जनजातीय अधिकारों की अनदेखी और प्रशासनिक वर्चस्व Siddharth Bagde tpsg2011@gmail.com Friday, June 20, 2025, 03:33 PM जनजातीय अधिकारों की अनदेखी और प्रशासनिक वर्चस्व: एक सामाजिक विडंबना भारत एक बहुजातीय, बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश है। यहां की जनजातियां – जो प्रकृति के सबसे निकट, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर जीवन शैली जीती हैं – सदियों से मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ी रही हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी यदि जनजातियों के अधिकार, उनके विकास और सम्मानजनक अस्तित्व की बात हो रही है, तो इसका स्पष्ट संकेत है कि कहीं न कहीं नीतियों में नीयत की कमी है। ब्राह्मणवादी वर्चस्व और लेटरल एंट्री की राजनीति: लेटरल एंट्री एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके तहत किसी पद पर प्रतियोगी परीक्षा, आरक्षण या सामान्य चयन प्रक्रिया के बगैर कुछ लोगों को नियुक्त किया जाता है। जब जनजातीय कल्याण विभाग जैसे संवेदनशील विभागों में गैर-जनजातीय, विशेष रूप से ऊँची जातियों से संबंधित व्यक्ति सीधे इस प्रकार नियुक्त किए जाते हैं, तो यह न केवल जनजातियों के प्रति अन्याय है बल्कि प्रशासनिक नैतिकता पर भी प्रश्नचिह्न है। ऐसे लोग, जो कभी आदिवासियों के जीवन, उनकी संस्कृति, उनके दर्द और अधिकारों से जुड़े ही नहीं, वे कैसे उनके हक में योजनाएँ बना सकते हैं? सच्चाई यह है कि वे सत्तावादी सोच के साथ केवल योजनाओं को काग़ज़ों पर लागू करते हैं, और ज़मीन पर उसका फायदा उन्हीं को मिलता है जिनके पास पहले से सत्ता, पूंजी और संपर्क हैं। ‘गाँवों का मालिक बनना’ या ‘सेवा करना’: इस प्रकार की व्यवस्थाओं में एक वर्ग विशेष का वर्चस्व वर्षों से बना हुआ है, जो जनजातियों को केवल एक विकासशील समुदाय नहीं, बल्कि उपयोग की वस्तु समझता है। सरकारी योजनाओं, जमीन अधिग्रहण, खनिज दोहन, या CSR योजनाओं के लाभों में सबसे पीछे वही समुदाय खड़ा है जो असल में सबसे अधिक हकदार था। ऐसे अधिकारी जब गाँव में जाते हैं, तो वह एक मालिक की तरह बर्ताव करते हैं – फैसले सुनाते हैं, नियम बनाते हैं, और लौटकर महानगरों में एसी कमरों में अपनी फाइलों में जनजातियों की गरीबी के आँकड़े भरते हैं। सत्ता और पीढ़ियों का चक्र: इस लेख का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि पांच पीढ़ियों तक का सामाजिक लाभ सुनिश्चित किया जाता है – लेकिन किसके लिए? उन्हीं लोगों के लिए जो पहले से सशक्त हैं। जिस प्रकार 75 वर्षों से सत्ता और विशेषाधिकार एक ही वर्ग के हाथों में घूम रहे हैं, यह बताता है कि विकास का लाभ समान रूप से नहीं बँटा। इस असमानता ने केवल आर्थिक विषमता नहीं बढ़ाई, बल्कि सामाजिक-मानसिक असमानता को भी जन्म दिया है। आदिवासी आज भी सरकारी दफ्तरों में अपने अधिकारों के लिए भटकता है, और उसके नाम पर योजनाओं का बजट उन लोगों की जेबों में चला जाता है जिन्हें न तो आदिवासी समस्याओं का ज्ञान है, और न ही संवेदना। क्या होना चाहिए समाधान? 1. जनजातीय समुदाय से ही अधिकारियों की नियुक्ति: – जनजातीय क्षेत्रों में प्रशासनिक पदों पर उन्हीं समुदायों के शिक्षित और प्रशिक्षित युवाओं को नियुक्त करना चाहिए। 2. समान प्रतिनिधित्व की गारंटी: – लेटरल एंट्री की प्रक्रिया पारदर्शी और न्यायसंगत हो, जिससे बहिष्कृत समुदायों को भी मौका मिले। 3. जनजातीय परिषदों को संवैधानिक दर्जा: – गांव स्तर पर निर्णय लेने के लिए जनजातीय ग्राम सभाओं को अधिकार दिए जाएं। 4. सामाजिक समीक्षा और पारदर्शिता: – हर सरकारी नियुक्ति और योजना की सामुदायिक निगरानी सुनिश्चित हो। यह बहुत दुखद है कि जो विभाग जनजातियों के कल्याण के लिए बनाए गए हैं, वही आज एक वर्ग विशेष के हित साधन का माध्यम बनते जा रहे हैं। सुश्री सुशीला धुर्वे जैसे सामाजिक विचारक जब इस पर सवाल उठाते हैं, तो यह केवल आलोचना नहीं बल्कि एक जागरूक चेतावनी है। अब समय आ गया है कि नीतियों और संस्थाओं का पुनर्मूल्यांकन किया जाए, ताकि आदिवासी समाज को उनका अधिकार मिल सके – न कि उन पर दया या रहम की नीति चलाई जाए। Tags : Ms. Sushila Dhurve particular tribes welfare department