खनिज के लोभ में उजड़ते वनवासी Siddharth Bagde tpsg2011@gmail.com Friday, June 20, 2025, 04:01 PM खनिज के लोभ में उजड़ते वनवासी: बैगा आदिवासियों की जमीन पर खनन माफिया की नजर बैगा जनजाति भारत की एक प्रमुख आदिवासी जनजाति है, जो मुख्यतः मध्यप्रदेश के मंडला, डिंडोरी, बालाघाट, शहडोल और अनूपपुर जिलों में पाई जाती है। इसके अलावा कुछ संख्या में छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी इनकी उपस्थिति है। बैगा समुदाय को भारतीय संविधान की अनुसूचित जनजातियों में शामिल किया गया है। ये जनजाति प्रकृति के अत्यंत निकट जीवन जीती है और जंगल को ही अपना माता-पिता मानती है। बैगा जनजाति की उत्पत्ति को लेकर मान्यता है कि वे गोंड जनजाति से भिन्न एक प्राचीन और विशिष्ट समूह हैं। बैगा स्वयं को ‘धर्तीपुत्र’ या ‘जंगल का राजा’ मानते हैं। बैगा जनजाति का जीवन पूरी तरह प्रकृति पर आधारित है। वे जंगलों में रहते हैं, मिट्टी, लकड़ी और पत्तों से बने घरों में निवास करते हैं। पारंपरिक रूप से बैगा खेती, शिकार और वनों से मिलने वाले उत्पादों जैसे महुआ, साल बीज, तेंदू पत्ता आदि पर निर्भर करते हैं। इनकी खेती "झूम खेती" या "दाही खेती" के नाम से जानी जाती है, जिसमें जंगल की भूमि को साफ करके अस्थायी खेती की जाती है। बैगा जनजाति की अपनी कोई विशिष्ट भाषा नहीं है, लेकिन वे गोंडी, छत्तीसगढ़ी, हिंदी और स्थानीय बोलियों का प्रयोग करते हैं। उनकी बोली में कई पारंपरिक और सांस्कृतिक शब्द होते हैं जो केवल समुदाय के भीतर ही समझे जाते हैं। बैगा आदिवासी प्रकृति पूजा करते हैं। वे पेड़, पहाड़, नदियों और सूर्य-चंद्र को देवता मानते हैं। बैगा समुदाय में कई देवी-देवताओं की पूजा होती है जैसे बूढ़ा देव, ठाकुर देव, दुल्हा देव आदि। वे बलि प्रथा में विश्वास रखते हैं, खासकर मुर्गे और बकरे की बलि देना सामान्य परंपरा है। इनके प्रमुख त्यौहारों में करमा, सरहुल, हरियाली, दीवाली और दशहरा शामिल हैं, लेकिन इन्हें वे अपने ढंग से मनाते हैं। बैगा समुदाय की जीवनशैली, पारंपरिक ज्ञान, लोकगीत और लोकनृत्य भारतीय आदिवासी संस्कृति की धरोहर हैं। बैगा नृत्य जैसे सैला, करमा, राई आदि नृत्य लोकजीवन की झलक प्रस्तुत करते हैं। भारत की आदिवासी संस्कृति, उसका जंगल से जुड़ाव और भूमि के साथ आत्मिक संबंध, हमारी सामाजिक विविधता का अनमोल हिस्सा हैं। मगर आज खनिजों के लालच में यही भूमि उनके हाथों से छीनी जा रही है – वह भी छल और धोखे के माध्यम से। मध्यप्रदेश के डिंडौरी, कटनी, उमरिया, धार और झाबुआ जैसे खनिज समृद्ध जिलों में बैगा आदिवासियों की जमीनों पर हो रहा यह “बेनामी कब्ज़ा” एक खतरनाक सामाजिक व पर्यावरणीय संकट की ओर संकेत कर रहा है। पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले इन जिलों में आदिवासी भूमि की सुरक्षा के लिए कड़े प्रावधान हैं। संविधान और भूमि सुधार कानूनों के अनुसार, अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी व्यक्ति की जमीन गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकता। यदि कोई आदिवासी ही खरीदे, तो भी उसे कलेक्टर की अनुमति अनिवार्य रूप से प्राप्त करनी होती है। मगर जमीनी सच्चाई इससे अलग है। कागजों में “आदिवासी से आदिवासी” को भूमि बेची जा रही है, लेकिन पीछे पर्दे में असली खरीदार खनन माफिया हैं, जो बेनामी सौदों से खनिज संपदा पर कब्जा जमा रहे हैं। डिंडौरी, कटनी, उमरिया जैसे जिलों में रहने वाले बैगा आदिवासी भारत की विशेष पिछड़ी जनजाति (PVTG) में आते हैं। ये समुदाय गहरे जंगलों में रहते हैं, गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करते हैं, मनरेगा जैसी योजनाओं के अंतर्गत मजदूरी करते हैं, और झुग्गियों में निवास करते हैं। ऐसे में जब रिकॉर्ड में सामने आता है कि चार बैगा आदिवासियों ने 1200 एकड़ जमीन खरीद ली है, तो यह आश्चर्य नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ा षड्यंत्र सामने लाता है। सवाल यह उठता है कि जो व्यक्ति दो वक़्त की रोटी के लिए सरकारी सहायता पर निर्भर है, वह इतना विशाल ज़मीन सौदा कैसे कर सकता है? डिंडौरी और आसपास के जिलों में बाक्साइट का अपार भंडार है। यह वही खनिज है जो एल्यूमिनियम जैसे कीमती धातुओं के लिए आवश्यक है। मगर जहां बाक्साइट है, वहां हरे जंगल भी हैं। वहीं हैं जल स्रोत, वन्यजीव, और आदिवासी की ज़िन्दगी। खनन के लिए जंगल काटे जाते हैं, पहाड़ खोदे जाते हैं, और ज़मीन बंजर बन जाती है। यह खनिज बाहुल्य ज़िला, जिसे कभी प्रकृति ने समृद्ध किया था, अब एक “खनन माफियाओं का स्वर्ग” बन गया है, और आदिवासी के लिए नरक। खनन माफिया इतने चालाक हैं कि उन्होंने अब आदिवासी समुदाय के भीतर से ही कुछ लोगों को मोहरा बना लिया है। फर्जी दस्तावेज़ों, कर्ज़ में डूबे आदिवासियों, दबाव, डर और लालच के माध्यम से आदिवासी ही अब दूसरे आदिवासियों की जमीन "खरीद" रहे हैं। ऐसे मामलों में: कलेक्टर की अनुमति ली जाती है, मगर वह प्रायः कागज़ी होती है। जांच नहीं होती कि खरीदने वाला आर्थिक रूप से सक्षम है या नहीं। खनन कंपनियों के दलाल इन भोले आदिवासियों के नाम पर ज़मीन खरीदकर असल में खुद खनन का नियंत्रण ले लेते हैं। प्रशासन, पंचायत और पटवारी तंत्र की चुप्पी या मिलीभगत यह दर्शाती है कि यह केवल सामाजिक अन्याय नहीं, बल्कि संस्थागत भ्रष्टाचार का भी मामला है। बैगा आदिवासी अपनी जमीन को केवल संपत्ति नहीं, बल्कि आस्था मानते हैं। उनके गीतों में, लोककथाओं में, और जीवनशैली में जमीन एक देवी की तरह पूजनीय है। जमीन के साथ जंगल हैं, पेड़ हैं, जानवर हैं, और उनकी पीढ़ियों की स्मृतियाँ हैं। जब इनकी ज़मीन जाती है, तो केवल भूमि नहीं खोती – एक पूरी संस्कृति उजड़ जाती है। इस खतरनाक स्थिति को रोकने के लिए निम्न प्रयास अत्यंत आवश्यक हैं: सभी भूमि सौदों की जांच हो कि क्या क्रेता वास्तव में सक्षम आदिवासी है या किसी माफिया का मोहरा। जनपद और ग्राम सभाओं को सशक्त किया जाए, ताकि वे हर भूमि सौदे की जानकारी रखें। PESA और FRA कानूनों का कड़ाई से पालन हो। खनिज क्षेत्र में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन और ग्रामसभा की अनुमति अनिवार्य की जाए। आदिवासियों को कानूनी साक्षरता और अधिकारों की जानकारी दी जाए। जनसंगठन और सामाजिक कार्यकर्ता आगे आएं, इन सौदों को उजागर करें। खनन माफिया आज सिर्फ जमीन नहीं खरीद रहे – वे भविष्य छीन रहे हैं। बैगा जैसे विशेष समुदाय जो हजारों सालों से जंगल की रक्षा करते आए हैं, आज उन्हीं के नाम पर जंगल और खनिज लूटे जा रहे हैं। जरूरत है एक सामूहिक चेतना की – जहां कानून, समाज और प्रशासन मिलकर इस शोषण को रोके। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब बैगा जैसे समुदाय केवल किताबों में मिलेंगे, और जंगलों की जगह खदानें होंगी। Tags : communities exploitation administration consciousness collective