्क) व्यक्ति को बौद्ध विहार अथवा सार्वजनिक स्थलों पर धम्म दीक्षा दी जानी चाहिए।
आज जिस प्रकार हमने (बौद्धों ने) परिवार से जो बौद्ध धम्म पाया है, ऐसे धम्म को तथागत भी हीन धम्म कहते थे। धम्म पद के लोकवग्ग की प्रथम गाथा में ही बुद्ध कहते है- ‘हीन धम्म ने सेवय पमादेन नं संवसे। मिच्छदिठ्टी न सेवय सिया लोकन ढ्डणों।।’ अर्थात - हीन धम्म का सेवन (पालन) न करें, प्रमोद से न रहें, मिथ्या धारण में न पड़े, आवागमण का चक्र न बढ़ायें। बुद्ध के अनुसार धम्म कोई रूढ़ी नही है। परम्परा नहीं, धम्म याने नया जन्म है जिसे हमें स्वयं जानना और स्वयं खोजना है और इसके लिए इसे हमें स्वयं वरन करना है। जिसे जाना नहीं और मान लिया वही हीन धम्म है। यह उधार का धम्म है, किसी से सुनकर पा लिया, औरों से पा लिया। जिसे हमने स्वयं वरन नहीं किया उसे पहले जान-समझकर धम्म दीक्षा के माध्यम से स्वयं वरन करना चाहिए। (V-108) क्योंकि बुद्ध और बाबासाहेब के पास जो लोग पहले पहूंचे थे वे अपने बोध से पहूंचे थे। जो प्रथमतः पहूंचते है वे अपने बोध ये ही पहूंचते है। फिर उनके बच्चे पैदा होते है, इन बच्चों कोे न बुद्ध से कुछ लेना देना होता है न बाबासाहेब से। धम्म उनके लिए एक रीति-रीवाज हो जाता है। चूंकि बौद्धों के घर में पैदा हुए, इसलिए बौद्ध। यह बौद्ध होना तो मात्र संयोग है, हमारा चुनाव नहीं। कोई व्यक्ति जन्म के साथ धम्म का मालिक नहीं हो सकता और जब तक पृथ्वी पर जन्म के आधार पर धम्म रहेंगा, तब तक अधम्म ही रहेंगा। इसलिए हमें अपनी नईं पीढ़ि अपना धम्म थोपने की बजाय उन्हें चुनाव का अवसर देना ही चाहिए। और फिर यदि हमें वास्तविक धम्म को जाना है, समझा है तो हमारे संस्कारित बच्चे भी बुद्ध, धम्म, संघ के अलावा किसका अनुसरण करेंगे ? और इसके लिए हमें उन्हें जन्म से धम्म देने की बजाय चेतना से धम्म दीक्षा के माध्यम से धम्म देना ही न्यायोचित होगा। इसलिए बच्चों के वयस्क होने पर धम्म के भावनात्मक पक्ष को मजबूती प्रदान करने के लिए यह ‘‘धम्म दीक्षा संस्कार’’ अत्यावश्यक है।
यह संस्कार किसी विद्धान भिक्षु, श्रामणेर अथवा शीलवान उपासक/उपासिका के हाथों एकल या सामूहिक रूप से सम्मपन्न करवाया जा सकता है। इस अवसर पर भी बौद्ध आनंद, मैत्रेय, बोधि, गौतम, सिद्धार्थ आदि नये नाम/उपनाम धारण कर सकते है। बौद्धों की एक अपनी विशेष पहचान के लिए यह आवश्यक है। इस अवसर पर दीक्षार्थियों को बौद्ध धम्म दीक्षा प्रमाणपत्र दिये जाने चाहिए। और यह भी एक अवसर हैं जब हमें अपने पुराने जातिगत पुछल्लों (पुराने नाम व सरनेम) को बदकर नये (बौद्धों के) नाम व सरनेम धारण कर सकते है। हो सके तो धम्म दीक्षा प्रमाणपत्र में ही दीक्षार्थिं के दोनों नाम यथा पुराने पूरे नाम व नये नामकरण के अनुसार नया नाम, माता-पिता पुरा नाम और नया सरनेम आदि का सम्पूर्ण उल्लेख किया जाना चाहिए। उपासकों की सुविधा के लिए नीचे धम्म दीक्षा प्रमाण पत्र का संक्षिप प्रारूप दिया जा रहा है। उपासक कृपया धम्म दीक्षा के पश्चात इस प्रकार का धम्म दीक्षा प्रमाण पत्र लेकर नाम/सरनेम परिवर्तन संबधि कार्यवाही करें।
क्या ऐसा करके हम आम्बेड़करवादी बौद्धों में एक और नये बौद्ध समाज या नये संप्रदाय का निर्माण नहीं कर रहें हैं। ऐसा करने से जो बौद्ध इन सुझावों को नहीं अपनायेंगे उनके प्रति समाज में हीन भावना और अलगावपन नहीं बढे़गा ?
सर्व प्रथम हमें अपने आप से ही यह प्रति प्रश्न पूछना चाहिए कि क्या लकीर के फकीर होना ही बौद्धों की पहचान होती है।
दरअसल मानव के शिक्षित होने पर, उसके ज्ञान में वृद्धि होने पर, उसके विवेक ने हर बात को जांच पडताल के बाद ही मानने या गलत बातों को सुधारने आदि का कार्य प्रारम्भ करने पर कुछ-कुछ ऐसे परिणाम आ सकते है। परंतु यहाँ हम जोर देकर कहना चाहेंगे कि जहाँ से पारिवारिक धम्म संगोष्ठि तथा महिलाओं द्वारा (हिंदू) सुहाग चिन्हों को छोडने का कार्य प्रारम्भ हुआ वहाँ और जहाँ-जहाँ यह विचार पहूंच रहें है वहाँ भी बौद्ध समाज की सभी महिलाओं ने एक साथ इन सभी विचारों को नहीं अपनाया। ऐसा क्यों हुआ ? स्पष्ट है जिनके समझ में यह बात पहले आयी या जिनकी प्रज्ञा पहले जगी उन्होंने इसे पहले अपनाया। जिनकी समझ में धीरे-धीरे आयी उन्होंने सुहाग चिन्हों को धीरे-धीरे छोडे और जिनकी समझ में अभी भी नहीं आयी वे आज भी उन्होने धारण कर रही है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस बात को लेकर वहाँ महिलाओं के दो गुट हो गये है, या दो समाज बन गये है। पारिवारिक धम्म संगोष्ठि में दोनों प्रकार की बहनें उपस्थित होती है। साथ-साथ धम्म प्रचार करती है। उनकी आपस में मैत्री होती है। वे एक दूसरी का विरोध नहीं करती। जिन्होंने सुहाग चिन्ह छोड़े है वे अभिमान नहीं करती, और जिन्होंने नहीं छोड़ा है वे हीन भावना महसूस नहीं करती। अलगावपन की तो बात ही दूर है।
सच्चाई तो यह है कि इस बात के लिए किसी भी उपासक/उपासिका को दबाव डालकर मानने के लिए नहीं कहाँ जाता है। परंतु समझाने के अंतिम झोर तक जाकर समझाने का प्रयास अवश्य किया जाता है। और इसी का परिणाम है कि पंजाब की एक मात्र बौद्ध उपासिका आयु. सीमा सब लोग की बातों को मलाजखंड़ (म.प्र.) की कुछ बहनों ने जानकर, छानकर व सही मानकर उनका अनुकरण किया। फिर धीरे-धीरे बालाघाट की कुछ बहनों, फिर ने अपनाया। उनके परिवारों ने उनका साथ दिया। नये जमाने का पुरूष वर्ग जो मिशन और धम्म से जुड़ा है, उस ने भी इस कार्य में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान किया। अर्थात उसने भी नव वधु को सुहाग चिन्ह नही दिये और पारिवारिक धम्म संगोष्ठि के माध्यम से अन्यों को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया।
परंतु आज तक इस विषय को लेकर समाज में विभाजन की चर्चा कही नहीं है। तब बौद्ध समाज में एक नये सम्प्रदाय के निर्माण का प्रश्न ही नहीं उठता। परंतु जिस प्रकार देश में उपासकों के ‘‘भारतीय बौद्ध महासभा’’ जैसे संघठन होने के बावजूद बौद्धों के एक बहुत बड़े वर्ग को ‘‘त्रैलोक्य बौद्ध महासंघ’’ की सदस्यता ग्रहण करने, उनकी शिक्षाओं को मानने व अपना एक अलग ही समूह बनाने में कोई रोक नहीं लगा पाया, तब आगे चलकर हिंदू सुहाग चिन्हों को न अपनाने वाले, हिंदू संस्कार व त्यौहारों को पूरी तरह छोड़कर बौद्ध संस्कारों को त्यौहारों तथा बौद्ध नामों, बौद्ध पहचान चिन्हों को अपनाने वाला अन्य उपासक समूह निर्माण हो जाता है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। और तब भी बौद्ध समाज के विभाजन होने या अलावपन के कोई चिन्ह दिखाई नहीं देते है। यह सब प्राकृतिक बातें है। शिक्षा ज्ञान और प्रज्ञा से धार्मिक और सामाजिक सोच में परिवर्तन तो आता ही है।

इससे बेहतर होगा कि आप इन विषयों को छोड़कर बौद्धों के आर्थिक व शैक्षणिक विकास के प्रश्नों पर अधिक ध्यान केंन्द्रित करें। बौद्धों के आर्थिक और शैक्षनिक विकास के कारण जातिवाद व बौद्धों को हिंदू समझे जाने का स्वमेव निराकरण हो जाएगा।
अच्छा विचार है, परंतु यह ठीक नहीं की अलग-अलग विषयों को लेकर अलग-अगल लोग प्रचार करें। आर्थिक व शैक्षणिक विकास के विषयों पर हमारे अन्य सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता हमेशा से कार्यरत है। परंतु खेद का विषय है कि बाईस प्रतिज्ञाओं को मानने वाले संघठित बौद्ध समाज के निर्माण जैसे विषय पर कार्य करने वाले बहुत कम उपासक है। कुछ ही भिक्खुओं को छोड़कर अधिकतर भिक्खु उनके प्रियतम तीन ही विषयों (पूजा, वंदना, परित्राण पाठ और शादी लगाना) पर कार्यरत दिखते है। आजकल तो बुद्ध विहारों में बुद्ध मुर्ति के साामने ताम्बे के बर्तनों में या प्लास्टिक की बोतलों में पानी भरकर उसे बीमारियाँ दूर करने वाला परित्राण का पानी बतलाकर उपासकों को अंधविश्वास पिलाने का कार्य भी हमारें वरिष्ठ भिक्खु ही करते दिखाई देते है। ऐसे में धम्म प्रचार और बाबासाहेब के सपनों के बौद्ध समाज के निर्माण का कार्य कौन करेंगा ? दूसरे, आर्थिक व शैक्षणिक विकास होने पर जातिवाद या हमसे भेदभाव अपने आप ही समाप्त हो जाता तो जीवन भर कांग्रेस का दामन थाम कर करोड़पति बने व भारत के उप-प्रधानमंत्री के पद तक पहूंचने वाले प्रसिद्ध दलित नेता बाबू जगजीवनराम द्वारा एक ब्राम्हण नेता के पूतले का अनावरण करने के पश्चात उस पूतलें को ब्राम्हानों द्वारा गोमुत्र व गंगाजल से धोया गया था। तथा क्या साधारण जनता के साथ इससे अलग प्रकार के व्यवहार की कल्पना की जा सकती है ? उसी प्रकार हम चाहें कितनी भी संपत्ति अर्जित कर लें और चाहे जितना शैक्षनिक विकास हो जाए परंतु जब तक हम आत्मा, परमात्मा, अंधविश्वासों, काल्पनिक देवी-देवताओं, अबौद्ध त्यौहारों व अबौद्ध संस्कारों में लिप्त रहेंगे और साथ ही तथागत और बाबासाहेब की मूर्तियों केवल अगरबत्ति मोमबत्ति जलाकर पूजा वंदना मात्र करते रहेंगे तो क्या बौद्ध धम्म को हिंदू धर्म की ही एक शाखा बतलाने वालों के कुर्तक को बल नहीं मिलेंगा ? क्या हमारा बुद्धजीवी वर्ग भी इस बात को मानता है कि बिना बौद्धों को जागृत किये जातिवाद व बौद्धों को हिंदू समझे जाने जैसे विषयों का अपने आप निराकरण हो जाएगा ?
क्या बौद्ध जनता की ओर से उठाये गये इन प्रश्नों से ऐसा लगता है कि समस्त भारतीय बौद्धों ने भी कभी बाबासाहेब की विरासत ‘‘बुद्ध और उनका धम्म’’ व उसके पंचम काण्ड़ के चैथे भाग की कण्डिका 1.8 से 1.13 का गंभीरता से अध्ययन किया होगा ? इन कण्ड़िका को पढ़कर ऐसा लगता है कि बाबासाहेब केवल धम्म दीक्षा-ले-देकर लेबल बदलने मात्र से संतुष्ट थे ? यदि ऐसा था तो उन्होंने हमें बाईस प्रतिज्ञाएँ क्यों दी ? इन समस्त प्रश्नों पर हमे गंभीरता से सोचना होगा ?

बुद्ध को भगवान क्यों कहा जाता हैं ?
‘भगवान’ पाली भाषा का शब्द न होकर ‘भगवा’ शुद्ध पाली है। पाली साहित्य मे तथागत को भगवान नहीं अपितु भगवा, भगवातो या भगवतं आदि शब्दों से संबोधित किया गया हैं। ‘भगवान’ इन्हीं शब्दों का अपभ्रंश हैं। जब तथागत बुद्ध का यह ‘भगवान’ सम्बोधन/संसार में छा गया तब ब्राम्हणों ने बौद्ध धम्म को हिन्दू धर्म की शाखा और बुद्ध को ईश्वर का अवतार घोषित कर ‘भगवान’ शब्द को अपने ईश्वर और ईश्वर के अवतारों के नाम के साथ जोड़ दिया। इस प्रकार ब्राम्हणों ने श्रमण संस्कृति को नष्ट करने की दुर्भावना से पाली के भगवा इस अपभ्रंश को ‘ईश्वर’ का पर्यायवाची बना दिया।
    बुद्ध उपासकों द्धारा बुद्ध को जब भगवान कहा जाता हैं तब किसी सृष्टिकर्ता की दृष्टि से या अवतारवाद की दृष्टि से भगवान नहीं कहा जाता। परंतु ईश्वरवादी लोग काल्पनिक ईश्वर को भगवान कहते हैं इसलिए हम तथागत को भगवान सम्बोधित न करे यह भी उचित नहीं लगता। क्योंकि भगवान शब्द प्रयोग से और उसके वास्तविक अर्थ को प्रचारित करने से ही हम भगवान शब्द की मिथ्या धारणा और इसके मिथ्या अर्थ से अपने लोगों को अवगत करवाकर काल्पनिक भगवान से दूर रख सकते हैं और फिर बौद्ध दर्शन के बहुत से वजनदार शब्दों को दूसरों ने चुराया है। उन्होंने शब्द हमसे लिए और अर्थ नये गढ़ दिये है। ऐसे में गलत शब्द जानकर हम कितने शब्द, साहित्य और संस्कारों को छोड़ते चले जायेगें ? आवश्यकता हैं, उनके वास्तविक अर्थ से दुनिया को अवगत कराने की।
    ‘भगवान’ दो शब्दो से मिलकर बना है - भग और वान। भग का मतलब है भग्न करना, नष्ट करना, भष्म करना और वान का अर्थ हैं तृष्णा, आसव, बंधन। अर्थात जिसने अपनी तृष्णाऐं समाप्त कर दी हो, वह भगवान। भग्गति दोसो, भग्गति रागो, भग्गती मोहो - जिन्होंने राग, द्वेष और मोह को भष्म कर दिया, समस्त तृष्णाओं को भग्न कर दिया, जो तृष्णाओं के बंधन से विमक्त हो गया, वही भगवान की उपाधी का पात्र हैं। इसी भावना से तथागत को भगवान कहा जाता हैं। उसी प्रकार ‘तथ्य’ और ‘आगत’ से मिलकर तथागत बना है। अर्थात जो सत्य के सहारे चलकर परम सत्य, निर्वाण तक पहुँचा हैं। ‘अरि’ और ‘हत’ से मिलकर अर्हत बना है। अरि का मतलब शत्रु व हंता यानि नष्ट करने वाला होता है। किसी भी व्यक्ति से राग, मोह और द्वेष ही उसके बड़े शत्रु होते है।
(विस्तृत जानकारी के लिए पढें-‘बुद्ध प्रकाशक-(The Socitey for promoting Buddhist knowledge Nagpur)’





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