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देवभूमि में भगवान भक्तों को लील गयी धर्मांधता

TPSG

Monday, May 6, 2019, 08:11 AM
Uttrakhand

देवभूमि में भगवान भक्तों को लील गयी धर्मांधता
पौराणिक नाम ‘‘देवभूमि’’ जिसकी राजनीतिक पहचान उत्तराखण्ड मे ज्येष्ठ मास के उत्तरार्ध में प्रकृति ने ऐसा कहर बरपाया जिससे भयभीत होकर देवभूमि की चतुर्थधामी शक्तियाँ थर्रा गयीं, उनके हाँथ पाँव फूल गये। वे प्रकृति के प्रकोप को तथा उससे हुई जानमाल की क्षति को रोक पाने में सौ फीसदी असमर्थ एवं अक्षम रही चतुर्थधामी शक्तियो की निशक्तता, अक्षमता और उनका मात्र मूक दर्शक बने रहना तथा प्रकृति का कहर बरपाते जाना उन समस्त दैवीय अथवा ऊँ षक्तियो के अस्तित्व को खारिज करता है तथा जोरदार चुनौती खड़ा करता है कि प्रकृति के आगे किसी की भी नही चलती। प्रकृति नैसर्गिक नियमों से स्वतः संचालित है, स्वतः सचालन प्रक्रिया मे रचना सघर्ष सन्निहित होता है यदि नैसर्गिक नियमो को अवरोधी शक्तियाँ प्रभावित करने लगती है तब रचना संघर्ष की संतुलित तथा स्वतः सचालित प्रक्रिया असंतुलित हो जाती है जिसमे रचना की अपेक्षा क्षरण का परिणाम तथा संघर्ष की अपेक्षा विध्वंश का परिमाण बढ़ जाता है जो प्राणि जगत के लिये घातक सिद्ध होता है जिसे प्रायः प्राकृतिक उलट फेर कह दिया जाता है।
इसी तरह प्राकृतिक उलट फेर देव भूमि में भी हुआ जो पूर्णतया मानव निर्मित प्रकृति अवरोधी शक्ति के रूप में उठाये जा रहे कदमो का परिणाम है। मानव प्रकृति अवरोधी शक्ति के रूप में असंतुलन में वृद्धि करता आ रहा है। यही कारण है कि प्रकृति की विनाशलीला को रोक पाने की न तो देवभूमि में सामथ्र्य है और मानव में।
प्रकृति विरोधी असंतुलित विकास की निरंतरता प्रायः प्राकृतिक विनाशलीला का संवाहक बनती रही है, यही देवभूमि अथवा उत्ताराखण्ड के विनाश का कारण बनती रही है, यही देवभूमि अथवा उत्तराखण्ड के विनाश का कारण भी बनी। ‘‘देवभूमि’’ शब्द हम जानबूझ कर वहाँ की चतुर्थधामी शक्तियों को निशक्तता को उजागर करने के उद्देश्य से उपयोग कर रहे हैं फिर भी धर्म के ठेकेदार शक्तियों का बार-बार महिमामंडल करते हुये धर्मांधता को बढ़ावा दे रहे हैं। सारा देश देवभूमि मे आयी आपदा से वहा हुई जान माल की क्षति से दुखी है परन्तु यह भी सत्य है कि इस आपदा की जिम्मेदार धर्माधता है जो आर्यपंथी व्यवस्था की देन है।
जैसा कि हम जानते हैं कि पहाड़ो की रचना अनेक स्वभाव काली मिट्टी से हुई है, हिमालय पर्वत और उसकी श्रृंखलाओ की रचना भी कड़ी परतदार, राकी चट्टान मिट्टी से हुई है। उस पर भी विकास के नाम पर प्रतिवर्ष करीब 60 लाख पेड़ काटे जा रहे हैं। इस प्रकार जंगलो की अंधाधुंध कटाई से भयानक भूक्षरण हुआ है। बर्फबारी आदि तरह की कड़ाके की ठंड से बचने के लिए अलाव जलाने के लिए लकड़ी काटी गयी। अलाव जलने की जगह मिट्टी कमजोर होती यी जिसने पानी बहाव के समय सुरंग का काम किया पारी सुरग से बहने से मिट्टी कटाव की तीव्रता बढ़ती गयी अलाव नीचे ट्यूबनुमा मिट्टी की पकड़ होती गयी, धसान की गति भी तेज हो गई। पहाड़ों को तोड़कर सुरंगें बनाने की गति से भूक्षरण, कटाव, धसाव में वृद्धि होती गयी। भूक्षरण, कटाव, धंसाव एव कैपसूल विकास का मलवा नदियो मे आकर उनको उथला करता गया।
देवभूमि मे लोग पर्यटन की दृष्टि से कम तीर्थाटन की दृष्टि से अधिक जाते है। देवभूमि की जनसंख्या 2001 के अनुसार 8489349 है। भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग कि.मी. है जिसका जनसंख्या घनत्व 159 है लेकिन यदि जून से दो तीन महीनो के लिए प्रतिवर्ष साढ़े 5 लाख तीर्थयात्री देवभूमि में दबाव बनाने लग जाये तब भी जमीन का धंसाव प्रक्रिया बढ़ जा सकती है। इसके अलावा कैपसूल विकास प्रक्रिया ने ‘‘कोढ़ मे खाज’’ का काम किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जंगलों की असंतुलित कटान, जमीन पहाड़ो की धंसान, मिट्टी का क्षरण तीर्थयात्रियो की अतिरिक्त जन सैलाव का दबाव एव कैपसूल विकास आदि ने प्रकृति के शाश्वत संचालन प्रक्रिया मे अतिवादी रूप से दखलनदाजी कर डाली। देव भूमि मे पूर्णतः आर्यपंथी भूल के परिणाम सबको भोगने पड़ रहे हैं और चतुर्थधामी शक्तियाँ औंधे मुँह पड़ी है।
एक तरफ कहा जाता है कि केदारनाथ, बद्रीनाथ, अमरनाथ आदि ईश्वर घट-घट मे, कण-कण मे, रोम-रोम में वास करते हैं। वे सर्वव्यापी हैं, सर्वत्र विद्यमान है फिर लोग लाखो-लाखो की संख्या में क्यों इधर उधर भटकते फिरते हैं? तीर्थयात्री प्रायः मैदानी क्षेत्रो में जाते हैं। जिनको पहाड़, जंगल, बर्फबारी, पहाड़ो मे चढ़ने उतरने की तथा प्राकृतिक स्वभाव की प्रायः जानकारी नही होती जल बर्फवारी, पहाड़ो मे चढ़ने उतरने की तथा प्राकृतिक स्वभाव की प्रायः जानकारी नहीं होती, फिर बरसात के दिनों में ऐसे स्थानों की तीर्थयात्राये क्यो की जाती हैं? जहाँ जोखिम ही जोखिम होता है। स्पष्ट है कि ईश्वर की सर्वत्र एव सर्वव्यापकता के कथनो के विरुद्ध तीर्थयात्रायें की जाती है जिनका उद्देष्य तीर्थयात्रा नहीं अपितु तीर्थ व्यापार हो सकता है तथा आर्यपंथी व्यवस्था को मजबूत करने वाला उपक्रम हो सकता है।
तीर्थयात्रा की अपेक्षा तीर्थव्यापार कैसे? तीर्थ व्यापार ऐसे कि देवभूमि अथवा उसके आने जाने वाले तीर्थयात्री शायद ही कोई बी.पी.एल. परिवार से आता है वर्ना 99 प्रतिशत अच्छे खासे व्यापार, उद्योग, बड़े नौकरशाह, राजनेता आदि जाते हैं जिनके पास धन का अभाव नहीं होता, क्वार से वैशाख मास तक कमाई करने के बाद वर्षा के दिनों में (लीन सीजन में) कमाई/ठगाई का कुछ हिस्सा देव भूमि मे चतुर्थधामी शक्तियांे मे पंडा, पुजारी आदि के रूप में बैठे ठगो को दान के बहाने दे आते हैं इससे उनके जायज-नाजायज कारोबार को फलने-फूलने का आर्शीवाद मिल जाता है और आशीर्वाद दाता की जेब गर्म हो जाती है। दानदाता और दानपाता दोनों इसी प्रकार एक दूसरे की मदद के लिए वचनबद्धता का नवीनीकरण करते जाते हैं। इसके अलावा कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बड़े जमीनपति होते हैं, वैशाख में फसल पैदाकर चल पड़ते हैं देवभूमि की ओर। देवभूमि जाने वाले प्रायः आर्यपंथी व्यवस्था को मजबूत करने वाले असमानता, आसंतुलन, असत्य, अपमान को समाज मे कयम रखने वाले लोग ही होते हैं। ठगों-ठगों का जमावड़ा होता है जो एक दूसरे को क्षमतानुसार ठगते हैं। ये सब धर्मांधता रोगी होते हैं। इस तरह की रोगग्रसता के षिकार देवभूमि में आने वाले तो हैं ही, वहां बसने वाले भी ‘‘राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था’’ से सचालित और नियंत्रित होते हैं जिसके विरुद्ध आवाज उठाना मौत को गले लगाना हो सकता है।
‘‘राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था‘‘ द्वारा फैलायी जा रही धर्मांन्धता जानमाल की क्षति की परवाह नही करती, वह दिन रात प्रचार करती है कि जो जैसे बचा वह ईश्वर की कृपा से। वह यह कभी नही कहती कि ईश्वरीय निशक्तता के कारण जानमाल का नुकसान भारी तादात मे हुआ।
15-16 जून को प्राकृतिक आपदा से दस हजार से अधिक तीर्थयात्रियो की मौत हो गयी। जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 11000 लो लापता हैं। यानी उनकी लाशें जल बहाव मे कहीं मलवे मे दब गयी होंगी। 2013 के तीर्थाटन के समय मची अफरा-तफरी मे तथा शासकीय विभागो की उपेक्षात्मक समन्वयहीनता के कारण आने वालों की संख्या ठीक-ठीक नहीं आंकी जा सकी। लेकिन 2012 में केदारनाथ में 5.75 लाख तीर्थयात्री पहुंचे थे तथा बद्रीनाथ में 5.95 लाख तीर्थयात्री पहुंचे थे। दोनों को जोड़कर तीर्थयात्रियों की संख्या 11.70 लाख जिसका औसत 5.85 लाख होती है। अर्थात् 2012 मे 5.852 लाख तीर्थयात्री देवभूमि पहुंचे थे इसका मतलब 2013 में भी करीब 6 लाख तीर्थयात्री पहुंचे होंगे। 2013 मे प्रतिदिन करीब 35 हजार तीर्थयात्री केदारनाथ पहुंचने की बात केदारनाथ के सूत्रों से मालुम हुई। 1-16 जून तक 16 दिन 35000 ग16=560000 तीर्थयात्री पहुंचने का हिसाब मिलता है। इसमें आधे 280000 तीर्थयात्री यदि वापस भी आ गये तब भी 28000 तीर्थयात्री देवभूमि में फंसे रहे जिनमें से 108253 तीर्थयात्रियो को सुरक्षित निकाल लिया गया है। शेष बचे 171741 तीर्थयात्रियों मंे यदि 11000 लापता लोगों को कम कर दिया जाये तब भी 160741 तीर्थयात्री सरकारी, गैर सरकारी सगठनों और मीडिया की आंकड़ेबाजी से लापता है जिसका जवाब दे पाने की क्षमता एव दम न उत्तराखण्ड की सरकार में है न देवभूमि की चतुर्थधामी शक्तियों में और न अन्य आर्यपन्थी व्यवस्था को मजबूत करने वाली शक्तियों में। करीब पौने दो लाख तीर्थ यात्रियो की वास्तविकता कौन बतायेगा?
दूसरी तरफ देवभूमि अथवा उत्तराखण्ड जिसका गठन छत्तीसगढ़ झारखण्ड के साथ ही आनन फानन 9 नवम्बर 2000 को हुआ था, में 13 जिला हैं जहाँ 75 प्रतिशत जनसंख्या गांव मे तथा 25 प्रतिशत शहरो में आबाद है। प्राकृतिक आपदा से समस्त 13 जिले कमोवेश प्रभावित हुये हैं। चमौली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी जिनकी कुल आबादी 1355100 है ज्यादा प्रभावित हुई है। प्राकृतिक प्रलय के समय गांव के गांव (महिला, पुरुष, बच्चे, मवेशी सहित) वह गये। 4200 गांवो का सम्पर्क टूट गया। 1400 गांव पूरी तरह से अलग थलग पड़ गये जहाँ लाखो की संख्या में लोग भोजन, पानी, चिकित्सा के बिना मौत के बीच झूल रहे हैं।
कुल मिलाकर हजारों लोग, हजारों मवेशी मरे, हजारों लोग लापता, करोड़ो का नुकसान देवभूमि मे हुआ जिसकी जिम्मेदारी धर्मांन्धता के हिस्से में आती है। क्योंकि धर्मांन्धता तीर्थव्यापार को प्रोत्साहित करती है। इसलिये ‘शुभ लाभ’ कमाने वाले लोग बिना दायें-बायें, ऊपर-नीचे देखे भागे चले आते हैं, क्यो न भागे चले आयें? देवभूमि को 25000 करोड़ की प्रतिवर्ष बिना लागत पूंजी के शुद्ध लाभ मिलता है। देवभूमि में चतुर्थधामी शक्तियों के नाम पर निजारत करने वाले 600000 लोग जुड़े हैं। बेशक इनमें बहुतों की रोजी रोटी जुड़ी है जो कमरतोड़ मेहनत करते हैं, मेहनत के एवज मंे मेहताना पाते हैं जैसे 12000 से अधिक तीर्थयात्रियों का पालकी (कंडी) पर तथा घोड़ों, खच्चरो पर ढोने वाले और हजारों की संख्या मे खोंचा लगाने वाले, नीबू, खीरा बेचने वाले इसके साथ ही 1000 से अधिक महिला समूह (करीब 10 हजार से अधिक महिलाएं) तीर्थयात्रियो के लिये फूल-माला, प्रसाद आदि बेचने वाले बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो बैठे-बैठे ठगाई करते हैं। जैसे 2000 से अधिक पंडा, पुजारी, 2500 से अधिक चमौली, रूद्रप्रयाग, उत्तरकाशी पिथौरागढ़ आदि के उद्वोगों के माध्यम से देवभूमि की जरूरतों को पूरा करने वाले तथा 20 हजार से अधिक होटल, लाज, धर्मषालाओ आदि में एक लाख से अधिक जुड़े लोग और 12 हजार से अधिक टैक्सी, कैब, कार, जीप, बस मालिक आदि तीर्थव्यापार से जुड़े रहते हैं। कहने मे तो अच्छा लगता है कि 600000 लोग चतुर्थधामी शक्तियो के नाम पर रोजगार से जुड़े हैं परन्तु इससे धर्मांन्धता को कितना बढ़ावा मिलता है कि मानो देवभूमि में मनोवैज्ञानिक सत्य की हत्या होती रहती है। यह सिलसिला पीढ़ियो से चला आ रहा है आगे भी चलते रहने की संभावना है।
देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक आदि कोई भी समस्या खड़ी हो जाये और इस देश के राजनेता सियासत न करें यह भला कैसे हो सकता है? यही तो आर्यपंथी व्यवस्था की विशेषता है। देवभूमि में जमकर सियासत हो रही है। कितने मरे, कितने बचे, कितने लापता उसमें सियासत। राहत सामग्री पहुंचाने मे चोरी और सियासत। सरकारी तंत्र में षिथिलता से पीड़ित घाटी मंे जल विद्युत निगम 131 करोड़, उर्जा निगम 30 करोड़, पिटकुल 2.5 करोड़, कुल 163.5 करोड़ की क्षति के साथ सचार व्यवस्था में सियासत। उत्तरकाशी, चमौली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ आदि क्षेत्रों में अवरुद्ध 557 सड़कों, 278 खोली गयी सड़कों में सियासत हो रही है।
25 प्रतिशत तक ही राहत पहुंचायी जा सकी 75 प्रतिशत का क्या होगा? चतुर्थधामी शक्तियो में दम नहीं कि कुछ राहत दे सके। घटिया, छिछलेस्तर की सियासत करते हुए उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री जिनका अधिकांश समय मैदानी क्षेत्र में बीता है। प्रायः वह वहां की भौगोलिक संरचना और उसके स्वभाव से अनभिज्ञ विजय बहुगुणा कहते हैं कितने मरे उनकी गिनती करना असंभव है’’। वे आगे भी कहते हैं कि ‘विकास को रोका नहीं जा सकता।’’ भले ही प्राकृतिक आपदायें आती रहें। मुख्यमंत्री जी को धन्यवाद इस तरह के घटिया और छिछले व्यवहार के लिये तथा पीड़ितों का मजाक उड़ाने के लिये। गुजरात मे 2002 का जन संहार का नरभक्षी शेर कहता है कि ‘‘केदारनाथ मंदिर निर्माण का काम गुजरात को सौंप दें।’’ कोई कहता है’’ जो कुछ हुआ भूल जाओ पीड़ितों। मैं जो भी भांग, धतूरा बाट रहा हूँ उसे सहर्ष स्वीकार करो।’’ पीड़ित कह रहे हैं ‘‘मैं जहा भी हूँ जैसा हूँ बना रहने दो।‘‘ इसी सियासत के बीच सेना के जवानो ने जान देकर दिन रात लगे रहकर असंभव को संभव कर दिखाया मूक बने रहकर। वही सियासतदारों ने श्रेय हड़पने के चक्कर मे एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं जो सड़ी लाशोें आ रही दुर्गन्ध से भी अधिक दुर्गन्धकारी हरकते हैं।
यदि सियासतदार लाशों पर सियासत कर रहे हैं तो धर्मांवतारी कल्पित ईश्वर के एजेन्ट (दलाल) गण भी धर्मांन्धता को बढ़ावा देने वाली व्यापारी सियासत करने मे पीछे नहीं है। मसलन मीडिया से मुखातिब हो रहे शंकराचार्य व उनके अन्य चेले चपाटो को हजारों लोगों के मरने का कोई गम नहीं। वह तो यह भाषण झाड़ने के वक्त जाया करते रहे कि मदिर बच गया जो लोग बच गये वह सब ईश्वर का चमत्कार है उनकी महिमा से ही बचने वाले बचे। इसका मतलब यह भी होता है कि ईश्वर की ही महिमा से मरने वाले, नष्ट होने वाले, मरे व नष्ट हुये। भाषण झाड़ने के समय शकराचार्य की मंद मंद मुस्कान मानो उनकी लक्ष्य प्राप्ति का संदेश दे रही हो। 
इन ईश्वर दलालो को हो गयी जान माल की क्षति का कोई मलाल नहीं, राहत कार्य की कोई फिक्र नही। उन्हें तो सिर्फ चिन्ता पड़ी है मदिर निर्माण की, पूजा अनुष्ठान जल्दी से जल्दी शुरू कर देने की। मदिर की सफाई कर रहे सेना के जवानो के लिये इन दलालों मे एतराज उठाया। बोले मदिर के अंदर की सफाई दलाल स्वयं करेगे। अपवित्रता का वास्ता देकर, जबकि वास्तविकता यह है कि दलालों को भय है कि कही सफाई के नाम पर भगवान का खजाना न नजर आ जाये। कही खजाने की गोपनीयता न भग हो जाये। 
देवभूमि राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था द्वारा सचालित और नियत्रित है इसलिए राज्य पुरोहितवाद की मजबूती के लिये इसके एजेंटो, दलालों के ठेकेदारो को जो भी करना पड़े करने पर आमादा है। इसीलिए एक धार्मिक ट्रस्ट द्वारा मदिर निर्माण (केदारनाथ का) के लिये 5 करोड़ देने की उद्घोषणा की तथा राहत कार्य के लिये सिर्फ 25 लाख देने को कहा ऐसा क्यों? क्योंकि 5 करोड़ लगाने से 25000करोड़ का शुभ लाभ कमाने की आतुरता पहले है। राहत कार्य मे गये धन की वापसी तो होनी नही, सो उसे सरकारे खर्च करें क्योंकि उन्हें वोट की राजनीति करनी है। हम तो ठहरे भगवान के दलाल।
भगवान के दलालों ने लाशो से कई लाख नकदी जेवरात चुराये जिन्हें पुलिस ने भी पकड़ा चोरी करते हुये, उन्हे इतना भी भय नही था कि घट-घट में व्याप्त सर्वव्यापी ईश्वर उनकी चोरी को देख रहा होगा और पापन पुण्य का लेखा जोखा कर रहा होगा? वैसे लावारिश पड़ी सपत्ति से किसी का भला हो जाये यह तो अच्छी बात है लेकिन ईश्वर की नाक के नीचे ये चोरी राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था से जुड़ी बात है जहाँ अन्याय को न्याय, असत्य को सत्य, झूठ को सच सिद्ध करने की महारथ हासिल होती है। 
देवभूमि की सहायता के लिये चारो तरफ से व्यक्तिगत संबंधों द्वारा सहायत भेजी जा रही है, लोग अपनी पगार से सहायतार्थ धन दे रहे हैं। चतुर्थधाम, दान देने के मुद्दे पर क्यों चुप्पी साधे हैं? जबकि यदि वे चाहे तो उनके पास इतनी अकूत संपत्ति का भण्डार जमा है जिससे सिर्फ देवभूमि का ही नही समूचे उत्तराखण्ड का पुनर्निर्माण किया जा सकता है। इनको चाहिये जिन धर्मांन्ध लोगों से उनके भण्डार भरे गये हैं उन्ही पर न्यौछावर कर दें ताकि फिर ठगाई कमाई का सिलसिला जल्दी से शुरू हो सके। वह तो बस यही चाहते हैं कि 2 रुपये का बिस्कुट 50 में और एक गिलास पानी 200 रूपये में बेचा जाता रहे और चतुर्थधामी शक्तियां ऐसा करने वालों का बाल बाका भी न कर सकें।
देवभूमि मे सब कुछ तबाह हो गया, भक्तगण सड़ गये, भगवान गड़ गये मगर उनके दलाल फिर भी अकड़ रहे हैं। प्राकृतिक आपदा ने साबित कर दिया है ईश्वर/भगवान घोटालेबाज हैं, ईश्वर स्थान अय्याशी के अड्डे हैं। अधिकांश भक्त जन भ्रष्टाचारी हैं पुजारी, पण्डा लुटेरे डकैत हैं। राजनेता-नौकरशाह भी ऐसा करने वालों को संरक्षण देते हैं। राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था को मजबूती देकर भारतीय संविधान का, पंथ निरपेक्षताा का, भद्दा मजाक उड़ाया जा रहा है।
राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था इतनी मजबूत है कि देश के प्रथम नागरिक को भी शंकराचार्य के सामने नतमस्तक होना पड़ता है। देष के शीर्षाधिकारी से अपेक्षा की जाती है कि वह पंथनिरपेक्षता का फूहड़ मजाक उड़ाने में शामिल न हो, लेकिन ऐसा कदापि सम्भव नहीं। क्योंकि शीर्षाधिकारी जैसे तमाम व्यक्तित्व राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था का हिस्सा है इसलिए शंकराचार्य के पैरों तले लौटने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं, संविधान की छीछलेदर भले ही होती रहे। राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था देश में असमानता, असंतुलन, असत्य, अन्याय, अपमान को बढ़ावा देनेे वाली व्यवस्था है जिससे देश की सम्प्रभुता को, उसकी अखण्डता की, बर्बादी का हमेशा खतरा बना रहता है। यह ऐसी व्यवस्था है जो समता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व को इंसान के पास फटकने नहीं देती अर्थात डाॅ. अम्बेडकर मार्ग से दूर ले जाने वाली और आर्यपंथी मार्ग पर चलने वाली व्यवस्था का नाम है राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था। देवभूमि उसी का एक हिस्सा है।
वकौल चण्डीप्रसाद भट्ट ‘‘जल धाराओं के नैसर्गिक बहाव तथा सुसुप्तावस्था मे पड़े भूस्खलन क्षेत्र मे छेड़छाड़ करने में अंकुश न लगा तो उत्तरकाशी सहित बड़ा भूभाग जल समाधि ले सकता है। भागीरथी, अलकनंदा, टोंस, यमुना की घाटियो की भी यही हालत हो सकती है।’’
‘‘कैबिनेट सचिव के निर्देष पर 2001 मे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने देश में चोटी की 12 वैज्ञानिक संस्थाओ के सहयोग से उत्तराखण्ड क्षेत्र मे भूगर्भीय गड़बड़ियों को चिन्हित कर उसकी एटलस तैयार की थी देश के शीर्ष 50 वैज्ञानिको द्वारा तैयार एटलस में वरुणावत सहित अन्य स्थानो को भूस्खलन के खतरे को रेखांकित किया गया था फिर भी सो रही सरकार 2003 में वरुणावत तबाही के बाद भी नही जागी।’’
‘‘अंधाधन्ध मानक रहित सड़क, भवन निर्माण, जिनका मलवा नदियों में डाला गया, नदियाँ उथली हो गयीं। 1978 में भागीरथी का 8 घंटा प्रवाह रोकने वाली कनोडिया गाड हो या इन 35 सालों में असीगंगा, स्वारीगाड, पापड़गाड, पिलंगाड, इन्हीं के उफान के कारण भागीरथी में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हुई। भविष्य मे भी यदि भागीरथी की प्रलयकारी बाढ़ आयी तो अभी की तरह ही प्राकृतिक नहीं मानवकृत आपदा होगी।’’
‘‘तत्कालीन मुख्य सचिव आर.एस. टोलिया ने 14 फरवरी 2004 को सम्बन्धित जिलों के डी.एम. व अन्य अधिकारियों के साथ बैठक करके भविष्य में आपदा की चुनौतियो से निपटने के लिये आवश्यक कदम उठाने की बात कही थी लेकिन उस बैठक की कार्यवाही फाइलों में दब कर रह गयी। 2010 मे उत्तरकाशी में भारी वर्षा से 2012 में असीगंगा व भागीरथी की बाढ़ से कुछ भी सीख नही ली गयी। सीख तो 16-17 जून 2013 से नही ली जायेगी।’’
बकौल आर.एस. टोलिया पूर्व मुख्य सचिव उत्तराखण्ड ‘‘कैलाश मानसरोवर यात्रा में यात्रियों की संख्या तय होती है। अमरनाथ यात्रा में सख्या तय होती है। केदारनाथ तक पैदल रास्ता है, यात्री की फिटनेश जरूरी है, फिर यहाँ क्यों बेहिसाब यात्रियों की संख्या बढ़ने दी जाती है। कुछ समय पहले यह तथ्य सामने आया था कि कावड़िये गोमुख तक पहुंच जाते है। मैदान और पहाड़ की ड्राइविग में बहुत अंतर है। सारा मामला प्रशासनिक क्षमता और क्रियान्वयन का है सस्ती होगी तो सब ठीक हो जायेगा। 
चण्डीप्रसाद भट्ट व आर.एस. टोलिया ने जो कहा वह राज्य पुरोहितवादी व्यवस्था के गले उतरने वाली बात नहीं है उसे तो धर्मांन्धता से शुभ लाभ बरकरार रखना है। देवभूमि मे भगवान भक्तो को लील गयी धर्मांन्धता की पुनरावृत्ति भले ही होती रहे, उनकी व्यवस्था कायम रहनी चाहिये।
- सम्पादक प्रकाशन - कमेरी दुनिया पत्रिका सितम्बर 2013 
बरबाद गुलिस्तां करने को एक ही उल्लू काफी था।
जब हर शाख पे उल्लू बैठा हो, अंजाम गुलिस्तां क्या होगा?
- आर. ए. दिवाकर





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