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बौद्ध समुदाय के लिये संघर्ष और आंदोलन

TPSG

Saturday, August 7, 2021, 12:41 PM
Pegoda

महाबोधि महाविहार के लिए संघर्ष, आंदोलन करने के बावजूद भी बौद्धों को नहीं मिल सका है। ट्रस्ट, पुजारी अभी भी ब्रामण ही हैं।

बुद्ध लेणियों(गुफाओं) की अवस्था भी विचित्र हैं। कई स्थानों पर अतिक्रमण, विकृतिकरण हुआ है। संवर्धन का प्रयत्न उदासीन अवस्था में हैं।

भारतीय विश्वविद्यालयों में बौद्ध साहित्य का अध्ययन नाममात्र कहा जाये, इतना भी नहीं है।

पालि भाषा साहित्य टिकाये रखने का प्रयास भी कहीं दिखाई नहीं देता।

पुरातत्व विभाग बौध्द संस्कृति के प्राप्त अवशेषों और प्रमाणों को जाहिर नहीं होने देता। नये स्थान पर उत्खनन में जहाँ कहीं बौद्ध अवशेष मिलते हैं, जानते बूझते वहाँ

तुरंत खुदाई बंद करवा दी जाती है। बाकी व्यवहार अंधेरे में रखा जाता है। नागपूर दीक्षाभूमि आधुनिक बौद्ध संस्कृति के लिए एक लेंडमार्क होते हुए भी उसके आसपास बढ़ता हुआ अतिक्रमण और उसके लिए भी हमारा संघर्ष जारी रहता है।

मुंबई दादर चैत्यभूमि की भी यही अवस्था है। अभी भी छोटे से डेढ़ सौ -दो सौ फीट जगह में ही वह सिमटी हुई है।

भारतीय प्राचीन बौद्ध साहित्य, स्थापत्य, सांस्कृतिक धरोहरों को टिकाये रखने का कोई भी प्रयत्न केन्द्र सरकार की ओर से नहीं दिखाई देता ।उल्टे हर एक प्रकार से दबाव ही दिखाई पड़ता है ।विश्वविद्यालय को बाबासाहब का नाम देने के लिए 20 वर्ष का अनवरत संघर्ष करना पड़ा था और इसमें कितनी ही ज़िदगियाँ, कितने ही घर बर्बाद हुए थे। ये अवस्था है बौद्ध संस्कृति और बौद्घ अनुयायियों की।बहुत बुरी, विचित्र और संताप पैदा करने वाली।

और दूसरी ओर, एक समांतर बौद्ध संस्कृति शुरू है ब्राह्मण सवर्णो द्वारा। इसके प्रसार का उद्देश्य बाबासाहब के सामाजिक संदेशों से बिल्कुल उलट है और वह विचारधारा केवल सवर्णों के हाथों में है, और इसीलिए इसे 'राजाश्रय 'प्राप्त है। ये राजाश्रय प्राप्त बौद्ध संस्कृति यानी गोयंका की विपश्यना। प्राचीन भारतीय बौद्ध वास्तु व स्थापत्य कला और लेणियाँ धोकादायक अवस्था में होते हुए, उसे नजरअंदाज़ करके, बाहर से म्याँमार, थाईलैंड की डिजाइन के बेस पर वास्तु विहार बनाये जाते हैं। ये एक काउंटर कल्चर है ।इससे भी अहम सवाल, दीक्षाभूमि पर अतिक्रमण होते हुए, चैत्यभूमि, बुद्ध विचार और संस्कृति को पुनर्जीवित करने वाले बाबासाहब के स्मारकों की अब भी दुर्दशा शुरू रहते हुए, उधर गोयनका विपश्यना परिवार किसी भी संघर्ष और माँग के बिना ही एक द्वीप पर बड़ी ठसक के साथ एक गोल्डन पैगोडा बनवाते हैं। कितने ही स्थानों पर विपश्यना केंद्र निर्माण के लिए सैंकडों एकड़ ज़मीन इन्हें सहज मिल जाती है। 14 अप्रैल की छुट्टी नकारे जाने की चिंगारी से बामसेफ जैसा संगठन खड़ा होता है, वहीं विपश्यना के लिए नंबर लगने पर बग़ैर झंझट 10 दिनों का वैतनिक अवकाश सहज मंजूर हो जाता है।

अगले पचास वर्षों पर यदि हम विचार करें तो विश्वविद्यालयों से, शैक्षणिक क्षेत्रों से, साहित्य से बौद्ध साहित्य, पालि भाषा आऊट हो चुकी होगी। महाबोधि विहार आपके पास तब भी नहीं होगा। बुद्ध लेणियों(गुफाओं)का जीर्णोध्दार, संरक्षण और संवर्धन ना करते हुए उन्हें नेस्तनाबूद होने के लिए छोड़ दिया जायेगा। दीक्षाभूमि, चैत्यभूमि की हाल की अवस्था हम सबको मालूम ही हैं। और इसकी जगह काउंटर कल्चर के रूप में बाबासाहब को अपेक्षित बुद्ध और प्राचीन भारतीय बौद्ध साहित्य, शिल्प, संस्कृति के बरक्स म्यांमार अथवा तत्संबधी महायानी बौद्ध परंपरा, वास्तु, विहार, मूर्तियों और विपश्यना पद्धति से नयी संस्कृति की जड़ें मज़बूत की जायेगी। जिस गति से ये काम शुरू है, उस गति को ध्यान में रखते हुए पचास वर्ष बाद प्राचीन बौद्ध धरोहरों का स्थान विपश्यना ले चुका होगा। और तब बौद्ध संस्कृति का अस्तित्व विपश्यना यानी धम्म और धम्म यानी विपश्यना हो चुका होगा। तब आश्चर्य करने के अलावा कुछ नहीं बचेगा। Rulling class, rulling culture इतना बेवकूफ़ नहीं है कि ब्राह्मणवाद को चैलेंज करने वाले बुद्ध को स्वीकार करेंगे, अथवा उस संस्कृति को प्रोत्साहित करेंगे। इसके विपरीत आंबेडकरवादी बौद्धों को पर्याय के रूप में समानांतर प्रतिक्रांति की गोयनका आधारित पद्धति को, बौद्घ संस्कृति और परंपरा के रूप में स्वीकारना होगा और उसे राजाश्रय होगा क्योंकि ये Power agency ब्राह्मणों के हाथ में है और उनके लिए अनुकूल भी है।

कोई भी बौद्ध अनुयायी, सम्राट अशोक हों या कनिष्क हर्षवर्धन अथवा सातवाहन, इनके विरोध में न लड़ते हुए भी ब्राह्मणों ने बहुत सफाई से ईसा पाँचवी -दसवीं सदी में हिंदू संस्कृति के रूप में कन्वर्जन किया है। और इस सांस्कृतिक कन्वर्जन का अगला सोपान यानी पंढरपुर, उज्जैन, मथुरा, बालाजी मूर्ति के बाद विहारों का मंदिर में रूपांतर और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय का नाश होना निहित है । इस इतिहास पर सरसरी नज़र दौडाएँ तो बुद्ध ब्राह्मणों के हाथों में देना कितना घातक है, इसका साफ़ अंदाज़ा हो जाता है।

विपश्यना करके लौटने वाले सवर्ण ब्राह्मण,बनिया व्यावहारिक जीवन में बुद्ध का स्वीकार नहीं करते लेकिन इधर महाराष्ट्र में बौद्धों ने गोयनका बाबा का फोटो घरों में लगाना शुरू कर दिया है। कुछ ने पत्रिकाओं पर छापना भी शुरू किया है। विपश्यना मनस्वास्थ्य ,धम्म आकलन भले ही सिखाती हों लेकिन मनोविकार के रूप में "जाति "का उन्मूलन नहीं सिखाती। हमारी लडाई जातिवर्ण व्यवस्था के विरूद्ध है। हम फिर उसी Agency को अपने घर के भीतर ले आते हैं। गोयनका के विपश्यना के माध्यम से बुद्ध और बाबासाहब सवर्ण ब्राह्मणों के घर तो पहुँचे नहीं लेकिन उनका गोयनका हमारे घर तक पहुँच चुका है। उसे शोषित वर्ग के बौद्धों ने सिर पर उठा रखने की शुरूआत की है।

बाबासाहब 'बुद्ध और उनका धम्म 'की प्रस्तावना में 'बुद्ध या कार्ल मार्क्स ','बुद्ध और उनका धम्म 'तथा 'क्रांति -प्रतिक्रांति 'पुस्तकें एक साथ पढ़ने की सलाह देते हैं। कहने का आशय ये है कि क्रांति -प्रतिक्रांति की समझ हममें विकसित होनी चाहिए जिसकी आज के समय में बड़ी अनिवार्यता है।

Rahul Pagare

हिंदी रूपान्तरण : राजेंद्र गायकवाड़





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