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25 दिसंबर: मनुस्मृति दहन

Kisan Bothey

Tuesday, June 25, 2019, 12:43 PM
Manusmtri dahan

25 दिसंबर: मनुस्मृति दहन
92 साल पहले, डा. आम्बेडकर ने रात्रि के 9 बजे हिन्दू भारत का तानाबाना बुनने वाली मनुस्मृति-मनु के कानून के दहन संस्कार का नेतृत्व किया था। वह क्रिसमस का दिन था। 
25 दिसम्बर, 1927। लपटो ने अंधेरे आकाश में उजाला फैला दिया था। कुछ लोगों का कहना है कि आम्बेडकर ने ब्राम्हणों की इस पुस्तक को सार्वजनिक रूप से नष्ट करने का निर्णय आखिरी क्षणों में लिया था, यह जल्दी में किया गया दहन था। कुछ लोग इसे आम्बेडकर के जीवन की गैर महत्वपूर्ण घटना भी बताते है। इन बातों में कोई दम नहीं हैं यह कार्यक्रम एक से नए साल की पूर्व संध्या पर जलाई जाने वाली बोनफायर थी, जिसमें एक बूढे व्यक्ति का पुतला जलाया जाता है। यह बूढा व्यक्ति प्रतीत होता है पुराने साल का जो नए साल को जगह दे रहा है। सन् 1938 में डाॅ अम्बेडकर ने टीवी पर दिए गए एक साक्षात्कार में कहाॅ था मनुस्मृति दहन हमने जान-बुझकर किया था। हमने यह इसलियेे किया था क्योंकि हम मनुस्मृति को उस अन्याय का प्रतीक मानते है, जो सदियों से हमारे साथ हो रहा है। उसकी शिक्षाओं के कारण हमें घोर गरीबी में जीना पड़ रहा है। इसलिये हमने अपना सब कुछ दांव पर लगाकर, अपनी जान हथेली पर रखकर यह काम किया (राइटिंग एंड स्पीचिज आफ डाॅ बाबासाहेब इतिहास दिसम्बर, 2012) उस इतिहास निर्मात्री क्रिसमस की रात सभी कार्यकर्ताओं ने पांच पवित्र संकल्प लिए। 
1.    मैं जन्म-आधारित चतुर्वर्ण में विश्वास नहीं रखता।
2.    मैं जातिगत भेदभाव में विश्वास नहीं रखता।
3.    मैं विश्वास करता हॅू की अछूत प्रथा, हिन्दू धर्म का कलंक है और मैं अपनी पूरी ईमानदारी और क्षमता से उसे समूल नष्ट करने की कोशिश करूॅगा।
4.    यह मानते हुए की कोई छोटा-बड़ा नहीं है, मैं खानपान के मामले में, कम से कम हिन्दुओं के बीच, किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करूॅगा। 
5.    मैं विश्वास करता हॅू कि मंदिरों, पानी के स्त्रोतों, स्कूलों और अन्य सुविधाओं पर बराबर का अधिकार है। 
छःह लोगों ने दो दिन की मेहनत से सभी के लिए पंडाल बनाया था। पंडाल के नीचे गड्ढा खोदा गया था, जिसकी गहराई छह इंच थी और लम्बाई व चोैड़ाई डेढ़-डेढ फीट। इसमें चंदन की लकड़ी के टुकडे भरे हुए थे। गड्ढे के चारों कोनों पर खंभे गाडे गऐ थे। तीन और बैनर टंगे थे। क्रिसमस कार्ड की तरह झूल रहे इन बैनरों पर लिखा था। 
-    मनुस्मृति दहन भूमि। 
-    ब्राम्हणवाद को दफनाओं।
-    छुआछूत को नष्ट करों।
वे क्या सोच रहे थे? उस समय डाॅ. आम्बेडकर के दिमाग में क्या चल रहा था ? सन् 1927 का वह क्रिसमस भारत के आज भी क्यों महत्वपूर्ण है ? आम्बेडकर के लिए स्मृति साहित्य और विशेषकर मनुस्मृति... जन्म न की योग्यता को व्यक्ति की समाज में भूमिका का निर्धारक बनाता था, शूद्रों को गुलामों का दर्जा देता था और महिलाओं को गुमनामी की जिंदगी देता था। (राॅड्रिग्स, इसेन्शियल राईटिंग्स आॅफ बी आर आम्बेडकर, आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2002, 24)। इस संबंध में उनके लेखन से लिए गए डाॅ आम्बेडकर के प्रासंगिक विचार निम्नानुसार है:- 
1.    मुनस्मृति: जला डालो। 
-     ऐसा लग सकता है की मैं भारत को कानून देने वाले मनु की अनावश्यक रूप से कटु अलोचना कर रहा हॅू। परन्तु मैं जानता हॅू कि मैं अपनी पूरी ताकत लगा दूॅ तब भी मैं उनके भूत को नहीं मार सकता। वे बिना शरीर की आत्मा की तरह जीवित है और आज भी उनकी बात सुनी जाती है और मुझे भय है कि वे बहुत लम्बे समय तक जीवित रहेंगे।
द ग्रेट पर्सन आफ द world
भारत में स्त्रियों की दशा पुरूष से दयनीय रही है। लेकिन नारी उत्थान के लिए समय -समय पर भारत में जन्में महापुरूषो ने अपना योगदान दिया है। उन महापुरूषो में एक हमेशा स्मरण में आता रहेगा - परमपूज्य बाबा साहेब डाॅ. बी.आर.आम्बेडकर।
जिन्होंने सामाजिक कठिनाईओं को सहते हुए अपना प्रकाश चारों दिशाओं में फैलाया। उन्होने नारी की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए हिन्दु कोड बिल पेश किया। लेकिन भारत जैसे पुरूष प्रधान देश में किसी ने कभी हिन्दु कोड बिल पर अपनी सर्वसम्मति नही बनाई।
1951 में संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद डाॅ0 आम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ थी।
बाबासाहेब आंबेडकर जी ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की। हालाकि बाद में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा इस बिल को चार भागो में विभाजित कर ( 4 बार में) पास करवाया था। आज हमारे देश में महिलाओं की जो तरक्की हुईं हैं, जो हर क्षेत्र में पुरूषो से कंधे से कन्धा मिलाकर चल रही है उसमें बाबासाहेब के इस उपकार को कभी नहीं भूलना चाहिए।
- किशन बोथे





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