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संविधान निर्माता की प्रतिमा पर विवाद

Siddharth Bagde
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Friday, June 20, 2025, 04:33 PM
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संविधान निर्माता की प्रतिमा पर विवाद: ग्वालियर हाई कोर्ट का आईना

लेखक: सिद्धार्थ बागड़े

"हम जो हैं, वह बाबा साहब की क़लम का कमाल है, और जो बन सकते हैं, वह उनकी चेतना का विस्तार है।"

ग्वालियर हाई कोर्ट परिसर में भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा स्थापना को लेकर छिड़ा विवाद आज एक सामान्य प्रशासनिक मुद्दे से बढ़कर सामाजिक चेतना, न्यायिक दृष्टिकोण और वैचारिक संघर्ष का रूप ले चुका है। सवाल यह नहीं है कि एक प्रतिमा लगे या नहीं, सवाल यह है कि देश की न्यायिक व्यवस्था उस व्यक्तित्व को कितना स्वीकार करती है, जिसने न्याय की पूरी आधारशिला गढ़ी।

ग्वालियर हाई कोर्ट परिसर में डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा लगाने की योजना प्रस्तावित की गई थी। लेकिन जैसे ही यह प्रस्ताव आगे बढ़ा, कुछ वकीलों और बार एसोसिएशन के एक वर्ग ने इसका विरोध किया। उनके अनुसार, कोर्ट परिसर में किसी भी "राजनीतिक या वैचारिक" प्रतीक की मूर्ति नहीं लगनी चाहिए, ताकि न्यायपालिका की निष्पक्षता बनी रहे।

कुछ अधिवक्ताओं का कहना है कि न्यायालय केवल “न्याय की देवी” या “महात्मा गांधी” जैसे सर्वमान्य प्रतीकों तक सीमित रहना चाहिए। वे इसे एक राजनीतिक पहचान से जोड़कर देखते हैं।

भारत के न्यायालय – संविधान की आत्मा और कानून की प्रतिष्ठा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये इमारतें केवल पत्थर की नहीं होतीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव और सामाजिक न्याय की आशाओं का प्रतीक होती हैं। ऐसे में यह सवाल उठाना एकदम स्वाभाविक है कि न्यायालय में किस महापुरुष की प्रतिमा होनी चाहिए – वह जिसने देश को आज़ादी दिलाने में भूमिका निभाई, या वह जिसने इस आज़ादी को वास्तविक न्याय, समानता और अधिकार में ढाला?

महात्मा गांधी का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान निर्विवाद है। उन्होंने सत्याग्रह, अहिंसा और नैतिक मूल्यों के बल पर एक जन आंदोलन को खड़ा किया। लेकिन न्यायिक प्रणाली, संवैधानिक व्यवस्था, कानूनी ढांचे और वंचितों को न्याय दिलाने की संस्थागत प्रक्रिया में उनका प्रत्यक्ष योगदान न के बराबर है।

गांधीजी का दृष्टिकोण ज़्यादातर नैतिक सुधारों और सामाजिक सौहार्द्र पर आधारित था, लेकिन उन्होंने कानून, न्याय और संविधान के विधिक ढांचे को गहराई से आकार नहीं दिया। उन्होंने कभी न्यायिक सुधारों का नेतृत्व नहीं किया, न ही वे भारत के विधिक प्रणाली के निर्माता रहे।

न्यायालय किसी राजनीतिक विचारधारा, आस्था या नैतिक आंदोलन का मंच नहीं है। यह एक संवैधानिक संस्था है जो संविधान के अनुसार निर्णय लेती है। ऐसे में उसकी आत्मा, उसकी प्रेरणा, उसकी चेतना – संविधान से ही आनी चाहिए।

और जब संविधान की बात होती है, तो उसका पहला नाम डॉ. भीमराव अंबेडकर होता है – जिनकी लेखनी, दृष्टि और प्रतिबद्धता ने भारतीय लोकतंत्र को न्याय की नींव पर खड़ा किया।

भारत एक ऐसा देश है जहाँ देवी-देवताओं की कल्पना और पूजा संस्कृति की आत्मा बन चुकी है। हम भारतवासी जीवन के हर क्षेत्र में किसी न किसी देवी-देवता का रूप गढ़ते आए हैं—धन की बात हो तो लक्ष्मी देवी, शिक्षा की बात हो तो सरस्वती देवी, शक्ति की बात हो तो दुर्गा या काली, और यहाँ तक कि न्याय की बात हो तो भी हम न्याय की देवी की कल्पना करते हैं, जिनकी आंखों पर पट्टी बंधी होती है और एक तराजू हाथ में होता है।

परंतु क्या हमने कभी यह सोचने का साहस किया है कि यह 'देवी' हमारी नैतिक जिम्मेदारी को कहाँ तक संभाल सकती है? क्या किसी मूर्ति, किसी नाम, किसी प्रतीक को पूजने भर से समाज में न्याय स्थापित हो जाएगा?

देवता नहीं, मनुष्य ही करता है न्याय

ग्वालियर हाईकोर्ट में हाल ही में बाबासाहेब अंबेडकर की प्रतिमा स्थापना के संदर्भ में जो विवाद सामने आया, वह केवल मूर्तियों की स्थापना या आस्था का प्रश्न नहीं है—यह उस गहरे अंतर्विरोध को उजागर करता है जहाँ हम न्याय को आस्था से जोड़ना चाहते हैं, जबकि वह कर्म और विवेक का विषय है।

न्याय की देवी की मूर्ति को देखकर हम उम्मीद करते हैं कि न्याय स्वतः हो जाएगा। लेकिन सच्चाई यह है कि न कोई देवी आकर फैसले देती है, न कोई चमत्कार किसी के जीवन को तुरंत बदल देता है। यह मनुष्य का विवेक, उसका साहस, उसका अध्ययन और संवैधानिक बोध ही है जो सही-गलत में अंतर करता है और निर्णय देता है।

श्रद्धा बनाम कर्तव्य: किसका वज़न अधिक?

हम भारतवासियों में यह आदत घर कर गई है कि हर बात को श्रद्धा या आस्था से जोड़ दिया जाए। जब कोई समस्या आती है, तो हम समाधान खोजने की जगह पूजा, व्रत, मंदिर-स्थापना की ओर मुड़ जाते हैं। इससे तात्कालिक संतोष तो मिल सकता है, पर क्या इससे समाज बदलता है?

बाबासाहेब अंबेडकर ने कभी मूर्तियों की पूजा की बात नहीं की, उन्होंने संविधान लिखा—जो मानव-निर्मित है, तर्कसंगत है, और हर नागरिक को समान अधिकार देने की गारंटी देता है। अगर न्यायपालिका को श्रद्धा की नहीं बल्कि विवेक की संस्था माना जाए, तो क्या यह अधिक प्रभावी नहीं होगा?

न्याय: भावना नहीं, प्रक्रिया है

न्याय एक निष्पक्ष, संवैधानिक प्रक्रिया है। यह न किसी मंदिर की सीढ़ी से निकलता है, न किसी मूर्ति की कृपा से। यह तथ्य, प्रमाण, तर्क और विधि से उपजता है। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न्याय देने वाला भी, न्याय पाने वाला भी—दोनों ही मनुष्य होते हैं।

अगर हम अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर या किसी अदृश्य शक्ति पर डालेंगे, तो हम अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ रहे होंगे। हमें यह समझना होगा कि आस्था से समाज चल सकता है, पर न्याय व्यवस्था नहीं।

क्या हमें देवी चाहिए या उत्तरदायी नागरिक?

भारत माता, शक्ति देवी, न्याय देवी — इन सबकी कल्पना हमारे सांस्कृतिक मन में गहराई तक रची-बसी है। पर क्या यह समय नहीं आ गया कि हम इन प्रतीकों से परे जाकर ज़िम्मेदारी निभाने वाले नागरिक बनें? क्या हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए जो संविधान को समझते हों, जो भेदभाव से ऊपर उठकर समाज के हाशिए पर खड़े व्यक्ति को भी न्याय दिला सकें?

न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी इसलिए होती है ताकि वह जाति, धर्म, वर्ग न देखे। पर अफ़सोस, हमारे समाज में यह पट्टी अक्सर इंसानियत को ढंकने का काम करती है।

उपसंहार: श्रद्धा में नहीं, संघर्ष में है शक्ति

श्रद्धा एक निजी अनुभव है, पर न्याय एक सार्वजनिक उत्तरदायित्व। अगर हमें एक न्यायपूर्ण समाज चाहिए, तो हमें मूर्तियों की स्थापना से ज़्यादा ज़रूरत है न्याय की संस्थाओं को मजबूत करने की, बाबासाहेब के विचारों को आत्मसात करने की, और यह मानने की कि कोई देवी आकर न्याय नहीं करेगी, हमें ही खड़ा होना होगा।

ग्वालियर हाईकोर्ट हो या देश की कोई और संस्था—हर जगह आस्था से ज़्यादा ज़रूरी है संविधान की भावना को समझना, और न्याय को केवल प्रतीकों तक सीमित न रखकर व्यवहारिक जीवन में लागू करना।

भारत का संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, यह सामाजिक न्याय, बराबरी और स्वतंत्रता की वह ऐतिहासिक नींव है जिसे डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने विचार, संघर्ष और बुद्धिमत्ता से तैयार किया। यह संविधान सदियों से शोषित, वंचित और उपेक्षित समाज के लिए वह मशाल है, जिसने उन्हें अधिकारों का बोध कराया, आत्मसम्मान दिया, और मानवता की असली पहचान दी।

लेकिन अफ़सोस कि आज भी कुछ वर्ग ऐसे हैं जो संविधान का विरोध करते हैं — प्रत्यक्ष रूप से नहीं तो परोक्ष रूप से; खुलेआम नहीं तो संस्थागत स्तर पर। उन्हें संविधान इसलिए खटकता है क्योंकि वह उनकी हजारों सालों की सत्ता, ऊँच-नीच की व्यवस्था और मानसिक गुलामी पर चोट करता है।

संविधान से किसे समस्या है?

संविधान से वही लोग डरते हैं जिन्होंने इतिहास में वर्ण व्यवस्था को बनाए रखा, जिन्हें सदियों तक शोषण और सामाजिक असमानता से लाभ मिलता रहा। जब एससी, एसटी, ओबीसी समुदाय के लोग पढ़-लिखकर आगे बढ़ने लगे, सवाल उठाने लगे, अपने हक़ की बात करने लगे—तो उनके पेट में मरोड़ उठने लगी।

बाबासाहेब अंबेडकर ने जब संविधान की रचना की, तो वह न केवल एक विधि का ढांचा था, बल्कि एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी। इस क्रांति ने उन लोगों की चूलें हिला दीं जो चाहते थे कि कुछ वर्ग हमेशा दबे-कुचले रहें और वे खुद सत्ताधारी बने रहें।

बाबासाहेब: सिर्फ संविधान निर्माता नहीं, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत

डॉ. भीमराव अंबेडकर इस देश के पहले कानून मंत्री थे। उन्होंने संविधान निर्माण के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना हर नागरिक को मिले, चाहे उसका जन्म किसी भी जाति, धर्म या वर्ग में हुआ हो।

उन्होंने कहा था, "संविधान तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक समाज उसे लागू करने को तैयार न हो।"

बाबासाहेब का आदर्श होना हर न्यायालय, हर संवैधानिक संस्था के लिए गौरव की बात होनी चाहिए, शर्म की नहीं।

हर न्यायालय में बाबासाहेब की प्रतिमा क्यों आवश्यक है?

1. न्याय के प्रतीक: जैसे भारत के सुप्रीम कोर्ट में महात्मा गांधी की तस्वीर होती है, वैसे ही संविधान निर्माता की प्रतिमा न्याय का मूल स्रोत दर्शाने के लिए होनी चाहिए। न्यायालय केवल विधि का घर नहीं, बल्कि न्याय का मंदिर होता है।

2. संविधान के मूल्यों का स्मरण: बाबासाहेब की प्रतिमा हर न्यायाधीश, वकील और नागरिक को यह याद दिलाएगी कि न्याय केवल नियमों से नहीं, न्यायिक संवेदना से मिलता है।

3. शोषितों के आत्मबल का प्रतीक: यह प्रतिमा उन करोड़ों दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के लिए आशा का प्रतीक होगी, जो आज भी समान अवसर और न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं।

विरोध क्यों होता है?

जब आप किसी अन्याय के विरुद्ध खड़े होते हैं, तो सबसे पहले वही लोग नाराज़ होते हैं जो उस अन्याय से लाभ पा रहे होते हैं। बाबासाहेब के नाम पर, उनकी प्रतिमा पर, उनके विचारों पर जो लोग आपत्ति जताते हैं — वे दरअसल बराबरी से डरते हैं। उन्हें भय है कि अगर वंचित वर्ग को बराबरी का अधिकार मिल गया, तो सदियों पुरानी सामाजिक सत्ता खत्म हो जाएगी।

यह प्रतिमा लगकर रहेगी

बाबासाहेब केवल एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक विचार हैं — और विचारों को न रोका जा सकता है, न मिटाया जा सकता है। ग्वालियर हाईकोर्ट हो या देश का कोई अन्य न्यायालय, यह केवल एक इमारत नहीं है, यह संवैधानिक न्याय का प्रतीक है। और जब तक यह संविधान लागू है, तब तक उसके निर्माता का सम्मान सर्वोपरि होना चाहिए। इसलिए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी:

हर न्यायालय में बाबासाहेब की प्रतिमा लगनी ही चाहिए — और लगेगी।

उपसंहार: संविधान की रक्षा ही सच्चा राष्ट्रधर्म है

जो संविधान का विरोध करता है, वह केवल एक किताब का नहीं, बल्कि भारत के भविष्य का विरोध करता है। जो बाबासाहेब का अपमान करता है, वह करोड़ों भारतीयों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है।

अब समय आ गया है कि हम केवल मौन दर्शक न बने रहें, बल्कि डॉ. अंबेडकर के विचारों को संस्थाओं में, जीवन में, और व्यवस्था में स्थापित करें।

बाबासाहेब का सपना था – एक समतामूलक, न्यायपूर्ण भारत।

और इस सपने की नींव में हर न्यायालय में उनकी प्रतिमा का होना केवल सम्मान नहीं, एक ज़िम्मेदारी है।





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