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दलित शब्द सुन कर आपके दिमाग में क्या छवि बनती है

TPSG

Sunday, May 19, 2019, 07:39 AM
Anurag Verma

दलित शब्द सुन कर आपके दिमाग में क्या छवि बनती है

फिल्मकार, पत्रकार और लेखक इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं देश के 20 करोड़ दलितों में एक अच्छा.खासा मिडिल क्लास पैदा हो चुका है, जो सूअर टहलाने वाला आदमी नहीं है। - दिलीप सी. मंडल
आमतौर पर दलित शब्द सुन कर आपके दिमाग में क्या छवि बनती है। एक चित्र उभरता है दूर किसी गांव का, जहां एक सीपिया टोन में लिपटा हुआ, अर्धनग्न कुपोषित व्यक्ति खड़ा हुआ है। गाल पिचके हुए हैं। बाल बेतरतीब कटे हैं, औरत हैं तो बदन को फटी साड़ी से मुश्किल से ढंक रही हैं।
जब बात दलित की होती है तो इस तरह की सहानुभूति जगाती तस्वीरें ही आमजन के दिमाग में आती हैं। हालांकि यह बात और है कि उन्हें इस छवि की वजह से सहानुभूति मिल नहीं पाती है। कहा यही जाता है कि ये काम नहीं करते, आलसी हैं, मेरिट नहीं है, पढ़ते नहीं है, ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और इसीलिए इस हाल में है। साथ में कई बार ये जोड़ दिया जाता है कि आरक्षण के नाम पर सरकार सब कुछ इन जैसों पर लुटा देती है, इसलिए देश तरक्की नहीं कर रहा है।
शहरों के पॉश अपार्टमेंट में रहने वाले लोग इस तरह के चित्रों को कभी उदासीनता से देखते हैं तो कभी तरस खा कर! फिर अख़बार का पन्ना पलट कर किसी इंटरेस्टिंग न्यूज़ की तरफ कूच कर जाते हैं जैसे की सिर्फ 5 दिनों में बिकिनी बॉडी कैसे पाएं ?
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सवाल है कि आपको कैसा वाला दलित पसंद है ?
लेकिन अगर कोई कहे कि दलित भी सेक्सी और स्टाइलिश दिख सकते हैं तो ज़्यादातर लोग मानेंगे नहीं। टॉप ग्लोबल ब्रांड के कपड़े पहन रहे हैं, बालों में जेल लगा रहे हैं, जिम की ट्रेडमिल पे भाग रहे हैं फिर तो लोग बिलकुल भी नहीं मानेंगे। जो मान लेंगे वह यह जरूर कहेंगे फिर किस बात का उत्पीड़न और किस बात के दलित ? आरक्षण खत्म होना चाहिए!
इन सब में जरूरी सवाल यह उठता है की दलित कहां पाए जाते हैं ? अखबार के पांचवें पन्ने पर ? बलात्कार की खबरों में ? बारात में घोड़ी से उतार दिए जाने वाली न्यूज में या दूर किसी गावं में, नेता को खाने खिलाते हुए, जहां नेता अपने लिए पानी की बोतल साथ लाए ?

मिलिए 21वीं सदी के नए दलित से
कई लोगों को यह जान कर शायद अटपटा लगेगा पर यह भी एक सच है कि दलित कॉलेज के एनुअल फंक्शन में होने वाले फैशन शो में भाग लेते हुए भी नज़र आ सकते हैं। वह किसी फ़ास्ट फ़ूड रेस्त्रां में चिकन बर्गर विद एक्स्ट्रा चीज़ खाते हुए मिलें। हो सकता है इस वक़्त जब आप यह आर्टिकल पढ़ रहे हैं तब कोई दलित शहर के एक नामी बार में स्कॉच हाथ में लेकर रिलैक्स कर रहा हो या फिर किसी डिस्को में ताजा अंग्रेजी धुन पर झूम रहा हो।
दलित शब्द के अर्थ का अनर्थ हो चुका है। इस वक़्त जरूरी है कि दलित शब्द से जुड़ी स्टीरियोटाइप इमेज को चैलेंज किया जाए। साथ ही ये भी मान लिया जाए कि जब हम दलित कहते हैं तो दरअसल हम 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी की बात कर रहे होते हैं और अन्य सामाजिक समूह की तरह दलितों में भी तमाम तरह की आर्थिक कटेगरी हो सकती है।
दलितों की लाचार इमेज बनाई किसने ?
बहुत समय तक दलितों को मुख्यधारा की छवियों से दूर रखा गया है। इसमें बहुत बड़ा हाथ लेखकों, पत्रकारों और फिल्म निर्माताओं का भी है। खासकर फिल्म निर्माताओं का, उन्हें एक दबा कुचला दलित ही चाहिए जिस पर सहानुभूति का लेप लगा कर जनता में परोसा जा सके और ऐसे मार्मिक चित्रण के लिए खूब वाह.वाही लूटी जा सके। न्यू वेब और पैरलल सिनेमा ने य़े खूब किया। मुख्यधारा की फिल्में या तो दलितों को दिखाती नहीं है या फिर उन्हें ठुका.पिटा ही दिखाती हैं।
अमेरिका में हालात उलटे हैं। वहां ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समुदाय होने के बावजूद अश्वेतों को हमेशा लाचार और दीनहीन रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाता है। वहां का अश्वेत डैंगो अनचेन्ड है, मैन इन ब्लैक है, वह पल्प फिक्शन में है, मैट्रिक्स में है और उनको देखकर आपको दया तो कतई नहीं आएगी। उनको ठाठ के रोल भी मिलते हैं। अश्वेत पॉप संस्कृति का बहुत जरूरी हिस्सा हैं और वे संगीत, फैशन, नृत्य और फिल्मों के क्षेत्र में ट्रेंडसेटर हैं। उनकी मुख्यधारा में महत्वपूर्ण उपस्थिति है और उनकी स्टाइल को पूरी दुनिया में कॉपी किया जाता है।
भारत में स्थिति इसके विपरीत है और यहां लगान जैसी मुख्यधारा की फिल्मों में दलित को एक दबा कुचला किरदार दिया जाता है और ऊपर से उसे विशेष नाम दिया जाता है -कचरा। राजनीति विज्ञान के शिक्षक डॉ. हरीश वानखेड़े भारतीय सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व पर लिखते हैं -ष्एक व्यक्ति के रूप में दलित, एक सभ्य व्यक्ति की सामान्य कल्पना से दूर रहा। दलित चरित्र को कम कपड़े पहने और आदिम (मृगया - 1977), काला और कमजोर (दामुल, 1985) पितृसत्तात्मक और शराबी (अंकुर, 1974), भ्रष्ट और अनैतिक (पिपली लाइव, 2010) के रूप में दिखाया गया है। एक हंसमुख, खुश और सामान्य परिवार के व्यक्ति के रूप में एक दलित चरित्र को शायद ही सिनेमा पर दिखाया गया हो।
बदल रहा है दलितों का आर्थिक दायरा
हाल के आंकड़ों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि दलितों के समृद्ध समूह भी पनप रहे हैं। मेडिकल, आईएएस और निजी क्षेत्र की नौकरियों की तरफ रुझान के अलावा दलितों की नयी पीढ़ी अपरंपरागत कोर्सेज और न्य़ू एज करिअर की तरफ भी आकर्षित हो रही है। इन में कई लोग फिल्म निर्माण, साहित्य, ऐप डिज़ाइन, और बिजनेस तथा स्टार्टअप जैसे क्षेत्रो से भी जुड़े हुए हैं। (6) वे सैराट, काला, मशान और कबाली जैसी सफल फिल्में बना रहे हैं। इस लेख का रचयिता भी दलित समाज से आने वाला एक युवा साहित्यकार और फिल्म निर्माता है।
इस लेख का मकसद निराशाजनक छवियों को नकारने का नहीं है। वह एक सच्चाई है। परन्तु इसके विपरीत भी एक सच्चाई है जिसको भी सामने लाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि हर दलित बिजनेसमैन बन गया और फरारी में घूम रहा है। लेकिन हर दलित मैला भी नहीं उठा रहा है। सच्चाई इन दो छवियों के बीच कहीं है। बल्कि ये एक काॅलेज है, जिसमें कई तस्वीरें हैं। दलित किसी भी स्टीरियोटाइप में बंधा नहीं है।
सवाल एक समुदाय को एक खास छवि में कैद करने के बारे में है। शायद यही कारण है की जब कोई स्मार्ट दिखने वाला शहरी दलित उच्च जाति के दोस्तों को बता दे या पता चल जाए कि वह दलित है तो पहला सवाल यही दागा जाएगा लेकिन तुम दलित दिखते तो नहीं हो यार।
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आंबेडकर ने क्यों पहना सूट और टाई ?
अम्बेडकर, जो निःस्संदेह देश में पैदा होने वाले सबसे दूरदर्शी नेता हैं, इस तरह की छवियों को खत्म करना चाहते थे और यही कारण है कि उन्होंने अच्छे सूट पहने थे। उनकी तस्वीरें एक सूट पहने बौद्धिक आदमी की छवि को दर्शाती हैं। आत्मविश्वास से लबरेज एक चेहरा, इस विचार को चुनौती देता है कि एक दलित को कैसे दिखना चाहिए।
अंबेडकर की प्रतिमाओं के पीछे भी कई प्रतीक हैं। मानवविज्ञानी निकोलस जौल लिखते हैं, इन मूर्तियों की कई आइकॉनोग्राफिक विशेषताए हैं जैसे कि थ्री पीस सूट, टाई और पेन, उच्च शिक्षा और राज्य.कौशल में अंबेडकर की महत्ता दर्शाता है। उठा हुआ हाथ उनके अथक संघर्ष और एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उनके कद की याद दिलाता है और सविंधान की किताब उनके संविधान ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष के रूप में योगदान को याद करता है।
हर छवि एक मनोवैज्ञानिक प्रतीक का काम करती है। छवि की इस राजनीति को बदलने के लिए दलितों को अपनी अनूठी छवियां और प्रतीक बनाकर इस लड़ाई को लड़ने की जरूरत है। अगर ये हुआ तो यह भी हो सकता है कि अगली बार आप किसी यूरोपियन डेस्टिनेशन में किसी दलित से मिलें तो वह आपकी आंखों में आंखे डाल के मुस्कुरा के कह सकता है मैं दलित हूं और मुझे हर छुट्टियों पर ऐसी जगहों पर पार्टी करना बहुत पसंद है।
- अनुराग वर्मा (लेखक - लव इन द टाइम ऑफ पोकेमॉन अमेजन)





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